शिक्षण के सिद्धांत – सामान्य, मनोवैज्ञानिक और विशिष्ट सिद्धान्त

Shikshan Ke Siddhant
शिक्षण के सिद्धान्त (Principles of Teaching)

शिक्षण सिद्धांत का अर्थ (Meaning of Teaching Principles)

शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच अन्त:क्रिया होती है और शिक्षक शिक्षण के माध्यम से विद्यार्थी के व्यवहार में परिवर्तन लाने का प्रयास करता है। शिक्षण एक कला है और शिक्षक एक कलाकार। प्रत्येक कला के कुछ सिद्धान्त होते हैं। वही शिक्षक या कलाकार के सिद्धान्त बन जाते हैं। इसी प्रकार शिक्षण के भी सिद्धान्त होते हैं। इन सिद्धान्तों की सहायता से शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है।

सिद्धान्त किसी भी विषय, क्षेत्र या प्रक्रिया के विषय में वैज्ञानिक तरीके से आयोजन करना होता है कि वह प्रक्रिया स्पष्ट रूप में सभी के सामने आ सके।

  1. स्किनर (Skinner) के अनुसार- “Theory is a formal representation of the data reduced to a mineral number of terms.
  2. गेज (Gage, 1963) ने theory के बारे में लिखा है- “It refers to any systematic or drawing of ideas about the phenomena of a field of inquiry.
  3. बी. ओ. स्मिथ (B. O. Smith) (1963) के अनुसार- किसी भी शिक्षण सिद्धान्त में तीन तत्त्व अवश्य होने चाहिये- 1. चरों का स्पष्टीकरण, 2. इन चरों के बीच सम्बन्धों की स्थापना तथा 3. विभिन्न चरों के पारस्परिक सम्बन्धों के विषय में परिकल्पना को स्पष्ट करना।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि शिक्षण सिद्धान्त यह बताता है कि

  1. शिक्षण क्या है?
  2. शिक्षण व्यवहार क्या है?
  3. शिक्षण में कौन-कौन से चर तथा परिकल्पनाएँ हैं?
  4. शिक्षक का व्यवहार कैसा होता है और क्यों होता है ?
  5. इसका प्रभाव छात्रों पर क्या होता है?

शिक्षण-सिद्धान्त के प्रकार (Types of Teaching Principles)

व्यवहार को नियन्त्रित करने के लिये सिद्धान्तों का होना अति आवश्यक होता है। शिक्षक के व्यवहार को नियन्त्रित करने के लिये सामान्य रूप से दो प्रकार के शिक्षण सिद्धान्तों पर बल दिया गया है-

  1. शिक्षण के सामान्य सिद्धान्त (General principles of teaching)।
  2. शिक्षण के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त (Psychological principles of teaching)।

अन्य सिद्धांत

  1. शिक्षण के अधिगम आधारित विशिष्ट सिद्धान्त (Learning Based Specific Principles of Teaching)
Shikshan Ke Samanya Siddhant

शिक्षण के सामान्य सिद्धान्त (General Principles of Teaching)

शिक्षण के क्षेत्र में हुए शोधकार्यों, प्रयोगों तथा सामान्य परम्पराओं के फलस्वरूप शिक्षण के सामान्य सिद्धान्त विकसित हुए हैं। शिक्षण के ये सामान्य सिद्धान्त निम्न प्रकार हैं-

  1. उद्देश्य निधार्रण का सिद्धान्त (Principle of formulation of objectives)
  2. क्रियाशीलता का सिद्धान्त/करके सीखने का सिद्धान्त (Principle of activity/principle of learning by doing)
  3. रुचि का सिद्धान्त (Principle of interest)
  4. जीवन की वास्तविकता से सम्बन्धित करने का सिद्धान्त (Principle of linking with real life)
  5. सहसम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of correlation)
  6. बाल-केन्द्रिता का सिद्धान्त (Principle of child centeredness)
  7. चयन का सिद्धान्त (Principle of selection)
  8. व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धान्त (Principle of individual differences)
  9. जनतन्त्रीय प्रणाली का सिद्धान्त (Principle of democratic procedure)
  10. प्रभावशाली व्यूह रचनाओं का सिद्धान्त (Principle of effective strategies)
  11. उपचारात्मक शिक्षण का सिद्धान्त (Principle of remedial teaching)
  12. पुनरावृत्ति का सिद्धान्त (Principle of revision)
  13. अनुकूल वातावरण तथा उचित नियन्त्रण का सिद्धान्त (Principle of conductive environment and proper control)

1. उद्देश्य निर्धारण का सिद्धान्त (Principle of objectives assessment)

उद्देश्यों का निर्धारण करना शिक्षण का प्रमुख सिद्धान्त है क्योंकि उद्देश्य ही शिक्षण प्रक्रिया को दिशा प्रदान करते हैं। शिक्षक उद्देश्यों के अभाव में उस नाविक के समान है, जिसे अपने गन्तव्य स्थान का पता नहीं है और छात्र उस पतवारहीन नाव के समान है, जो लहरों के थपेड़े खाती हुई कहीं भी किनारे लग जाती है। अतः स्पष्ट है कि उद्देश्य निर्धारित किये बिना पढ़ाना शिक्षण कार्य नहीं है।

2. क्रियाशीलता का सिद्धान्त/करके सीखने का सिद्धान्त (Principle of activity/ principle of learning by doing)

यह शिक्षण का एक मूल्यवान् सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार, सीखने के लिये छात्र का क्रियाशील होना अति आवश्यक है। क्रियाशीलता दो प्रकार की होती है-

  1. शारीरिक क्रियाशीलता
  2. मानसिक क्रियाशीलता

शारीरिक क्रियाशीलता के अन्तर्गत छात्रों को कर्मेन्द्रियों की क्रियाशीलता का शिक्षण दिया जाना चाहिये तथा मानसिक क्रियाशीलता में ज्ञानेन्द्रियों का शिक्षण दिया जाना चाहिये। मनोविज्ञान के अनुसार, प्रत्येक छात्र अपने स्वभाव से ही क्रियाशील होता है। अतः क्रियाशीलता उसकी प्रकृति के अनुरूप होती है।

मैक्डूगल (McDougall) के अनुसार, “प्रत्येक बालक में रचना (Construction) की जन्मजात प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति के अनुसार बालक हर समय कुछ न कुछ करता ही रहता है। बालक जितनी अधिक क्रिया करेगा उतनी ही अधिक सीखने और सिखाने की प्रक्रिया (Learning teaching process) होगी।

अत: सफल शिक्षण के लिये शिक्षक को छात्र की रचना तथा अन्य मूल प्रवृत्तियों (Instincts) एवं इन्द्रियों (Senses) का अधिकाधिक प्रयोग करना चाहिये। शारीरिक तथा मानसिक क्रियाशीलताएँ एक-दूसरे पर निर्भर रहती हैं।

