प्राचीन भारतीय आर्य भाषा : प्राचीन भारतीय आर्य भाषा (Bhasha) को अध्ययन की दृष्टि से दो भागों में विभाजित किया गया है- वैदिक संस्कृत (2000 ई.पू. से 800 ई.पू. तक) और संस्कृत अथवा लौकिक संस्कृत (800 ई.पू. से 500 ई.पू. तक)।
वैदिक संस्कृत
प्राचीन भारतीय आर्य भाषा का प्राचीनतम नमूना वैदिक-साहित्य में दिखाई देता है। वैदिक साहित्य का सृजन वैदिक संस्कृत में हुआ है। वैदिक संस्कृत को वैदिकी, वैदिक, छन्दस, छान्दस् आदि भी कहा जाता है। वैदिक साहित्य को तीन विभागों में वर्गीकृत किया जा सकता है- संहिता, ब्राह्मण, एवं उपनिषद् ।
संहिता
संहिता-विभाग में ‘ऋक् संहिता’, ‘यजुः संहिता’, ‘साम संहिता’ एवं ‘अथर्व संहिता’ आते हैं।
1. ऋक् संहिता – महत्त्व की दृष्टि से प्रधान ‘ऋक् संहिता’ है। ‘ऋक्’ का शाब्दिक अर्थ है स्तुति करना।
ऋग्वेद में 10 मण्डल, 1028 सूक्त एवं 10580 ऋचाएँ हैं।
इसके सूक्त प्रायः यज्ञों के अवसरों पर पढ़ने के लिए देवताओं की स्तुतियों से सम्बन्ध रखने वाले गीतात्मक काव्य हैं।
2. यजुः संहिता – यजुः संहिता में यज्ञों के कर्मकाण्ड में प्रयुक्त मन्त्र पद्य एवं गद्य दोनों रूपों में संगृहीत हैं। यजुः संहिता’, कृष्ण एवं शुक्ल इन दो रूपों में सुरक्षित है। ‘कृष्ण यजुर्वेद संहिता’ में मंत्र भाग एवं गद्यमय व्याख्यात्मक भाग साथ-साथ संकलित किये गये हैं। परन्तु शुक्ल यजुर्वेद संहिता में केवल मन्त्र भाग संगृहीत है।
3. साम संहिता – ‘सामवेद’ में सोम यागों में वीणा के साथ गाये जाने वाले सूक्तों को गेय पदों के रूप में सजाया गया है। सामवेद में केवल 75 मन्त्र ही मौलिक हैं शेष ऋग्वेद से लिए गए हैं। अथर्ववेद संहिता’ जन साधारण में प्रचलित मन्त्र-तन्त्र, टोने-टोटकों का संकलन है।
4. अथर्व संहिता – इसमें हिन्दू धर्म के पवित्रतम वेदों में से चौथे वेद अथर्ववेद की संहिता अर्थात् मन्त्र भाग है। इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहते हैं। इसमें देवताओं की स्तुति के साथ, चिकित्सा, विज्ञान और दर्शन के भी मन्त्र हैं।
ब्राह्मण
ब्राह्मण-भाग में कर्मकाण्ड की व्याख्या की गई है। प्रत्येक संहिता के अपने-अपने ब्राह्मण ग्रंथ हैं। इनमें ऋग्वेद का ‘ऐतरेय ब्राह्मण’, सामवेद का ‘ताण्डव अथवा पंचविंश ब्राह्मण’, शुक्ल यजुर्वेद का ‘शतपथ ब्राह्मण’, कृष्ण यजुर्वेद का तैत्तिरीय-ब्राह्मण’ ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं।
उपनिषद
ब्राह्मण ग्रन्थों के परिशिष्ट या अन्तिम भाग उपनिषदों के नाम से प्रसिद्ध हुए। इनमें वैदिक मनीषियों के आध्यात्मिक एवं पारमार्थिक चिन्तन के दर्शन होते हैं। उपनिषदों की संख्या 108 बताई गई है किन्तु 12 उपनिषद् ही मुख्य हैं-(1) ईश, (2) केन, (3) कठ, (4) प्रश्न, (5) बृहदारण्यक, (6) ऐतरेय, (7) छान्दोग्य, (8) तैत्तरीय, (9) मुण्डक, (10) माण्डूक्य, (11) कौषीतकी, (12) श्वेताश्वेतर उपनिषद् ।
ऋषियों द्वारा निर्मित सूक्त दीर्घकाल तक श्रुति-परम्परा में ऋषि-परिवारों में सुरक्षित रखे जाते रहे। परन्तु शनैः-शनै: बोलचाल की भाषा से सूक्त की भाषा (साहित्यिक भाषा) की भिन्नता बढ़ती गई।
सूक्तों के प्राचीन रूप को सुरक्षित रखने के लिए संहिता के प्रत्येक पद को सन्धि रहित अवस्था में अलग-अलग कर ‘पद-पाठ’ बनाया गया तथा पद। पाठ से संहिता पाठ बनाने के नियम निर्दिष्ट किये गये और इस प्रकार वेद की विभिन्न शाखाओं के ‘प्रतिशाख्यों’ की रचना हुई।
