बाल विकास की अवधारणा (Concept of Child Development)
बाल विकास (Child Development) की प्रक्रिया एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस सृष्टि में प्रत्येक प्राणी प्रकृति द्वारा प्रदत्त अनुकूलन परिस्थितियों से उत्पन्न होता है उत्पन्न होने तथा गर्भ धारण की दशाएँ सभी प्राणियों की पृथक्-पृथक हैं। बाद में मनुष्य अपने परिवार में विकास एवं वृद्धि को प्राप्त करता है।
प्रत्येक बालक के विकास की प्रक्रिया एवं वृद्धि में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। किसी बालक की लम्बाई कम होती है तथा किसी बालक की लम्बाई अधिक होती है। किसी बालक का मानसिक विकास तीव्र गति से होता है तथा किसी बालक का विकास मन्द गति से होता है। इस प्रकार की अनेक विभिन्नताएँ बाल विकास से सम्बद्ध होती हैं। मनोवैज्ञानिकों द्वारा इस प्रकार की विभिन्नताओं के कारण एवं उनके समाधान पर विचार-विमर्श किया गया तो यह तथ्य दृष्टिगोचर हुआ कि बाल विकास की प्रक्रिया को वे अनेक कारण एवं तथ्य प्रभावित करते हैं, जो कि उसके परिवेश से सम्बन्धित होते हैं।
इस प्रकार बाल मनोविज्ञान के क्षेत्र में बाल विकास की अवधारणा का जन्म हुआ। इस सम्प्रत्यय में मनोवैज्ञानिकों द्वारा बाल विकास को अध्ययन का प्रमुख बिंदु मानते हुए उन समाधानों को खोजने का प्रयत्न किया, जो कि संतुलित बाल विकास में अपना योगदान देते हैं। बाल विकास की प्रक्रिया को भी इस अवधारणा में समाहित किया गया है। शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु भी बाल विकास के सम्प्रत्यय का ज्ञान आवश्यक माना गया है। वर्तमान समय में यह अवधारणा महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हुई है।
बाल विकास का अर्थ
किसी बालक के विकास से आशय शिशु के गर्भाधान (गर्भ में आने) से लेकर पूर्ण प्रौढ़ता प्राप्त करने की स्थिति से है।
पितृ सूत्र (Sperms) तथा मातृ सूत्र (Ovum) के संयोग से एक जीव उत्पन्न होता है। तत्पश्चात् उसके अंगों का विकास होता है। यह विकास की प्रक्रिया लगातार चलती रहती है। इसी के फलस्वरूप बालक विकास की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरता है। परिणामस्वरूप बालक का शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक विकास होता है।
हम पूर्व में बता चुके हैं कि विकास बढ़ना नहीं है अपितु परिपक्वतापूर्ण परिवर्तन है। बालकों में परिवर्तन एक अनवरत न दिखने वाली प्रक्रिया है, जो निरन्तर गतिशील है।
अन्य शब्दों में, “विकास बड़े होने तक ही सीमित नहीं है, वस्तुत: यह व्यवस्थित तथा समानुगत प्रगतिशील क्रम है, जो परिपक्वता प्राप्ति में सहायक होता है।”
हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, “बाल विकास में प्रमुख रूप से बालक के स्वरूप, व्यवहार, रुचियों और उद्देश्यों में होने वाले विशेष परिवर्तनों के अनुसन्धान पर बल दिया जाता है, जो बालक के एक विकास कालक्रम से दूसरे विकास कालक्रम में प्रवेश करते समय होते हैं। बाल विकास के अध्ययन में यह जानने का प्रयल किया जाता है कि यह परिवर्तन कब और क्यों होते हैं? यह परिवर्तन व्यक्तिगत हैं या सार्वभौमिक हैं।”
