शिक्षण में सूत्रों का अभिप्राय (Meaning of Maxims in Teaching)
जिन महापुरुषों को आज हम बड़े सम्मान से याद करते हैं, उनकी जीवनी में यदि झाँका जाय तो निश्चित रूप से उन सभी की जीवनियाँ ऐसे जीवन मूल्यों से भरी पड़ी होंगी जो उन्हें अमर बना गयीं। यह बात दूसरी है कि किन महापुरुषों ने अपना जीवन-ध्येय, किन मूल्यों के अनुसरण को बनाया? किसी ने सत्य और अहिंसा के अनुसरण को अपनाया, किसी ने समाज-सेवा को तो किसी ने सामाजिक कुरीतियों को दूर करने को।
इसी को हम दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि हर अच्छे व्यक्ति के अपने जीवन के कुछ सिद्धान्त होते हैं। ये सिद्धान्त ही उसके जीवन के आदर्श (Ideals) होते हैं। इन आदर्शों पर चलने हेतु उन्हें अपने दैनिक या दीर्घकालीन जीवन को चलाने हेतु कुछ नियमों को भी अपनाना पड़ता है।
इसी को हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि अच्छा कहलाने अथवा अच्छा बनने की दृष्टि से जिस प्रकार जीवन में कुछ सिद्धान्तों का अनुसरण तथा नियमों की अनुपालना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार हर कार्य को अच्छा करने तथा उसमें दक्षता प्राप्त करने की दृष्टि से कुछ नियमों की अनुपालना तथा सिद्धान्तों का अनुसरण भी आवश्यक है।
यह बात दूसरी है कि कार्य की प्रकृति के अनुसार कौन-से नियम या सिद्धान्तों को अपनाना होगा-इसका निश्चय करना अलग-अलग हो सकता है।
इस भूमिका के सन्दर्भ में हमारा मूलोद्देश्य यह है कि जिस प्रकार हर कार्य में दक्षता प्राप्त करने की दृष्टि से कुछ सिद्धान्तों और नियमों को अपनाना आवश्यक है, ठीक इसी प्रकार चूँकि शिक्षण भी एक पवित्र कार्य है, उसमें दक्षता प्राप्त करने की दृष्टि से भी कुछ सिद्धान्तों, शाश्वत नियमों को अपनाने की आवश्यकता है।
अन्तर केवल इतना है कि व्यक्ति के सम्बन्ध में हम जिन्हें आदर्श (Ideals) कहते हैं वस्तु (Object) अथवा कार्य या क्रिया के सम्बन्ध में उन्हीं को सिद्धान्त (Principles) तथा स्थायी नियमों को सूत्र (Maxims) कहते हैं।
अत: स्पष्ट है कि शिक्षण में दक्षता प्राप्त करने की दृष्टि से शिक्षक को भी शिक्षण को प्रभावी बनाने वाले कुछ सिद्धान्तों (Principles) तथा सूत्रों (Maxims) को शिक्षण से पूर्व तथा पढ़ाते समय ध्यान में रखना आवश्यक है।
यहाँ, यह भी स्पष्ट करना समीचीन होगा कि शुद्ध विज्ञानों तथा सामाजिक विज्ञानों के विभिन्न विषयों में जिन सूत्रों का ध्यान रखा जाता है, उनमें क्या अन्तर है?
