अधिगम (सीखना) – अर्थ, परिभाषा और सिद्धान्त

Adhigam

अधिगम (Learning)

सीखना या अधिगम एक व्यापक सतत् एवं जीवन पर्यन्त चलनेवाली महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। मनुष्य जन्म के उपरांत ही सीखना प्रारंभ कर देता है और जीवन भर कुछ न कुछ सीखता रहता है। धीरे-धीरे वह अपने को वातावरण से समायोजित करने का प्रयत्न करता है। इस समायोजन के दौरान वह अपने अनुभवों से अधिक लाभ उठाने का प्रयास करता है।

इस प्रक्रिया को मनोविज्ञान में सीखना कहते हैं। जिस व्यक्ति में सीखने की जितनी अधिक शक्ति होती है, उतना ही उसके जीवन का विकास होता है। सीखने की प्रक्रिया में व्यक्ति अनेक क्रियाऐं एवं उपक्रियाऐं करता है। अतः सीखना किसी स्थिति के प्रति सक्रिय प्रतिक्रिया है।

अधिगम या सीखने की प्रकृति (Nature of Learning)

प्रत्येक प्राणी में कार्य करने की प्रवृत्ति होती है। कार्यों के द्वारा वह अपने जीवन की रक्षा करता है। बालक सहज क्रियाओं और मूल प्रवृत्तियों के अनुसार सीखते हैं। व्यक्ति के अनुभव के आधार पर उसके कार्यों में परिवर्तन होता रहता है। अनुभव के इस प्रकार लाभ उठाने की क्रिया को सीखना या अधिगम कहते हैं।

प्रत्येक प्राणी अपने जीवन में कुछ न कुछ सीखता है। जिस व्यक्ति में सीखने या अधिगम की जितनी अधिक शक्ति होती है, उतना ही अधिक उसके जीवन का विकास होता है। बालक प्रत्येक समय और प्रत्येक स्थान पर कुछ न कुछ सीखता रहता है। इसी आधार पर बुडवर्थ ने कहा है, “सीखना विकास की प्रक्रिया है।

अधिगम (सीखना) का अर्थ (Meaning of Learning)

अधिगम शिक्षा मनोविज्ञान का मुख्य घटक है। शिक्षा के क्षेत्र में इसका विशेष स्थान बताया गया है। क्योंकि शिक्षा का सर्वप्रथम उद्देश्य ही सीखना है। हम सभी जानते है मनुष्य का जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक सीखना ही है। घर, स्कूल एवं अपने आस-पास के वातावरण से मनुष्य कुछ ना कुछ सीखता ही रहता है और अपना सर्वपक्षीय विकास करता है।

उदाहरण के लिए – छोटे बालक के सामने जलता दीपक ले जानेपर वह दीपक की लौ को पकड़ने का प्रयास करता है। इस प्रयास में उसका हाथ जलने लगता है। वह हाथ को पीछे खींच लेता है। पुनः जब कभी उसके सामने दीपक लाया जाता है तो वह अपने पूर्व अनुभव के आधार पर लौ पकड़ने के लिए, हाथ नहीं बढ़ाता है, वरन् उससे दूर हो जाता है। इसीविचार को स्थिति के प्रति प्रतिक्रिया करना कहते हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि अनुभव के आधार पर बालक के स्वाभाविक व्यवहार में परिवर्तन हो जाता है।अधिगम का सर्वोत्तम सोपान अभिप्रेरणा है।

अधिगम की परिभाषाएँ (Definitions of Learning)

