खड़ी बोली (कौरवी, नागरी): हिन्दी की खड़ी बोली
खड़ी बोली या खरी बोली या कौरवी बोली: खड़ी बोली का अर्थ है ‘स्टैंडर्ड भाषा‘, अर्थात मानक भाषा। सभी भाषाओं की अपनी एक मानक भाषा (खड़ी बोली) होती है। किन्तु हिन्दी की खड़ी बोली मेरठ, सहारनपुर, देहरादून, रामपुर, मुजफ्फर नगर, बुलंदशहर आदि क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषा को कहा जाता है। इन क्षेत्रों में खड़ी का उच्चारण प्रायः ‘खरी‘ के रूप में होता है, जिसका अर्थ है- शुद्ध अथवा ठेठ हिन्दी बोली। इसे कौरवी, नागरी आदि नामों से भी सम्बोधित किया जाता है। ग्रियर्सन ने इसे देशी हिन्दुस्तानी कहा है।
भाषा परिवार | हिंद-आर्य भाषा |
लिपि | देवनागरी, उर्दू (नस्तालीक) |
बोली क्षेत्र | पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड, हरियाणा |
उत्पत्ति | संस्कृत → प्राकृत → शौरसेनी अपभ्रंश → खड़ीबोली |
मुख्य विशेषताएँ | सीधी-सादी संरचना, संपूर्णता में स्पष्टता, आधुनिक हिंदी का आधार |
प्रभाव | आधुनिक हिंदी, उर्दू और प्रशासनिक भाषा में योगदान |
प्रयुक्त स्थान | साहित्य, सरकारी कार्य, आम बोलचाल |
संबंधित भाषाएँ | ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, उर्दू, हिंदी |
खड़ीबोली या कौरवी या नागरी बोली के क्षेत्र
खड़ी बोली पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड, हरियाणा आदि में बोली जाती हैं। जिनमें खड़ीबोली या कौरवी या नागरी बोली अधिकांशतः मेरठ, सहारनपुर, देहरादून, रामपुर, मुजफ्फरनगर, बुलंदशहर, गाजियाबाद, हापुड़, बागपत, बिजनौर, मुरादाबाद, संभल, अमरोहा, शामली, हरिद्वार, उधम सिंह नगर,अम्बाला, कलसिया आदि के क्षेत्रों में बोली जाती हैं।
खड़ी बोली की विशेषताएँ
खड़ी बोली की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
- खड़ी बोली आकारान्त प्रधान है। इसमें अधिकांशः आकारान्त शब्दों का प्रयोग मिलता है, जैसे-करता, क्रिया, खोटा, घोड़ा आदि।
- खड़ी बोली में मूर्धन्य ‘ल’ का प्रयोग मिलता है, जिसका मानक हिन्दी में अभाव है, जैसे-जंगल, बाल आदि।
- खड़ी बोली में द्वित्व व्यंजनों का प्रयोग प्रचुरता से होता है, जैसे-बेट्टी, गाड़ी, रोट्टी, जात्ता आदि।
- खड़ी बोली में मानक हिन्दी के न, भ के स्थान पर क्रमणः ण, ब का प्रयोग होता है, जैसे-खाणा, जाणा, कबी, सबी आदि।
- खड़ी बोली की क्रिया रचना में मानक हिन्दी से बड़ा साम्य है।
- कतिपय परिवर्तनों के साथ मानक हिन्दी क्रिया-रूपों का प्रयोग खड़ी बोली में मिलता है, जैसे- चलता है > चले हैं।
- निश्चयार्थक भूतकाल में खड़ी बोली में ‘या’ लगाया जाता है, जैसे-बैठा > बैठ्या, उठा > उठ्या आदि।
खड़ी बोली साहित्य
साहित्यिक दृष्टि से, ब्रजभाषा, अवधी आदि से अलग करने के लिए आधुनिक हिन्दी साहित्य को ‘खड़ी बोली साहित्य’ कहा जाता है। इस बोली ने हिन्दी साहित्य को एक नया आयाम दिया और इसे व्यापक रूप से अपनाया गया।
खड़ी बोली का प्रथम कवि
