गुजराती भाषा (Gujarati Bhasha)
गुजराती भारत में गुजरात राज्य के लोगों द्वारा बोली जाने वाली एक इंडो-आर्यन भाषा है। यह दुनिया की भाषाओं में 26वीं सबसे व्यापक रूप से बोली जाने वाली भाषा है और गुजरात राज्य की आधिकारिक भाषा है। गुजराती भाषा गुजराती लिपि में लिखी जाती है, जो देवनागरी लिपि से निकली है और बाएं से दाएं लिखी जाती है। गुजराती की एक समृद्ध साहित्यिक परंपरा है और इसने कई प्रसिद्ध कवियों, नाटककारों और उपन्यासकारों को जन्म दिया है। यह वाणिज्य और व्यवसाय की भी एक भाषा है, जिसका व्यापक रूप से भारत के भीतर और बाहर व्यापार और संचार के लिए उपयोग किया जाता है।
नाम | गुजराती भाषा < देवनागरी लिपि |
लिपि | गुजराती लिपि |
दिवस | 24 अगस्त |
बोली क्षेत्र | गुजरात, दीव और मुंबई |
वक्ता | 4.6 करोड़ |
भाषा परिवार | आर्य भाषा परिवार |
आधिकारिक भाषा | गुजरात |
महत्वपूर्ण तथ्य:
- गुजराती भारत की एक भाषा है जो गुजरात राज्य, दीव और मुंबई में बोली जाती है।
- गुजराती साहित्य भारतीय भाषाओं के सबसे अधिक समृद्ध साहित्य में से एक है।
- भारत की दूसरी भाषाओं की तरह गुजराती भाषा का जन्म संस्कृत भाषा से हुआ हैं।
- भारत के अतिरिक्त गुजराती भाषा पाकिस्तान, अमेरिका, यु.के., केन्या, सिंगापुर, अफ्रिका, ऑस्ट्रेलीया आदि देशों में भी आप्रवासियों द्वारा बोली जाती है।
- गुजराती बोलने वाले प्रसिद्ध हस्तियों में महात्मा गांधी, वल्लभ भाई पटेल, भीमराव आम्बेडकर, मुहम्मद अली जिन्ना, दयानंद सरस्वती, मोरारजी देसाई, धीरूभाई अंबानी, नरेन्द्र मोदी आदि लोग शामिल है।
- यह अनुमान लगाया गया है कि दुनिया भर में गुजराती के लगभग 4.6 करोड़ मातृभाषी वक्ता हैं।
- यह दुनिया में 26 वीं सबसे व्यापक रूप से बोली जाने वाली भाषा है।
गुजराती भाषा की उत्पत्ति:
गुजराती इंडो-यूरोपीय लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं के समूह से उत्पन्न हुई है, जो भारतीय उपमहाद्वीप में चले गए। गुजराती भाषा की सटीक उत्पत्ति ज्ञात नहीं है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि यह सौरसेनी प्राकृत से विकसित हुई है, जो एक मध्य इंडो-आर्यन भाषा है जो प्राचीन काल में उत्तर-पश्चिमी भारत में व्यापक रूप से उपयोग की जाती थी।
गुजराती भाषा का विकास:
गुजराती भाषा आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में से एक है और इसका विकास शौरसेनी प्राकृत के परवर्ती रूप ‘नागर अपभ्रंश’ से हुआ है। सौराष्ट्री तथा कच्छी इसकी अन्य प्रमुख बोलियाँ हैं। हेमचंद्र सूरि ने अपने ग्रंथों में जिस अपभ्रंश का संकेत किया है, उसका परवर्ती रूप ‘गुर्जर अपभ्रंश’ के नाम से प्रसिद्ध है और इसमें अनेक साहित्यिक कृतियाँ मिलती हैं। इस अपभ्रंश का क्षेत्र मूलत: गुजरात और पश्चिमी राजस्थान था और इस दृष्टि से पश्चिमी राजस्थानी अथवा मारवाड़ी, गुजराती भाषा से घनिष्ठतया संबद्ध है।