अधिगम की कुछ परिभाषाएँ इस प्रकार हैं:-

  1. स्किनर (Skinner) के अनुसार, “सीखना व्यवहार में उत्तरोत्तर सामंजस्य की प्रक्रिया है।
    “Learning is the process further co-ordination on the behavior.”
  2. गिलफोर्ड (Guilford) के शब्दों में, “व्यवहार के कारण, व्यवहार में परिवर्तन ही सीखना है।
    “Learning is any changes in behaviour resulting from behaviour.”
  3. कॉलबिन (Colvin) के अनुसार, “पहले के निर्मित व्यवहार में अनुभवों द्वारा हुए परिवर्तन को अधिगम कहते हैं।
    “Learning is the modification of our readymade original behaviour due to experience.”
  4. प्रेसी (Pressy) के मतानुसार, “अधिगम एक अनुभव है, जिसके द्वारा कार्य में परिवर्तन या समायोजन होता है तथा व्यवहार की नवीन विधि प्राप्त होती है।
    “Learning is an experience by which change or adjustment in one work takes place and new method of behaviour is obtained.”
  5. वुडवर्थ (Woodworth) के अनुसार, “किसी भी ऐसी क्रिया जो कि व्यक्ति के (अच्छे या बुरे किसी भी तरह के) विकास में सहायक होती है और उसके वर्तमान व्यवहार एवं अनुभवों को जो कुछ वे हो सकते थे भिन्नता स्थापित करती है, को सीखने की संज्ञा दी जा सकती है।
    “Any activity can be called learning so for as it develops the individual (in any respect, good or bad) and makes his later behaviour and experiences different from what they would otherwise have been.”
  6. गेट्स एवं अन्य (Gates and others) के शब्दों में, “अनुभव एवं प्रशिक्षण के द्वारा व्यवहार में होने वाले परिवर्तन को सीखना कहते हैं।
    “Learning and Training is the modification of behaviour through experience.”
  7. बर्नहर्ट (Bermharat) के अनुसार, “सीखना व्यक्ति के कार्यों में एक स्थायी परिवर्तन लाना है, जो निश्चित परिस्थितियों में किसी उद्देश्य या लक्ष्य को प्राप्त करने अथवा किसी समस्या को सुलझाने के प्रयास में अभ्यास द्वारा किया जाता है।
    “Learning is defined as the more or less permanent modification of an individual’s activity in a given situation, due to practice in attempts to achieve some goal or solve some problem.”
  8. किंग्सले एवं गैरी (Kingsley, H.L. and Garry, R.) के शब्दों में, “अभ्यास तथा प्रशिक्षण के फलस्वरूप नवीन तरीके से व्यवहार (अपने विस्तृत अर्थ में) करने अथवा व्यवहार में परिवर्तन लाने की प्रक्रिया को सीखना कहते हैं।
    “Learning is the process by which behaviour (in the broader sense) is originated or changed through practice or training.”

अधिगम, परिपक्वता और विकास (Learning, Maturation and Development)

बोरिंग और उनके साथियों (Boring and others, 1962) के अनुसार – “परिपक्वता एक गौण विकास है, जिसका अस्तित्व सीखी जाने वाली क्रिया या व्यवहार के पूर्व होना आवश्यक है। शारीरिक क्षमता के विकास को ही परिपक्वता कहते हैं।

अधिकतर यह देखा जाता है कि जब तक शरीर के विभिन्न अंग और उनकी माँस-पेशियाँ पूर्णरूप से परिपक्व नहीं होती तब तक व्यवहार का संशोधन नहीं हो सकता। किसी भी व्यक्ति के सीखने के लिये यह बहुत आवश्यक है कि वह शारीरिक तथा मानसिक रूप से परिपक्व हो।

शारीरिक तथा मानसिक परिपक्वता के कारण भी व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन होते हैं। यह परिवर्तन प्राकृतिक होते हैं तथा व्यक्ति की आयु के साथ होते जाते हैं। यह परिवर्तन सीखने के परिवर्तनों से भिन्न होते हैं। सीखने तथा परिपक्वता में घनिष्ठ सम्बन्ध है। परिपक्वता के अभाव में सीखना सम्भव नहीं होता।

अधिगम तथा परिपक्वता में प्रमुख अन्तर

अधिगम/सीखने तथा परिपक्वता में प्रमुख रूप से निम्न अन्तर हैं:-

  1. परिपक्वता के कारण व्यवहार में परिवर्तन प्राकृतिक या स्वाभाविक होते हैं। जबकि सीखने के लिये व्यक्ति को अनेक प्रकार की क्रियाएँ करनी पड़ती हैं तब व्यवहार में संशोधन होते हैं।
  2. परिपक्वता चूँकि एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। अतः प्रेरणा का इस पर प्रभाव नहीं पड़ता है, जबकि सीखना प्रेरणा से प्रभावित होता है।
  3. परिपक्वता के कारण व्यवहार में परिवर्तन केवल उसी व्यक्ति में होते हैं, जो सीखता है।
  4. परिपक्वता अनुकूल तथा प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों में निरन्तर चलती रहती है, दूसरी ओर सीखना केवल अनुकूल परिस्थितियों में ही होता है, प्रतिकूल परिस्थितियों में नहीं होता।
  5. परिपक्वता के लिये अभ्यास आवश्यक नहीं है, जबकि सीखने के लिये अभ्यास आवश्यक होता है।
  6. व्यक्ति समाज में जीवनपर्यन्त सीखता रहता है, जबकि परिपक्वता की प्रक्रिया लगभग पच्चीस वर्ष की अवस्था तक पूर्ण हो जाती है।