खड़ी बोली के प्रथम कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध‘ माने जाते हैं। अयोध्या सिंह हिन्दी के एक सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे। वह दो बार हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति रह चुके हैं और सम्मेलन द्वारा विद्यावाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किये जा चुके हैं।
खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य
प्रिय प्रवास हरिऔध जी का सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह हिंदी खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है और इसे मंगलाप्रसाद पारितोषिक पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। बतादें कि हरिऔध जी का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के निजामाबाद नामक स्थान में हुआ। उनके पिता का नाम पंडित भोलानाथ उपाध्याय था।
खड़ी बोली की कविता – भारतेंदु हरिश्चंद्र
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।।
निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्यैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करो किन कोय।।
इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।।
और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।
तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।
भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।
सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।
खड़ी बोली के words, शब्द
- खाट– चारपाई
- खात – खाद
- खेस – कपास से बना श्वेत वर्ण का एक वस्त्र जो शरीर को ढकने के काम आता है
- खीस – गाय अथवा भैंस द्वारा शिशु को जन्म देने के उपरांत उनके थनों से दूध की तरह निकलने वाला एक पीला द्रव्य
- खाँस्सी-खुर्रा – खाँसी
- खड़का – शोर, शब्द
- सपा– स्वच्छ
- सकूटर – स्कूटर
- सरभंग होणा – To have no ethics or values
- सनिच्चर – शनिवार
- खड़ा-खाणा – टेबल पर परोसा जाने वाला भोजन, बुफे सिस्टम
- साईं– Kajal
- साळिगिराम – साला, अर्धांगिनी का भ्राता
- साब्बण – नहाने अथवा वस्त्र धोने का साबुन
- सांक्कळ – द्वार को बंद रखने हेतु ज़ंजीर अथवा चिटकनी
Source: https://khadibolishabdkosh.com/
खड़ी बोली (खरी बोली) का इतिहास
‘खड़ी बोली’ (या ‘खरी बोली’) आधुनिक हिन्दी का वह रूप है, जिसमें संस्कृत शब्दों की बहुलता के साथ वर्तमान हिन्दी भाषा का विकास हुआ, जबकि फारसी और अरबी शब्दों की अधिकता से उर्दू भाषा का निर्माण हुआ। सरल शब्दों में, यह वह बोली है, जिस पर ब्रजभाषा या अवधी जैसी अन्य बोलियों का प्रभाव नहीं है। खड़ी बोली को आधुनिक हिन्दी का मूल स्वरूप माना जाता है और यह परिनिष्ठित पश्चिमी हिन्दी की एक प्रमुख शाखा है, जिसका इतिहास कई शताब्दियों से चला आ रहा है।
जब मुसलमान भारत में आकर बसे, तो उन्हें यहां की एक सामान्य भाषा अपनाने की आवश्यकता पड़ी। चूंकि वे मुख्यतः दिल्ली और उसके पूर्वी क्षेत्रों में बसे थे और ब्रजभाषा व अवधी जैसी बोलियों को कठिन मानते थे, इसलिए उन्होंने मेरठ और उसके आसपास की बोली को अपनाया। इसी खड़ी बोली में धीरे-धीरे फारसी और अरबी के शब्द मिलाए गए, जिससे बाद में उर्दू भाषा का जन्म हुआ।