गुजराती भाषा का बोली क्षेत्र:
गुजराती मुख्य रूप से भारत में गुजरात राज्य में बोली जाती है, जहाँ यह आधिकारिक भाषा है। गुजरात के अलावा, गुजराती भारत के अन्य हिस्सों में भी व्यापक रूप से बोली जाती है, जिसमें मुंबई, सूरत और देश के पश्चिमी क्षेत्र के अन्य शहर शामिल हैं। दुनिया भर में फैले गुजराती भाषी प्रवासी भी हैं, खासकर यूनाइटेड किंगडम, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका, केन्या और युगांडा जैसे देशों में। इन देशों में, गुजराती भाषी समुदाय के सदस्यों के बीच संचार की भाषा के रूप में गुजराती का उपयोग किया जाता है, और यह उनकी सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
गुजराती भाषा दिवस (24 अगस्त):
विश्व गुजराती भाषा दिवस, जिसे विश्व गुजराती भाषा दिवस के रूप में भी जाना जाता है, प्रसिद्ध गुजराती कवि लेफ्टिनेंट नर्मदाशंकर दवे के सम्मान में 24 अगस्त को प्रतिवर्ष मनाया जाता है। यह उत्सव कवि की जयंती पर गुजराती भाषा और साहित्य में उनके योगदान के लिए श्रद्धांजलि के रूप में आयोजित किया जाता है। यह दिन गुजराती भाषा और इसकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देने और मनाने के लिए समर्पित है।
गुजराती भाषा की लिपि
गुजराती लिपि, नागरी लिपि से व्युत्पन्न हुई है। गुजराती भाषा में लिखने के लिए देवनागरी लिपि को परिवर्तित करके गुजराती लिपि बनायी गयी थी। गुजराती भाषा और लिपि तीन अलग-अलग चरणों में विकसित हुईं –
- 10 वीं से 15 वीं शताब्दी: इस काल में गुजराती भाषा लेखन के लिए प्राकृत, अपभ्रंश, पैशाची, शौरसेनी, मागधी और महाराष्ट्री का उपयोग हुआ।
- 15 वीं से 17 वीं शताब्दी: इस काल के दौरान पुरानी गुजराती लिपि व्यापक उपयोग में थी। पुरानी गुजराती लिपि में सबसे पुराना ज्ञात दस्तावेज 1591-92 की आदि पर्व की एक हस्तलिखित पाण्डुलिपि है। यह लिपि पहली बार 1797 के एक विज्ञापन में छपी थी।
- 17 वीं से 19 वीं शताब्दी: इस समय में आसानी से और तेजी से लेखन के लिए विकसित लिपि का विकास किया गया। इसमें शिरोरखा का उपयोग त्याग दिया गया, जो देवनागरी में होता है।
19 वीं शताब्दी तक इसका उपयोग मुख्य रूप से पत्र लिखने और हिसाब रखने के लिए किया जाता था, जबकि देवनागरी लिपि का उपयोग साहित्य और अकादमिक लेखन के लिए किया जाता था। इसे शराफी या वाणियाशाई कहा जाता था। यही लिपि आधुनिक गुजराती लिपि का आधार बनी। बाद में उसी लिपि को पांडुलिपियों के लेखकों ने भी अपनाया। जैन समुदाय ने भी धार्मिक ग्रंथों की प्रतिलिपि बनाने के लिए इसी लिपि के उपयोग को बढ़ावा दिया।
गुजराती भाषा की वर्णमाला:
गुजराती लिपि में कुल 46 अक्षर हैं। जिनमें 36 व्यंजन और 12 स्वर हैं।
गुजराती की शब्द संरचना