बाल विकास में यह भी देखा जाता है कि जो परिवर्तन व्यक्तिगत या सार्वभौमिक रूप से होते रहते हैं, उनके पीछे वंशानुक्रमीय तथा वातावरणीय कारणों में से कौन-सा प्रमुख है? अथवा उपरोक्त दोनों ही परिवर्तन के कारण हैं।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि विकास से आशय केवल बढ़ने से ही नहीं है। विकास से तात्पर्य परिपक्वता की ओर अग्रसर होने के एक निश्चित क्रम से है। विकास में व्यवस्था रहती है। बालक के शरीर में प्रत्येक परिवर्तन का आधार यह है कि वह किस प्रकार के क्रम का निर्धारण करता है? विकास से तात्पर्य शरीर के गणात्मक परिवर्तन से है।
बाल विकास की अवस्थाएं
कोल, जान्स, सैले, काल्सनिक आदि विद्वानों के वर्गीकरण के आधार पर हम विकास की अवस्थाओं को निम्नलिखित भागों में विभक्त कर सकते हैं-
1. शैशवावस्था (Infancy)– जन्म से 6 वर्ष तक
‘फ्रायड’ (Froied) ने लिखा है- “मानव शिशु जो कुछ बनता है, जीवन के प्रारम्भिक चार-पाँच वर्षों में ही बन जाता है। “The little human being is freequenlty a finished product in his four or fifth year.”
इस प्रकार से स्पष्ट हो जाता है कि बालक की शैशवावस्था या शैशव काल उसके जीवन का क्रम निश्चित करने वाला समय है।
2. बाल्यावस्था (Chilhood)– 6 से 12 वर्ष तक
बालक के विकास की सभी अवस्थाएँ अपने में अलग-अलग विशेषताएँ लिये हुए हैं। बाल्यावस्था, जिसका समय विद्वानों ने 6 वर्ष से 12 वर्ष तक माना है, बालक के जीवन का अनोखा काल माना जाता है।
3. किशोरावस्था (Adolescence)– 12 वर्ष से 18 वर्ष तक
मानव विकास की सबसे विचित्र एवं जटिल अवस्था किशोरावस्था है। इसका काल 12 वर्ष से 18 वर्ष तक रहता है। इसमें होने वाले परिवर्तन बालक के व्यक्तित्व के गठन में महत्त्वपूर्ण योग प्रदान करते हैं। अत: शिक्षा के क्षेत्र में इस अवस्था का विशेष महत्त्व है।
- किशोरावस्था का अर्थ
- किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएँ
- किशोरावस्था में विकास के सिद्धान्त
- किशोरावस्था की समस्याएँ
- किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप
4. वयस्कावस्था (Adulthood)- 18 वर्ष के उपरान्त
वयस्कता या प्रौढ़ावस्था, मानव जीवन काल जिसमें पूर्ण शारीरिक और बौद्धिक परिपक्वता प्राप्त हुई है। वयस्कता आमतौर पर 18 से 21 साल की उम्र में शुरू होती है। लगभग 40 वर्ष से शुरू होने वाली मध्य आयु, लगभग 60 वर्ष की आयु के बाद वृद्धावस्था होती है।
विकासात्मक प्रक्रिया के स्तर
बालक का विकास विभिन्न अवस्थाओं से होकर गुजरता है, जैसा कि हम पूर्व पृष्ठों (शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था) में वर्णन कर चुके हैं। इन विभिन्न अवस्थाओं में बालक का ‘स्व’ या ‘व्यक्तित्व’ अनेक प्रकार से विकसित होता है। इस प्रक्रिया के स्वरूप में अपूर्व शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक तत्त्वों का संकलन होता है। इस प्रकार विकास की प्रक्रिया बालक के शैशव काल से प्रारम्भ होकर किशोरावस्था के समापन काल तक चलती है। अत: इसका स्पष्ट वर्णन प्रस्तुत कर रहे हैं-
