संस्कृत श्लोक (Sanskrit Shlokas) भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। संस्कृत भाषा में श्लोकों का आरंभ वेदों से माना जाता है: ऋग्वेद में श्लोक की संख्या 10462 है जिन्हें ऋचाएं कहते हैं; यजुर्वेद में 1975 गद्यात्मक संस्कृत श्लोक; सामवेद में गाने के लिये 1875 संगीतमय श्लोक और अथर्ववेद में गुण, धर्म, आरोग्य, एवं यज्ञ के लिये 5977 कवितामयी संस्कृत श्लोक हैं।
इसी प्रकार वेदव्यास रचित महाकाव्य महाभारत में संस्कृत श्लोकों की संख्या लगभग 110,000 हैं, इसीलिए इसे शतसाहस्त्री संहिता और रामायण को चतुर्विंशति संहिता कहते हैं, क्यूंकि इसमें 23,440 संस्कृत श्लोक है, जो कि 24,000 के करीब है। महाभारत में समाहित गीता के 18 अध्यायों में सस्वर वाचन के लिए 700 श्लोक हैं, रामायण के श्लोकों में केवल सुन्दरकाण्ड में ही 2,855 श्लोक दृष्टिगत होते हैं।
संस्कृत के श्लोक (Shlokas of Sanskrit)
प्राचीनकाल से लेकर आज तक संस्कृत के श्लोक (Shlokas of Sanskrit) हमारे जीवन के आधार बने हुए हैं। संस्कृत के श्लोक जीवन जीने के मूल्य, जीवन जीने की नीतियाँ तथा उनसे होने वाले लाभों को बताया गया है; जैसे– बिना नाविक के नाव तथा बिना पायलट के वायुयान दिशाहीन है वैसे ही संस्कृत में श्लोकों (Shlokas in Sanskrit) के अध्ययन तथा ज्ञान के अभाव में मानव जीवन दिशाहीन तथा भ्रमित-सा प्रतीत होता है।
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सुभाषितानि संस्कृत श्लोक
सुभाषित शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है। सु का अर्थ है अच्छा ‘श्रेष्ठ‘ तथा भाषित का अर्थ है ‘उच्चारित करना‘ या ‘बोलना‘; इस प्रकार सुभाषित का अभिप्राय अच्छा उच्चारित करना या बोलना हुआ। सुभाषित श्लोक संस्कृत भाषा के प्राण हैं।
सुभाषित श्लोक, दिशाहीन मनुष्य को दिशा प्रदान करते हैं तथा जीने की नीतियों एवं उनके ज्ञान में प्रवीण करते हैं। इनके अध्ययन तथा ज्ञान द्वारा मनुष्य अपना तथा अपने निकट समाज का सम्यक् तथा सर्वांगीण विकास कर सकता है। उसके वैचारिक स्तर में सम्पूर्णता आती है। सम्पूर्णता प्राप्ति से एक आदर्श मानव का निर्माण होता है।
वह समझता है-“वसुधैव कुटुम्बकम्“। वह अपना पराया के भेद को समाप्त कर सर्वे भवन्तु सुखिन: वाक्य की सार्थकता के साथ रम जाता है। ऐसा मनुष्य-“श्रूयतां धर्म सर्वस्वं’ के भाव का प्रदर्शन करने की समग्र योग्यता संचित कर लेता है। श्लोकों के द्वारा छात्र अपने लक्ष्यों की ओर अग्रसर होता है-
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इस प्रकार सुभाषित श्लोक सम्पूर्ण जीवन के हितार्थ लाभप्रद, औषधि एवं अमृत स्वरूप है। इस अमृत तुल्य औषधि रूप संस्कृत श्लोकों में जीवन के मूल्य सुरक्षित हैं।
सम्पूर्ण जीवन का सार (रहस्य) इनके अंक (गोद) में विद्यमान है। इनके ज्ञान के वशीभूत होकर मनुष्य मृत्यु पर विजय पा लेता है, उसे मृत्यु का भय भी नहीं सताता। वह निर्भय और आसक्त भाव से इस मानव शरीर का उपभोग करता है।
उसे ज्ञान हो जाता है- नैनं छिन्दति शस्त्राणि। स्पष्ट है कि संस्कृत सुभाषित श्लोक मात्र विद्यार्थी जीवन के लिए ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण प्राणी मात्र के लिए सर्वांगीण विकास का स्वस्थ आधार है। इनके अध्ययन एवं ज्ञान के बिना जीवन शैली अधूरी तथा अन्धकारमय है।
संस्कृत में श्लोक हिन्दी अर्थ सहित (Sanskrit Shlokas with Hindi meaning)
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संस्कृत श्लोक 1.