गुजराती शब्द की संरचना में आमतौर पर एक मूल शब्द और एक या एक से अधिक प्रत्यय होते हैं। मूल शब्द में आमतौर पर शब्द का मुख्य अर्थ होता है, जबकि प्रत्यय का उपयोग मूल शब्द के अर्थ को संशोधित करने और नए शब्द बनाने के लिए किया जाता है।
गुजराती में, दो मुख्य प्रकार के प्रत्यय हैं: उपसर्ग और प्रत्यय। उपसर्ग शब्द के आरंभ में उसके अर्थ को बदलने के लिए जोड़े जाते हैं, जबकि प्रत्यय शब्द के अंत में उसकी व्याकरणिक श्रेणी बदलने या अतिरिक्त जानकारी जोड़ने के लिए जोड़े जाते हैं।
उदाहरण के लिए, गुजराती शब्द “માંડવી” (मांडवी) का अर्थ “मनोरंजनकर्ता” है, जबकि शब्द “માંડવાનું” (मांडवानुम) का अर्थ “मनोरंजन” है। इस उदाहरण में, प्रत्यय “-उम” शब्द “मांडवी” के मूल शब्द में जोड़ा गया है ताकि इसकी व्याकरणिक श्रेणी को संज्ञा से क्रिया में बदला जा सके।
कुछ सरल गुजराती शब्दों के उदाहरण:
- હાલો (hālo) – Hello (हाय)
- ત્યારે (tyārē) – Goodbye (अलविदा)
- માં (māṁ) – Me (मैं)
- તમે (tamē) – You (तुम)
- હાં (hāṁ) – Yes (हां)
- પેહલું (pēhluṁ) – First (प्रथम)
- ઉત્તમ (ut’tam) – Best (सबसे अच्छा)
- ખાણું (khāṇuṁ) – To eat (खाना)
- પીવું (pīvuṁ) – To drink (पीना)
- ખેલું (khēluṁ) – To play (खेलना)
- પઢવું (paḍhavuṁ) – To study (पढ़ना)
- સપાર્ટ કરું (sapārṭ karuṁ) – To support (समर्थन करना)
- પ્રશ્ન કરું (praśna karuṁ) – To ask (पूछना)
- કહું (kahuṁ) – To speak (बोलना)
- લેખું (lēkhuṁ) – To write (लिखना)
- જાણું (jāṇuṁ) – To know (जानना)
- ગોળ વાવું (gōl vāvuṁ) – To see (देखना)
गुजराती में प्रयोग होने वाले प्रश्नवाचक शब्द:
- કેમ (kem) – What (क्या)
- કેમનું (kemanuṁ) – What (क्या)
- કેવું (kevuṁ) – What (क्या)
- કોણ (kōṇa) – Who (कौन)
- કેવી (kevī) – How (कैसे)
- ક્યાં (kyāṁ) – When (कब)
- કેવીં (kevīṁ) – How (कैसे)
- કેમને (kemanē) – Why (क्यों)
- કેવું છે (kevuṁ chē) – What is (क्या है)
- કોણનું (kōṇanuṁ) – Whose (किसका)
गुजराती में कुछ नकारात्मक शब्द और पद:
- નહીં (nahīṁ) – No (नहीं)
- ના (nā) – Not (नहीं)
- અનેકાં (anēkāṁ) – None (कुछ नहीं)
- વધું નહીં (vadhuṁ nahīṁ) – No more (और नहीं)
- મને ના (manē nā) – Not me (मुझे नहीं)
- કાહેવાણી ના (kāhēvāṇī nā) – No permission (अनुमति नहीं)
- કહેવાણી ના (kahevāṇī nā) – No reply (उत्तर नहीं)
- અધૂની નહીં (adhūnī nahīṁ) – Not enough (काफी नहीं)
- સહેજી ના (sahējī nā) – Not stored (सहेजे नहीं)
- કેવળ નહીં (keval nahīṁ) – Not only (केवल नहीं)
कुछ सामान्य वाक्य गुजराती भाषा में:
- હાય (hāy) – Hello (नमस्ते)
- મને તમારું નામ કેમ છે? (manē tamāruṁ nām kēm chē?) – What is your name? (तुम्हारा नाम क्या है?)
- મારું નામ પ્રિયા છે. (Māruṁ nāma priyā chē.) – My name is Priya. (मेरा नाम प्रिया है.)
- કેમ છો? (kēma cho?) – How are you? (कैसे हो?)