इस दृष्टि से समझने की बात यह है कि शुद्ध विज्ञानों के सूत्रों में जो शाश्वतता होती है वह सामाजिक विज्ञानों के सूत्रों में नहीं; क्योंकि समाज परिवर्तनशील है। फिर भी, इनमें अर्थात् सामाजिक विज्ञानों एवं विभिन्न कार्यों को करने हेतु निर्धारित सूत्रों में भी काफी कुछ शाश्वतता होती है, क्योंकि वे भी कल्पना पर कम तथा अनुभवों (Experiences) पर आधारित अधिक होते हैं।
विज्ञान के सूत्रों में पूर्णता (Exactness) इसलिये भी अधिक होती है कि एक तो वे प्रयोगों (Experiments) पर आधारित होते हैं; दूसरे इनका सम्बन्ध प्राणी एवं पदार्थों की उस शाश्वत प्रकृति तथा गुणों पर आधारित होता है जिनमें परिवर्तन की सम्भावना नहीं के बराबर अथवा बिल्कुल नहीं है।
उदाहरण के लिये हाइड्रोजन के दो भाग (H2) तथा ऑक्सीजन का एक भाग (O) मिलकर पानी ही बनायेंगे। इसीलिये पानी का सूत्र सदैव (H2O) ही रहेगा। यह पूर्णता किसी क्रिया को करने हेतु निर्धारित सूत्रों में नहीं हो सकती।
इसीलिये शुद्ध विज्ञानों के सूत्रों को अंग्रेजी में ‘Formula’ कहा जाता है तो कार्यों (यहाँ पर शिक्षण) के सूत्रों को ‘Maxims’, दोनों में पूर्णता की दृष्टि से अन्तर है।
पुनः शिक्षण के सिद्धान्तों (Principles) एवं सूत्रों (Maxims) में भी अन्तर होता है। इसे आगे स्पष्ट किया जा रहा है।
शिक्षण के सिद्धान्त एवं सूत्रों में अन्तर (Difference between Principles and Maxims of Teaching)
शिक्षण के सिद्धान्तों एवं सूत्रों में अन्तर को समझने की दृष्टि से शिक्षक की उस स्थिति पर विचार कीजिये जिसमें दो विभिन्न प्रकृति के एक ओर सजीव विद्यार्थियों का ध्यान रखना होता है तो दूसरी ओर जड़ (Lifeless)- पाठ्यक्रम (Curriculum), विषयवस्तु (Contents), सहायक साधन (Illustrative aids) आदि का।
सजीवों की प्रकृति परिवर्तनशील है तो जड़ पदार्थों की नहीं। इस दृष्टि से जिन बातों को निर्धारित करने हेतु विद्यार्थियों की क्षमता (Capacity) तथा योग्यता (Capability) का ध्यान रखना होता है, वे सिद्धान्तों के अन्तर्गत आती हैं तो जिन बातों को समझना होता है, उनकी दृष्टि से जिन नियमों का निर्धारण किया जाता है उन्हें सूत्र (Maxim) कहते हैं।
अतः स्पष्ट है कि सिद्धान्तों (Principles) के अनुसरण हेतु सूत्रों (Maxims) को ध्यान में रखना होता है।
शिक्षण के सूत्रों की उपयोगिता और महत्त्व (Importance and Utility of Maxims of Teaching)
एक सफल शिक्षण का अर्थ है- ऐसा शिक्षण जिसमें छात्रों के लिये जो विषयवस्तु पढ़ायी जा रही हो उसे वे भली-भाँति ग्रहण कर सकें। सीखने के साथ-साथ आगे बढ़ने को पृष्ठपोषण (feedback) भी मिलता रहे। इस प्रक्रिया हेतु शिक्षा के चिन्तकों तथा दार्शनिकों ने कुछ सूत्रों का प्रतिपादन किया है, जिन्हें हम ‘शिक्षण सूत्र‘ (Maxims of teaching) कहते हैं।
इन सूत्रों का ज्ञान प्रत्येक शिक्षणकर्ता के लिये आवश्यक है क्योंकि इससे पाठन में रोचकता, सरलता तथा वैज्ञानिकता का संचार होता है। ये सिद्धान्त बाल प्रकृति पर आधारित हैं। शिक्षण के सूत्रों की उपयोगिता और महत्त्व एक सफल अध्यापक कार्य करने हेतु अध्यापक के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।
शिक्षण के सूत्रों के माध्यम से कक्षा अध्यापन में सरलता, सरसता तथा ग्राह्यता का संचार होता है। छात्र विषय को भली-भाँति कम मानसिक परिश्रम से समझ लेते हैं। अतः एक कुशल अध्यापक को सभी शिक्षण सूत्रों का सम्यक् ज्ञान होना अति आवश्यक है। एक सफल अध्यापक को यह भी ज्ञात होना चाहिये कि कौन-से सूत्र का प्रयोग उसे कहाँ करना है।
