संस्कृत श्लोक
सुभाषित शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है। सु का अर्थ है अच्छा ‘श्रेष्ठ’ तथा भाषित का अर्थ है ‘उच्चारित करना’ या ‘बोलना’; इस प्रकार सुभाषित का अभिप्राय अच्छा उच्चारित करना या बोलना हुआ। सुभाषित श्लोक संस्कृत भाषा के प्राण हैं। संस्कृत के श्लोक हमारे जीवन के आधार बने हुए हैं। संस्कृत में श्लोक के जीवन जीने के मूल्य, जीवन जीने की नीतियाँ तथा उनसे होने वाले लाभों को बताया गया है।
संस्कृत में श्लोक की आवश्यकता एवं महत्त्व
प्राचीनकाल से लेकर आज तक संस्कृत के श्लोक हमारे जीवन के आधार बने हुए हैं। संस्कृत में श्लोक के जीवन जीने के मूल्य, जीवन जीने की नीतियाँ तथा उनसे होने वाले लाभों को बताया गया है; जैसे-बिना नाविक के नाव तथा बिना पायलट के वायुयान दिशाहीन है वैसे ही सुभाषित श्लोकों के अध्ययन तथा ज्ञान के अभाव में मानव जीवन दिशाहीन तथा भ्रमित-सा प्रतीत होता है।
सुभाषित श्लोक, दिशाहीन मनुष्य को दिशा प्रदान करते हैं तथा जीने की नीतियों एवं उनके ज्ञान में प्रवीण करते हैं। इनके अध्ययन तथा ज्ञान द्वारा मनुष्य अपना तथा अपने निकट समाज का सम्यक् तथा सर्वांगीण विकास कर सकता है। उसके वैचारिक स्तर में सम्पूर्णता आती है। सम्पूर्णता प्राप्ति से एक आदर्श मानव का निर्माण होता है। वह समझता है-“वसुधैव कुटुम्बकम्” ।
वह अपना पराया के भेद को समाप्त कर सर्वे भवन्तु सुखिन: वाक्य की सार्थकता के साथ रम जाता है। ऐसा मनुष्य-“श्रूयतां धर्म सर्वस्वं’ के भाव का प्रदर्शन करने की समग्र योग्यता संचित कर लेता है।
श्लोकों के द्वारा छात्र अपने लक्ष्यों की ओर अग्रसर होता है-
अल्पाहारी, गृहत्यागी विद्यार्थी पंच लक्षणः।।
इस प्रकार सुभाषित श्लोक सम्पूर्ण जीवन के हितार्थ लाभप्रद, औषधि एवं अमृत स्वरूपा है। इस अमृत तुल्य औषधि रूप संस्कृत श्लोकों में जीवन के मूल्य सुरक्षित हैं। सम्पूर्ण जीवन का सार (रहस्य) इनके अंक (गोद) में विद्यमान है। इनके ज्ञान के वशीभूत होकर मनुष्य मृत्यु पर विजय पा लेता है, उसे मृत्यु का भय भी नहीं सताता। वह निर्भय और आसक्त भाव से इस मानव शरीर का उपभोग करता है। उसे ज्ञान हो जाता है- नैनं छिन्दति शस्त्राणि ।
स्पष्ट है कि संस्कृत सुभाषित श्लोक मात्र विद्यार्थी जीवन के लिए ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण प्राणी मात्र के लिए सर्वांगीण विकास का स्वस्थ आधार है। इनके अध्ययन एवं ज्ञान के बिना जीवन शैली अधूरी तथा अन्धकारमय है।
संस्कृत में श्लोक हिन्दी अर्थ सहित
संस्कृत श्लोक 1.
अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंचलक्षणः ।।1।।
देना–विद्यार्थी के यह पाँच लक्षण होते हैं।
संस्कृत श्लोक 2.
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।2।।
दूसरे को पीड़ा पहुँचाना-पाप के लिए है।
संस्कृत श्लोक 3.
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।। 3 ।।।
अपने ही राज्य में होती है, जबकि विद्वान् की पूजा सब जगह होती है।
संस्कृत श्लोक 4.
सहैव दशभिः पुत्रैः भारं वहति रासभी।। 4 ।।।
होने पर भी बोझा ढोती है।
संस्कृत श्लोक 5.