- મારું છુ (māruṁ cho) – I am fine (मैं ठीक हूँ)
- તમે ક્યાં છો? (tamē kyāṁ cho?) – Where are you? (तुम कहाँ हो?)
- હું દિલ્હી માં છું. (Huṁ dil’hīmāṁ chuṁ.) – I am in Delhi. (मैं दिली में हूँ.)
- તમે ક્યા કરી રહ્યા છો? (tamē kyā karī rahyā cho?) – What are you doing? (तुम क्या कर रहे हो?)
- હું કામ કરી રહ્યો છું. (Huṁ kāma karī rahyō chuṁ.) – I am doing work. (मैं कार्य कर रहा हूँ.)
- મને તમે કેમ લાગે છે? (manē tama kēma lāgē chē?) – How do you feel? (तुम कैसे महसूस करते हो?)
- મને જાણો છે (manē jāṇō chē) – I know (मैं जानता हूँ)
- મને માહિતી નથી (manē māhitī nathī) – I don’t know (मैं नहीं जानता)
- મને ખરેખર માહિતી નથી (manē kharēkhara māhitī nathī) – I don’t exactly know (मैं ठीक से नहीं जानता)
- મને તમે મને જાણો છે (manē tama manē jāṇō chē) – You know me (तुम मुझे जानते हो)
- મને કામ છે (manē kāma chē) – I am busy (मै व्यस्त हूँ)
गुजराती साहित्य
गुजराती साहित्य को तीन युग में बांटा जाता हैं- प्राचीन, मध्यकालीन और अर्वाचीन युग।
प्राचीन गुजराती साहित्य:
प्राचीन गुजराती साहित्य का इतिहास विशेष समृद्ध नहीं है। आरंभिक कृतियों में श्रीधर कवि का ‘रणमल्लछंद’ (1390 ई. ल.) है, जिसमें ईडर के राजा रणमल्ल और गुजरात के मुसलमान शासक के युद्ध का वर्णन है। दूसरी कृति पद्मनाभ कवि का कान्हड़देप्रबन्ध (1456 ई.) है, जिसमें जालौर के राजा कान्हड़दे पर अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण और युद्ध का वर्णन है।
मध्यकालीन गुजराती साहित्य:
मध्यकालीन साहित्य में दो प्रमुख प्रतिनिधि कवि हुए नरसी मेहता और भालण। नरसी का समय विवादास्पद है, पर अधिकांश विद्वानों के अनुसार ये 15वीं सदी के उत्तराद्ध में विद्यमान थे। इनकी कृष्णभक्ति के विषय में अनेक किंवदंतिया प्रचलित हैं।
नरसी मेहता गुजराती “पद साहित्य” के जन्मदाता हैं जिसमें निश्चल भक्तिभावना की अनुपम अभिव्यक्ति पाई जाती है।
भालण कवि का समय भी लगभग यही माना जाता है। इन्होंने रामायण, महाभारत और भागवत के पौराणिक इतिवृत्तों को लेकर अनेक काव्य निबद्ध किए और “गरबा साहित्य” को जन्म दिया।
“पद साहित्य” और “आख्यान काव्यों” की इन दोनों शैलियों ने मध्ययुगीन गुजराती साहित्य को कई कवि प्रदान किए हैं।
- प्रथम शैली का अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तित्व मीराबाई (16वीं सदी) हैं जिनपर नरसी का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है।
- हिंदी और राजस्थानी की तरह मीराबाई के अनेक सरस पद गुजराती में पाए जाते हैं जो नरसी के पदों की भाँति ही गुजराती जनता में लोकगीतों की तरह गाए जाते हैं।
- आख्यान काव्यों की शैली का निर्वाह नागर, केशवदास, मधुसूदन व्यास, गणपति आदि कई कवियों में मिलता है, किंतु इसका चरमपरिपाक प्रेमानंद में दिखाई पड़ता है।
