Arya Bhasha – भारतीय आर्य भाषा क्या है? आर्य भाषाओं का वर्गीकरण

Arya Bhasha

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भारतीय आर्य भाषा क्या है?

हिन्दी का इतिहास वस्तुत: वैदिक काल से प्रारंभ होता है। उससे पहले भारतीय आर्यभाषा का स्वरूप क्या था इसका कोई लिखित प्रमाण नहीं मिलता। साथ ही भारत में आर्यों का आगमन किस काल से हुआ इसका भी कोई प्रमाण नहीं मिलता। साधारणतया यह माना जाता है कि 2000 से 1500 ई. पूर्व भारत के उत्तर पश्चिम सीमांत प्रदेश में आर्यों के दल आने लगे।

यहीं पहले से बसी हुई अनार्य जातियों को परास्त कर आर्यों ने सप्त सिंधु, जिसे हम आधुनिक पंजाब के नाम से जानते हैं, देश में आधिपत्य स्थापित कर लिया। यहीं से वे धीरे-धीरे पूर्व की ओर बढ़ते गए और मध्यदेश, काशी, कोशल, मगध, विदेह, अंग, बंग तथा कामरूप में स्थानीय अनार्य जातियों को पराभूत करके उन्होंने वहाँ अपना राज्य स्थापित कर लिया।

सुविकसित भाषा एवं यज्ञ परायण संस्कृति

इस प्रकार समस्त उत्तरापथ में अपना राज्य स्थापित करने के बाद आर्य संस्कृति दक्षिणापथ की ओर अग्रसरित हुई और युनानी राजदूत मेगास्थनीज के भारत आने तक आर्य संस्कृति सुदूर दक्षिण में फैल चुकी थी। आर्यों की विजय केवल राजनीतिक विजय मात्र नहीं थी। वे अपने साथ सुविकसित भाषा एवं यज्ञ परायण संस्कृति भी लाए थे। उनकी भाषा एवं संस्कृति भारत में प्रसार पाने लगी, किन्तु स्थानीय अनार्य जातियों का प्रभाव भी उस पर पड़ने लगा।

मोहन जोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाइयों से सिन्धु घाटी की जो सभ्यता प्रकाश में आई है, उससे स्पष्ट है कि यायावर पशुपालक आर्यों के आगमन से पूर्व सिन्धु घाटी सभ्यता का बहुत अधिक विकास हो चुका था।

अत: यह सम्भव है आर्यों की भाषा, संस्कृति एवं धार्मिक विचारों पर अनार्य जाति की संस्कृति एवं संपर्क का पर्याप्त प्रभाव पड़ा होगा। अनार्य जातियों के योगदान के कथन से तात्पर्य यह नहीं है कि हिन्दी अथवा प्राकृतों में जो कुछ है वह आर्यों की ही भाषाओं से लिया गया है अथवा आर्यों की सारी संपत्ति प्राकृतों और हिंदी को प्राप्त हो गयी।

यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि युग-युग की भाषा में यहाँ तक कि वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत में भी बहुत से अनार्य तत्व सम्मिलित थे।

अनार्य जातियाँ एवं प्रसार क्षेत्र

भारत में तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक अनार्य जातियाँ रहती थीं जिनमें निग्राटु, किरात, ऑस्ट्रिक या निषाद तथा द्रविड़(दस्यु) का प्रसार बहुत व्यापक था। निग्रोटु अनार्य जाति का आगमन अफ्रिका से अवश्य हुआ किन्तु वे समुद्री तट के आस-पास के क्षेत्रों में रहे और वहीं से दक्षिण पूर्वी द्वीपों की ओर निकल गए।

मध्यदेश के लोगों से आर्यों का संपर्क नहीं हो पाया। वैदिक साहित्य में इनका कोई प्रमाण नहीं मिलता। किरात पहाड़ी लोग थे जिनके वंशज आज भी हिमालय प्रदेश के पश्चिम से पूर्व तक फैले हुए हैं। इन लोगों का आर्यों के साथ संपर्क हुआ।