वेद की 1130 शाखाएँ मानी गयी हैं किन्तु वर्तमान में छह प्रातिशाख्य ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं-
- शौनक कृत ऋक्-प्रातिशाख्य,
- कात्यायन कृत शुक्ल-यजु:-प्रातिशाख्य,
- तैत्तिरीय संहिता का तैत्तिरीय-प्रातिशख्य,
- मैत्रायणी-संहिता का मैत्रायणी-प्रातिशाख्य (कृष्ण यजुर्वेद के प्रातिशाख्य),
- सामवेद का पुष्प सूत्र,
- अथर्ववेद का शौनक कृत अथर्व प्रातिशख्य
इन प्रातिशाख्यों में अपनी-अपनी शाखा से सम्बन्धित वर्ण विचार, उच्चारण, पद पाठ आदि पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। ये ग्रन्थ वैदिक काल के सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक ध्वनि विज्ञान के ग्रन्थ हैं।
वैदिक संस्कृत ध्वनियाँ
डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. उदय नारायण तिवारी, डॉ. कपिल देव द्विवेदी प्रभृति विद्वानों ने वैदिक ध्वनियों की संख्या 52 मानी है जिसमें 13 स्वर तथा 39 व्यंजन है। डॉ. हरदेव बाहरी ने वैदिक स्वरों की संख्या 14 मानी है। वैदिक ध्वनियों का वर्गीकरण निम्न ढंग से किया जा सकता हैं-
वैदिक स्वर (संख्या 13)
- मूल स्वर- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लू
- संयुक्त स्वर- ए, ओ, ऐ, औ
वैदिक व्यंजन (संख्या 39)
वैदिक संस्कृत की विशेषताएँ
- वैदिक संस्कृत श्लिष्ट योगात्मक है।
- वैदिक संस्कृत में संगीतात्मक एवं बलात्मक दोनों ही स्वराघात मौजूद है।
- वैदिक संस्कृत में तीन लिंग (पुलिंग, स्त्रीलिंग एवं नपुंसकलिंग), तीन वचन (एकवचन, द्विवचन एवं बहुवचन),
- वैदिक संस्कृत में तीन वाच्य (कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य एवं भाववाच्य)
- वैदिक संस्कृत में आठ विभक्तियों (कर्ता, सम्बोधन, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्ध, अधिकरण) का प्रयोग मिलता है।
- वैदिक संस्कृत में धातुओं के रूप आत्मने एवं परस्मै दो पदों में चलते थे। कुछ एक धातुएँ उभयपदी थीं।
- डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार वैदिक संस्कृत में केवल तत्पुरुष, कर्मधारय, बहुब्रीहि एवं द्वन्द्व ये चार ही समास मिलते हैं।
- वैदिक संस्कृत में काल एवं भाव (क्रियार्थ) मिलाकर क्रिया के 10 प्रकार के रूपों का प्रयोग मिलता है।
- चार-काल-(1) लोट् (आज्ञा), (2) लिट् (परोक्ष या सम्पन्न), (3) लङ् (अनद्यतन या सम्पन्न), (4) लुङ् (सामान्य भूत)।
- छह भाव-(1) लोट् (आज्ञा), (2) विधि लिङ् (सम्भावनार्थ), (3) आशीलिङ (इच्छार्थ), (4) लुङ् (हेतुहेतु समुद्भाव या निर्देश), (5) लेट (अभिप्राय), और (6) लेङ् (निर्बन्ध)।
- क्रिया के 10 काल और भाव भेद को ही लकार कहते हैं।
- वैदिक संस्कृत में विकरण की भिन्नता के अनुसार धातुओं को 10 गणों में विभिक्त किया गया था जो निम्न है- भ्वादिगण, अदादिगण, ह्वादिगण (जुहोत्यादि), दिवादिगण, स्वादिगण, तुदादिगण, तनादिगण, रूधादिगण, क्रयादिगण, चुरादिगण।
लौकिक संस्कृत