प्रेमानन्द भट्ट (17वीं शती) गुजराती भक्ति साहित्य के सर्वोच्च कवि माने जाते हैं। वे बड़ौदा के नागर ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे और संस्कृत, हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं के अच्छे जानकार थे। प्रेमानन्द ने रामायण, महाभारत, भागवत और मार्कण्डेयपुराण के कई आख्यानों पर काव्य निबद्ध किए जिनकी संख्या 50 से ऊपर है। ये गुजराती के सर्वप्रथम नाटककार भी हैं, जिनकी तीन नाट्य कृतियाँ हैं। भावगांभीर्य के साथ साथ अलंकृत शैली इनकी विशेषता है। इन्हीं के ढंग पर और कवियों ने भी पौराणिक आख्यान लिखे, जिनमें शामल भट्ट के अनेक काव्य, मुकुंद का भक्तमाल, देवीदास का रुक्मिणीहरण, मुरारी का ईश्वर विवाह उल्लेखनीय है। प्रेमानन्द के ही समसामयिक भक्त कवि अखों (17वीं शती) हैं जो अहमदाबाद के सोनार थे। कबीरदास की तरह इन्होंने धर्म के मिथ्या पाखंड, जातिप्रथा और वर्णव्यवस्था पर कटु व्यंग्य किया है। इनके दार्शनिक, भक्तिपरक तथा सुधारवादी दोनों तरह के पद मिलते हैं।
गरबा शैली: यह शैली मूलत: नृत्यपरक लोकगीतों से संबद्ध है। इस शैली में 18वीं सदी में देवी देवताओं से संबद्ध अनेक भक्तिपरक स्तुतिगीत लिखे गए। गरबी कवियों का अलग संप्रदाय ही चल पड़ा, जिसमें ब्राह्मण, भाट, पाटीदार सभी तरह के लोग मिलेंगे। प्रमुख गरबी कवियों में बल्लभ भट्ट, प्रीतमदास, धीरोभक्त, नीरांत भक्त और भोजा भक्त हैं। इस शैली का चरम परिपाक गरबी सम्राट, दयाराम (1767-1852 ई.) के गीतों में मिलता है। दयाराम शृंगाररसपरक गीति काव्य के सर्वश्रेष्ठ मध्ययुगीन गुजराती कवि हैं, जिन्होंने सरल और सरस शैली में मधुर भावों की अभिव्यंजना की है। गुजराती में इनकी 48 रचनाएँ मिलती हैं। इसके अतिरिक्त संस्कृत, हिंदी, मराठी, पंजाबी और उर्दू में भी इन्होंने समान रूप से काव्य-रचना की हैं।
मध्ययुगीन गुजराती साहित्य के विकास में स्वामीनारायण संप्रदाय का भी काफी हाथ रहा है। इस संप्रदाय के संस्थापक सहजानन्द रामानन्द की शिष्यपरम्परा में आते हैं। कच्छ और गुजरात में इस संप्रदाय के साधुओं का काफी प्रभाव रहा है। दार्शनिक तथ्य, भक्तिभावना और सामाजिक पाखण्ड की भर्त्सना इन साधु कवियों के विषय हैं। इस संप्रदाय के प्रमुख कवि ब्रह्मानन्द हैं जिनके कई ग्रंथ और आठ हजार फुटकर पद मिलते हैं। अन्य कवियों में मुक्तानंद, मंजुकेशानंद और देवानन्द का नाम लिया जा सकता है।
अर्वाचीन गुजराती साहित्य:
वैसे तो जूनी गुजराती में कुछ गद्य कृतियाँ मिलती हैं, पर मध्ययुगीन गुजराती में गद्यशैली का प्रौढ़ विकास नहीं हो पाया था। गुजराती पद्य के विकास में अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं की तरह ईसाई पादरियों का भी हाथ रहा है।
- 19वीं सदी के प्रथम चरण में बाइबिल का गुजराती गद्य में अनुवाद प्रकाशित हुआ और ड्रमंड ने 1808 ई. में गुजराती भाषा का सर्वप्रथम व्याकरण लिखा।