काकचेष्टा वकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च,
अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंचलक्षणः॥ 1 ॥
अर्थ– कौए जैसा प्रयत्न, बगुले जैसा ध्यान, कुत्ते जैसी नींद, कम खाना और घर को छोड़ देना। विद्यार्थी के यह पाँच लक्षण होते हैं।
संस्कृत श्लोक 2.
अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्,
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्॥ 2 ॥
अर्थ– अठारह पुराणों में व्यासजी के दो वचन सार के हैं- परोपकार करो-पुण्य के लिए है॥ दूसरे को पीड़ा पहुँचाना-पाप के लिए है।
संस्कृत श्लोक 3.
विद्वित्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन्,
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥ 3 ॥
अर्थ– विद्वान् होना और राजा होना कभी भी समान नहीं है क्योंकि राजा की पूजा तो केवल अपने ही राज्य में होती है, जबकि विद्वान् की पूजा सब जगह होती है।
संस्कृत श्लोक 4.
एकेनापि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम्,
सहैव दशभिः पुत्रैः भारं वहति रासभी॥ 4 ॥
अर्थ– एक अच्छा पुत्र होने से शेरनी वन में निडर होकर सोती है। परन्तु गधी दसियों पुत्रों के होने पर भी बोझा ढोती है।
संस्कृत श्लोक 5.
उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथैः,
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥ 5 ॥
अर्थ– कार्य परिश्रम से ही पूर्ण होते हैं, मन में सोचने से नहीं। जैसे सोते हुए सिंह के मुख में हिरण नहीं आते हैं।
Sanskrit Shloka 6.
गच्छन् पिपीलिको याति योजनानां शतान्यपि,
अगच्छन् वैनतेयोऽपि पदमेकं न गच्छति॥ 6 ॥
अर्थ– चलती हई चींटी भी सैकड़ों योजन चली जाती है, जबकि न चलने वाला गरुड़ एक कदम भी नहीं चल पाता।
Sanskrit Shloka 7.
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः,
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्॥ 7 ॥
अर्थ– सभी को प्रणाम करने वालों तथा वृद्धों की नित्य सेवा करने वाले पुरुषों की आयु, विद्या, यश और बल ये चार वस्तुएँ बढ़ती हैं।
Sanskrit Shloka 8.
अपि स्वर्णमयीलङ्का न मे लक्ष्मण रोचते,
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥ 8 ॥
अर्थ– हे लक्ष्मण ! यद्यपि यह लंका सोने की है। फिर भी यह मुझे अच्छी नहीं लगती क्योंकि माता तथा जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है ?
Sanskrit Shloka 9.
दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते,
यदन्नं भक्ष्यते नित्यं जायते तादृशी प्रजा॥ 9 ॥
अर्थ– जिस प्रकार दीपक अन्धकार को खाकर नष्ट करक. काजल पैदा करता प्रकार जैसा अन्न खाया जाता है, उसी प्रकार की सन्तान पैदा होती है।
Sanskrit Shloka 10.
सत्यं ब्रूयात् प्रियम् ब्रूयात् ब्रूयात् सत्यमप्रियम्,
प्रियम् च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः॥ 10 ॥
अर्थ– सत्य बोलना चाहिए और प्रिय बोलना चाहिये। अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिये और प्यारा झूठ भी नहीं बोलना चाहिये। यही सनातन धर्म है।
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श्लोक 11.
अयं निजः परोवेनि गणना लघुचेतसाम्,
उदारचरितानान्तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥ 11 ॥
अर्थ– यह मेरा है, वह दूसरों का है। यह तुच्छ निम्न. बुद्धि के लोग सोचते हैं। उदार मन वालों के लिए तो सारी पृथ्वी ही परिवार जैसी होती है।
श्लोक 12.