बालक जन्म लेने के कुछ समय पश्चात् ही शारीरिक दृष्टि से क्रियाशील होने लगता है तथा जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है, उसकी मानसिक क्रियाशीलता का क्षेत्र भी विस्तृत होता जाता है। छात्र का शरीर तथा मन दोनों साथ-साथ कार्य करते हैं, इसलिये वह प्रत्येक तथ्य को सीखने एवं कार्य करने में अधिक से अधिक रुचि लेता है।

प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री फ्रॉबेल ने (Froebel) इसी को ध्यान में रखते हुए “करके सीखने (Learning by doing)” के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया तथा इसी के आधार पर किण्डर-गार्टन (Kinter-Garten) पद्धति का प्रतिपादन किया।

इस सिद्धान्त का प्रयोग सभी कक्षाओं के सभी विषयों में तथा विद्यालय के विभिन्न कार्यक्रमों; जैसे– विद्यालय परिषद्, वाद-विवाद प्रतियोगिता तथा विभिन्न सभाओं, समितियों, गोष्ठियों, क्लबों एवं खेलकूद आदि में करना चाहिये। इससे छात्रों में प्रशासनिक आदतों का विकास होगा तथा उन्हें समाज सेवा का पर्याप्त एवं उचित प्रशिक्षण मिलेगा।

मनुष्य, जन्म से ही एक क्रियाशील प्राणी है; हालांकि वह जन्म के समय और उसके कुछ वर्षों बाद तक यह नहीं समझता कि वह जो स्वाभाविक क्रियाएँ कर रहा है-उनका क्या आशय है? उनकी क्रियाएँ सहज होते हुए भी शारीरिक विकास में सहायक सिद्ध होती हैं।

धीरे-धीरे वह ज्यों-ज्यों बड़ा होता है त्यों-त्यों उसका बौद्धिक विकास होने लगता है और वह उन क्रियाओं का महत्त्व भी धीरे-धीरे समझने लगता है। प्रारम्भ में जो क्रियाएँ अनुकरण प्रधान होती हैं, धीरे-धीरे वे अन्धानुकरण से दूर होती जाती हैं और सोद्देश्य होने लगती हैं।

इसी शाश्वत सत्य को ध्यान में रखते हुए प्रसिद्ध विचारक फ्रॉबेल (Froebel) ने बताया कि किसी भी बात को विद्यार्थियों को कहकर बताने की अपेक्षा यदि करके बताया जाय तो उसे जल्दी सीखा जा सकता है; उदाहरण के लिये– प्रारम्भ में जो बच्चा खिलौनों से खेल रहा हो, उसे उस समय उन खिलौनों के नाम बता दिये जायें तो वह उन नामों को जल्दी सीख लेता है।

यहाँ,समझने की बात यह है, क्रियाशीलता केवल शरीर तक सीमित नहीं। विद्यार्थियों को कोई बात शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से भी बताई जा सकती है और आंगिक संकेतों के द्वारा भी। जो विद्यार्थी सुन या बोल नहीं सकते उन्हें पढ़ाने और उनकी बात को समझने हेतु भी दोनों ओर अर्थात् शिक्षक एवं शिक्षार्थियों की ओर आंगिक क्रियाएँ भी क्रियाशीलता के अन्तर्गत ही आती हैं।

इसी प्रकार उच्च स्तर पर बौद्धिक सक्रियता भी अधिगम में अधिक सहायक सिद्ध होती है। बौद्धिक सक्रियता का आशय है कि विद्यार्थियों के समक्ष कुछ ऐसी समस्याएँ रखी जायें, जिनका हल वे स्वयं खोजने के प्रयास करें। ऐसा करने से उनकी बुद्धि सक्रिय अधिक होगी।

यह सोचना ठीक नहीं कि क्रियाशीलता का सिद्धान्त केवल शुद्ध विज्ञानों में प्रयोगों (Practical’s) तक ही सीमित है। ऐसा कोई भी विषय नहीं जिसमें क्रियाशीलता का सिद्धान्त लागू न हो सके। अन्तर केवल कम या अधिक का है। कलाओं में तो क्रियाशीलता सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध होती है।

3. रुचि का सिद्धान्त (Principle of interest)

पिन्सेट ने अपनी पुस्तक “The Principle of Teaching Method‘ में कहा है कि “जब तक छात्रों में सक्रिय रुचि जाग्रत नहीं होगी, तब तक शिक्षक का सर्वोत्तम कार्य नहीं होगा।

अत: शिक्षण कार्य करते समय शिक्षक को सर्वप्रथम छात्रों की रुचि का पता लगाना चाहिये और इस रुचि का विकास करने का प्रयास करना चाहिये। विषय के प्रति रुचि विकसित हो जाने पर छात्र स्वयं ही ज्ञान के अर्जन करने में व्यस्त रहता है। छात्र विषय से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार की पुस्तकें पढ़ता है, विषय से सम्बन्धित समस्याओं पर विचार-विमर्श करता है, विषय के विभिन्न पक्षों पर लेख लिखता है आदि। अत: शिक्षक को विषय के प्रति रुचि अवश्य विकसित करनी चाहिये।

इस सिद्धान्तानुसार विषयवस्तु सरल से कठिन क्रम में प्रस्तुत की जानी चाहिये, जिससे कि सभी छात्र सरलता एवं सफलतापूर्वक सीख सकेंगे। सफलता छात्र को सन्तोष देती है, जिससे छात्र की विषय के प्रति रुचि विकसित होती है।

विषय वस्तु प्रस्तुत करते समय छात्रों को विषयवस्तु सीखने का प्रयोजन स्पष्ट कर देना चाहिये। निष्प्रयोजन विषयवस्तु में छात्रों की रुचि विकसित नहीं होती है। इसके अतिरिक्त स्वयं शिक्षक की विषय के प्रति प्रगाढ़ रुचि का छात्रों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। अत: शिक्षकों को भी विषय के प्रति रुचि रखनी चाहिये।

यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जो बात रुचिकर होती है उसे विद्यार्थी जल्दी सीख लेते हैं। इसीलिये शिक्षक प्रशिक्षण में किसी पाठ को पढ़ाने हेतु- ज्ञान (Knowledge), अवबोध (Understanding), ज्ञानोपयोग (Application) आदि के उद्देश्य निर्धारित करते समय रुचि (Interest) का भी उद्देश्य निर्धारित किया जाता है।

इसका प्रयोजन यही है कि शिक्षक पाठ को इतना रुचिकर बनाने का प्रयत्न करे कि विद्यार्थी उस पाठ को सीखने से सम्बन्धित प्रत्येक क्रिया में रुचि लें। यह कार्य लघु कथाओं, छोटी-छोटी कहानियों, सूक्तियों आदि के द्वारा किया जा सकता है।

यहाँ, कुछ लोगों के मन में यह शंका उठ सकती है कि कहीं ऐसा न हो कि पाठ को रोचक बनाने के चक्कर में पाठ की विषयवस्तु ही गौण न बन जाय और शिक्षक, पाठ को रोचक बनाने के नाम पर पूरे कालांश विद्यार्थियों को कहानियाँ ही सुनाता रहे तथा विषयवस्तु को छुए तक नहीं। यदि ऐसा होता है तो सर्वथा गलत है। ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिये।

