नाटक
नाटक काव्य का एक रूप है, अर्थात जो रचना केवल श्रवण द्वारा ही नहीं, अपितु दृष्टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानुभूति कराती है उसे नाटक कहते हैं। हिन्दी का पहला नाटक ‘नहुष’ है जिसका रचनाकाल 1857 ई. है और लेखक “गोपाल चन्द्र गिरधरदास” हैं।
इंद्रिय ग्राह्यता के आधार पर काव्य के दो भेद माने जाते हैं- दृश्य और श्रव्य। दृश्य काव्य को पुनः दो भेदों में विभक्त किया जाता है- रूपक तथा उपरूपक। रूपक की परिभाषा देते हुए कहा गया है ‘तदूपारोपात तु रूपम्।’
वस्तु, नेता तथा रस के तारतम्य वैभिन्य और वैविध्य के आधार पर रूपक के दस भेद भारतीय आचार्यों ने स्वीकार किए हैं- नाटक, प्रकरण, भाषा, प्रहसन, डिम, व्यायोग, समवकार, वीथी, अंक और ईहामृग।
रूपक के इन भेदों में से नाटक भी एक है। परन्तु प्रायः नाटक को ही रूपक की संज्ञा भी दी जाती है। नाट्यशास्त्र में भी रूपक के लिए नाटक शब्द प्रयोग हुआ है।
नाटक अर्थात् रूपक को तीनों लोकों के भावों का अनुकरण मानते हुए नाट्यशास्त्र में भरतमुनि लिखते हैं-
नाराभावोपसम्पन्नं नानावस्थान्तरात्मकम्।
लोकवृत्तानुकरं नाट्यमेतन्मया कृतम्।।
अर्थात कह सकते हैं कि “नाटक काव्य का एक रूप है, अर्थात जो रचना श्रवण द्वारा ही नहीं अपितु दृष्टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानुभूति कराती है उसे नाटक कहते हैं।”
धनंजय ने ‘अवस्था के अनुकरण‘ को नाटक कहा और उसमें आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक चार प्रकार के अभिनय की स्थिति मानी।
विश्वनाथ ने कहा कि नाटक की कथा इतिहास प्रसिद्ध होनी चाहिए। कथावस्तु मुख आदि पाँच संधियों, विलास, ऋद्धि, आदि गुणों तथा अनेक प्रकार के ऐश्वयों से पूर्ण हो। इसकी निबन्धता गौ की पूँछ के अग्रभाग के समान होनी चाहिए। अर्थात् बीज रूप में वर्णित कथा एक क्रम में पुष्पित होकर फल को प्राप्त कराये।
भरतमुनि ने कहा कि नायक, दिव्य धीरोदात्त तथा उच्च कुल का हो, सुख-दु:ख विषय वर्ण्य सामग्री विभिन्न रसों से सिक्त हो, श्रृंगार अथवा वीर रस में से कोई एक रस अंगी हो। इसमें पाँच से दस अंक हो।
नाटक के कथोपकथनों में प्राय: संक्षिप्तता, रसानुभूति क्षमता, सरलता, औचित्य, सजीवता तथा पात्रानुकूलता का होना अनिवार्य माना गया है।
नाटक के अंग (तत्व)
भारतीय काव्यशास्त्र में वस्तु, अभिनेता, रस आदि को नाटक का आवश्यक अंग माना गया, परन्तु पाश्चात्य विद्वानों ने कथोपकथन, देशकाल, उद्देश्य और शैली को भी प्रर्याप्त महत्त्व दिया। अभिनेता तो नाटक का आवश्यक तत्त्व है ही।
इस प्रकार नाटक के 7 अंग हो जाते हैं जो इस प्रकार हैं:
- वस्तु (कथावस्तु)
- अभिनेता
- रस
- कथोपकथन
- देशकाल
- उद्देश्य
- शैली
1. वस्तु
वस्तु से तात्पर्य नाटक की कथावस्तु से है। नाटक की कथावस्तु इतिहास प्रसिद्ध होनी चाहिए। यह मुखादि पाँच संधियों, विलास, ऋद्धि, आदि गुणों तथा अनेक प्रकार के ऐश्वयों से पूर्ण हो। इसकी निबन्धता गौ की पूँछ के अग्रभाग के समान होनी चाहिए। अर्थात् बीज रूप में वर्णित कथा एक क्रम में पुष्पित होकर फल को प्राप्त कराये।