षड्दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता,
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता॥ 12 ॥
अर्थ– यहाँ ऐश्वर्य चाहने वाले मनुष्य को नँद, थकान, डर, गुस्सा, आलस्य और धीरे-धीरे काम करने की आदत इन छ: दुर्गुणों को छोड़ देना चाहिये॥
श्लोक 13.
सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता,
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूज्येत्॥ 13॥
अर्थ– माता सम्पूर्ण तीर्थ स्वरूपा है तथा पिता सब देवों के स्वरूप हैं। इसलिए माता और पिता की सभी यत्नों से पूजा करनी चाहिये।
श्लोक 14.
माता शत्रु पिता बैरी येन बालो न पाठितः,
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये वको यथा॥ 14 ॥
अर्थ– वह माता शत्रु तथा पिता बैरी है, जिसने अपने बालक को नहीं पढ़ाया। जैसे हंसों के मध्य बगुला शोभा नहीं देता, ऐसे ही सभा में बिना पढ़ा बालक शोभा नहीं देता।
श्लोक 15.
नास्ति लोभसमो व्याधिः नास्ति क्रोधसमो रिपुः,
नास्ति दारिद्रयवद् दुःखं नास्ति ज्ञानात्परं सुखम्॥ 15 ॥
अर्थ– लोभ के समान कोई दूसरा रोग नहीं है, क्रोध के समान कोई शत्रु नहीं है। दरिद्रता के समान कोई दु:ख नहीं है, ज्ञान से बड़ा कोई सुख नहीं है।
श्लोक 16.
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः,
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता॥ 16 ॥
अर्थ– सभी प्राणी प्रिय मीठा. बोलने से प्रसन्न होते हैं। इसलिए प्रिय और मधुर वाक्य ही बोलने चाहिये। मृदु बोलने में दरिद्रता कंजूसी. कैसी?
श्लोक 17.
नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते मृगैः,
विक्रमार्जितसत्त्वस्य स्वमेव मृगेन्द्रता॥ 17 ॥
अर्थ– पशुओं हिरणों. द्वारा शेर का न अभिषेक ही किया जाता है और न ही संस्कार किया जाता है। स्वयं ही सिंह अपने पराक्रम से पशुओं का राजा बन जाता है।
श्लोक 18.
उदेति सविता ताम्रस्ताप एवास्तमेति च,
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता॥ 18 ॥
अर्थ– सूर्य लाल ही उदय होता है और सूर्य लाल ही अस्त होता है। उसी प्रकार सम्पत्ति और विपत्ति में महापुरुष एक समान रहते हैं।
श्लोक 19.
वदन प्रसादसदनं सदयं हृदयं सुधामुचोवाचः,
करणं परोपकरणं येषां न, ते वन्द्याः॥ 19 ॥
अर्थ– जिनका मुख प्रसन्नता का घर है, हृदय दया से युक्त है, अमृत के समान मधुर वाणी है॥ जो सदा परोपकार करते हैं, वे किसके वन्दनीय नहीं होते हैं।
श्लोक 20.
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्,
मूढ़ः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते॥ 20 ॥
अर्थ– पृथ्वी पर जल, अन्न और मधुर वचन यह तीन ही रत्न हैं, जबकि मूर्ख जन पत्थर के टुकड़ों को रत्न कहते हैं।
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Shloka 21.
काकः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेदः पिककाकायोः,
बसन्ते समुपायाते काकः पिकः पिकः॥ 21 ॥
अर्थ– कौआ काला है, कोयल भी काली है, फिर कौआ और कोयल दोनों में भेद क्या है? बसन्त ऋतु के आने पर कोयल, कोयल होती है और कौआ, कौआ होता है अर्थात् दोनों का भेद प्रकट हो जाता है।
Shloka 22.
शनैः पन्थाः शनैः कन्थाः शनैः पर्वतलङ्घनम्,
शनैर्विद्याः शनैर्वित्तं पञ्चैतानि शनैः शनैः॥ 22 ॥
अर्थ– मार्ग चलने में, वस्त्र निर्माण में, पर्वत को लाँघने में, विद्या पढ़ने में और धन अर्जन में ये पाँचों कार्य धीरे-धीरे करने चाहिये।
Shloka 23.
