समास-प्रकरण
“अमसनम् अनेकेषां पदानाम् एकपदीभवनं समासः।” – जब अनेक पद अपने जोड़नेवाले विभक्ति-चिह्नादि को छोड़कर परस्पर मिलकर एक पद बन जाते हैं, तो उस एक पद बनने की क्रिया को ‘समास’ एवं उस पद को संस्कृत में ‘सामासिक’ या समस्तपद’ कहते है।
वहीं पर बिखरे पद (अलग-अलग पद) ‘समास विग्रह’ कहलाते हैं-वत्यर्थावबोधकं वाक्यं विग्रहः।
हिंदी व्याकरण में – समास (Samas)
संस्कृत समास में सामर्थ्य
एक पद का दूसरे पद के साथ समस्त होना पद विधि है। विधि उन्हीं पदों की होती है, जिनका परस्पर सामर्थ्य होता है अर्थात् जिनमें परस्पर समस्त होने की योग्यता है।
सामर्थ्य दो प्रकार की होती है- 1. व्यपेक्षा और 2. एकार्थी भाव ।
व्यपेक्षा
आकांक्षा, योग्यता और आसत्ति (सन्निधि) के कारण पदों का परस्पर संबंध होता है। जैसे- राज्ञः पुरुषः। यहाँ ‘राज्ञः’ (राजा का) कहने से अर्थ पूर्ण नहीं होता। अन्य किसी पद की आकांक्षा रह जाती है। जहाँ पदों में आकांक्षा नहीं होती वहाँ समास नहीं होता है।
एकार्थी भाव
यह सामर्थ्य का दूसरा प्रकार है। एकार्थी भाव समस्त पदों में पाया जाता है। जैसे– ‘राजपुरुषः‘ इसमें राज्ञः पुरुषः – ये दो पृथक् पद हैं। इनका अर्थ अलग-अलग है; किन्तु जब इन पदों का समास होकर ‘राजपुरुषः’ एक सुबन्त पद बन जाता है तब उन दोनों पदों के अर्थ का एक साथ बोध होता है। इसे ही एकार्थीभाव सामर्थ्य कहते हैं।
संस्कृत में समास के प्रकार या भेद
संस्कृत में मुख्य रूप से चार प्रकार के समास होते हैं-
1. अव्ययीभाव समास
इस समास में पूर्वपद ‘अव्यय और उत्तरपद अनव्यय होता है; किन्तु समस्तपद अव्यय हो जाता है। इसमें पूर्वपद की प्रधानता होती है।- ‘पर्वपदप्रधानोऽव्ययीभावः‘।
इस समास का मुख्य पाणिनि-सूत्र है –
“अव्ययं विभक्तिसमीपसमद्धिव्यद्धयथाभावात्ययास प्रति शब्द प्रादुभव।
श्चादयथाऽनपयोगपद्यसादयसम्पत्तिसाकल्यान्तवचनेषु ।”
अर्थ – विभक्ति, सामीप्य, समृद्धि, व्यृद्धि (ऋद्धि का अभाव), अर्थाभाव, अत्यय (अतीत होता), असम्पति (वर्तमान काल में यक्त न होना), शब्द प्रादुर्भाव (प्रसिद्धि), पश्चात् यथार्थ, आनुपर्थ्य (अनुक्रम), यौगपद्य (एक ही समय में होना), सादृश्य, सम्पत्ति (आत्मानुरूपता), साकल्य (सम्पूर्णता) और अन्त–इन अर्थों में से किसी भी अर्थ में वर्तमान अव्यय का समर्थ सुबन्त के साथ समास होता है। जैसे:-
- हरौ इति = अधिहरि (हरि में)। – विभक्ति
- आत्मनि इति = अध्यात्म (आत्मा में)। – विभक्ति
- नद्याः समीपम् = उपनदम् (नदी के समीप) – समीप
- गङ्गायाः समीपम् = उपगङ्गम् (गंगा के समीप) – समीप
- नगरस्य समीपम् = उपनगरम् (नगर के समीप) -समीप