शिक्षण सूत्रों का प्रयोग शिक्षण प्रक्रिया को सुगम बना देता है। किसी भी विषय को समझने में छात्रों को अत्यन्त आसानी हो जाती है। अत: कक्षा अध्यापन में शिक्षण सूत्रों की उपयोगिता एवं महत्त्व एक अध्यापक के लिये शिक्षण सहायक सामग्री से भी अत्यन्त अनिवार्य है।
शिक्षण के विभिन्न सूत्र (Various Maxims of Teaching)
शिक्षण को प्रभावी बनाने की दृष्टि से जिन सूत्रों को ध्यान में रखा जाना चाहिये, वे निम्नलिखित प्रकार हैं:-
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ज्ञात से अज्ञात की ओर (From known to unknown)
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सरल से कठिन की ओर (From simple to difficult)
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स्थूल से सूक्ष्म की ओर (From concrete to abstract)
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पूर्ण से अंश की ओर (From whole to parts)
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विशिष्ट से सामान्य की ओर (From specific to general)
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अनिश्चित से निश्चित की ओर (From indefinite to definite)
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आगमन से निगमन की ओर (From inductive to deductive)
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अनुभव से तर्क की ओर (From empirical to rationale)
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मनोवैज्ञानिक से तर्कात्मक क्रम की ओर (From psychological to logical)
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अनुभूति से विचार की ओर (From empirical to rationale)
इन सभी को आगे स्पष्ट किया जा रहा है:-
1. ज्ञात से अज्ञात की ओर (From Known to Unknown)
जिसे विद्यार्थी जानता है, वह ज्ञात है तो जिसे वह नहीं जानता, वह अज्ञात। अत: प्रत्येक अनपढ़ा पाठ विषयवस्तु की दृष्टि से उनके लिये अज्ञात होता है। इसी प्रकार ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से जिन प्राणियों एवं पदार्थों को उन्होंने जान लिया है, वे ज्ञात हैं और उनसे सम्बन्धित विषयवस्तु अज्ञात।
इस दृष्टि से किसी भी अनजानी बात को छात्रों द्वारा जानी हुई वस्तु या बातों के माध्यम से बताया जाय तो सम्बद्धता के नियम (Law of association) के आधार पर वे इसे सरलता से समझ लेते हैं।
अतः शिक्षण में छात्र के पूर्व ज्ञान पर ही नवीन ज्ञान को आधारित किया जाना चाहिये। यह सूत्र मनोविज्ञान के तथ्य पर आधारित है। इसके लिये शिक्षण को परीक्षण द्वारा छात्रों के पूर्व ज्ञान की जानकारी लेनी चाहिये। तत्पश्चात् इस ज्ञान को सजीव कर इसी के आधार पर नवीन ज्ञान अर्जित कराया जाना चाहिये। इस प्रकार ज्ञात से अज्ञात में सम्बन्ध स्थापित करना आसान हो जाता है।
उदाहरण की दृष्टि से:-
शुद्ध विज्ञानों (Natural sciences) के विषयों में– ताप के सुचालक (Good conductors) तथा कुचालक (Bad conductors) को घर में खाना बनाने वाले बर्तनों, जलायी जाने वाली लकड़ी आदि के माध्यम से तथा घुलनशील (Soluble) एवं अघुलनशील (Insoluble) पदार्थों को यदि शक्कर, नमक, रेती, पत्थर आदि को पानी में घोलकर बताया जाय तो शीघ्रता से समझ में आयेगा।