कथावस्तु के अधिकारी दृष्टि से दो भेद किए जाते हैं- आधिकारिक कथा और प्रासंगिक कथा। प्रासंगिक कथा को भी पताका और प्रकरी दो भेदों में विभाजित किया जाता है।
कथावस्तु के अन्य रूप और उनके प्रकार
जो साधन सूच्य कथावस्तु की सूचना देते हैं उन्हें अर्थोपक्षेपक कहा जाता है, ये पाँच प्रकार के होते हैं- विषकम्भक, प्रवेशक, चूलिका, अंकास्य तथा अंकावतार।
- अभिनय की दृष्टि से कथाएँ दो प्रकार की होती है – दृश्य और श्रव्य।
- संवादों की दृष्टि से कथा के तीन भेद होते है- सर्व, श्राव्य, अश्राव्य (स्वागत तथा आकाशभाषित), नियत श्राव्य। नियत श्राव्य के भी दो भेद होते हैं- अपवारित तथा जनान्तिक।
- लोकवृत्त की दृष्टि से कथावस्तु तीन प्रकार की होती है- प्रख्यात, उत्पाद्य और मिश्र।
कथावस्तु विन्यास के तीन आधार स्वीकार किए गए हैं- कार्यावस्था, अर्थ प्रकृति तथा सन्धि।
- कार्यावस्थाएँ पाँच होती हैं- प्रारम्भ, प्रयन्त, प्राप्त्याशा, नियताप्ति ओर फलागम। पाश्चात्य विद्वानों ने भी नाटक की पाँच अवस्थाएँ ही स्वीकार की हैं- प्रारम्भ, विकास, चरमसीमा, उतार और अन्त।
- अर्थ प्रकृतियाँ भी पाँच ही हैं- बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य।
- कथावस्तु के अंगों को समन्वित करने वाली सन्धियाँ भी आचार्यों ने पाँच ही स्वीकार की हैं। ये हैं- मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श (अवमर्श) तथा निर्वहण।
2. पात्र (अभिनेता)
पात्र नाटक का दूसरा प्रमुख तत्त्व है और फल का अधिकारी पात्र नेता कहलाता है। दशरूपककार के अनुसार नेता को विनीत, मधुर, त्यागी, चतुर, प्रियवादी, लोकप्रिय, वाणी निपुण, उच्चवंश वाला, स्थिर स्वभावा वाला, युवा, बुद्धिमान, उत्साही, प्रज्ञ, कलाविज्ञ, शूर, दृढ़, तेजस्वी, शास्त्रज्ञ और धार्मिक होना चाहिए।
- नेता अर्थात् नायक को भरतमुनि ने चार प्रकार का माना है- धीरोदात्त, धीरललित, धीर प्रशांत और धीरोदात्त।
- नायिका भी स्वकीया, परकीया और सामान्य तीन प्रकार की होती है।
- अन्य पात्रों में पीठमर्द, प्रतिनायक, विदूषक, कंचुकी, प्रतिहार आदि होते हैं।
3. रस
रस दृष्टि से भरतमुनि ने नाटक में शांत रस को छोड़ कर शेष सब रसों को प्रयोक्तव्य माना, और श्रृंगार अथवा वीर रस में से किसी एक रस को अंगी और शेष को अंगरूप में प्रयोक्तव्य माना हैं। अतः नवरसों में से आठ का ही परिपाक होता है- श्रृंगार रस, हास्य रस, रौद्र रस, करुण रस, वीर रस, अद्भुत रस, वीभत्स रस, और भयानक रस। नाटकों में अंगीरस का निर्धारण करने के तीन मानक हैं- प्रथम: नाटक में बहुव्याप्ति रस, द्वितीय: नाटक की परिणति रस और तृतीय: नाटक के नायक में उपस्थित रस की प्रवृत्ति।
4. कथोपकथन (संवाद)
नाटक के कथोपकथनों में प्राय: संक्षिप्तता, रसानुभूति क्षमता, सरलता, औचित्य, सजीवता तथा पात्रानुकूलता का होना अनिवार्य माना गया है। नाटक में नाटकार के पास अपनी ओर से कहने का अवकाश नहीं रहता। वह कथोपकथन द्वारा ही वस्तु का उदघाटन तथा पात्रों के चरित्र का विकास करता है।