यहाँ, सोचने और समझने की बात यह है कि किसी भी पाठ में रोचकता केवल कहानियाँ कहकर ही लायी जा सकती है ऐसा बिल्कुल नहीं है।

मनोवैज्ञानिक सत्य यह है कि रोचकता का सीधा सम्बन्ध विविधता (Variety) तथा नवीनता (Recency) से है। मनोवैज्ञानिक सत्य भी यही है कि किसी बात को बार-बार सुनते-सुनते तथा देखते-देखते रुचि के स्थान पर अरुचि अथवा जिसे हम ऊबना कहते हैं- की उत्पत्ति होती है, जो सीखने में बाधक सिद्ध होती है।

अत: शिक्षक को चाहिये कि इस ‘ऊब‘ को उत्पन्न न होने की दृष्टि से विषय सामग्री को नवीनता प्रदान करे। सदैव उसी रूप में उनके समक्ष प्रस्तुत न करे। समझाने की जो विविध युक्तियाँ (Devices) हैं- उनमें प्रसंगानुसार परिवर्तन करता रहे;

जैसे– कभी किसी बात को चित्रों के माध्यम से बताये तो कभी उदाहरणों आदि के माध्यम से। साथ ही उदाहरण भी प्रसंगानुरूप बदलते रहें, ताकि विद्यार्थियों की उसमें रुचि बनी रहे। ध्यान रहे हर बात पाठ को समझाने से सम्बद्ध हो, अप्रासंगिक नहीं। इसी का नाम रोचकता का सिद्धान्त है।

4. जीवन की वास्तविकता से सम्बन्धित करने का सिद्धान्त (Principle of linking with real life)

छात्र विभिन्न विषयों का अध्ययन मूलतः इसलिये करते हैं कि अर्जित ज्ञान जीवनोपयोगी हो सके। ऐसा तभी सम्भव है, जब विषयों का अध्ययन वास्तविकता पर आधारित हो।

थार्नडाइक (Thorndike) का मानना है कि- “जो बात विद्यार्थियों की दृष्टि से जीवनोपयोगी हो अथवा जिसे वे औपचारिक (Formal) अथवा अनौपचारिक (Informal) रूप से उन्होंने जान या समझ लिया है, उसके माध्यम से यदि विषयवस्तु को समझाया जाय तो वह सरलता से उनकी समझ में आ जाती है।” इसी का नाम जीवन से जोड़ने का सिद्धान्त है।

इस सिद्धान्त के अनुसार शिक्षण करने से निम्नलिखित प्रयोजन सिद्ध होते हैं:-

  1. प्रत्येक विषय का जीवन की वास्तविकता से सम्बन्ध स्थापित करके अध्ययन करने से अधिगम के स्थानान्तरण (Transfer of learning) में सुविधा होती है।
  2. विषयवस्तु का जीवन की वास्तविकता से सम्बन्ध स्थापित करके अध्ययन करने से छात्रों को विषयवस्तु की जीवन में सार्थकता (Significance) स्पष्ट हो जाती है और छात्र स्वयं विषय का अध्ययन करते हैं।
  3. विभिन्न विषयों का जीवन की वास्तविकता से सम्बन्ध स्थापित करने से शिक्षण-कार्य में स्वाभाविकता आ जाती है और शिक्षण के लिये अनुकूल पर्यावरण का निर्माण हो जाता है।

रायबर्न (Ryburn) के अनुसार, जीवन एक निरन्तर अनुभव है, जो भी हम करते हैं, उसका अतीत और भविष्य से सम्बन्ध होता है। हमारे दैनिक जीवन के नये-नये अनुभवों में केवल वही अनुभव स्थायी रह पाते हैं, जिनका सम्बन्ध हमारे पिछले अनुभवों से होता है।

अत: नये-नये अनुभवों को पुराने अथवा पूर्व अर्जित अनुभवों से सम्बन्धित करना परमआवश्यक है। नये और पुराने अनुभवों का सम्बन्ध स्थापित हो जाने पर नवीन अनुभव छात्र के जीवन का अंग बन जाता है।

रायबर्न की तरह ड्यूवी भी शिक्षण के इसी रूप को स्वीकार करते हैं।

5. सहसम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of correlation)

इस सिद्धान्त का अर्थ है किसी भी विषय को जब भी पढ़ाया जाये उसका सम्बन्ध विभिन्न विषयो के साथ भी स्पष्ट किया जाना चाहिये अर्थात् कला, विज्ञान, वाणिज्य, संगीत एवं शिक्षाशास्त्र आदि विषयों से जोड़ना चाहिये।

इसी प्रकार प्रकरण विशेष का सम्बन्ध उस विषय के अन्य प्रकरणों से जोड़कर बताना चाहिये; जैसे– इतिहास विषय में हल्दी घाटी के युद्ध के बारे में पढ़ाते समय शिक्षक उस भौगोलिक परिप्रेक्ष्य को भी प्रस्तुत करता है, जहाँ यह युद्ध लड़ा गया था, तो यह सहसम्बन्ध सिद्धान्त का उपयोग है। ऐसा करने से वस्तुस्थिति अधिक स्पष्ट हो जाती है।

अतः प्रत्येक शिक्षक को अवसर के अनुकूल एवं आवश्यकतानुसार सहसम्बन्ध के सिद्धान्त का उपयोग करना चाहिये।

6. बालकेन्द्रितता का सिद्धान्त (Principle of child centeredness)

एक अच्छा शिक्षक सदैव अपने शिक्षण को छात्रों की आवश्यकताओ, क्षमताओं, रुचियों, अभिरुचियों, आयु तथा मानसिक स्तर एवं शारीरिक स्तर आदि के अनुसार व्यवस्थित करता है। वह इस प्रकार शिक्षण को बालकेन्द्रित बनाता है।

7. चयन का सिद्धान्त (Principle of selection)

वर्तमान समय में प्रत्येक विषय में ज्ञान की मात्रा इतनी अधिक हो गयी है कि किसी व्यक्ति के लिये यह सम्भव नहीं है कि वह विषय के सभी पक्षों का गहरायी से अध्ययन कर सके।

अत: छात्रों की मानसिक परिपक्वता, निर्धारित उद्देश्य, शिक्षक कुशलता, समयावधि तथा साधन-सुविधाओं को ध्यान में रखकर विषयवस्तु का चयन करना चाहिये।

पढ़ाने का सम्बन्ध मूलत: शिक्षक से ही होता है। पढ़ाने से पूर्व तथा पढ़ाते समय उसे कई बातों पर विचार करना होता है। पढ़ाते-पढ़ाते उसे इस बात की भली-भाँति जानकारी हो जाती है कि पाठ्य-पुस्तक का कौन-सा पाठ कितना सरल या कठिन है?