अधिगम तथा परिपक्वता में अन्तर होते हुए भी दोनों आपस में घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। अधिगम की प्रक्रिया परिपक्वता पर आधारित होती है, परन्तु परिपक्वता अधिगम पर आधारित नहीं होती। अनेक अध्ययनों से यह सिद्ध हो चुका है कि अधिगम के लिये उसके अनुरूप परिपक्वता आवश्यक होती है।

अधिगम (सीखने) के प्रकार (Kinds of Learning)

सीखने की क्रिया, ढंग तथा विषय-वस्तु के आधार पर सीखने के कुछ पक्ष या प्रकार निम्न हैं:-

1. ज्ञानात्मक अधिगम (Cognitive learning)

सीखने का यह तरीका बौद्धिक विकास तथा ज्ञान अर्जित करने की समस्त क्रियाओं पर प्रयुक्त होता है। ये क्रियाएँ निम्नलिखित हो सकती हैं-

  1. प्रत्यक्षात्मक सीखना (Perceptual learning) – जब किसी वस्तु को देखकर, सुनकर या स्पर्श करके उसका ज्ञान प्राप्त किया जाता है, तो उसे प्रत्यक्षात्मक सीखना कहते हैं। शैशवावस्था और बाल्यावस्था में इसी प्रकार से सीखा जाता है।
  2. प्रत्यात्मक सीखना (Conceptual Learning) – जब बालक साधारण ज्ञान या अनुभव प्राप्त कर लेता है तो वह तर्क, चिन्तन और कल्पना के आधार पर सीखने लगता है। इस प्रकार वह अनेक अमूर्त बातें सीख जाता है। इसी को प्रत्यात्मक सीखना कहते हैं।
  3. साहचर्यात्मक सीखना ( Learning with association) – जब पुराने ज्ञान तथा अनुभव के द्वारा किसी तथ्य को सीखा जाता है तो इसे साहचर्यात्मक सीखना कहते हैं। प्रत्यात्मक सीखने में साहचर्य होने की क्रिया स्वाभाविक रूप से होती रहती है।

2. संवेदनात्मक अधिगम (Emotional learning)

उस सीखने को संवेदनात्मक अधिगम कहते हैं, जब सीखना संवेदनशील क्रियाओं द्वारा होता है। इस प्रकार के सीखने में गामक क्षमताओं का प्रशिक्षण होता है। इसमें किसी कौशल के कार्य को सम्मिलित किया जाता है; जैसे – तैरना, साइकिल चलाना, टाइप करना सीखना आदि।

3. गामक अधिगम (Dynamic learning)

जिस सीखने में अंग संचालन तथा गति पर नियन्त्रण की आवश्यकता होती है, उसे गामक अधिगम कहते हैं। इसमें समस्त शारीरिक कुशलता के कार्य सम्मिलित किये जा सकते हैं। इस अधिगम के निम्न उदाहरण हैं:-

  1. देखना
  2. सिर उठाना
  3. बैठना
  4. चलना

अधिगम की विशेषताएँ (Characteristics of Learning)

अधिगम की विशेषताएँ तथा इसके गुण निम्न हैं-

1. अधिगम एक प्रक्रिया (Learning is a process)

मानवीय अधिगम एक प्रक्रिया के अन्तर्गत होता है। सीखने की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए डॉ. जे. डी. शर्मा ने लिखा है-” सीखने की प्रक्रिया का स्वरूप मस्तिष्कीय अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है। सीखने की प्रक्रिया केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र में रूपान्तरण होने के साथ-साथ होती रहती है। इन रूपान्तरणों को कभी-कभी अनुरेखण भी कहा जाता है।

अत: सामान्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सीखने से हमारे मस्तिष्क में कुछ रेखाचित्र बनते हैं, जो अभ्यास से दृढ़ एवं स्पष्ट होते रहते हैं और भविष्य में जाग्रत होकर सहायता करते रहते हैं। अतः सीखना धीरे-धीरे निश्चित तरीके से उन्नति की ओर बढ़ता है। यही सीखने/अधिगम की प्रक्रिया है।