फलस्वरूप इनके बीच संस्कृतियों और भाषाओं का आदान-प्रदान भी हुआ। यक्ष, गन्धर्व, सिद्ध और किन्नर आदि पहाड़ी जातियों की संस्कृति परवर्ती आर्य साहित्य में भरपूर मिलती है। इन्हीं के देवताओं, इनकी पूजा विधि, विश्वासों अन्धविश्वासों के साथ-साथ, मणियों, पर्वतीय फल-फूलों, पशु-पक्षी, उपजों के नाम इन जातियों से ग्रहण किए गए। आग्नेय या निषाद जातियाँ पंजाब के पूर्व में बसी थीं।

इनकी संस्कृति ग्रामीण थी और कृषि इनका प्रधान कर्म था। आर्यों ने इन्हीं से कृषि कर्म सीखा और उस कर्म में प्रगति की। क्योंकि अधिकांश आर्य जातियाँ मध्य एशिया के पहाड़ी प्रदेश में रहती आ रही थीं। नावें चलाना और मछली पकड़ना भी इन निषाद जातियों का प्रमुख व्यवसाय था। हाथी पालने और साधने में ये निपुण थे। भारतीय इतिहास आर्य ‘अरब’ अपेक्षा आग्नेय ‘हाथी’ का जो इतना अधिक महत्व रहा उसका भी यही कारण है।

वर्तमान समय में भी राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, बंगाल, ओड़िशा, असम और उत्तरप्रदेश के पहाड़ी इलाकों में मुंडा, सांथाल, कोल, हो , शबर, खासी, मानख्मेर कुंकू, भूमिज आदि अनेक आदिम जातियाँ; फैली हुई हैं जिसकी भाषा, बोली और शब्दावली का तलदेश की बोली से सीधा संपर्क रहा। द्रविड़ कुल की जातियाँ सांस्कृतिक दृष्टि से सबसे अधिक उन्नत रहीं।

आर्यों का प्रसार

फलस्वरूप भारत में  आर्यों का प्रसार सरलतया संपन्न नहीं हुआ। उनको अनेक प्राकृतिक एवं मनुष्य कृत बाधाओं एवं विरोधों का सामना करना पड़ा। मोहन जोदड़ो, हड़प्पा आदि की खुदाइयों और बलोचिस्तान में प्राप्त ब्राहुई नाम की द्रविड़ भाषा के अवशेषों को देखकर इतिहासकारों का यह निश्चित मत है कि सिन्धु सौविर आदि प्रदेशों में द्रविड़ जातियों का प्राबल्य था, जिनसे आर्यों को कठिन संघर्ष करना पड़ा।

प्रसार के इस कार्य में अनेक शताब्दियाँ लग गई, इस काल क्रम में भाषा भी स्थिर नहीं रह सकी, उसके रूप में परिवर्तन विवर्तन होता गया। जैसे भारतीय आर्य भाषा में ट्वर्गीय ध्वनियाँ अनुकरणात्मक शब्दावली, प्रत्ययों, कर्मवाच्य में अतिरिक्त क्रिया, वाक्य योजना के कुछ तत्व द्रविड़ से आए हैं।

इस प्रकार इन द्रविड़ संस्कृति, जाति-जनजातियों की संस्कृतियों के अलावा समय-समय पर शक, हूण, मंगोल, तुर्क, चीनी, अरब, शान आदि अनेक जातियाँ यहाँ आईं और यहाँ की सभ्यता और संस्कृति में घुलमिल गईं। इन सबने भारतीय भाषाओं (हिंदी) के निर्माण और विकास में अपना योगदान दिया।

भारतीय आर्य भाषाओं का वर्गीकरण

विकास क्रम की दृष्टि से भारतीय आर्य भाषा को तीन कालों में विभाजित किया गया है। भारतीय आर्य भाषा समूह को काल-क्रम की दृष्टि से निम्न भागों में बांटा (वर्गीकृत किया) गया है –

  1. प्राचीन भारतीय आर्य भाषा (2000 ई.पू. से 500 ई.पू. तक)
    1. वैदिक संस्कृत (2000 ई.पू. से 800 ई.पू. तक)
    2. संस्कृत अथवा लौकिक संस्कृत (800 ई.पू. से 500 ई.पू. तक)
  2. मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा (500 ई.पू. से 1000 ई. तक) यद्यपि इससे पहले भी प्राकृतें थी।
    1. पालि (500 ई.पू. से 1 ई. तक)
    2. प्राकृत (1 ई. से 500 ई. तक)
    3. अपभ्रंश (500 ई. से 1000 ई. तक)
  3. आधुनिक भारतीय आर्यभाषा(1000 ई. से अब तक) (हिंदी और हिंदीतर बंगला, गुजराती, मराठी, सिंधी, पंजाबी आदि।)