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।5।।
हिरण नहीं आते हैं।
संस्कृत श्लोक 6.
अगच्छन् वैनतेयोऽपि पदमेकं न गच्छति।।6।।
कदम भी नहीं चल पाता।
संस्कृत श्लोक 7.
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्।।7।।
विद्या, यश और बल ये चार वस्तुएँ बढ़ती हैं।
संस्कृत श्लोक 8.
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।। 8 ।।
माता तथा जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है ?
संस्कृत श्लोक 9.
यदन्नं भक्ष्यते नित्यं जायते तादृशी प्रजा।।9।।।
प्रकार जैसा अन्न खाया जाता है, उसी प्रकार की सन्तान पैदा होती है।
संस्कृत श्लोक 10.
प्रियम् च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः।।10।।
प्यारा झूठ भी नहीं बोलना चाहिये। यही सनातन धर्म है।
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श्लोक 11.
उदारचरितानान्तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।11।।
वालों के लिए तो सारी पृथ्वी ही परिवार जैसी होती है।
श्लोक 12.
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता।।12।।
काम करने की आदत इन छ: दुर्गुणों को छोड़ देना चाहिये।।
श्लोक 13.
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूज्येत्।। 13।।
पिता की सभी यत्नों से पूजा करनी चाहिये।
श्लोक 14.
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये वको यथा।।14।।
मध्य बगुला शोभा नहीं देता, ऐसे ही सभा में बिना पढ़ा बालक शोभा नहीं देता।
श्लोक 15.
नास्ति दारिद्रयवद् दुःखं नास्ति ज्ञानात्परं सुखम्।।15।।
समान कोई दु:ख नहीं है, ज्ञान से बड़ा कोई सुख नहीं है।
श्लोक 16.
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।।16।।
बोलने चाहिये। मृदु बोलने में दरिद्रता कंजूसी. कैसी?
श्लोक 17.
विक्रमार्जितसत्त्वस्य स्वमेव मृगेन्द्रता।। 17।।
जाता है। स्वयं ही सिंह अपने पराक्रम से पशुओं का राजा बन जाता है।
श्लोक 18.
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।।18।।
विपत्ति में महापुरुष एक समान रहते हैं।
श्लोक 19.
करणं परोपकरणं येषां न, ते वन्द्याः ।। 19।।।
जो सदा परोपकार करते हैं, वे किसके वन्दनीय नहीं होते हैं।
श्लोक 20.
मूढ़ः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।।20।।
टुकड़ों को रत्न कहते हैं।
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श्लोक 21.
बसन्ते समुपायाते काकः पिकः पिकः ।। 21।।
बसन्त ऋतु के आने पर कोयल, कोयल होती है और कौआ, कौआ होता है अर्थात् दोनों का
भेद प्रकट हो जाता है।
श्लोक 22.
शनैर्विद्याः शनैर्वित्तं पञ्चैतानि शनैः शनैः।। 22।।
ये पाँचों कार्य धीरे-धीरे करने चाहिये।
श्लोक 23.
कभोजनं चोष्णतया विराजते कुवस्रता शुभ्रतया विराजते।।23।।
गर्म करने से बुरा भोजन ठण्डा. भी अच्छा हो जाता है तथा स्वच्छता से बुरा वस्त्र भी
शोभित होता है।
श्लोक 24.
शुर कृतज्ञं दृढ़सौहृदञ्च, लक्ष्मीः स्वयं याति निवासहेतोः।।24।।
न फंसने वाले वीर अहसान मानने वाले, पक्की मित्रता रखने वाले पुरुष के पास रहने के
लिए लक्ष्मी स्वयं जाती है।
श्लोक 25.
विभषणं शीलसमं न चान्यत्, सन्तोषतुल्यं धनमस्ति नान्यत्।।25।।
नहीं है।
श्लोक 26.
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ, प्रकृतिसिद्धिमिदं हि महात्मनाम्।। 26।।
कीर्ति में इच्छा तथा वेद शास्त्रों को सुनने की लगन ये गुण महान् व्यक्तियों में स्वभाव से ही
होते हैं।
श्लोक 27.