सरल के माध्यम से कठिन अंश को बताया जाय तो विद्यार्थियों की समझ में विषयवस्तु जल्दी आ जाती है। साथ ही ध्यान रखना चाहिये कि किसी पाठ्यांश को समझाते समय उनकी दृष्टि से कौन-सी बात को पहले बताया जाय?

साथ ही साथ – क्या उदाहरण दिये जायें? जिन बातों को मौखिक रूप से नहीं समझाया जा सकता, उन्हें समझाने हेतु कौन-कौन से सहायक साधनों को उपयोग किया जाय आदि? इसी का नाम चयन का सिद्धान्त है।

पढ़ाते समय इस बात का ध्यान रखना भी जरूरी है कि शिक्षक पाठ को समझाने हेतु जो प्रश्न पूछ रहा है, प्रश्न पूछने के पश्चात् उसका उत्तर किस विद्यार्थी से पूछा जाय और किससे नहीं?

8. व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धान्त (Principle of individual differences)

छात्रों में व्यक्तिगत विभिन्नताएँ पायी जाती हैं। इनकी बुद्धि, स्वभाव, योग्यताएँ, क्षमताएँ एवं रुचियाँ आदि पृथक्-पृथक् होती हैं। एक योग्य शिक्षक अपने शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिये छात्रों की इन व्यक्तिगत विभिन्नताओं को दृष्टिगत रखते हुए ही शिक्षण व्यवस्था करता है।

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यदि देखा जाय तो सृष्टि में कभी भी दो व्यक्ति या बालक सर्वथा समान नहीं होते यहाँ तक कि जुड़वाँ बच्चे (Twins) भी समान नहीं होते। कहीं उनमें शारीरिक दृष्टि से अन्तर होता है तो कहीं बौद्धिक दृष्टि से तो कहीं किसी अन्य दृष्टि से।

शारीरिक दृष्टि से भी कहीं किसी का कद लम्बा है तो किसी का छोटा। इसी प्रकार कोई कम सुनता है तो किसी को दूर की वस्तु या अक्षर कम दिखायी देते हैं।

बौद्धिक दृष्टि से भी कोई किसी बात को जल्दी समझ लेता है तो कोई बार-बार समझाने पर भी बड़ी कठिनाई से समझ पाता है।

इसी प्रकार सामाजिक (Social), सांवेगिक (Emotional) आदि दृष्टियों से भी व्यक्तियों या विद्यार्थियों में यह अन्तर होता ही है। यह सत्य किसी एक कक्षा के लिये नहीं है; अपितु पूर्व-प्राथमिक कक्षाओं से लेकर उच्च कक्षाओं तक, सभी के लिये समान रूप से लागू होता है।

इन विभिन्नताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षक को कक्षा व्यवस्था भी इस प्रकार करनी चाहिये कि किसी भी विद्यार्थी को किसी अन्य विद्यार्थी के कारण परेशानी नहीं हो और सभी शिक्षक द्वारा कही हुई बातों को तथा श्यामपट्ट पर लिखी हुई विषयवस्तु को समान रूप से सुन और पढ़ सकें।

इसी के साथ शिक्षक को विद्यार्थियों से यदि कोई प्रश्न पूछना है तो प्रश्न को पूछे तो सभी से; किन्तु उसका उत्तर देने की दृष्टि से उत्तर उन विद्यार्थियों से पूछा जाये जो उसका उत्तर दे सकें।

इस दृष्टि से अपेक्षाकृत सरल प्रश्नों के उत्तर बौद्धिक या शैक्षिक दृष्टि से कमजोर विद्यार्थियों से पूछे जायें, ताकि वे उनका उत्तर दे सकें और उनमें हीन भावना (Inferiority complex) भी विकसित न हो।

इसी प्रकार कठिन प्रश्नों के उत्तर उन विद्यार्थियों से पूछे जायें जो स्वयं को बहुत होशियार समझते हैं, ताकि उस प्रश्न का उत्तर न दे पाने के कारण उनमें अहंभाव (Superiority complex) विकसित न हो।

साथ ही विद्यार्थियों को इस बात का भी आभास न हो कि किस विद्यार्थी से किस प्रकार का प्रश्न पूछा जायेगा?

शिक्षक द्वारा पढ़ाते समय विद्यार्थियों से सम्बन्धित इन सभी बातों का ध्यान रखने का नाम ही वैयक्तिक विभिन्नताओं का सिद्धान्त है।

9. जनतन्त्रीय प्रणाली का सिद्धान्त (Principle of democratic procedure)

शोध द्वारा प्रमाणित हो चुका है कि व्यक्तित्व का अच्छा विकास जनतन्त्रीय पर्यावरण में ही होता है। जनतन्त्रीय प्रणाली में शिक्षक ‘मित्र, दार्शनिक एवं मार्गदर्शक’ के रूप में व्यवहार करता है, जिससे छात्रों को स्वतन्त्र चिन्तन, मनन, तर्क तथा निर्णय का अवसर मिलता है।

ऐसे पर्यावरण में छात्रों में आज्ञाकारिता, सहनशीलता, सहकारिता एवं विनम्रता आदि गुणों के साथ-साथ नेतृत्व करने, पहल करने, निर्णय लेने तथा समस्याओं को हल करने की योग्यताओं का भी विकास होता है। अतः शिक्षक को कक्षा में जनतन्त्रीय प्रणाली के सिद्धान्त को अपनाना चाहिये।

10. प्रभावशाली व्यूह रचनाओं का सिद्धान्त (Principle of effective strategies)

शिक्षण प्रक्रिया में प्रभावशाली व्यूह रचनाओं का सिद्धान्त भी महत्त्वपूर्ण है। शिक्षक को शिक्षण कार्य करने से पूर्व सावधानीपूर्वक विषय से सम्बन्धित व्यूह रचनाओं का चयन एवं निर्माण कर लेना चाहिये तथा शिक्षण कार्य करते समय इनका उपयोग करना चाहिये। व्यूह रचनाओं के चयन के समय छात्रों की आवश्यकताओं, स्तर तथा पूर्वज्ञान का ध्यान अवश्य रखना चाहिये।

11. उपचारात्मक शिक्षण का सिद्धान्त (Principle of remedial teach-ing)

इस सिद्धान्त के अन्तर्गत शिक्षक छात्रों की कमजोरियों, कमियों, त्रुटियों का अनुमान लगाता है, फिर इनका उपचार करता है। इस प्रकार उन्हें कक्षा-स्तर तक पहुँचने में सहायता करता है।

12. पुनरावृत्ति का सिद्धान्त (Principle of revision and repetition)

यदि याद किये पाठ को कुछ समय पश्चात् पुनः पढ़ लिया जाये तो पाठ अच्छी तरह से याद हो जाता है। अत: पुनरावृत्ति का सिद्धान्त भी महत्त्वपूर्ण है। पाठ की पुनरावृत्ति कितने समय पश्चात् की जाये, यह विषयवस्तु की प्रकृति पर निर्भर करता है। बिना उचित अन्तराल के याद किया हुआ पाठ विस्मृत हो जाता है।