- गुजराती में नई चेतना का प्रादुर्भाव जिन लेखकों में हुआ, उनमें पादरी जर्विस, नर्मदाशंकर, नवलराय तथा भोलानाथ आते हैं।
नर्मद या नर्मदाशंकर (1833-1886 ई0) गुजराती मध्यवर्गीय चेतना के अग्रदूत हैं, ठीक वैसे ही जैसे हिंदी में भारतेंदु। समय की दृष्टि से भी ये भारतेंद्रु के समसामयिक थे तथा उन्हीं की तरह सर्वतोमुखी प्रतिभा से समन्वित थे। इनकी गद्यबद्ध आत्मकथा ‘मारी हकीकत’ पुराने कवियों की संपादित कृतियाँ और आलोचनाएँ, संस्कृत ‘शाकुंतल’ का गुजराती अनुवाद और अनेक सुधारवादी कविताएँ हैं।
आधुनिक गुजराती काव्य को नए साँचे में ढालनेवाले पहले कवि “नर्मद” ही हैं जिन्होंने नए सांस्कृतिक जागरण, राष्ट्रीय भावना और सुधारवादी उदात्तता को वाणी दी हैं। इनकी वैचारिक काव्यशैली के आगे पुराने भक्त कवि सामान्य दिखाई पड़ते हैं। नर्मद पाश्चात्य काव्यशैली से पूरी तरह परिचित थे। भारतेंदु की तरह ही वे कर्मठ साहित्यिक थे, जिन्होंने अनेक नए कवियों और लेखकों को प्रेरित और संगठित किया। संपादन और आलोचना के क्षेत्र में भी नर्मद का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। साथ ही वे गुजराती के प्रथम निबंधकार, नाटककार और आत्मचरित्र लेखक माने जाते हैं। नर्मद के समसामयिक कवि दलपतराम (1820-1898 ई.) की रचनाएँ भी सामाजिक, नीतिपरक तथा राष्ट्रीय विषयों से संबद्ध हैं। सरल, प्रसादगुण-युक्त शैली में अपन काव्य को उपस्थित कर देना दलपतराम की विशेषता है। यद्यपि इनकी शैली नर्मद की अपेक्षा गद्यवत अधिक है, तथापि व्यावहारिकता कहीं अधिक पाई जाती है।
गुजराती नाटक साहित्य विशेष समृद्ध नहीं है। नर्मदाशंकर ने ‘शाकुंतल’ का अनुवाद किया था और रणछोड़ भाई ने कुछ संस्कृत तथा अंग्रेजी नाटकों का। रणछोड़ भाई ने कई मौलिक पौराणिक तथा सामाजिक नाटक भी लिखे। अन्य परवर्ती नाटककारों में दलपतराम, नवलराय, नानालाल तथा सर रमणभाई आते हैं। सामाजिक कथावस्तु को लेकर लिखनेवाले आधुनिक नाटककार कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, चंद्रवदन मेहता और धनसुखलाल मेहता हैं। इधर श्रीधराणी, उमाशंकर जोशी तथा बटुभाई उमरवाडिया ने एकांकी भी लिखे हैं।
यही स्थिति गुजराती निबंध साहित्य की भी है। पहले निबंधलेखक भी नर्मद हैं। नर्मद के समय ही गुजराती पत्रकारिता का उदय हुआ था और नवलराय ने ‘गुजरात शाळापत्र’ का प्रकाशन आरंभ किया। इन्होंने समालोचना और निबंध के क्षेत्र में भी काफी काम किया। विवेचनात्मक तथा व्यक्तिव्यंजक दोनों तरह के निबंध लिखे जाने लगे पर गुणात्मक प्रौढ़ि की दृष्टि से केवल आनंदशंकर बापूभाई ध्रुव, नरसिंह राव दिवेटिया, काका कालेलकर, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, रामनारायण पाठक, केशवलाल कामदार और उमाशंकर जोशी की ही कृतियों का संकेत किया जा सकता है।
आलोचनात्मक लेखों के क्षेत्र में केशवलाल ध्रुव, मनसुखलाल झावेरी, उमाशंकर जोशी तथा डॉ॰ भोगीलाल सांडेसरा ने महत्वपूर्ण योग दिया हैं। संस्मरण तथा रेखाचित्र के गुजराती लेखकों में मुंशी तथा उनकी पत्नी लीलावती मुंशी, गांधीवादी विचारक काका कालेलकर और गांधीजी के अनन्य सहयोगी महादेव भाई की परिगणना की जाती है।