गुह्यं निगूहति गुणान् प्रकटीकरोति।
आपदगतं च न जहाति ददाति काले,
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः।। 27।।
उसकी गुप्त बातों को छिपाता है, गुणों को दर्शाता है प्रकट करता है., आपत्ति पड़ने पर
साथ नहीं छोड़ता, समय पड़ने पर सहायता करता है। महान् पुरुषों ने अच्छे मित्र के यही
लक्षण बताये हैं।
श्लोक 28.
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।।
अद्यैव वा मरणस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।। 28 ।।।
इच्छानुसार चली जाये, मृत्यु आज ही हो जाय या युग के बाद हो लेकिन धैर्यशाली पुरुष
न्याय के मार्ग से एक कदम पीछे नहीं हटते।।
श्लोक 29.
साक्षात् पशुः पुच्छविषाणहीनः।
तृणं न खादन्नपि जीवमानः।
तद्भागधेयं परमं पशूनाम्।। 29।।
समान है। यह पशुओं के लिए सौभाग्य की बात है कि ऐसा व्यक्ति चारा न खाते हुए भी
जीवन धारण करता है।
श्लोक 30.
तं भुवनत्रयतिलकं जनयति जननी सुतं विरलम्।। 30।।
भय अथवा कायरता न हो, तीनों लोगों में महान् ऐसे किसी पुत्र को ही माता कभी-कभी ही
जन्म देती है।
श्लोक 31.
धैर्यात् कदाचित् स्थितिमाप्नुयात् सः।
जाते समुद्रेऽपि हि पोत भंगे,
सांयात्रिकों वाञ्छति तर्तुमेव।। 31।।
कभी सुधार आ जावे। जैसे समुद्र में जहाज के नष्ट हो जाने पर यात्री तैरने की ही इच्छा
करना चाहता है।
GEETA SHLOK IN SANSKRIT
भगवत गीता श्लोक 32.
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो, यज्ञः कर्मसमुद्भवः।। 32।।
और यज्ञ कर्म से पैदा होता है।
भगवत गीता श्लोक 33.
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।। 33।।
इसको वश में करना, हवा को वश में करने के समान अत्यन्त कठिन मानता हूँ।
भगवत गीता श्लोक 34.
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।। 34।।
है तथा जो प्रसन्नता, मानसिक संताप, भय और दु:खों से रहित है, वही भक्त मेरा प्यारा है।
Sanskrit Shloka from Bhagavad Gita 35.
कि नो राज्येन गोविन्द! कि भोगैर्जीवितेन वा।। 35।।
नहीं है। हे गोविन्द ! हमें राज्य भोग अथवा जीवित रहने से क्या अर्थ है?
Sanskrit Shloka Bhagavad Gita 36.
ततो युद्धाय युज्यस्व नैब पापमवाप्स्यसि।। 36।।
लिए तैयार हो जाओ। तुम को पाप नहीं लगेगा अर्थात् पापी नहीं कहलाओगे।
गीता श्लोक 37.
तत्र श्रीर्विजयो भूतिधुवा नीतिर्मतिर्मम्।। 37।।
कल्याण है। यही मेरी राय तथा नीति है।
Bhagavad Gita Sanskrit Shloka 38.
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतम।। 38।।
गीता श्लोक 39.
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।। 39।।
करता है। उसी प्रकार जीवात्मा पुराने शरीर को त्याग कर नये शरीर में प्रवेश करती है।
गीता श्लोक 40.
न चैनं क्लेदयन्तापो न शोषयति मारुतः।। 40।।।
सकता तथा वायु इसे सुखा नहीं सकती।
SHLOK IN SANSKRIT ON VIDYA
विद्या (Vidya) श्लोक 41.
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥41॥
विद्या (Vidya) श्लोक 42.
अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥ 42॥
विद्या (Vidya) श्लोक 43.
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥ 43॥
विद्या (Vidya) श्लोक 44.
अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ॥ 44॥
विद्या (Vidya) श्लोक 45.
समुद्रमिव दुर्धर्षं नृपं भाग्यमतः परम् ॥45॥
विद्या (Vidya) श्लोक 46.
अवधीरणा क्व कार्या खलपरयोषित्परधनेषु ॥46 ॥
Shlok in sanskrit on vidya 47.
कांचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानन्दम् ॥47 ॥
Sanskrit Shlok on vidya 48.
कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम् ॥48 ॥
Sanskrit vidya Shlok 49.
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥49 ॥
Vidya Sanskrit Shlok 50.
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ॥50 ॥
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