भूगोल (Geography) में– हिमाचल प्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर अथवा दक्षिण भारत की जलवायु को बताने हेतु उस स्थान की जलवायु के माध्यम से बताया जाय जहाँ वे रहते हैं तो शीघ्र समझ में आयेगा।
सामाजिक अध्ययन (Social studies) में– किसी स्थान विशेष की जलवायु के अनुरूप वेशभूषा, खान-पान को बताने हेतु विद्यार्थियों की स्थानीय जलवायु के अनुरूप खान-पान और वेशभूषा से उदाहरण देकर अथवा तुलना करके बताया जाय तो सरलता से समझ में आ जायेगा।
2. सरल से कठिन की ओर (From Simple to Difficult)
शिक्षण का यह सूत्र बड़ा साधारण-सा प्रतीत होता है परन्तु यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसके अनुसार शिक्षक को चाहिये कि वह पहले छात्रों को सरल तथ्यों की जानकारी प्रदान करे पुनः कठिन बातों की ओर बढ़े। यथार्थतः सरलता और कठिनता की भी कोई एक सर्वमान्य परिभाषा देना बड़ा कठिन है; क्योंकि सरलता और कठिनता-कई बातों पर आधारित हैं।
विषयवस्तु की दृष्टि से उसको जिस भाषा में प्रस्तुत किया गया है उससे विद्यार्थी जितना अधिक परिचित है, उसके लिये उस विषयवस्तु को समझना उतना ही सरल हो जाता है। यथार्थतः विद्यार्थी जिस बात को समझ लेते हैं, चाहे वह कितनी ही कठिन क्यों न हो वह उनके लिये सरल बन जाती है और जिस विषयवस्तु को वे नहीं जानते चाहे वह कितनी ही सरल क्यों न हो, वही उनके लिये कठिन बन जाती है।
फिर भी, विद्यार्थियों के सामान्य स्तर को ध्यान में रखते हुए पूरी पुस्तक में जो पाठ भाषा एवं विषयवस्तु, दोनों ही दृष्टियों से अपेक्षाकृत सरल है, उन्हें पहले तथा जो पाठ इन दोनों ही दृष्टियों से अपेक्षाकृत कठिन है उन्हें बाद में पढ़ाया जाना चाहिये, ताकि विषयवस्तु को समझने में उनकी रुचि बनी रहे, परन्तु ऐसा करने में एक कठिनाई बहुत बड़ी है-समान मूल्यांकन की दृष्टि से यह बहुत कठिन हो जायेगा; क्योंकि शिक्षकों की दृष्टि से यदि देखा जाये तो किसी के लिये किसी पाठ को पढ़ाना सरल है तो सम्भव है, दूसरों की दृष्टि से किन्हीं अन्य पाठों को पढ़ाना सरल हो।
इस दृष्टि से इस सूत्र का ध्यान रखना पाठय-पुस्तकों की संरचना के समय रखना अधिक ठीक रहता है। उतना पढ़ाते समय नहीं; क्योंकि राजस्थान जैसे राज्यों में तो यह पूर्व निश्चित है किस माह में क्या पढ़ाया जायेगा?
अतः शिक्षक का इस सूत्र की अनुपालना हेतु जो कुछ करना चाहिये वह यही हो सकता है कि जिस सूत्र- “ज्ञात से अज्ञात” का उल्लेख ऊपर किया गया उसी को ध्यान में रखते जो कुछ उन्हें बताया जा चुका है, वह उनके लिये सरल बन गया है। अत: कठिन अंशों को समझे हुए अंशों की सहायता से समझाया जाय तो अधिक उपयुक्त रहेगा।
कुछ उदाहरण हैं:-
भाषायी पाठों में सभी भाषाओं में मूल शब्दों की तुलना में, उपसर्ग, प्रत्यय, समास, सन्धि आदि के आधार पर बने शब्दों की संख्या अपेक्षाकृत बहुत अधिक है। ऐसी स्थिति में इन सभी से बने मिश्रित शब्दों को मूल शब्द का अर्थ बताकर समझाया जाय तो दुरूह शब्दों को समझने में सरलता हो जायेगी; उदाहरणार्थ– ‘वात्सल्य‘ शब्द को समझाने हेतु मूल शब्द; वत्स– गाय का बच्चा (बछड़ा या बछड़ी जो भी हो) पहले बताया जाय; तत्पश्चात् समझाया जाय कि अपने बच्चे के प्रति उसका जो भाव होता है (उसे देखते ही यहाँ तक यदि वह मृत है तो उसकी चमड़ी को चाटते ही स्तनों में दूध आ जाना) उसे ‘वत्सल‘ भाव कहते हैं और इसी से बना है-‘वात्सल्य रस‘ अर्थात् “माता का अपनी सन्तानों के प्रति स्वाभाविक प्रेम“।