- मद्राणां समृद्धि = सुमन्द्रम् (मद्रवासियों की समृद्धि) – समृद्धि
- भिक्षाणां समृद्धि = सुभिक्षम् (भिक्षाटन की समृद्धि) – समृद्धि
- यवनानां व्युद्धि = दुर्यवनम् (चवनों की दुर्गति) – व्यृद्धि
- भिक्षाणां व्वृद्धि = दुर्भिक्षम् (भिक्षा का अभाव) – व्यृद्धि
- मक्षिकाणाम् अभाव = निर्मक्षिकम् (मक्खियों का अभाव) – अर्थाभाव
- विघ्नानाम् अभाव = निर्विघ्नम् (विघ्नों का अभाव) – अर्थाभाव
विस्तार से पढ़े:- अव्ययीभाव समास।
2. तत्पुरुष समास
‘उत्तरपदार्थप्रधानः तत्पुरुषः – तत्पुरुष समास में उत्तरपद के अर्थ की प्रधानता रहती है। ‘परलिंग तत्परुषे–तत्पुरुष समास होने पर समस्त भाग को उत्तरपद का लिंग प्राप्त
होता है। जैसे—
- धान्येन अर्थः= धान्यार्थः।
- कृष्णं श्रितः = कृष्णश्रितः। (कृष्ण को प्राप्त)
- दुःखम् अतीतः =दुःखातीतः। (दुःख को पार कर गया हुआ)
- व्यासेन कृतम् = व्यासकृतम्। व्यास द्वारा किया
- शंकुलया खण्डः = शंकुलाखण्डः। शंकुल (सरीते) से खण्ड किया
- रन्धनाय स्थाली = रन्धनस्थाली। राँधने के लिए थाली
- भूताय बलिः = भूतबलिः। जीव के लिए बलि
- प्रेतात् भीतिः = प्रेतभीतिः। प्रेत से डर
- सर्पात् भीतः = सर्पभीतः। सर्प से डरा हुआ
- गजानां राजा =गजराजः। गजों का राजा
- राष्ट्रस्य पतिः = राष्ट्रपतिः। राष्ट्र का पति / स्वामी।
- सभायां पण्डितः = सभापंडितः। सभा में पंडित
- प्रेमिण धूर्त्तः = प्रेमधूर्तः। प्रेम में धूर्त
कर्मधारय समास
कर्मधारय समास को ‘समानाधिकरण तत्पुरुष’ भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें दोनों पद समान विभक्तिवाले होते हैं। इसमें विशेषण / विशेष्य तथा उपमान / उपमेय होते हैं । कहीं कहीं पर दोनों ही पद विशेष्य या विशेषण हो सकते हैं। कहीं-कहीं पर उपमान और उपमेय में अभेद स्थापित करते हुए रूपक कर्मधारय हो जाता है। जैसे-
- कृष्णः सर्पः =कृष्णसर्पः। काला साँप
- महान् पुरुषः = महापुरुषः। महान् पुरुष
- सत् वैद्यः = सवैद्यः। अच्छा वैद्य
- महत् काव्यम् = महाकाव्यम्। महाकाव्य
- महान् जनः = महाजनः। बड़े आदमी
द्विगु समास
‘संख्यापूर्वी द्विगुः – जिस समास का पहला पद संख्यावाची और दूसरा पद कोई संज्ञा हो अर्थात द्विगु समास का पहला पद संख्यावाचक होता है और सम्पूर्ण पद समूह का बोध कराता है।
- द्वैमातुरः = द्वयोः मात्रोः अपत्यम् पुमान्। दो माताओं का पुत्र।
- षण्मातुरः = घण्णाम् मातृणाम् अपत्यम् युमान्। छह माताओं का पुत्र।
- पाञ्चजन्यम् = पञ्चानां जनानां भावः कर्म न। पाँच जनों का होना।
‘तद्धितार्थोत्तर पद समाहारे च। द्विग समास तीन प्रकार में होते हैं- तद्धितार्थ द्विगु, उत्तरपद द्विगु और समाहार द्विगु।