1. प्राचीन भारतीय आर्य भाषा

प्राचीन भारतीय आर्य भाषा को अध्ययन की दृष्टि से दो भागों में विभाजित किया गया है- वैदिक संस्कृत (2000 ई.पू. से 800 ई.पू. तक) संस्कृत अथवा लौकिक संस्कृत (800 ई.पू. से 500 ई.पू. तक)।

वैदिक संस्कृत

प्राचीन भारतीय आर्य भाषा का प्राचीनतम नमूना वैदिक-साहित्य में दिखाई देता है। वैदिक साहित्य का सृजन वैदिक संस्कृत में हुआ है। वैदिक संस्कृत को वैदिकी, वैदिक, छन्दस, छान्दस् आदि भी कहा जाता है। वैदिक साहित्य को तीन विभागों में वर्गीकृत किया जा सकता है- संहिता, ब्राह्मण, एवं उपनिषद् ।

डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. उदय नारायण तिवारी, डॉ. कपिल देव द्विवेदी प्रभृति विद्वानों ने वैदिक ध्वनियों की संख्या 52 मानी है जिसमें 13 स्वर तथा 39 व्यंजन है। डॉ. हरदेव बाहरी ने वैदिक स्वरों की संख्या 14 मानी है।

लौकिक संस्कृत (संस्कृत)

लौकिक संस्कृत ‘प्राचीन-भारतीय-आर्य-भाषा’ का वह रूप जिसका पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ में विवेचन किया गया है, वह ‘लौकिक संस्कृत‘ कहलाता है। संस्कृत में 48 ध्वनियाँ ही शेष रह गई। वैदिक संस्कृत की 4 ध्वनियाँ ळ, ळह, जिह्वमूलीय और उपध्मानीय के लुप्त होने से लौकिक संस्कृत की 48 ध्वनियाँ शेष बच गयी।

2. मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा

मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा को अध्ययन की दृष्टि से तीन भागों में विभाजित/वर्गीकरण किया गया है- पालि (500 ई.पू. से 1 ई. तक), प्राकृत (1 ई. से 500 ई. तक), अपभ्रंश (500 ई. से 1000 ई. तक)।

पालि

‘पालि’ का अर्थ ‘बुद्ध वचन’ (पा रक्खतीति बुद्धवचनं इति पालि) होने से यह शब्द केवल मूल त्रिपिटक ग्रन्थों के लिए प्रयुक्त हुआ। पालि में ही त्रिपिटक ग्रन्थों की रचना हुई । त्रिपिटकों की संख्या तीन है- (1) सुत्त पिटक (2) विनय पिटक एवं (3) अभिधम्म पिटक

बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से सम्राट अशोक के पुत्र कुमार महेन्द्र त्रिपिटकों के साथ लंका गए। वहाँ लंका नरेश ‘वट्टगामनी’ (ई. पू. 291) के संरक्षण में थेरवाद का त्रिपिटक (बुद्ध के उपदेशों का संग्रह) लिपिबद्ध हुआ। ‘पालि’ भारत की प्रथम ‘देश भाषा’ है।

प्राकृत

मध्यकालीन आर्यभाषा को ‘प्राकृत’ भी कहा गया है। ‘प्राकृत’ की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में दो मत प्रचलित हैं जो निम्न हैं-

1. प्राकृत प्राचीनतम प्रचलित जनभाषा है। नमि साधु ने इसका निर्वचन करते हुए लिखा है-

‘प्राक् पूर्व कृतं प्राकृत’

अर्थात् प्राक् कृत शब्द से इसका निर्माण हुआ है जिसका अर्थ है पहले की बनी हुई। जो भाषा मूल से चली आ रही है उसका नाम ‘प्राकृत’ है (नाम प्रकृतेः आगतं प्राकृतम्) ।

2. नामि साधु ने ‘काव्यालंकार‘ की टीका में लिखा है-

  प्राकृतेति सकल-जगज्जन्तूनां व्याकरणादि मिरनाहत संस्कार: सहजो वचन व्यापारः प्रकृति: प्रकृति तत्र भवः सेव वा प्राकृतम्’