दरिद्रता धीरतया विराजते कुरूपता शीलतया विराजते,
कभोजनं चोष्णतया विराजते कुवस्रता शुभ्रतया विराजते॥ 23 ॥
अर्थ– धैर्य से गरीबी शोभित होती है, उत्तम स्वभाव या व्यवहार से कुरूपता शोभा पाती है। गर्म करने से बुरा भोजन ठण्डा. भी अच्छा हो जाता है तथा स्वच्छता से बुरा वस्त्र भी शोभित होता है।
Shloka 24.
उत्साहसम्पन्नम दीर्घसूत्रं
क्रियाविधिज्ञ व्यसनेव्यसक्तम्।
शुर कृतज्ञं दृढ़सौहृदञ्च,
लक्ष्मीः स्वयं याति निवासहेतोः॥ 24 ॥
अर्थ– उत्साह से पूर्ण, आलस्य न करने वाले, कार्य की विधि को जानने वाले, बुरे कामों में न फंसने वाले वीर अहसान मानने वाले, पक्की मित्रता रखने वाले पुरुष के पास रहने के लिए लक्ष्मी स्वयं जाती है।
Shloka 25.
दानेन तल्यो निधिरस्ति नान्यों,
लोभाच्च नान्योऽस्ति रिपुः पृथिव्याम्।
विभषणं शीलसमं न चान्यत्,
सन्तोषतुल्यं धनमस्ति नान्यत्॥ 25 ॥
अर्थ– दान के बराबर दूसरा कोई और खजाना नहीं है, लोभ के बराबर पृथ्वी पर दूसरा कोई शत्रु नहीं है, विनम्रता के समान कोई दूसरा आभूषण नहीं है और सन्तोष के बराबर कोई धन नहीं है।
Shloka 26.
विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा,
सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ,
प्रकृतिसिद्धिमिदं हि महात्मनाम्॥ 26 ॥
अर्थ– संकट के समय धैर्य, उन्नति में क्षमा, सभा में वाणी बोलने की चतुरता, युद्ध में पराक्रम कीर्ति में इच्छा तथा वेद शास्त्रों को सुनने की लगन ये गुण महान् व्यक्तियों में स्वभाव से ही होते हैं।
Shloka 27.
पापान्निवारयति योजयते हिताय,
गुह्यं निगूहति गुणान् प्रकटीकरोति।
आपदगतं च न जहाति ददाति काले,
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः॥ 27 ॥
अर्थ– उत्तम मित्र अपने भित्र को पापों से दूर करता है, हित भलाई. के कार्यों में लगाता है, उसकी गुप्त बातों को छिपाता है, गुणों को दर्शाता है प्रकट करता है., आपत्ति पड़ने पर साथ नहीं छोड़ता, समय पड़ने पर सहायता करता है। महान् पुरुषों ने अच्छे मित्र के यही लक्षण बताये हैं।
Shloka 28.
निन्दन्तु नीतिनिपुणाः यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥ 28 ॥
अर्थ– नीति में निपुण लोगों की चाहें निन्दा करें अथवा प्रशंसा, लक्ष्मी आये या अपनी इच्छानुसार चली जाये, मृत्यु आज ही हो जाय या युग के बाद हो लेकिन धैर्यशाली पुरुष न्याय के मार्ग से एक कदम पीछे नहीं हटते॥
Shloka 29.
साहित्य संगीन कलाविहीनः,
साक्षात् पशुः पुच्छविषाणहीनः।
तृणं न खादन्नपि जीवमानः,
तद्भागधेयं परमं पशूनाम्॥ 29 ॥
अर्थ– जो व्यक्ति साहित्य संगीत व कला से रहित है, वह पूँछ तथा सींगों बिना साक्षात् पशु के समान है। यह पशुओं के लिए सौभाग्य की बात है कि ऐसा व्यक्ति चारा न खाते हुए भी जीवन धारण करता है।
Shloka 30.