अतः इसके कथोपकथन सरल, सुबोध, स्वभाविक तथा पात्रअनुकूल होने चाहिए। गंभीर दार्शनिक विषयों से इसकी अनुभूति में बाधा होती है। इसलिए इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए। नीर सत्ता के निरावरण तथा पात्रों की मनोभावों की मनोकामना के लिए कभी-कभी स्वागत कथन तथा गीतों की योजना भी आवश्यक समझी गई है।
5. देशकाल (वातावरण)
देशकाल के चित्रण में नाटककार को युग अनुरूप के प्रति विशेष सतर्क रहना आवश्यक होता है। पश्चिमी नाटक में देशकाल के अंतर्गत संकलनत्रय (समय, स्थान और कार्य की कुशलता) का वर्णन किया जाता है। वस्तुतः यह तीनों तत्त्व ‘यूनानी रंगमंच’ के अनुकूल थे। जहां रात भर चलने वाले लंबे नाटक होते थे और दृश्य परिवर्तन की योजना नहीं होती थी।
परंतु आज रंगमंच के विकास के कारण संकलन का महत्त्व समाप्त हो गया है। भारतीय नाट्यशास्त्र में इसका उल्लेख ना होते हुए भी नाटक में स्वाभाविकता, औचित्य तथा सजीवता की प्रतिष्ठा के लिए देशकाल वातावरण का उचित ध्यान रखा जाता है। इसके अंतर्गत पात्रों की वेशभूषा तत्कालिक धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितियों में युग का विशेष स्थान है। अतः नाटक के तत्वों में देशकाल का अपना महत्त्व है।
6. उद्देश्य
सामाज के हृदय में रक्त का संचार करना ही नाटक का उद्देश्य होता है। नाटक में अभिनेता पात्र का विशेष महत्त्व होता है,नाटक के अन्य तत्त्व इस उद्देश्य के साधन मात्र होते हैं। भारतीय दृष्टिकोण सदा आशावादी रहा है इसलिए संस्कृत के प्रायः सभी नाटक सुखांत रहे हैं।
पश्चिम नाटककारों ने या साहित्यकारों ने साहित्य को जीवन की व्याख्या मानते हुए उसके प्रति यथार्थ दृष्टिकोण अपनाया है उसके प्रभाव से हमारे यहां भी कई नाटक दुखांत में लिखे गए हैं , किंतु सत्य है कि उदास पात्रों के दुखांत अंत से मन खिन्न हो जाता है। अतः दुखांत नाटको का प्रचार कम होना चाहिए।
7. शैली
नाटक सर्वसाधारण की वस्तु है अतः उसकी भाषा शैली सरल, स्पष्ट और सुबोध होनी चाहिए , जिससे नाटक में प्रभाविकता का समावेश हो सके तथा दर्शक को क्लिष्ट भाषा के कारण बौद्धिक श्रम ना करना पड़े अन्यथा रस की अनुभूति में बाधा पहुंचेगी। अतः नाटक की भाषा सरल व स्पष्ट रूप में प्रवाहित होनी चाहिए।
नाटक में अभिनय
अभिनय किसी भी नाटक के लिए सभी तत्वों (अंगों) का मूल भाव होता है। यह नाटक की प्रमुख विशेषता होती है। यही नाट्य तत्व का वह गुण है जो दर्शक को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। इस संबंध में नाटककार को नाटकों के रूप, आकार, दृश्यों की सजावट और उसके उचित संतुलन, परिधान, व्यवस्था, प्रकाश व्यवस्था आदि का पूरा ध्यान रखना चाहिए।
अर्थात लेखक को रंगमच के सभी पहलुओं (जैसे विधि-विधानों) पर ध्यान देना चाहिए, जिससे नाटक के सभी तत्व प्रभावी और स्पष्ट रहें, क्योंकि नाटक के सभी तत्व अभिनय से ही जुड़े हुए होते हैं। अभिनय की श्रेष्ठता पात्रों के वाक्चातुर्य और अभिनय कला पर निर्भर होती है। यही एक सफल नाटक की पहिचान है।
धनंजय ने चार प्रकार के अभिनय की स्थिति मानी है। जो इस प्रकार है-
-