13. अनुकूल वातावरण तथा उचित नियन्त्रण का सिद्धान्त (Principle of conductive environment and proper control)

प्रभावशाली अधिगम के लिये अनुकूल वातावरण बहुत आवश्यक होता है। एक योग्य शिक्षक कक्षा की साफ-सफाई, प्रकाश, रोशनदान तथा बैठने की उचित व्यवस्था आदि पर ध्यान देता है। वह प्राचार्य, साथी शिक्षकों तथा छात्रों के साथ उचित सम्बन्ध रखता है।

इस प्रकार वह विद्यालय में प्रभावशाली अधिगम के लिये भौतिक एवं सामाजिक वातावरण को अनुकूल बनाकर उचित नियन्त्रण रखने का प्रयास करता है।

Shikshan Ke Manovaigyanik Siddhant

शिक्षण के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त (Psychological Principles of Teaching)

शिक्षण के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त शिक्षण प्रक्रिया को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। बालकों के मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए मनोवैज्ञानिकों ने ने प्रभावी शिक्षण हेतु अनेक सिद्धान्तों का निर्माण किया है। शिक्षण के ये मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त निम्न प्रकार हैं:-

  1. अभिप्रेरणा एवं रुचि का सिद्धान्त (Principle of motivation and interest)
  2. मनोरंजन का सिद्धान्त (Principle of recreation)
  3. तत्परता का सिद्धान्त (Principle of readiness)
  4. प्रतिपुष्टि/पुनर्बलन का सिद्धान्त (Principle of feedback and reinforcement)
  5. एक से अधिक ज्ञानेन्द्रियों के उपयोग का सिद्धान्त (Principle of Application of More Than One Sense)
  6. सहानुभूति तथा सहयोग का सिद्धान्त (Principle of sympathy and cooperation)
  7. सृजनात्मकता का सिद्धान्त (Principle of creativity)
  8. स्व-अधिगम का सिद्धान्त (Principle of encouraging self learning)
  9. समूह गत्यात्मकता का सिद्धान्त (Principle of group dynamics)

1. अभिप्रेरणा एवं रुचि का सिद्धान्त (Principle of motivation and interest)

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में अभिप्रेरणा और रुचि का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, शिक्षक और छात्र दोनों ही अभिप्रेरित होकर रुचि से कार्य करते हैं। फलस्वरूप शिक्षण अधिगम प्रक्रिया प्रभावशाली होती है।

2. मनोरंजन का सिद्धान्त (Principle of recreation)

इस सिद्धान्त के अनुसार, शिक्षण कार्य इस ढंग से करना चाहिये कि छात्र ज्ञान अर्जित करते समय स्वाभाविक प्रसन्नता अनुभव करें। इसके लिये शिक्षण कार्य- खेल विधि, विचार-विमर्श विधि, भ्रमण विधि तथा प्रायोजना विधि आदि द्वारा करना चाहिये। इससे छात्र प्रसन्नतापूर्वक ज्ञानार्जन की प्रक्रिया में व्यस्त हो जाते हैं।

इन विधियों में छात्र स्वयं क्रियाशील रहते हैं तथा उन्हें स्वतन्त्र अभिव्यक्ति का अवसर मिलता है। छात्रों को स्वतन्त्र अभिव्यक्ति से मानसिक सन्तोष प्राप्त होता है और वे प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। अतः शिक्षण में इस सिद्धान्त का पालन करना चाहिये।

3. तत्परता का सिद्धान्त (Principle of readiness)

छात्रों को जो कुछ भी पढ़ाया जाये उसके लिये उनमें मानसिक तत्परता अवश्य होनी चाहिये। यदि तत्परता नहीं होगी तो छात्र अच्छी तरह रुचि नहीं लेंगे। अत: शिक्षण के समय छात्रों की मानसिक परिपक्वता एवं तत्परता का ध्यान रखना आवश्यक होता है।

4. प्रतिपुष्टि/पुनर्बलन का सिद्धान्त (Principle of feedback/reinforcement)

छात्रों को समय-समय पर उचित प्रतिपुष्टि एवं पुनर्बलन देकर उनके सीखने की प्रक्रिया को अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है। छात्र प्रतिपुष्टि एवं पुनर्बलन से विषयवस्तु की ओर अधिक अग्रसरित होता है। अत: प्रतिपुष्टि एवं पुनर्बलन भी शिक्षण प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है।

5. सृजनात्मकता का सिद्धान्त (Principle of creativity)

इस सिद्धान्त के अनुसार शिक्षक को छात्रों में निहित सृजनात्मक क्षमता का विकास करना चाहिये। ऐसे छात्र जो कक्षा में नये-नये विचार, नयी खोजें तथा मौलिकता युक्त क्रियाएँ प्रस्तुत करते हैं, उन्हें शिक्षक द्वारा प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। वे ऐसा करने से बड़े होकर नवीन आविष्कार तथा नवीन अनुसन्धान करने में समर्थ हो सकेंगे।

6. स्व-अधिगम का सिद्धान्त (Principle of self learning)

जब छात्र स्वयं करके सीखते हैं तो उनका सीखना अधिक प्रभावशाली होता है। स्व-अधिगम से छात्रों में आत्म-विश्वास तथा आत्मनिर्भरता का विकास होता है। अत: शिक्षक द्वारा छात्रों में स्वअधिगम की प्रवृत्ति उचित परिस्थितियों तथा प्रशिक्षण द्वारा डाली जानी चाहिये।

7. समूह गत्यात्मकता का सिद्धान्त (Principle of group dynamics)

मनोविज्ञान का मानना है कि छात्र समूह में रहकर अधिक अच्छा सीखते हैं। अत: शिक्षक को समूह गत्यात्मकता के सिद्धान्त का प्रभावशाली ढंग से उपयोग करना चाहिये।

8. एक से अधिक ज्ञानेन्द्रियों के उपयोग का सिद्धान्त (Principle of application of more than one sense)

विभिन्न शोधों द्वारा स्पष्ट हो चुका है कि शिक्षण में शिक्षक जितनी अधिक ज्ञानेन्द्रियों का प्रयोग करेगा, ज्ञान के स्थायी होने की सम्भावना उतनी ही बढ़ जाती है। इस सिद्धान्त के अनुसार, शिक्षण में अधिक से अधिक दृश्य-श्रव्य सामग्री का उपयोग किया जाना चाहिये।

9. सहानुभूति तथा सहयोग का सिद्धान्त (Principle of sympathy and cooperation)

एक अच्छे शिक्षक के साथ छात्रों का आत्मिक (Cordial) सम्बन्ध होता है। शिक्षक और छात्र परस्पर एक-दूसरे को समझते हैं। शिक्षक छात्रों के साथ सहानुभूति रखते हुए उनकी समस्याओं को सरल बनाकर सहयोग करता है, छात्रों की अनुभूतियों और विचारों को समझता है, जिससे शिक्षण अधिगम प्रक्रिया अधिक सक्रिय, सरल और प्रभावशाली बनती है।