लौकिक संस्कृत ‘प्राचीन-भारतीय-आर्य-भाषा’ का वह रूप जिसका पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ में विवेचन किया गया है, वह ‘लौकिक संस्कृत‘ कहलाता है। संस्कृत में 48 ध्वनियाँ ही शेष रह गई। वैदिक संस्कृत की 4 ध्वनियाँ ळ, ळह, जिह्वमूलीय और उपध्मानीय के लुप्त होने से लौकिक संस्कृत की 48 ध्वनियाँ शेष बच गयी।
लौकिक संस्कृत साहित्य में निम्न को सम्मिलित किया जाता है-
- वेदांग
- रामायण
- महाभारत
- नाटक
- काव्य
- कथा साहित्य
- आयुर्वेद
- वैज्ञानिक साहित्य
वेदांग
वेदांग हिन्दू धर्म ग्रन्थ हैं। वेद का अर्थ ज्ञान में सहायक शास्त्र को ही वेदांग कहा जाता है। संख्या में कुल छः वेदांग हैं- शिक्षा वेदांग, कल्प वेदांग, व्याकरण वेदांग, ज्योतिष वेदांग, छन्द वेदांग, निरूक्त वेदांग।
- शिक्षा वेदांग
- कल्प वेदांग
- व्याकरण वेदांग
- ज्योतिष वेदांग
- छन्द वेदांग
- निरूक्त वेदांग
रामायण
रामायण “वाल्मीकि” द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य है। रामायण को आदिकाव्य तथा इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि को ‘आदिकवि‘ कहा जाता है। रामायण को चतुर्विंशति संहिता कहते हैं, क्यूंकि इसमें 23,440 संस्कृत श्लोक है, जो कि 24,000 के करीब है।
रामायण में सात काण्ड हैं – बालकाण्ड, अयोध्यकाण्ड, अरण्यकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, लङ्काकाण्ड और उत्तरकाण्ड।
- बालकाण्ड
- अयोध्यकाण्ड
- अरण्यकाण्ड
- सुन्दरकाण्ड
- किष्किन्धाकाण्ड
- लङ्काकाण्ड
- उत्तरकाण्ड
मान्यतानुसार रामायण के पात्रों का समय त्रेतायुग का माना जाता है। श्रीरामचंद्र जी का काल लगभग पौने दो करोड़ वर्ष पूर्व का है। इसके सन्दर्भ में विचार पीयूष, भुशुण्डि रामायण, पद्मपुराण, हरिवंश पुराण, वायु पुराण, संजीवनी रामायण एवं पुराणों से प्रमाण दिया जाता है। विद्वान रामायण का संकलनकाल 600 ईसा पूर्व के आसपास मानते हैं।
महाभारत
वेदव्यास रचित महाकाव्य महाभारत में संस्कृत श्लोकों की संख्या लगभग 110,000 हैं, इसीलिए इसे शतसाहस्त्री संहिता कहते हैं। महाभारत को लगभग तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व या तीसरी शताब्दी के बीच संकलित किया गया था, जिसमें सबसे पुराने संरक्षित भाग 400 ईसा पूर्व के आसपास के माने जाते हैं। महाकाव्य से संबंधित मूल घटनाएँ संभवतः 9वीं और 8वीं शताब्दी ईसा पूर्व के बीच की हैं।
नाटक
नाट्य शब्द ‘नट्‘ धातु से बना हैं, जिसका अर्थ होता है- गिरना/नाचना। कला का उत्कृष्ट रूप काव्य है, और उत्कृष्टतम रूप नाटक है। भरतमुनि का ‘नाटय-शास्त्र‘ सबसे प्राचीन ग्रन्थ है, जो अपनी विचारों के साथ साथ व्यापक विषयगत समग्रता से परिपूर्ण है। भारतीय नाट्य कला पर विचार करते समय नाट्यशास्त्र सदा आगे आ जाता है। यह महान ग्रन्थ नाट्यकला के अतिरिक्त काव्य, संगीत, नृत्य, शिल्प तथा अन्य ललित कलाओं का भी विषयगत कोष है।
आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय में नाटक को “पंचम वेद” की संज्ञा दी-
न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला।
न स योगो न तत्कर्म नाट्ऽयेस्मिन् यन्न दृष्यते॥
विस्तार से पढ़ें: नाटक और ‘नाटय-शास्त्र‘ के बारे में।
काव्य