अर्थात सकल जगत् के जन्तुओं (प्राणियों) के व्याकरण आदि संस्कारों से रहित सहजवचन व्यापार को प्रकृति कहते हैं। उससे उत्पन्न अथवा वही प्राकृत है।

वाक्पतिराज ने ‘गउडबहो‘ में लिखा है-

सयलाओ इमं वाया विसंति एत्तो यणेति वायाओ।।
एंति समुद्धं चिह णेति सायराओ च्चिय जलाई ।।”

अर्थात्– जिस प्रकार जल सागर में प्रवेश करता है और वही से निकलता है, उसी प्रकार समस्त भाषाएँ प्राकृत में ही प्रवेश करती हैं और प्राकृत से ही निकलती हैं।

अपभ्रंश

‘अप्रभ्रंश’ मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच की कड़ी है। इसीलिए विद्वानों ने अपभ्रंश’ को एक सन्धिकालीन भाषा कहा है।

भर्तृहरि के ‘वाक्यपदीयम्’ के अनुसार सर्वप्रथम व्याडि ने संस्कृत के मानक शब्दों से भिन्न संस्कारच्युत, भ्रष्ट और अशुद्ध शब्दों को ‘अपभ्रंश’ की संज्ञा दी। भर्तृहरि ने लिखा है-

“शब्दसंस्कारहीनो यो गौरिति प्रयुयुक्षते।
तमपभ्रंश मिच्छन्ति विशिष्टार्थ निवेशिनम्॥”

व्याडि की पुस्तक का नाम ‘लक्षश्लोकात्मक-संग्रह‘ था जो दुर्भाग्य-वश अनुपलब्ध है।

अपभ्रंश‘ शब्द का सर्वप्रथम प्रामाणिक प्रयोग पतंजलि के ‘महाभाष्य‘ में मिलता है। महाभाष्यकार ने ‘अपभ्रंश’ का प्रयोग अपशब्द’ के समानार्थक रूप में किया है-

“भयां सोऽपशब्दाः अल्पीयांसाः शब्दा: इति।
एकैकस्य हि शब्दस्य बहवोऽप्रभंशाः ।।”

अपभ्रंश‘ के सबसे प्राचीन उदाहरण भरतमुनि के नाट्य-शास्त्र’ में मिलते हैं, जिसमें ‘अपभ्रंश’ को ‘विभ्रष्ट’ कहा गया है।

डॉ. भोलानाथ तिवारी और डॉ. उदयनारायण तिवारी के अनुसार, भाषा के अर्थ में ‘अपभ्रंश’ शब्द का प्रथम प्रयोग-चण्ड (6वीं शताब्दी) ने अपने प्राक्रत-लक्षण’ ग्रन्थ में किया है। (न लोपोऽभंशेऽधो रेफस्य)।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, ‘अपभ्रंश’ नाम पहले पहल बलभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है जिसमें उसने अपने पिता गुहसेन (वि. सं. 650 के पहले) को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का कवि कहा है।

भामह ने ‘काव्यालंकार‘ में अपभ्रंश को संस्कृत और प्राकृत के साथ एक काव्योपयोगी भाषा के रूप में वर्णित किया है-

“संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रंश इति त्रिधा।”

  • आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने अपभ्रंश को ‘ण–ण भाषा’ कहा है।

आचार्य दण्डी ने ‘काव्यादर्श’ में समस्त वाङ्मय को संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मिश्र, इन चार भागों में विभक्त किया है-

“तदेतद् वाङ्मयं भूयः संस्कृत प्राकृतं तथा।।
अपभ्रंशश्च मिश्रञ्चेत्याहुशर्याश्चतुर्विधम्।।”

आचार्य दण्डी ने ‘काव्यादर्श’ में अपभ्रंश को ‘आभीर‘ भी कहा है-

“आभीरादि गिरथः काव्येष्वपभ्रंशः इति स्मृताः।”

अपभ्रंश को विद्वानों ने विभ्रष्ट, आभीर, अवहंस, अवहट्ट, पटमंजरी, अवहत्थ, औहट, अवहट, आदि नाम से भी पुकारा है।