इसी प्रकार ‘अव्यावहारिक‘ शब्द को (अ+ व्यवहार + इक) तोड़कर उपसर्ग ‘अ‘ तथा प्रत्यय ‘इक‘ के लगने से शब्द के अर्थ में आने वाले परिवर्तन को पहले बताकर उन ‘व्यवहार‘ का अर्थ बताया जाय और अन्त में ‘अव्यावहारिक‘ का अर्थ भी छात्रों से निकलवाया जाय तो सरलता से उनकी समझ में आ जायेगा।
शुद्ध एवं सामाजिक विज्ञानों के पाठों में जो कुछ विद्यार्थियों ने समझ लिया है वही उनके लिये सरल बन गया है। उसी के माध्यम से उन अंशों को बताया जाय जिन्हें वे नहीं जानते तो कठिन अंश भी सरलता से समझ में आ जाते हैं।
3. स्थूल से सूक्ष्म की ओर (From Concrets to Abstract)
यह सूत्र इस तथ्य पर बल देता है कि प्रारम्भ में छात्रों को स्थूल तथ्यों को ज्ञान प्रदान किया जाय। तत्पश्चात् सूक्ष्म तथ्यों का ज्ञान कराया जाय। विश्व में जितने भी प्राणी या पदार्थ हैं-उनका भौतिक (Physical) रूप है। रूप को देखा जा सकता है; सरलता से पहचाना जा सकता है।
अतः इन सभी का दिखाई देने वाला रूप स्थूल (Concrete) है। इसके विपरीत यदि इन प्राणियों एवं पदार्थों में निहित गुणों की तलाश की जाय तो वे आँखों से उस प्रकार दिखाई नहीं पड़ते जिस प्रकार उनका रूप। मनुष्य के साथ भी ऐसा ही है-उसके मन में क्या है, बुद्धि कितनी कम या अधिक है-यह सब कुछ दिखाई नहीं पड़ता; क्योंकि ये सूक्ष्म हैं।
अतः विद्यार्थियों को समझाने की दृष्टि से स्थूल के माध्यम से सूक्ष्म तत्त्वों को बताया जाय तो सरलता से समझ में आ जाता है; यथा:-
शुद्ध विज्ञानों के पाठों में– किसी लवण (Salt) के रूप-रंग को दिखाकर स्पर्श कराकर, यदि सम्भव हो तो चखवाकर उसके गुणों को बताया जाय तो उन्हें समझना सरल हो जाता है। इसी प्रकार जीव-विज्ञान में प्राणियों के रूप की जानकारी देकर उनके स्वाभाविक गुणों को बताना ठीक रहता है।
भाषायी पाठों एवं सामाजिक विज्ञानों के विषयों में– ‘आत्मा’, आत्म-निर्णय आदि जैसे अमूर्त शब्दों की अवधारणाओं (Concepts) को विद्यार्थियों द्वारा उनके द्वारा उनके जीवन में अनुभव की गयी घटनाओं के आधार पर बताया जाय तो उन्हें अधिक शीघ्र समझ में आयेगा।
4. पूर्ण से अंश की ओर (From Whole to Parts)
यह सूत्र गैस्टाल्ट-सिद्धान्त (Gestalt theory) पर आधारित है। अधिगम के इस सिद्धान्त के अनुसार पहले किसी प्राणी या पदार्थ के समग्र रूप को देखा जाय और बाद में उसके अंग-प्रत्यंगों को तो उसे समझने में सरलता हो जाती है, क्योंकि बालक के मस्तिष्क में पहले प्राणी या पदार्थ के समग्र रूप का ही चित्र खिंचता है। बाद में उसके अंग-प्रत्यंगों का।
उदाहरण के रूप में छोटे बालक व्यक्ति को समग्र रूप में देखकर यह तो जान जाते हैं कि वह पशुओं या अन्य प्राणियों से किस प्रकार भिन्न हैं? परन्तु यह धीरे-धीरे ही समझ पाते हैं कि उसके विभिन्न अंगों के अलग-अलग क्या कार्य हैं?
इसी प्रकार कुछ अन्य उदाहरण:-
शुद्ध विज्ञान से सम्बन्धित विषयों में– वनस्पति विज्ञान में पहले पौधे के स्वरूप को बताकर उसके विभिन्न भागों के रूप एवं कार्यों तथा उसमें निहित लाभदायक अथवा हानिकारक तत्त्वों को बताना ठीक रहता है।
भाषायी पाठों में-पहले वाक्य या शब्द के रूप को बताने के पश्चात् ही शब्दों में वर्णों तथा वाक्य में शब्दों के स्थान के महत्त्व को बताना अधिक अच्छा रहेगा।