जिस समय छापेखाने का आविष्कार नहीं हुआ था और दस्तावेज़ों की अनेक प्रतियां बनाना आसान नहीं था। उस समय महत्वपूर्ण बातों को याद रखना ही सर्वोत्तम साधन था। यही कारण है कि उस समय साहित्य के साथ साथ राजनीति, विज्ञान और आयुर्वेद को भी पद्य (कविता) में ही लिखा गया। भारत की प्राचीनतम कविताएं संस्कृत भाषा में ऋग्वेद में हैं, जिनमें प्रकृति की प्रशस्ति में लिखे गए छंदों का सुंदर संकलन हैं। जीवन के अनेक अन्य विषयों को भी इन कविताओं में स्थान मिला है।
उत्तर वैदिक काल में “कविता या काव्य क्या है?” इस विषय में भारतीय साहित्य में आलोचकों की बड़ी समृद्ध परंपरा है- आचार्य विश्वनाथ, पंडितराज जगन्नाथ, पंडित अंबिकादत्त व्यास, आचार्य श्रीपति, भामह आदि संस्कृत के विद्वानों से लेकर आधुनिक आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा जयशंकर प्रसाद जैसे प्रबुद्ध कवियों और आधुनिक युग की मीरा महादेवी वर्मा ने कविता का स्वरूप स्पष्ट करते हुए अपने अपने मत व्यक्त किए हैं।
विद्वानों का विचार है कि मानव हृदय अनन्त रूपतामक जगत के नाना रूपों, व्यापारों में भटकता रहता है, लेकिन जब मानव अहं की भावना का परित्याग करके विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं।
आचार्य मम्मट या मम्मटाचार्य ने “काव्यप्रकाश” में जिन प्राथमिक साहित्यकारों का वर्णन किया हैं, उनमें- मयूरभट्ट, वामन, भामह, विश्वनाथ तथा कुंतक आदि आते हैं। इसमें किसी भी लेखक को काव्य (कविता) का जनक नहीं बताया गया है। अतः यह निश्चित नहीं है कि काव्य के जनक थे कौन। परंतु इसका प्रारंभ भरतमुनि से समझा जा सकता है।
पढ़ें – काव्य क्या है?
कथा साहित्य
संस्कृत भाषा में निबद्ध कथाओं का प्रचुर साहित्य है। कथासाहित्य से संबद्ध ग्रंथों के आलोचन से स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृत साहित्य में तीनों प्रकार की कहानियों के उदाहरण मिलते हैं-
- परियों की कहानियाँ (फ़ेअरी टेल्स)
- जंतुकथाएँ (फ़ेबुल्स)
- उपदेशमयी कहानियाँ (डायडेक्टिक टेल्स)
कथासाहित्य के प्रमुख ग्रंथ इस प्रकार हैं :
- पंचतंत्र
- हितोपदेश
- बृहत्कथा
- बैतालपचीसी / वेताल पंचविंशति
- सिंहासनबतीसी/ विक्रमचरित / सिंहासन द्वात्रिंशिका
- शुकसप्तति
- भरटक द्वात्रिंशिका
- कथारत्नाकार
आयुर्वेद
आयुर्वेद एक वैकल्पिक चिकित्सा प्रणाली है जिसकी जड़ें भारतीय उपमहाद्वीप में हैं। भारत, नेपाल और श्रीलंका में आयुर्वेद का अत्यधिक प्रचलन है, जहाँ लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या इसका उपयोग करती है। आयुर्वेद विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है।
आयुर्वेद के आचार्य:- अश्विनीकुमार (आदि आचार्य), धन्वंतरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त्य, अत्रि तथा उनके छः शिष्य (अग्निवेश, भेड़, जतुकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत), सुश्रुत और चरक।
वैज्ञानिक साहित्य
भारत में वैज्ञानिक विषयों पर लेखन की बहुत प्राचीन परम्परा रही है। गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, स्थापत्य, व्याकरण आदि पर अनेकानेक ग्रन्थ रचे गये। इन ग्रन्थों में पुराने ग्रन्थों या उनके रचनाकारों का नामोल्लेख करने की परम्परा थी। ग्रन्थों के भाष्य भी लिखे जाते थे क्योंकि मूल ग्रन्थ संक्षिप्त या सूत्ररूप में होते थे। इसके साथ ही ग्रन्थों को लिखते समय विषय को वैज्ञानिक ढंग से अभिव्यत करने की विधियों पर भी गहन चिन्तन हुआ है।