शिक्षण के अधिगम आधारित विशिष्ट सिद्धान्त

Learning Based Specific Principles of Teaching

सामान्य एवं मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के अतिरिक्त शिक्षण के कुछ विशिष्ट सिद्धान्त भी हैं जिनके माध्यम से शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाया जा सकता है। एक कुशल शिक्षण अपने शिक्षण में इन सिद्धान्तों का अवश्य ही प्रयोग करता है।

शिक्षण अधिगम के विशिष्ट सिद्धान्त निम्न प्रकार हैं:-

Shikshan Ke Vishisht Siddhant

1. आत्मीयता का सिद्धान्त (Principle of rapport)

आत्मीयता का आशय है- शिक्षक एवं शिक्षार्थियों के मध्य आत्मगत अथवा अपनेपन की भावना से भरे सम्बन्ध। ये सम्बन्ध औपचारिक सम्बन्धों से बिल्कुल भिन्न होते हैं।

प्राय: देखा जाता है कि बहुत से विद्यार्थी संकोच या किसी प्रकार के अन्य कारण से शिक्षक के पास जाने अथवा अपनी शिक्षणगत या व्यक्तिगत समस्याओं को उनसे कहने और उनके समाधान हेतु अपने शिक्षक की सलाह लेने में बहुत हिचकिचाते हैं; जबकि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इस प्रकार के सम्बन्ध अधिगम में सदैव बाधक सिद्ध होते हैं।

इस दृष्टि से शिक्षकों को चाहिये कि पढ़ाने से पूर्व विद्यार्थियों से अधिक नहीं तो केवल एक या दो मिनट के लिये अनौपचारिक रूप से ऐसी बातें करें जिससे उनकी हिचकिचाहट दूर हो जाय तथा वे शिक्षक को अपना हितैषी समझने लगें। इन्हीं मानवीय सम्बन्धों का नाम आत्मीयता (Rapport) है।

आत्मीयता स्थापित करने की दृष्टि से शिक्षक को विशेष कुछ न करके एक या दो मिनट के लिये ऐसी सामान्य बातें पूछना पर्याप्त है, जिनका सम्बन्ध उनकी जीवन की सामान्य जानकारी से हो सकता है; जैसेकैसे हो? कल क्या पढ़ा था? आदि…।

ऐसे प्रश्न पूछने और उनका उत्तर ग्रहण करने से एक तो छात्रों के मन एवं मस्तिष्क में जो विचार चल रहे थे उनसे उनका ध्यान हटकर विषयोन्मुख हो जाता है। दूसरे शिक्षक को अपना हितचिन्तक समझकर उसके प्रति उनकी श्रद्धा एवं अपनत्व के भाव बढ़ जाते हैं।

इसके द्वारा विद्यार्थियों को प्रकरणोन्मुख करने हेतु की जाने वाली प्रस्तावना का प्रयोजन भी स्वतः ही पूर्ण हो जाता है। अत: शिक्षण से पूर्व आत्मीयता स्थापित करना आवश्यक है, किन्तु ध्यान में रखने की बात यह है कि इसमें अधिक समय नहीं लगना चाहिये।

2. स्वाभाविक क्रम के अनुसरण का सिद्धान्त (Principle of following the natural order)

इस सिद्धान्त के अनुसार शिक्षक को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि पढ़ायी जाने वाली विषयवस्तु प्रायः दो प्रकार की होती है। पहली प्रकार की विषयवस्तु वह है जिसमें उसका सम्बन्ध पहले या पीछे की विषयवस्तु से नहीं होता; यथा बहुत सी मुक्तक कविताएँ।

दूसरी प्रकार की विषयवस्तु वह है जिसमें उसका सम्बन्ध आगे या पीछे की विषयवस्तु से किसी न किसी रूप में होता ही है; जैसे–  गिनतियों का सम्बन्ध पहाड़ों से है तो पहाड़ों का सम्बन्ध गुणा-भाग से है। इन सम्बन्धों का अपना एक क्रम होता है कि पहले कौन-सा और बाद में कौन-सा? जहाँ यह क्रम होता है वहाँ पढ़ाते समय इस क्रम का ध्यान रखना आवश्यक है।

उदाहरण के लिये– यदि विद्यार्थी गुणा-भाग के प्रश्नों को सही तरीके से नहीं समझ पा रहे हैं तो पहले उन्हें पहाड़े सिखाये जायें, तत्पश्चात् गुणा-भाग। इसी प्रकार लिखने में विद्यार्थी यदि लघु एवं दीर्घ स्वरों की मात्राओं की अशुद्धियाँ करते हैं तो पहले उन्हें विभिन्न स्वरों की ध्वनियों से अवगत कराया जाना चाहिये ताकि वे ध्वनि के आधार पर किसी शब्द की वर्तनी को शुद्ध रूप से लिख सकें।

सामाजिक विज्ञान के विषयों जैसे इतिहास, भूगोल आदि में भी इस सिद्धान्त का अनुसरण करते समय जो घटना या बात पहले हुई हो उसे पहले तथा जो बाद में हुई हो उसे बाद में ही बताना उपयुक्त रहेगा न कि इसके विपरीत। इस दृष्टि से अकबर को पढ़ाने से पूर्व हुमायूँ और हुमायूँ को पढ़ाने से पूर्व बाबर को पढ़ाया जाना चाहिये। यही स्वाभाविक क्रम के अनुसरण का सिद्धान्त है।

3. अन्त:क्रिया का सिद्धान्त (Principle of interaction)

दो व्यक्तियों के मध्य मानसिक, बौद्धिक अथवा आत्मगत विचारों एवं भावनाओं के आधार पर पारस्परिक क्रिया को अन्त:क्रिया (Interaction) कहते हैं। जैसा कि “आत्मीयता का सिद्धान्त” के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है कि शिक्षक का व्यवहार ऐसा होना चाहिये कि विद्यार्थी अपनी शंकाओं का नि:संकोच समाधान कर सकें।

इस सिद्धान्त का उद्देश्य भी यही है। केवल इतना ही अन्तर है कि वहाँ शिक्षक द्वारा वातावरण बनाया जाता है और यहाँ विद्यार्थी उसका लाभ उठाते हैं।

इस दृष्टि से अन्त:क्रिया के अन्तर्गत दोनों ओर; अर्थात् शिक्षक एवं शिक्षार्थी की ओर से एक प्रश्न पूछता है तो दूसरा उसका सहज भाव से उत्तर देता है; अर्थात् शिक्षक बौद्धिक सक्रियता अथवा मूल्यांकन किसी भी दृष्टि से जो प्रश्न पूछे उनका उत्तर विद्यार्थी, स्मृति अथवा चिन्तन के आधार पर दे।

इसके साथ ही शिक्षार्थियों द्वारा पूछे गये प्रश्नों अथवा उनकी शंकाओं और समस्याओं के समाधान हेतु शिक्षक उनका उत्तर देने और उन्हें समझाने का प्रयास करे इसी का नाम अन्तःक्रिया है।