सामाजिक विज्ञानों के विषयों में किसी भी नियम, परम्परा, प्रथा आदि के समग्र रूप को देखा जाय, बाद में उससे सम्बन्धित अन्य बातों को। उदाहरण के लिये जहाँ बर्फ पड़ती है, वहाँ मकानों की छतें ढलवाँ ही होंगी जबकि सामान्यतया मकानों की छतें समतल ही होती हैं। इसके पीछे निहित आधार को विद्यार्थी तभी समझ पायेंगे जब वे दोनों स्थानों के मकानों की छतों अथवा उनके प्रतिरूप को स्वयं अपनी आँखों से देख लेते हैं।
5. विशिष्ट से सामान्य की ओर (From Specific to General)
इस सूत्र से आशय है कि पहले छात्र को विशिष्ट ज्ञान की ओर ले जाया जाये अर्थात् छात्र के समक्ष विशेष उदाहरण प्रस्तुत किये जायें। तत्पश्चात् उसे सामान्यीकरण करने के लिये प्रोत्साहित किया जाय। विशिष्ट व्यक्ति, वस्तु अथवा बात वह है जो सामान्य से हटकर सर्वत्र उसी रूप में न पाये जाकर किसी स्थान, क्षेत्र अथवा रूप विशेष से जुड़े हों; और सामान्य वह है जो उसी रूप में सभी जगह पाये जायें।
इस सूत्र को उदाहरणों द्वारा इस प्रकार समझा जा सकता है:-
शुद्ध विज्ञानों के विषयों के पाठों में– मान लीजिये हमने लकड़ी, लोहा, ताँबा आदि की डालें तथा छड़ियाँ ली और बालक, ताँबा लकड़ी आदि से पहले से ही परिचित हैं। पुनः हमने बारी-बारी से सभी के एक किनारे को पकड़कर दूसरे किनारे को अलग से गर्म करने को कहा, विद्यार्थियों ने ऐसा ही किया और उन्होंने देखा कि धातु की छड़ों के एक सिरे को गर्म करने पर दूसरा सिरा भी गर्म हो जाता है, जबकि लकड़ी में ऐसा नहीं है।
यदि विद्यार्थियों से इसका कारण पूछा जाय तो वे निश्चित रूप से बता देंगे कि धातुओं में और लकड़ियों में गर्म करने की दृष्टि से क्या अन्तर है? इसी को सुचालक और कुचालक की संज्ञा दे दी जाय तो वे यह सामान्य सिद्धान्त निर्धारित करने में सफल हो जायेंगे कि सभी धातुएँ सुचालक होती हैं। यही सामान्यीकरण है।
सामाजिक विज्ञानों के विषयों में ऐसे ही विशिष्ट तथ्यों के आधार पर सामान्यीकरण के रूप में विद्यार्थियों को यह बताया जा सकता है कि व्यक्ति के खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा आदि पर भौगोलिक परिस्थितियों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है।
भाषायी पाठों में अनेकों उदाहरण देकर बच्चों से सामान्यीकृत कराया जा सकता है कि किस उपसर्ग या प्रत्यय के लगने से शब्द के रूप एवं अर्थ में क्या परिवर्तन आ जाता है।
6. अनिश्चित से निश्चित की ओर (From Indefinite and Definite)
इस सूत्र के अन्तर्गत अस्पष्ट एवं अनियमित ज्ञान को स्पष्ट एवं नियमित करना होता है। छात्र अपनी सम्वेदनाओं द्वारा अनेक अस्पष्ट एवं अनियमित वस्तुओं की जानकारी करता है परन्तु शिक्षक को चाहिये कि वह उसे स्पष्ट एवं नियमित जानकारी प्रदान करे, गलत तथ्यों को सुस्पष्ट कर सही रूप में बताये तथा उनके विचारों में यथार्थता एवं निश्चितता लाने हेतु प्रयत्नशील रहे।
अनिश्चित वह है जिसका कोई निश्चित रूप न हो और निश्चित वह है जिसका एक निश्चित स्वरूप हो। इस दृष्टि से जिस वस्तु या प्राणी के विषय में विद्यार्थियों को रूप, रहन-सहन आदि के विषय में कुछ सुझाव देकर कल्पना कराई जाय। विद्यार्थी उसके विषय में तरह-तरह की कल्पनाएँ अवश्य करेंगे, परन्तु किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचना उनके लिये सम्भव नहीं होगा। ऐसी स्थिति में यदि उस वस्तु या प्राणी के रूप को उन्हें बता दिया जाय तो वह उन्हें सदैव के लिये ऐसा समझ में आ जायेगा जो कभी विस्मृत ही न हो।
उदाहरण के लिये-अमीर खुसरो की एक प्रसिद्ध पहेली है-
सावन भादों बहुत चलत है; माघ पूस में थोरी।
अमीर खुसरो यों कहे; जान बूझ तू पहेली मोरी।।