3. आधुनिक भारतीय आर्यभाषा

आधुनिक भारतीय आर्यभाषा का समयकाल 1000 ई. से अब तक है। आधुनिक भारतीय आर्यभाषा का विकास अपभ्रंश से हुआ है। आधुनिक भारतीय आर्यभाषा से अभिप्राय सन् 1947 से पूर्व का अविभाजित भारत से है, जिसमें पाकिस्तान और बंगलादेश समाविष्ट थे। कुछ विद्वान तो भारत का अर्थ श्रीलंका और वर्मा सहित भारतीय आर्यभाषा में लेते हैं। वस्तुतः अंग्रेजों के आने से पूर्व ये सब प्रदेश भारत के ही अंग थे।

आधुनिक भारतीय आर्यभाषा का सर्वप्रथम वर्गीकरण डॉ. ए. एफ. आर. हार्नले ने सन् 1880 ई. में किया था । डॉ. हार्नले ने आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं को 4 वर्गों में विभाजित किया है, जो निम्नांकित हैं-

  1. पूर्वी गौडियन-पूर्वी हिन्दी, बंगला, असमी, उड़िया।
  2. पश्चिमी गौडियन-पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, सिन्धी, पंजाबी।
  3. उत्तरी गौडियन-गढ़वाली, नेपाली, पहाड़ी।
  4. दक्षिणी गौडियन-मराठी।

डॉ. हार्नले के अनुसार जो आर्य मध्यदेश अथवा केन्द्र में थे ‘भीतरी आर्य‘ कहलाये और जो चारों ओर फैले हुए थे ‘बाहरी आर्य‘ कहलाये।

डॉ. जॉर्ज ग्रियर्सन ने (लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया-भाग-1 तथा बुलेटिन ऑफ द स्कूल ऑफ ओरियंटल स्टडीज, लण्डन इन्स्टिट्यूशन- भाग-1 खण्ड 3, 1920) अपना पहला वर्गीकरण निम्नांकित ढंग से प्रस्तुत किया है-

  1. बाहरी उपशाखा-
    (क) उत्तरी-पश्चिमी समुदाय– (i) लहँदा (ii) सिन्धी।
    (ख) दक्षिणी समुदाय– (i) मराठी ।
    (ग) पूर्वी समुदाय– (i) उड़िया, (ii) बिहारी, (iii) बंगला, (iv) असमिया।
  2. मध्य उपशाखा-
    (क) मध्यवर्ती समुदाय-(i) पूर्वी हिन्दी।
  3. भीतरी उपशाखा-
    (क) केन्द्रीय समुदाय– (i) पश्चिमी हिन्दी, (ii) पंजाबी, (iii) गुजराती, (iv) भीरनी, (v) खानदेशी, (vi) राजस्थानी ।
    (ख) पहाड़ी समुदाय– (i) पूर्वी पहाड़ी अथवा नेपाली, (ii) मध्य या केन्द्रीय पहाड़ी, (iii) पश्चिमी-पहाड़ी।

डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने ग्रियर्सन के वर्गीकरण की आलोचना ध्वनिगत एवं व्याकरणगत आधारों पर करते हुए अपना वैज्ञानिक वर्गीकरण निम्न वर्गों में प्रस्तुत किया:-

  1. उदीच्य-सिन्धी, लहँदा, पंजाबी।
  2. प्रतीच्य-राजस्थानी, गुजराती।
  3. मध्य देशीय-पश्चिमी हिन्दी।
  4. प्राच्य-पूर्वी हिन्दी, बिहारी, उड़िया, असमिया, बंगला।
  5. दक्षिणात्य-मराठी।।

डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने डॉ. चटर्जी के वर्गीकरण में सुधार करते हुए अपना निम्नांकित वर्गीकरण प्रस्तुत किया:-

  1. उदीच्य-सिन्धी, लहँदा, पंजाबी।
  2. प्रतीच्य-गुजराती।
  3. मध्य देशीय-राजस्थानी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, बिहारी।
  4. प्राच्य-उड़िया, असमिया, बंगला।
  5. दक्षिणात्य-मराठी।

सीताराम चतुर्वेदी ने सम्बन्ध सूचक परसर्गों के आधार पर अपना वर्गीकरण प्रस्तुत किया, जो निम्न है:-