- शारीरिक विकास (Physical development)
- मानसिक विकास (Mental development)
- सामाजिक विकास (Social development)
- भाषा विकास (Language development)
1. शारीरिक विकास
मानव जीवन का प्रारम्भ उसके पृथ्वी पर जन्म लेने से पहले ही प्रस्फुटित होने लगता है। वर्तमान समय में गर्भधारण की स्थिति से ही मानवीय जीवन का प्रारम्भ माना जाता है। माँ के गर्भ में बच्चा 280 दिन या 10 चन्द्रमास तक विकसित होकर परिपक्वावस्था प्राप्त करता है। अतः शारीरिक दशा का विकास गर्भकाल में निश्चित किया जा सकता है।
2. मानसिक विकास
जन्म के समय शिशु असहाय अवस्था में होता है। वह मानसिक क्षमता में भी पूर्ण अविकसित होता है। आयु की वृद्धि एवं विकास के साथ-साथ बालकों की मानसिक योग्यता में भी वृद्धि होती है। इस पर वंशानुक्रम एवं पर्यावरण दोनों का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है।
3. सामाजिक विकास
शिशु का व्यक्तित्व सामाजिक पर्यावरण में विकसित होता है। वंशानुक्रम से जो योग्यताएँ उसे प्राप्त होती हैं, उनको जाग्रत करके सही दिशा देना समाज का ही कार्य है।
4. भाषा विकास या अभिव्यक्ति क्षमता का विकास
भाषा विकास, बौद्धिक विकास की सर्वाधिक उत्तम कसौटी मानी जाती है। बालक को सर्वप्रथम भाषा ज्ञान परिवार से होता है। तत्पश्चात विद्यालय एवं समाज के सम्पर्क में उनका भाषायी ज्ञान समृद्ध होता है।
सृजनात्मकता/रचनात्मकता
सृजनात्मकता (Creativity) सामान्य रूप से जब हम किसी वस्तु या घटना के बारे में विचार करते हैं तो हमारे मन-मस्तिष्क में अनेक प्रकार के विचारों का प्रादुर्भाव होता है। उत्पन्न विचारों को जब हम व्यावहारिक रूप प्रदान करते हैं तो उसके पक्ष एवं विपक्ष, लाभ एवं हानियाँ हमारे समक्ष आती हैं। इस स्थिति में हम अपने विचारों की सार्थकता एवं निरर्थकता को पहचानते हैं। सार्थक विचारों को व्यवहार में प्रयोग करते हैं। इस प्रकार की स्थिति सृजनात्मक चिन्तन कहलाती है।
इसे एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। जेम्स वाट एक वैज्ञानिक था। उसने रसोईघर से आने वाली एक आवाज को सुना तथा जाकर देखा कि चाय की केतली का ढक्कन बार-बार उठ रहा है तथा गिर रहा है। एक सामान्य व्यक्ति के लिये सामान्य घटना थी परन्तु सृजनात्मक व्यक्ति के लिये सजनात्मक चिन्तन का विषय थी।
यहाँ से सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। जेम्सवाट ने सोचा कि भाप में शक्ति होती है इसके लिये उसने केतली के ढक्कन पर पत्थर रखकर उसकी शक्ति का परीक्षण किया। इसके बाद उसने उसका उपयोग दैनिक जीवन में करने पर विचार किया तथा भाप के इन्जन का निर्माण करने में सफलता प्राप्त की।
इस प्रकार की स्थितियों से सृजनात्मक चिन्तन का मार्ग प्रशस्त होता है। सृजनात्मक चिन्तन की विभिन्न विद्वानों द्वारा निम्न परिभाषाएँ दी गयी हैं-
सृजनात्मक चिन्तन की परिभाषाएँ