वैसे तो पहेली का अर्थ स्वयं में ही स्पष्ट है फिर भी यदि शिक्षक उचित समझे तो उन्हें इसका अर्थ स्पष्ट कर दे और यदि चाहे तो यह भी बता दे कि इसका उत्तर भी इसी में छिपा है तो विद्यार्थी उस पर तरह-तरह की कल्पनाएँ करेंगे जो सभी अनिश्चित हैं। पुनः सही उत्तर को बताया जाय तो उसे वे हृदयंगम कर लेंगे। वास्तव में शिक्षक प्रशिक्षण का मूलोद्देश्य भी यही है कि विद्यार्थियों को मानसिक रूप से अधिक से अधिक सक्रिय रखा जाय।
7. आगमन से निगमन की ओर (From Inductive to Deductive)
शिक्षण के आगमन (Inductive) एवं निगमन (Deductive) उपागम में भी थोड़े से अन्तर से प्राय: वही किया जाता है, जिसका उल्लेख हमने अभी ऊपर किया। शिक्षण के निगमन (Deductive) उपागम में पहले परिभाषा बताई जाती है और तत्पश्चात् उसके उदाहरण; यथा– पहले संज्ञा की परिभाषा बताई जाय और फिर उदाहरण के रूप में संज्ञा शब्द, किन्तु आगमन उपागम में इसके ठीक विपरीत किया जाता है। पहले विद्यार्थियों के सदा उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं और नियम विद्यार्थियों से निकलवाया जाता है।
यदि संज्ञा की पहिचान बताने के लिये पहले विद्यार्थियों के नाम पूछे जायें, तत्पश्चात् घर की वस्तुओं के और अन्त में वे वस्तुएँ कहाँ-कहाँ रखी हैं-यह पूछकर स्थानों के नाम। बाद में कह दिया जाय कि यदि इन सभी नामों को व्याकरण की दृष्टि से ‘संज्ञा‘ कहा जाय तो संज्ञा की क्या पहिचान होगी? विद्यार्थी, संज्ञा की जो भी परिभाषा बताएँ, उसमें उचित संशोधन करते संज्ञा की सही परिभाषा उन्हें लिखा दी जाय। यहाँ उदाहरण देना-आगमन उपागम के अन्तर्गत आता है तो परिभाषा निकलवाना या नियमीकरण करना निगमन के अन्तर्गत।
इस उपागम के कुछ उदाहरण हैं:-
शुद्ध एवं सामाजिक विज्ञानों के अन्य विषयों के शिक्षण में– यथार्थता, आगमननिगमन-सूत्र का जन्म ही शुद्ध विज्ञानों से हुआ है। आगमन-निगमन का सूत्र भी यही है कि उदाहरण शिक्षक दे और नियमीकरण विद्यार्थियों से कराये। ऐसा करने से विद्यार्थी मानसिक एवं बौद्धिक दोनों ही दृष्टियों से काफी सक्रिय रहते हैं तथा प्रभावी शिक्षण की दृष्टि से चाहिये भी यही। इस प्रकार से नियम का निर्धारण सभी विषयों में सम्भव है।
8. अनुभव से तर्क की ओर (From Empirical to Rationale)
अनुभव, अनुभूतियों पर आधारित होता है तो तर्क विज्ञानपरक चिन्तन पर। कभी-कभी अनुभव कुछ कहता है तो तर्क कुछ और। ऐसी स्थिति में अनुभव को आधार बनाकर उसका तर्कसंगत आधार खोजना ही प्रभावी शिक्षण का आधार होता है; उदाहरणार्थ शुद्ध एवं सामाजिक विज्ञानों के विषयों में– हिन्दू-मुस्लिम, सिख-ईसाई आदि की सम्प्रदायगत रीति-नीतियों का भी अध्ययन कराया जाता है।
उसी के अन्तर्गत हिन्दुओं की सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं के अन्तर्गत पीपल, गूलर, आँवला बट, रेगिस्तानी भागों में खेजड़ा आदि की पूजा का विधान है। यह सदियों से आज भी उसी रूप में चला आ रहा है। परम्परा जीवित है; किन्तु आधार शास्त्रों की जड़ी बड़ी पुस्तकों में छिप गया है; क्योंकि राजनैतिक प्रदूषण चरम पर है। यह अनुभव है, परन्तु पूजा के इस अनुभव के पीछे यदि इसके औचित्य (Rationalization) की तलाश की जाय तो ये परम्पराएँ आज भी इन वृक्षों को बचाकर वह काम कर रही है जो सरकार अरबों रुपये व्यय करके भी नहीं कर पा रहीं।