2. सही प्रतिचारों का चुनाव (Selection of right responses)

किसी कार्य को सीखते समय सीखने वाला जो प्रयास करता है, वे सभी प्रतिचार कहलाते हैं। सीखते समय सही प्रतिचारों का चयन करना होता है ताकि समय एवं शक्ति का सही प्रयोग हो सके।

3. अभ्यास (Practice)

उद्दीपक और प्रतिचार के बीच परिवर्तनीय सम्बन्धों को अभ्यास कहा जाता है। सीखने में सही प्रतिचारों का बार-बार प्रयोग किया जाता है ताकि सीखना स्थायी हो जाय।

4. परिवर्तन में स्थायित्वता (Stability in change)

जब किसी कार्य को करने में स्थायित्वता आ जाती है तो वह हमारे व्यवहार का स्थायी अंग बन जाता है। हम कभी भी उसका प्रयोग आसानी से कर सकते हैं। यही ज्ञान की वृद्धि में सहायक होता है।

5. लक्ष्य की प्राप्ति (Achieve of goal)

सीखने में लक्ष्य प्राप्ति करना आवश्यक होता है। बिना लक्ष्य निर्धारण के कोई भी सीखना सफल नहीं हो पाता है। लक्ष्य जीवन की आवश्यकताओं से सम्बन्धित होता है। इसी से सीखने वाले को उत्साह एवं बल प्राप्त होता रहता है।

6. विभेदीकरण (Differentiation)

मानव प्राणी की यह विशेषता होती है कि वह एक क्रिया और दूसरी क्रिया में क्या अन्तर है, स्वतः ही पहचान लेता है। इसी को मनोवैज्ञानिक विभेदीकरण मानते हैं। सीखने के क्षेत्र में यह बहुत पायी जाती है। व्यक्ति की मानसिक तत्परता इसी पर निर्भर करती है।

स्टैगनर ने लिखा है – “जब व्यक्ति में बौद्धिक तथा अनुकूलित व्यवहार आ जाता है, तो हम वस्तुओं का प्रत्यक्षीकरण करना तथा उनमें पारस्परिक सम्बन्ध देखना सीख जाते हैं।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि सीखना सबसे अधिक जटिल प्रक्रिया है। सरल इसलिये दिखायी देता है कि मानव इसे सहज ही स्वीकार कर लेता है और विकास एवं अभिवृद्धि इसके बिना सम्भव नहीं है।

अत: हम कह सकते हैं कि अधिगम एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अभ्यास के द्वारा व्यवहार में स्थायी परिवर्तन धारण करता है।

अधिगम (सीखने) के नियम (Laws of Learning)

विभिन्न खोजकर्ताओं ने सीखने को सरल और प्रभावशाली बनाने के लिये कुछ बातों पर बल दिया है। इनके पालन से सीखने में शीघ्रता होती है और अपेक्षाकृत समय एवं शक्ति की बचत होती है। अतः हम सीखने के नियमों एवं प्रभावशाली कारकों को निम्न रूप में प्रस्तुत करते हैं।

थार्नडाइक अमेरिका के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक हुए है जिन्होंने सीखने के नियम की खोज की जिन्हें निम्न दो भागों में विभाजित किया गया है-

(i) मुख्य नियम (Primary Laws)

  1. तत्परता का नियम
  2. अभ्यास का नियम (उपयोग का नियम, अनुप्रयोग का नियम)
  3. प्रभाव का नियम

(ii) गौण नियम (Secondary Laws)

  1. बहु-अनुक्रिया का नियम
  2. मानसिक स्थिति का नियम
  3. आंशिक क्रिया का नियम
  4. समानता का नियम
  5. साहचर्य-परिर्वतन का नियम