यथार्थतः शिक्षक-प्रशिक्षण का मूलाधार भी यही है कि शिक्षक अपने विवेक एवं चातुर्य का उपयोग करते हुए ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करे कि शिक्षार्थी सब कुछ स्वयं ही निकालने का सफल प्रयास करें। जहाँ वे अटके या सही समाधान न खोज सकें वहाँ शिक्षक, उनकी सहायता करे। इस दृष्टि से चाहे वह शिक्षण से सम्बन्धित समस्या हो अथवा कोई अन्य समस्या-उसका सही समाधान तभी सम्भव है, जब दोनों ओर से अन्तःक्रिया हो।

शिक्षण के विषय में तो यह बहुत ही प्रभावी सिद्ध होती है। इसीलिये शिक्षण को प्रभावी बनाने की दृष्टि से इस सिद्धान्त के अनुकरण की आवश्यकता है।

4. उत्प्रेरणा का सिद्धान्त (Principle of motivation)

कभी आपने दो पशुओं, पक्षियों अथवा पहलवानों की लड़ाई अथवा खेलों की कोई प्रतियोगिता देखी हो तो यह भी देखा होगा कि अपने पक्ष के प्रतिभागियों को जिताने की दृष्टि के उनके समर्थक तरह-तरह की क्रियाओं, नारों आदि को काम में लेते हैं।

ऐसा करना ही प्रतिभागी की दृष्टि से उत्प्रेरणा (Motivation) कहलाता है तथा इन क्रियाओं को उत्प्रेरक (Motives) कहते हैं। उत्प्रेरकों के अन्तर्गत वे सभी बातें एवं क्रियाएँ आती हैं जो किसी को अपनी पूरी क्षमता एवं योग्यता के साथ कार्य करने हेतु प्रेरित करती हैं।

अब इसी सन्दर्भ में कक्षागत स्थितियों पर विचार करें तो प्रायः हम यह देखते हैं कि जब शिक्षक विद्यार्थियों से कोई प्रश्न पूछकर उत्तर देने वालों से हाथ उठाने के लिये कहता और उत्तर देने के इच्छुक विद्यार्थियों के उठे हुए हाथों की ओर देखता है तो उसे कुछ हाथ ऐसे भी दिखाई देते हैं जो कभी उठते हैं तो दूसरे क्षण ही नीचे गिर भी जाते हैं। फिर उठते हैं, फिर गिर जाते हैं। यह सब हाथ उठाने एवं गिरने की क्रिया उस समय तक चलती ही रहती है, जब तक कि प्रश्न का उत्तर कोई न कोई दे ही नहीं देता।

ऐसा क्यों होता है? इस बात पर मनोवैनानिक दृष्टि से यदि विचार किया जाय तो ऐसी क्रियाएँ स्वत: ही उद्भूत नहीं होती; अपितु इनके पीछे भी भावनाएँ एवं विचार होते हैं। जब विद्यार्थी यह सोचता है कि इस प्रश्न का उत्तर तो मैं भी दे सकता हूँ तो उसका हाथ ऊपर उठ जाता है, किन्तु ज्यों ही उसके मन में आता है कि उत्तर यदि गलत हो गया तो मेरे साथी और शिक्षक यह न सोचें कि- “इसे तो कुछ भी नहीं आता।” ऐसा सोचते ही उसका उठा हुआ हाथ नीचे गिर जाता है। हाथ का यह उठना और गिरना उस समय तक चलता रहता है जब तक मन में इस प्रकार की ऊहापोह बनी रहती है।

ऐसी स्थिति में, यदि शिक्षक ऐसे विद्यार्थियों से केवल इतना ही कह दे- “हाँ, हाँ कहो! तुम क्या उत्तर देना चाहते थे? कहो!” यह सुनते ही वह विद्यार्थी खड़ा होकर उत्तर दे देता है। भले ही वह उत्तर सही न हो। यदि उत्तर सही है तो शिक्षक उस विद्यार्थी की प्रशंसा करते हुए यह कह दे- “बहुत अच्छा उत्तर दिया। सदैव प्रयास किया करो। आदि आदि।

किन्तु यदि उत्तर सही नहीं है और उस स्थिति में शिक्षक, उस विद्यार्थी को झिड़के बिना यह कह दे कि- “तुम्हारा भी उत्तर सही है; लेकिन इसी बात को यदि इस प्रकार कहते तो और अच्छा होता” और यह कहकर उसे सही उत्तर बता दे।

इन दोनों ही स्थितियों में शिक्षक द्वारा कहे हुए शब्दों की विद्यार्थी के मन में जो प्रतिक्रिया होगी वह सकारात्मक ही होगी। वह सदैव उत्तर देने का प्रयास करेगा।

यही नहीं अन्य विद्यार्थियों को जो उत्तर देने में सदैव झिझकते रहते हैं- प्रोत्साहन मिलेगा कि वे भी उत्तर दें। इसी को हम मनोवैज्ञानिक भाषा में उत्प्रेरणा (Motivation) तथा शिक्षण की दृष्टि से उत्प्रेरणा का सिद्धान्त कहते हैं।

5. विश्लेषण एवं संश्लेषण का सिद्धान्त (Principle of analysis and synthesis)

किसी वस्तु या बात के अंग एवं प्रत्यंग को अच्छी तरह समझने के पश्चात् ही उसकी वास्तविक उपयोगिता समझ में आती है। उदाहरण के रूप में शिक्षक-प्रशिक्षण के अन्तर्गत किसी भी विषयवस्तु को विद्यार्थियों को पढ़ाने एवं समझाने से पूर्व जो पाठ-योजना बनाई जाती है, उसके अन्तर्गत-पाठ की प्रस्तावना (Introduction), प्रस्तुतीकरण (Presentation) तथा मूल्यांकन (Evaluation) आदि कई क्रियाएँ होती हैं।

इन सभी क्रियाओं के अलग-अलग प्रयोजन हैं- प्रस्तावना का प्रयोजन, विद्यार्थियों का प्रकरणोन्मुख करना है तो प्रस्तुतीकरण का प्रयोजन पाठ्यांश की विषयवस्तु को समझाना तथा मूल्यांकन का प्रयोजन इस बात का पता लगाना है कि पाठ्यांश को पढ़ाने हेतु प्रारम्भ में जिन उद्देश्यों का निर्धारण किया गया था- उनकी पूर्ति किस सीमा तक हुई ? यदि नहीं हुई तो क्यों?