बड़े वृक्ष वैज्ञानिक दृष्टि से कार्बन डाइ ऑक्साइड (CO2) अधिकतम रूप में अवशोषित कर प्राण वायु ऑक्सीजन (O2) को उतनी ही अधिक मात्रा में निकालकर न केवल पर्यावरण को ही प्रदूषण से बचाती है, अपितु दूसरी ओर पक्षियों का भोजन भी उन्हें इन्हीं फलदार वृक्षों से प्राप्त हो जाता है और ये पक्षी माँसाहारियों का भोजन बन जाते हैं। यही है इन परम्पराओं का वैज्ञानिक आधार।
भाषायी पाठों में भी शब्दों, बोलियों आदि का विश्लेषण इसी आधार पर किया जा सकता है। यहाँ एक बात का ध्यान और रखना होगा-विषय कोई भी हो-चाहे भाषाएँ या अन्य विषय; उनकी पाठ्यवस्तु अथवा उनसे सम्बन्धित पाठ्यवस्तु को यदि उन बातों की जानकारी के माध्यम बताया जाय, जिन्हें वे स्वयं अनुभव तो करते हैं, परन्तु उनके पीछे निहित आधार को नहीं जानते तो ऐसी स्थिति में यदि उनके विद्यार्थियों के अनुभवों पर आधारित जानकारी को कुशल शिक्षक यदि उसके विषयवस्तु के तर्कसंगत आधार से जोड़ दे तो न केवल उस पाठ की विषयवस्तु उन्हें स्थायी रूप से हृदयंगम हो जाती है; अपितु वह उनके व्यवहार का भी अंग बन जाती है। चाहिये भी यही।
यह तो रही बात शिक्षण के विभिन्न सूत्रों की जिनका ध्यान हर कुशल शिक्षक को अपने शिक्षण को प्रभावी बनाने की दृष्टि से रखना ही चाहिये, अब आगे हम शिक्षण के सिद्धान्तों पर विचार करेंगे।
9. मनोवैज्ञानिक से तर्कात्मक क्रम की ओर (From Psychological to Logical)
छात्र को शिक्षा प्रदान करने के दो क्रम हो सकते हैं-
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तर्कात्मक क्रम।
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मनोवैज्ञानिक क्रम।
तर्कात्मक क्रम
इसमें विषय को प्रारम्भ में उसके प्रारम्भिक विकास को ध्यान में रखते हुए छात्र के सम्मुख तर्कात्मक ढंग से विभिन्न भागों तथा खण्डों में विभाजित कर प्रस्तुत किया जाता है।
मनोवैज्ञानिक क्रम
इसमें छात्र की रुचि, उत्साह, आयु, जिज्ञासा, अभिवृत्ति तथा ग्रहण शक्ति आदि के अनुसार उनके सम्मुख विषयवस्तु प्रस्तुत की जाती है। क्योंकि छात्र की आयु के साथ ही उसका बौद्धिक विकास होता है। अत: यदि मनोवैज्ञानिक क्रम का ध्यान रखें तो निश्चय ही छात्र उस विषय को सीखने में रुचि लेंगे।
इसी प्रकार तर्कात्मक क्रम से शिक्षण करने से अधिगम स्थायी एवं ठोस होता है। भाषा शिक्षण में मनोवैज्ञानिक क्रम को, ही हम पहले स्थान देते हैं अर्थात् वाक्य तथा सार्थक शब्दों का पाठन हम पूर्व में कराते हैं उसके पश्चात् वर्णमाला का ज्ञान देते हैं। प्रायः गणित तथा विज्ञान जैसे विषयों में भी शिक्षण प्रक्रिया मनोवैज्ञानिक क्रम से तर्कात्मक क्रम की ओर चलती है।
10. अनुभूति से विचार की ओर (From Emperical to Rational)
इस सूत्र से अर्थ यह है कि छात्रों ने जो ज्ञान, अनुभव तथा निरीक्षण स्वयं तथा दूसरों की सहायता से प्राप्त किया है उसका वास्तविक ज्ञान तभी हो सकता है जब उसे तर्कयुक्त या युक्त संगत कर दिया जाय। हमें उसे निरीक्षण एवं अनुभव के द्वारा सिखाने के साथ-साथ
वैज्ञानिक तथा तर्कात्मक विवेचन द्वारा भी समझना चाहिये।
छात्र में क्या, क्यों एवं कैसे की जिज्ञासा होनी चाहिये; जैसे-कुहरा या वर्षा होने के क्या कारण हैं? इसे छात्र प्रतिवर्ष वर्षाकाल में देखते हैं परन्तु यदि उन्हें समुद्र से भाप बनकर पानी का ऊपर उड़ना, पुन: मानसून का आना तथा वर्षा का होना आदि समझाया जाय तो वे वर्षा होने का कारण भली-भाँति समझ सकेंगे।
इस प्रकार छात्रों के अनुभवजन्य ज्ञान को तर्क तथा विचार द्वारा सत्य तथा निश्चित ज्ञान बनाना चाहिये तभी शिक्षण से वास्तविक लाभ हो सकता है।