  1. का– हिन्दी, पहाड़ी, जयपुरी, भोजपुरी।।
  2. दा– पंजाबी, लहँदा।।
  3. – सिन्धी, कच्छी।
  4. नो– गुजराती।
  5. एर– बंगाली, उड़िया, असमिया।

भोलानाथ तिवारी ने क्षेत्रीय तथा सम्बद्ध अपभ्रंशों के आधार पर अपना वर्गीकरण निम्न ढंग से प्रस्तुत किया है:-

अपभ्रंशआधुनिक भाषाएँ
शौर सेनी (मध्यवर्ती)पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, पहाड़ी, गुजराती ।
मागधी (पूर्वीय)बिहारी, बंगाली, उड़िया, असमिया।
अर्धमागधी (मध्य पूर्वीय)पूर्वी हिन्दी।
महाराष्ट्री (दक्षिणी)पूर्वी मराठी।।
व्राचड- पैशाची (पश्चिमोत्तरी)सिन्धी, लहँदा, पंजाबी।

प्रमुख आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की विशेषताएँ एवं प्रकार-

सिन्धी भाषा

  • सिन्धी शब्द का सम्बन्ध संस्कृत सिन्धु से है। सिन्धु देश में सिन्धु नदी के दोनों किनारों पर सिन्धी भाषा बोली जाती है।
  • सिन्धी की मुख्यतः 5 बोलियाँ-विचोली, सिराइकी, थरेली, लासी, लाड़ी है।
  • सिन्धी की अपनी लिपि का नाम ‘लंडा’ है, किन्तु यह गुरुमुखी तथा फारसी-लिपि में भी लिखी जाती है।

लहँदा भाषा

  • लहँदा का शब्दगत अर्थ है ‘पश्चिमी’। इसके अन्य नाम पश्चिमी पंजाबी, हिन्दकी, जटकी, मुल्तानी, चिभाली, पोठवारी आदि है।
  • लहँदा की भी सिन्धी की भाँति अपनी लिपि ‘लंडा’ है, जो कश्मीर में प्रचलित शारदा-लिपि की ही एक उपशाखा है।

पंजाबी भाषा

  • पंजाबी शब्द ‘पंजाब’ से बना है जिसका अर्थ है पाँच नदियों का देश।
  • पंजाबी की अपनी लिपि लंडा थी जिससे सुधार कर गुरुअंगद ने गुरुमुखी लिपि बनाई।
  • पंजाबी की मुख्य बोलियाँ माझी, डोगरी, दोआबी, राठी आदि है।

गुजराती भाषा

  • गुजराती गुजरात प्रदेश की भाषा है। गुजरात का सम्बन्ध ‘गुर्जर’ जाति से है- गुर्जर + त्रा → गज्जरत्ता → गुजरात।
  • गुजरात की अपनी लिपि है जो गुजराती नाम से प्रसिद्ध है। वस्तुत: गुजराती कैथी से मिलती-जुलती लिपि में लिखी जाती है। इसमें शिरोरेखा नहीं लगती।

मराठी भाषा

  • मराठी महाराष्ट्र प्रदेश की भाषा है। इसकी प्रमुख बोलियाँ कोंकणी, नागपुरी, कोष्टी, माहारी आदि हैं।
  • मराठी की अपनी लिपि देवनागरी है किन्तु कुछ लोग मोडी लिपि का भी प्रयोग करते हैं।

बंगला भाषा

  • बंगला संस्कृत शब्द बंग + आल (प्रत्यय) से बना है। यह बंगाल प्रदेश की भाषा है।
  • नवीन यूरोपीय विचारधारा का सर्वप्रथम प्रभाव बंगला भाषा और साहित्य पर पड़ा।
  • बंगला प्राचीन देवनागरी से विकसित बंगला लिपि में लिखी जाती है।

असमी भाषा

  • असमी (असमिया) असम प्रदेश की भाषा है। इसकी मुख्य बोली विश्नुपुरिया है।
  • असमी की अपनी लिपि बंगला है।

उड़िया भाषा

  • उड़िया प्राचीन उत्कल अथवा वर्तमान उड़ीसा (ओडीसा) की भाषा है। इसकी प्रमुख बोली गंजामी, सम्भलपुरी, भत्री आदि है।
  • उड़िया भाषा बंगला से बहुत मिलती-जुलती है किन्तु इसकी लिपि ब्राह्मी की उत्तरी शैली से विकसित है।