तद्धितार्थ द्विगु के अन्त में तद्धित रहता है; संख्यावाची विशेषण विशेष्य के बाद कोई पद आए तो उत्तरपद द्विगु होता है और समूह का अर्थ प्रकट हो तो समाहार द्विगु होता है।
नञ् समास
नञ् (न) का सुबन्त के साथ समास नञ् समास‘ कहलाता है। यदि उत्तर पद का बहठीहि अर्थ प्रधान हो तो नञ् तत्पुरुष और यदि अन्य पद की प्रधानता हो तो ‘न‘ होता है। जैसे- अमोधः = न मोघः – नञ् तत्पुरुष, अपुत्रः = न पुत्रः यस्य सः – नञ् बहुव्रीहि।
3. द्वंद्व समास
‘दौ दो द्वन्द्वम्‘-दो-दो की जोड़ी का नाम ‘द्वन्द्व है। अथवा ‘उभयपदार्थप्रधानो द्वन्द्ध:‘ जिस समास में दोनों पद अथवा सभी पदों की प्रधानता होती है। जैसे-
- धर्मः च अर्थः च = धर्मार्थी
- धर्मः च अर्थः च कामः च = धमार्थकामाः
द्वन्द्व समास तीन प्रकार के होते हैं-
(a) इतरेतर द्वन्द्वः (b) एकशेषद्वन्दः (c) समाहार द्वन्द्वः
(a) इतरेतर द्वन्द्व
जिस द्वन्द्व समास में भिन्न-भिन्न पद अपने वचनादि से मुक्त होकर क्रिया के साथ संबद्ध होते हैं। जैसे- कृष्णश्च अर्जुनश्च = कृष्णार्जुनौ, हरिश्च हरश्च = हरिहरी
- कृष्णश्च अर्जुनश्च = कृष्णार्जुनौ
- हरिश्च हरश्च = हरिहरी
- रामश्च कृष्णश्च = रामकृष्णौ
(b) एकशेषद्वन्दः
इसमें एक ही पद शेष रहता है अन्य सभी लुप्त हो जाते हैं। जैसे- रामः च रामः च = रामौ (राम और राम) हंसः च हंसी च = हंसी।
- रामः च रामः च = रामौ (राम और राम)
- हंसः च हंसी च = हंसी।
- बालकः च बालिका च = बालको
(c) समाहार द्वन्द्वः
इस समास में एक ही तरह के कई पद मिलकर समाहार (समूह) का रूप धारण कर लेते हैं— ‘इन्द्धश्च प्राणितूर्यसेनाङ्गानाम्‘। समाहार द्वन्द्व एकवचन और नपुंसकलिंग में होता है। प्राणि, वाद्य, सेनादि के अंगों का समाहार द्वन्द्व एकवचन में होता है। ‘स नपुंसकम्‘–एकवचन वाला यह द्वन्द्व समास नपुंसकलिंग में होता है। जैसे-
- पाणी च पादौ च तेषां समाहारः = पाणिपादम्।
- मार्दङ्गिकश्च पाणविकश्च तथोः समाहारः = मार्दङ्गिपाणविकम्
- रथिकाश्च अश्वारोहाश्च तेषां समाहारः = रथिकाश्वारोहम्।
4. बहुब्रीह समास
‘अन्यपदार्थप्रधानो बहुव्रीहिः” ‘अनेकमन्यपदार्थ जिस समास में समस्तपदों में विद्यमान दो में से कोई पद प्रधान न होकर तीसरे अन्य पद की प्रधानता होती है। इसमें अनेक प्रथमान्त सुबन्त पदों का समस्यमान पदों से अन्य पद के अर्थ में समास होता है। जैसे-
- शुक्लम् अम्बरं यस्याः सा = शुक्लाम्बरा
- लम्वं उदरं यस्य सः = लम्बोदरः ।
- महान् आत्मा यस्य सः = महात्मा।
हिन्दी व्याकरण में समास : Samas: Samas in Hindi
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