क्यों? के अन्तर्गत भी उन कारणों का पता लगाना आवश्यक है जिनके कारण पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हुई। इन सभी बातों का खण्ड-खण्ड करके पता लगाना विश्लेषण (Analysis) कहलाता है तो इन सभी कारणों को समन्वित रूप में दूर करने का प्रयास करना संश्लेषण (Synthesis)।

प्रभावी शिक्षण की दृष्टि से भी ऐसा करना आवश्यक है; क्योंकि किसी लम्बी-चौड़ी बात को समझने की अपेक्षा उसके किसी अंश को समझना अपेक्षाकृत सरल होता है। उदाहरण स्वरूप:-

भाषायी पाठों में:- ‘व्याख्या‘ को स्पष्ट करने हेतु यदि बिहारी कृत “अधर धरत……………छवि होत” का उदाहरण दिया जाय तो उसमें इन्द्रधनुष के सात रंग किस प्रकार बनते हैं- उन्हें एक-एक करके बताना ‘विश्लेषण‘ है तथा सब कुछ स्पष्ट करने के पश्चात् पूरे दोहे का अर्थ समझाना ‘संश्लेषण‘।

सामाजिक विज्ञानों के अन्तर्गत:- इतिहास पढ़ाते समय किसी शासक के समय में उसके शासन की विशेषताओं एवं कमियों पर किसी प्रकार की टिप्पणी करने से पूर्व उसके शासनकाल में प्रजा की सामाजिक स्थिति; सुधार हेतु शासन द्वारा लिये गये निर्णय; धार्मिक स्थिति आदि-सभी बातों पर एक-एक करके विचार किया जाय; तत्पश्चात् ही उसकी शासन-व्यवस्था के सम्बन्ध में कुछ कहा जाय? इसमें खण्ड-खण्ड करने विचार करना विश्लेषण (Analysis) है तो इसके आधार पर समन्वित रूप में निर्णय लेना संश्लेषण (Synthesis)।

शुद्ध विज्ञानों में:- द्रव्यों के विशिष्ट गुणों को बताने से पूर्व पहले द्रव्य के तीनों रूपों- ठोस, द्रव तथा गैस के अलग-अलग भागों को विद्यार्थियों के अनुभवों के आधार पर एक-एक करके निकलवाया जाय। पुनः इन तीनों रूपों में जो समानता मिले, उसके आधार पर द्रव्य (Matter) के सामान्य गुणों को निकलवाया जाय। इस प्रकार द्रव्य के तीनों रूपों के गुणों को अलग-अलग निकलवाना विश्लेषण (Analysis) है तो तीनों रूपों के अलग-अलग गुणों के आधार पर सामान्य गुणों का निकलवाना संश्लेषण (Synthesis)।

यही विश्लेषण एवं संश्लेषण का सिद्धान्त है। खण्ड-खण्ड करके बताना विश्लेषण है तो सबको मिलाकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचना संश्लेषण।

6. अभ्यास का सिद्धान्त (Principle of exercise)

अभ्यास के सिद्धान्त (Principle) को समझने के लिये अभ्यास के नियम (Law) को समझने की आवश्यकता है। अभ्यास के नियम को समझने की दृष्टि से पहेलियों के बादशाह ‘अमीर खुसरो‘ की एक पहेली बड़ी ही उपयुक्त और सटीक प्रतीत होती है। पहेली इस प्रकार है-

पान सड़ा क्यों ? घोड़ा अड़ा क्यों?

रोटी जली क्यों ? विद्या भूली क्यों?

उत्तर है– ‘फेरा न था।

यहाँ, ‘फेरा न था‘ के चारों सन्दर्भो में अलग-अलग अर्थ हैं- पान का पत्ता कोमल होने के कारण उसे पानी से बाहर इसलिये नहीं रखा जाता कि बाहर रखने से मुरझा जाता है।

इसलिये उसे पानी में ही रखना होता है, जहाँ उसके सड़कर खराब होने की सम्भावना सर्वाधिक है। अत: उसे सड़ने से बचाने की दृष्टि से पानी के अन्दर ही उसे कभी सीधा तो कभी उल्टा, पलटना आवश्यक हो जाता है। उल्टे सीधे पलटने का नाम ‘फेरना’ है।

इसी प्रकार अड़ियल घोड़े को घुमाकर लाने का नाम फेरना है तो रोटी के सन्दर्भ में उसे घुमाते रहने का नाम फेरना।

रही बात “विद्या” के सन्दर्भो की- वहाँ जैसा कि अधिकतर लोग भ्रमवश इसे ‘रटने‘ की संज्ञा देते हैं वह कदापि नहीं। किसी बात को रटने और समझने में बड़ा अन्तर है।

पिंजरे में बन्द पालतू तोता घर में प्रवेश करने वाले हर आगन्तुक को ‘राम-राम’ कहता है, किन्तु न तो वह आगन्तुक को ही जानता और पहिचानता है और न ही यह समझता है कि वह जिस ‘राम नाम’ का रटकर बार-बार उच्चारण कर रहा है, उसका अर्थ एवं आशय क्या है। उसे तो उसके मालिक ने यही रटा रखा है कि घर में जो भी आये उसे “राम-राम” कहना है। घर में यदि चोर घुस आये और उसे दिखाई दे जाये तो वह उसे भी राम-राम कहेगा।

रटना, रटना है, किसी बात को समझना नहीं।

इसलिये अभ्यास के जिस सिद्धान्त का थार्नडाइक (Thorndike) ने प्रतिपादन किया है, वह रटाई से बिल्कुल भिन्न है।

शिक्षा के सन्दर्भ में ‘अभ्यास के सिद्धान्त‘ का आशय यही है कि पहले किसी बात या विषयवस्तु को भलीभाँति समझा जाय और उसके पश्चात् उसे व्यवहार में ढालकर उसका उपयोग किया जाये। सीखी हुई बात को स्थायी बनाने की दृष्टि से ऐसा करना आवश्यक है।

यदि ऐसा न किया जाय तो अमीर खुसरो के शब्दों में उस अर्जित जानकारी को भूल जाते हैं। अतः शिक्षा के हर पाठ हर विषय तथा हर क्षेत्र में शिक्षा का स्वरूप भले ही कुछ भी हो, उसे दुहराने की आवश्यकता है और दुहराने का नाम ही “अभ्यास का सिद्धान्त” है। कुछ उदाहरण हैं:-

भाषायी पाठों में:- जिन नये शब्दों को विद्यार्थी को समझाया गया है और उसने समझ लिया है, उन्हें प्रसंगानुसार प्रयोग में कराते रहना। जो क्लिष्ट अंश समझाये गये हैं, उन्हें थोड़े-थोड़े समय के अन्तराल से पूछते रहना।

अन्य विषयों में:- सीखी हुई बात के प्रसंगानुरूप उदाहरण पूछते रहना। यदि वैसा ही कोई अन्य प्रसंग उपस्थित हो जाय तो दोनों की तुलना कराना अथवा दोनों में अन्तर की तलाश करना आदि।

गणित में जो प्रश्न समझाया गया है, उसी से मिलते-जुलते अन्य प्रश्नों को हल कराना आदि। ऐसा कराने से अर्जित ज्ञान में स्थायित्व आता है। शिक्षा एवं शिक्षण की दृष्टि से भी सिद्धान्त के अनुसरण का यही आशय है।