- प्रो. एस. के. दुबे के शब्दों में, “सृजनात्मक चिन्तन का आशय उन कार्यों से है जिनके माध्यम से नवीन विचारों, वस्तुओं एवं व्यवस्थाओं का सृजन सम्भव होता है।“
- श्रीमती आर. के. शर्मा के अनुसार, “सृजनात्मक चिन्तन का आशय मस्तिष्क उद्वेलन की उस प्रक्रिया से है जिसमें किसी एक विषय पर अनेक प्रकार के विचार उत्पन्न होते हैं। उन विचारों के आधार पर नवीन एवं उपयोगी वस्तुओं एवं विचारों का सृजन होता है।“
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि सृजनात्मक चिन्तन का आधार नवीन विचारों एवं उपयोगी वस्तुओं का सृजन करना है। इसका सम्बन्ध भौतिक जगत् से होता है। इसमें विचारक किसी विचार का उपयोग भौतिक जगत् की सुख एवं सुविधाओं के लिये करता है। इस प्रकार सृजनात्मक चिन्तन मानसिक प्रक्रिया के साथ-साथ कौशलात्मक प्रक्रिया से भी सम्बन्धित होता है।
संपूर्ण बाल विकास – Sampurna Bal Vikas
- बाल विकास का अर्थ
- बाल विकास के अध्ययन के उद्देश्य
- बाल विकास का क्षेत्र
- बाल विकास के अध्ययन की उपादेयता एवं महत्त्व
- प्राथमिक स्तर पर बाल विकास के अध्ययन की उपादेयता एवं महत्त्व
- बाल विकास की अवस्थाएँ–
- शैशवावस्था – शैशवावस्था की विशेषताएँ, शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप
- बाल्यावस्था – बाल्यावस्था की विशेषताएँ, बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप
- किशोरावस्था – किशोरावस्था का अर्थ, किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएँ, किशोरावस्था में विकास के सिद्धान्त, किशोरावस्था की समस्याएँ, किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप
- विकासात्मक प्रक्रिया के स्तर एवं आयाम–
- शारीरिक विकास
- मानसिक विकास
- बुद्धि का परिचय
- बुद्धि की परिभाषाएँ
- बुद्धि की प्रकृति या स्वरूप
- बुद्धि एवं योग्यता
- बुद्धि के प्रकार
- बुद्धि के सिद्धान्त
- मानसिक आयु
- बुद्धि-लब्धि एवं उसका मापन
- बुद्धि का विभाजन
- बुद्धि का मापन
- बिने के बुद्धि-लब्धि परीक्षा प्रश्न
- बुद्धि परीक्षणों के प्रकार
- व्यक्तिगत और सामूहिक बुद्धि परीक्षणों में अन्तर
- भारत में प्रयुक्त होने वाले बुद्धि परीक्षण
- शाब्दिक एवं अशाब्दिक परीक्षणों में अन्तर
- बुद्धि परीक्षणों के गुण या विशेषताएँ
- बुद्धि परीक्षणों के दोष
- बुद्धि परीक्षणों की उपयोगिता
- सामाजिक विकास
- भाषा विकास या अभिव्यक्ति क्षमता का विकास
- सृजनात्मकता
बाल विकास की प्रक्रिया एक जटिल लेकिन प्राकृतिक यात्रा है, जिसमें शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक सभी पहलुओं का संतुलित विकास महत्वपूर्ण होता है। बच्चों की सही देखभाल, उचित पोषण, और सकारात्मक वातावरण उनके शारीरिक विकास को प्रोत्साहित करता है, जबकि मानसिक विकास के लिए शिक्षा और रचनात्मक गतिविधियों का बड़ा योगदान होता है। इसके साथ ही, भावनात्मक विकास के लिए प्यार, समझ और सहारा अत्यधिक आवश्यक है।
इसलिए, माता-पिता और परिवार का सहयोग, बच्चों के सम्पूर्ण और स्वस्थ विकास के लिए अनिवार्य है। एक सही दिशा और संतुलन से, बच्चे अपने जीवन में आत्मविश्वासी, सशक्त और खुशहाल बन सकते हैं।