- आंगिक – शरीर से किया जाने वाला अभिनय,
- वाचिक – संवाद का अभिनय,
- आहार्य – वेशभूषा, मेकअप, स्टेज विन्यास्, प्रकाश व्यवस्था आदि,
- सात्विक – अंतरात्मा से किया गया अभिनय, रस आदि।
नाटक का संकलन
पाश्चात्य विद्वानों ने नाटक में संकलनत्रय की स्थिति को भी अनिवार्य माना है। संकलनत्रय से तात्पर्य है-
- काल संकलन,
- स्थल संकलन और
- कार्य संकलन।
भारतीय आचायों ने नाटक में कुछ विशेष प्रसंगों को शास्त्रीय अनुमति देने से इन्कार कर दिया। ये प्रसंग हैं-
- रंगमंच के लिए असुविधाजनक,
- जीवन के असामान्य, अरोचक एवं इतिवृत्तात्मक प्रसंग,
- आतंकप्रद,
- करुणाजनक अथवा त्रासद प्रसंग,
- जगुप्साद्योतक प्रसंग तथा
- अश्लील अथवा भारतीय संस्कृति के विपरीत प्रसंग।
हिन्दी साहित्य में नाटकों का प्रारम्भ
हिन्दी साहित्य में नाटकों का प्रारम्भ भारतेन्दु युग से स्वीकार किया जाता है। भारतेन्दु ने अपने पिता गोपालचंद्र गिरिधरदास कृत नहुष (1857) को हिन्दी का प्रथम नाटक स्वीकार किया है। उन्होंने स्वयं सत्रह मौलिक तथा अनूदित नाटकों की रचना की।
द्विवेदी युग में साहित्य अधिक प्रगति न कर सका। इस काल में रचित नाटकों का महत्त्व मात्र ऐतिहासिक है।
छायावाद में प्रसाद ने नाटक साहित्य को एक नयी दिशा प्रदान की। इस काल में पारसी रंग-मंच के माध्यम से भी अनेक नाटक प्रकाश में आये।
छायावादोत्तर काल में नाट्य साहित्य की रचना पर्याप्त मात्रा में हुई। इस काल में प्रमुख नाटककार हैं- लक्ष्मीनारायण मिश्र, उपेन्द्रनाथ अश्क (अंजो दीदी), विष्णु प्रभाकर (डॉक्टर), जगदीशचंद्र माथुर (कोनार्क), लक्ष्मीनारायण लाल (सुन्दर रस, मादा कैक्टस), मोहन राकेश (आषाढ़ का एक दिन), हरिक्रष्ण प्रेमी, उदयशंकर भट्ट, विनोद रस्तोगी (नया हाथ), नरेश मेहता, सुरेन्द्र वर्मा, ज्ञानदेव अग्निहोत्री (शुतुरमुर्ग) मुद्रा राक्षस आदि।
उदाहरण
क्रम | नाटक | नाटककार |
---|---|---|
1. | रामायण महानाटक | प्राणचंद चौहान |
2. | आनंद रघुनंदन | महाराज विश्वनाथ सिंह |
3. | नहुष | गोपालचंद्र गिरिधर दास |
4. | विद्यासुंदर, रत्नावली, पाखण्ड विडंबन, धनंजय विजय, कर्पूर मंजरी, भारत-जननी, मुद्राराक्षस, दुर्लभ बंधु (उपर्युक्त सभी अनूदित); वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, सत्यहरिश्चंद्र, श्रीचंद्रावली, विषस्य विषमौषधम, भारत-दुर्दशा, नीलदेवी, अँधेर नगरी, सती प्रताप, प्रेम योगिनी (मौलिक) | भारतेंदु हरिश्चंद्र |
5. | कृष्ण-सुदामा नाटक | शिवनंदन सहाय |
6. | संयोगिता स्वयंवर, प्रह्लाद-चरित्र, रणधीर प्रेममोहिनी, तप्त संवरण | लाला श्रीनिवासदास |
7. | अमरसिंह राठौर, बूढ़े मुँह मुँहासे (प्रहसन) | राधाचरण गोस्वामी |
8. | मयंक मंजरी, प्रणयिनी-परिणय | किशोरीलाल गोस्वामी |
9. | भारत-दुर्दशा, कलिकौतुक रुपक, संगीत शाकुंतल, हठी हम्मीर | प्रताप नारायण मिश्र |
10. | कलिराज की सभा, रेल का विकट खेल, दमयंती स्वयंवर, जैसा काम वैसा परिणाम (प्रहसन), नई रोशनी का विष, वेणुसंहार | बालकृष्ण भट्ट |
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