सम्पदि यस्य न हर्षो विपदि विषादो रणे न भीरुत्वम्,
तं भुवनत्रयतिलकं जनयति जननी सुतं विरलम्॥ 30 ॥
अर्थ– जिसको सुख सम्पत्ति. में प्रसन्नता न हो, संकट विपत्ति. में दु:ख न हो, युद्ध में भय अथवा कायरता न हो, तीनों लोगों में महान् ऐसे किसी पुत्र को ही माता कभी-कभी ही जन्म देती है।
Shloka 31.
त्याज्यं न धैर्यं विधुरेऽपि काले,
धैर्यात् कदाचित् स्थितिमाप्नुयात् सः।
जाते समुद्रेऽपि हि पोत भंगे,
सांयात्रिकों वाञ्छति तर्तुमेव॥ 31 ॥
अर्थ– संकट में भी मनुष्य को. धीरज नहीं छोड़ना चाहिये, सम्भव है धैर्य से स्थिति में कभी सुधार आ जावे। जैसे समुद्र में जहाज के नष्ट हो जाने पर यात्री तैरने की ही इच्छा करना चाहता है।
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Geeta Shloka 32.
अन्नाद्भवन्ति भूतानि, पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो, यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥ 32 ॥
अर्थ– सम्पूर्ण प्राणी अन्न से पैदा होते हैं तथा अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है, वर्षा यज्ञ से और यज्ञ कर्म से पैदा होता है।
Geeta Shloka 33.
चञ्चलं हि मनः कृष्णः! प्रमाथि वलवद् दृढ़म्,
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥ 33 ॥
अर्थ– हे कृष्ण ! यह मन बड़ा चंचल, मथ डालने वाला बलवान तथा अत्यन्त मजबूत है। मैं इसको वश में करना, हवा को वश में करने के समान अत्यन्त कठिन मानता हूँ।
Bhagavad Gita Shloka 34.
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः,
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥ 34 ॥
अर्थ– जिससे कोई जीव दु:खी नहीं होता है तथा जो स्वयं भी किसी जीव से दु:खी नहीं होता है तथा जो प्रसन्नता, मानसिक संताप, भय और दु:खों से रहित है, वही भक्त मेरा प्यारा है।
Sanskrit Shloka from Bhagavad Gita 35.
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण! न च राज्यं सुखानि च,
कि नो राज्येन गोविन्द! कि भोगैर्जीवितेन वा॥ 35 ॥
अर्थ– हे कृष्ण! मैं विजय की इच्छा नहीं चाहता, राज्य तथा सुखों को पाने की भी मेरी इच्छा नहीं है। हे गोविन्द ! हमें राज्य भोग अथवा जीवित रहने से क्या अर्थ है?
Sanskrit Shloka from Bhagavad Gita 36.
सुखदुःखे समे कृत्वा, लाभालाभौ जयाजयौ,
ततो युद्धाय युज्यस्व नैब पापमवाप्स्यसि॥ 36 ॥
अर्थ– हे अर्जुन ! सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जीत-हार आदि सभी को समान समझकर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। तुम को पाप नहीं लगेगा अर्थात् पापी नहीं कहलाओगे।
Sanskrit Shloka of Bhagavad Gita 37.
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः,
तत्र श्रीर्विजयो भूतिधुवा नीतिर्मतिर्मम्॥ 37 ॥
अर्थ– जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं और जहाँ धनुषधारी अर्जुन हैं, वहाँ विजय तथा निश्चय ही कल्याण है। यही मेरी राय तथा नीति है।
Bhagavad Gita Shloka in Sanskrit 38.
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते,
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतम॥ 38 ॥
अर्थ– हे अर्जुन! तू कायरता को प्राप्त मत हो क्योंकि तेरे लिए यह उचित नहीं है हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।
Gita Shloka 39.
वासासि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि,
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥ 39 ॥
अर्थ– जिस प्रकार मनुष्य पुराने जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है। उसी प्रकार जीवात्मा पुराने शरीर को त्याग कर नये शरीर में प्रवेश करती है।
Gita Shloka 40.
नैनं छिन्दति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः,
न चैनं क्लेदयन्तापो न शोषयति मारुतः॥ 40 ॥
अर्थ– इस आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, पानी इसको गला नहीं सकता तथा वायु इसे सुखा नहीं सकती।
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Vidhya Shloka 41.
विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्,
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥ 41 ॥
अर्थ– विद्या से विनय नम्रता. आती है, विनय से पात्रता सजगता आती है पात्रता से धन की प्राप्ति होती है, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है।
Vidhya Shloka 42.
विद्याभ्यास स्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः,
अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम्॥ 42 ॥
अर्थ– विद्याभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-संयम, अहिंसा और गुरुसेवा – ये परम् कल्याणकारक हैं
Vidhya Shloka 43.
रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः,
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः॥ 43 ॥
अर्थ– रुपसंपन्न, यौवनसंपन्न, और चाहे विशाल कुल में पैदा क्यों न हुए हों, पर जो विद्याहीन हों, तो वे सुगंधरहित केसुडे के फूल की भाँति शोभा नहीं देते।
विद्या श्लोक 44.
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम्,
अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम्॥ 44 ॥
अर्थ– आलसी इन्सान को विद्या कहाँ ? विद्याविहीन को धन कहाँ ? धनविहीन को मित्र कहाँ ? और मित्रविहीन को सुख कहाँ ?
विद्या श्लोक 45.
संयोजयति विद्यैव नीचगापि नरं सरित्,
समुद्रमिव दुर्धर्षं नृपं भाग्यमतः परम्॥ 45 ॥
अर्थ– प्रवाह में बहेनेवाली नदी नाव में बैठे हुए इन्सान को न पहुँच पानेवाले समंदर तक पहुँचाती है, वैसे हि निम्न जाति में गयी हुई विद्या भी, उस इन्सान को राजा का समागम करा देती है; और राजा का समागम होने के बाद उसका भाग्य खील उठता है।
विद्या श्लोक 46.
कुत्र विधेयो यत्नः विद्याभ्यासे सदौषधे दाने,
अवधीरणा क्व कार्या खलपरयोषित्परधनेषु॥ 46 ॥
अर्थ– यत्न कहाँ करना ? विद्याभ्यास, सदौषध और परोपकार में। अनादर कहाँ करना ? दुर्जन, परायी स्त्री और परधन में।
Shloka in Sanskrit on vidya 47.
विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य,
कांचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानन्दम्॥ 47 ॥
अर्थ– विद्यावान और विनयी पुरुष किस मनुष्य का चित्त हरण नहि करता ? सुवर्ण और मणि का संयोग किसकी आँखों को सुख नहि देता ?
Sanskrit Shloka on vidya 48.
विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्,
कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम्॥ 48 ॥
अर्थ– कुरुप का रुप विद्या है, तपस्वी का रुप क्षमा, कोकिला का रुप स्वर, तथा स्त्री का रुप पतिव्रत्य है।
Sanskrit vidya Shloka 49.
रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः,
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः॥ 49 ॥
अर्थ– रुप संपन्न, यौवनसंपन्न, और चाहे विशाल कुल में पैदा क्यों न हुए हों, पर जो विद्याहीन हों, तो वे सुगंधरहित केसुडे के फूल की भाँति शोभा नहि देते।
Vidya Sanskrit Shloka 50.
माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः,
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा॥ 50 ॥
अर्थ– जो अपने बालक को पढाते नहि, ऐसी माता शत्रु समान और पित वैरी है; क्यों कि हंसो के बीच बगुले की भाँति, ऐसा मनुष्य विद्वानों की सभा में शोभा नहि देता !
Shloka 51.
त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव,
त्वमेव सर्वम् मम् देव देव॥ 51 ॥
अर्थ– हे भगवान! तुम्हीं माता हो, तुम्हीं पिता, तुम्हीं बंधु, तुम्हीं सखा हो। तुम्हीं विद्या हो, तुम्हीं द्रव्य, तुम्हीं सब कुछ हो। तुम ही मेरे देवता हो।
आशा है आपको यह “50+ Sanskrit Shlokas” पर लेख जरूर पसंद आया होगा। इस लेख में सबसे उपयुक्त और चुने हुए संस्कृत श्लोक सम्मिलित किये गए हैं। यदि आपको उपर्युक्त किसी भी श्लोक में कोई भी गलती मिलती है तो हमें जरूर अवगत कराएं। धन्यवाद।