गुजराती कथा साहित्य अपेक्षाकृत विशेष समृद्ध है। उपन्यास साहित्य का प्रारंभ श्री नंदशंकर तुलजाशंकर के उपन्यास ‘करणघेलो’ (1868 ई.) से होता है। ऐतिहासिक उपन्यासों की जो परंपरा महीपतराम, अनंतराम त्रीकमलाल और चुन्नीलाल वर्धमान ने स्थापित की, उसका चरम परिपाक कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के ऐतिहासिक उपन्यासों में मिलता है। पृथ्वीवल्लभ, जय सोमनाथ, गुजरात नो नाथ, पाटण नी प्रभुत्व, भगवान परशुराम, लोपामुद्रा, भगवान कौटिल्य उनकी प्रशस्त कृतियाँ हैं।
इनके पूर्व इस क्षेत्र में इच्छाराम सूर्यराम देसाई ने भी काफी ख्याति प्राप्त कर ली थी, जिनका स्पष्ट प्रभाव मुंशी जी पर दिखाई पड़ता है। मुंशीजी ने पौराणिक, ऐतिहासिक उपन्यासों के अतिरिक्त सामाजिक उपन्यास भी लिखे हैं।
सामाजिक उपन्यासों के क्षेत्र में रमणलाल देसाई का विशेष स्थान है। राष्ट्रीय आंदोलन से संबंद्ध इनके दो उपन्यास ‘दिव्यचक्षु’ और ‘भारेला अग्नि’ तथा भारतीय ग्रामीण जीवन की समस्याओं से संबंद्ध, चार भागों में प्रकाशित महती कृति ‘ग्रामलक्ष्मीकोण’ ने काफी ख्याति प्राप्त की है।
गुजरात के लोकजीवन और लोकसाहित्य को उपन्यासों के साँचे में ढालने का स्तुत्य प्रयास झवेरचंद मेघाणी ने किया, जो गुजराती लोकसाहित्य के विशेषज्ञ भी थे। अन्य सामाजिक उपन्यासलेखकों में गोवर्धनराम त्रिपाठी, पन्नालाल पटेल और धूमकेतु ने विशेष ख्याति अर्जित की है। श्री त्रिपाठी तथा अन्य दोनों लेखकों पर यथार्थवादी उपन्यासकला का प्रभाव भी मिलेगा। कथासाहित्य के दूसरे अंश कहानी ‘गोवालणी’ के प्रकाशन से माना जाता है। इसके बाद तो विष्णुप्रसाद त्रिवेदी, अमृतलाल पंढियार और चंद्रशंकर पंड्या की कई कहानियाँ प्रकाशित हुईं।
आधुनिक कहानी लेखकों में मुंशी, रमणलाल देसाई, गुणवंतराय आचार्य, धूमकेतु तथा गुलाबदास ब्रोकर विशेष प्रसिद्ध है। धूमकेतु तथा गुलाबदास ब्रोकर ने कहानी की तकनीक को अत्याधुनिक बनाया है। आज का गुजराती कथा साहित्य और काव्य विशेष रूप से भारतीय समाज के सभी पहलुओं का अंकन कर भारतीय युगचेतना के वाणी देने में अपना समुचित योग दे रहा है।
अंत में, गुजराती एक समृद्ध और विविध भाषा है जिसका एक लंबा इतिहास और सांस्कृतिक महत्व है। यह सदियों से विकसित हुआ है और भारत और दुनिया भर में लाखों लोगों द्वारा बोली जाती है। गुजराती साहित्य भाषा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और शास्त्रीय भक्ति कविता से लेकर आधुनिकतावादी और प्रयोगात्मक लेखन तक, रूपों और शैलियों की एक विस्तृत श्रृंखला को शामिल करता है। भाषा और इसका साहित्य गुजराती भाषी समुदायों के जीवन में एक केंद्रीय भूमिका निभाते हैं और भारत की सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।