सीखने के मुख्य नियम

थार्नडाइक के सीखने के नियम तीन है जो इस प्रकार हैं-

  1. तत्परता का नियम – इस नियम के अनुसार जब व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए पहले से तैयार रहता है तो वह कार्य उसे आनन्द देता है एवं शीघ्र ही सीख लेता है। इसके विपरीत जब व्यक्ति कार्य को करने के लिए तैयार नहीं रहता या सीखने की इच्छा नहीं होती हैतो वह झुंझला जाता है या क्रोधित होता है व सीखने की गति धीमी होती है।
  2. अभ्यास का नियम – इस नियम के अनुसार व्यक्ति जिस क्रिया को बार-बार करता है उस शीघ्र ही सीख जाता है तथा जिस क्रिया को छोड़ देता है या बहुत समय तक नहीं करता उसे वह भूलने लगताहै। जैसे‘- गणित के प्रष्न हल करना, टाइप करना, साइकिल चलाना आदि। इसे उपयोग तथा अनुपयोग का नियम भी कहते हैं।
  3. प्रभाव का नियम – इस नियम के अनुसार जीवन में जिस कार्य को करने पर व्यक्ति पर अच्छा प्रभाव पड़ता है या सुख का या संतोष मिलता है उन्हें वह सीखने का प्रयत्न करता है एवं जिन कार्यों को करने पर व्यक्ति पर बुरा प्रभाव पडता है उन्हें वह करना छोड़ देता है। इस नियम को सुख तथा दुःख या पुरस्कार तथा दण्ड का नियम भी कहा जाता है।

गौण नियम या अन्य नियम

  1. बहु अनुक्रिया नियम – इस नियम के अनुसार व्यक्ति के सामने किसी नई समस्या के आने पर उसे सुलझाने के लिए वह विभिन्न प्रतिक्रियाओं के हल ढूढने का प्रयत्न करता है। वह प्रतिक्रियायें तब तक करता रहता है जब तक समस्या का सही हल न खोज ले और उसकी समस्यासुलझ नहीं जाती। इससे उसे संतोष मिलता है थार्नडाइक का प्रयत्न एवं भूल द्वारा सीखने का सिद्धान्त इसी नियम पर आधारित है।
  2. मानसिक स्थिति या मनोवृत्ति का नियम – इस नियम के अनुसार जब आदमी सीखने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहता है तो वह शीघ्र ही सीख लेता है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति मानसिक रूप से किसी कार्य को सीखने के लिए तैयार नहीं रहता तो उस कार्य को वह सीख नहीं सकेगा।
  3. आंशिक क्रिया का नियम – इस नियम के अनुसार व्यक्ति किसी समस्या को सुलझाने के लिए अनेक क्रियायें प्रयत्न एवं भूल के आधार पर करता है। वह अपनी अंतर्दृष्टि का उपयोग कर आंशिक क्रियाओं की सहायता से समस्या का हल ढूढ़ लेता है।
  4. समानता का नियम – इस नियम के अनुसार किसी समस्या के प्रस्तुत होने पर व्यक्ति पूर्व अनुभव या परिस्थितियों में समानता पाये जाने पर उसके अनुभव स्वतः ही स्थानांतरित होकर सीखने में मदद करते हैं।
  5. साहचर्य परिवर्तन का नियम – इस नियम के अनुसार व्यक्ति प्राप्त ज्ञान का उपयोग अन्य परिस्थिति में या सहचारी उद्दीपक वस्तु के प्रति भी करने लगता है। जैसे-कुत्ते के मुह से भोजन सामग्री को देख कर लार टपकरने लगती है। परन्तु कुछ समय के बाद भोजन के बर्तनको ही देख कर लार टपकने लगती है।

अधिगम (सीखना) का अर्थ तथा सिद्धान्त (Meaning and Principles of Learning)

अधिगम (सीखना) एक प्रक्रिया है। जब हम किसी कार्य को करना सीखते हैं, तो एक निश्चित क्रम से गुजरना होता है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने सीखना कैसे होता है, इस पर कुछ सिद्धांतों को निर्धारित किया है। अतः किसी भी उद्दीपक के प्रति क्रमबद्ध प्रतिक्रिया की खोज करना ही अधिगम सिद्धांत होता है।

अध्ययन की सुविधा के लिये हम यहाँ पर निम्न अधिगम (सीखने) के सिद्धांतों का वर्णन कर रहे हैं-

  1. प्रयत्न और भूल का सिद्धांत
  2. सम्बद्ध प्रतिक्रिया का सिद्धांत
  3. ऑपरेन्ट कन्डीशनिंग या स्किनर का क्रिया प्रसूत अनुबन्धन
  4. अन्तर्दृष्टि या सूझ का सिद्धांत
  5. अनुकरण का सिद्धांत

जब हम किसी कार्य को करना सीखते हैं, तो एक निश्चित क्रम से गुजरना होता है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने सीखना कैसे होता है, इस पर कुछ सिद्धांतों को निर्धारित किया है। अतः किसी भी उद्दीपक के प्रति क्रमबद्ध प्रतिक्रिया की खोज करना ही अधिगम का सिद्धांत होता है।

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