14वीं शताब्दी में अमीर खुसरो ने इस बोली का उपयोग प्रारंभ किया और उसमें कविताएँ भी लिखीं। यह भाषा अपनी सरलता और सहजता के कारण शीघ्र ही लोकप्रिय हो गई। पहले मुसलमानों ने इसे साहित्य और बोलचाल में प्रयोग किया, लेकिन बाद में हिन्दू समाज में भी इसका प्रचार हुआ।
15वीं और 16वीं शताब्दी में कुछ हिन्दी कवियों ने अपनी कविताओं में इस बोली का उपयोग करना शुरू किया, लेकिन उस समय साहित्यिक भाषा के रूप में अवधी और ब्रजभाषा का ही वर्चस्व था। 18वीं शताब्दी में हिन्दू लेखकों ने इसे अपनाना प्रारंभ किया, विशेष रूप से गद्य लेखन में। तभी से आधुनिक हिन्दी गद्य का विकास शुरू हुआ, जिसमें प्रमुख योगदान मुंशी सदासुखलाल, लल्लू लाल और सदल मिश्र का रहा।
जिस प्रकार मुसलमानों ने इसमें फारसी और अरबी शब्द मिलाकर ‘उर्दू’ बनाई, उसी प्रकार हिन्दुओं ने संस्कृत शब्दों की अधिकता के साथ ‘हिन्दी’ का निर्माण किया। आधुनिक हिन्दी में भी खड़ी बोली का प्रभाव बना हुआ है और अब यह हिन्दी साहित्य में पद्य और गद्य दोनों के लिए प्रयोग की जाती है।
नामकरण
डॉ. ग्रियर्सन ने इसे ‘वर्नाक्युलर हिन्दुस्तानी’, जबकि डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने इसे ‘जनपदीय हिन्दुस्तानी’ कहा है। डॉ. चटर्जी ने इसके साहित्यिक रूप को ‘साधु हिन्दी’ या ‘नागरी हिन्दी’ नाम दिया, जबकि डॉ. ग्रियर्सन ने इसे ‘हाई हिन्दी’ कहा। खड़ी बोली को विभिन्न नामों से जाना गया है, जैसे:
- हिन्दुई
- हिन्दवी
- दक्खिनी / दखनी
- रेखता
- हिन्दोस्तानी / हिन्दुस्तानी
खड़ी बोली से जुड़ें विभिन्न मत
खड़ी बोली को ‘खरी बोली‘ भी कहा जाता है। संभवतः इस शब्द का प्रथम प्रयोग लल्लू लाल ने ‘प्रेमसागर’ में किया, लेकिन इस ग्रंथ के मुखपृष्ठ पर ‘खरी’ शब्द मुद्रित है। ‘खड़ी बोली’ पर अन्य मत निम्नलिखित हैं:
- कुछ विद्वानों के अनुसार, लल्लू लाल (1803 ई.) के समय से पहले ही खड़ी बोली का नाम प्रचलित था। ब्रजभाषा की कोमलता की तुलना में यह अधिक कठोर और स्पष्ट थी, इसलिए इसे ‘खड़ी’ कहा गया।
- कुछ लोग इसे उर्दू से भिन्न मानते हैं और इसे ग्रामीण, ठेठ और शुद्ध बोली कहते हैं।
- कई विद्वानों का मानना है कि ‘खड़ी’ का अर्थ स्थिर, व्यवस्थित, परिष्कृत और सुसंस्कृत भाषा से है।
- उत्तरी भारत की ब्रजभाषा और अन्य ओकारान्त बोलियों की तुलना में इसे ‘खड़ी बोली’ कहा गया। कुछ विद्वान इसे रेखता शैली से भिन्न मानते हैं और इसे ‘खड़ी’ कहते हैं।
खड़ी बोली की उत्पत्ति से संबधित मत
हिमालय और विन्ध्य पर्वत के बीच की भूमि प्राचीन काल से आर्यावर्त के नाम से प्रसिद्ध थी। इसी क्षेत्र को मध्यप्रदेश कहा जाता था, जो भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का केन्द्र रहा है। विभिन्न युगों में यहां की भाषा संस्कृत, पालि एवं शौरसेनी प्राकृत रही। शौरसेनी प्राकृत के बाद इस क्षेत्र में शौरसेनी अपभ्रंश का विकास हुआ, और यही कालांतर में खड़ी बोली (हिन्दी) के रूप में परिवर्तित हुई।
हालाँकि शौरसेनी अपभ्रंश का कोई विस्तृत साहित्यिक विकास नहीं हुआ, लेकिन भोज और हम्मीरदेव के समय से अपभ्रंश काव्यों में खड़ी बोली के प्राचीन स्वरूप की झलक मिलती है। बाद में, भक्तिकाल के आरंभ में निर्गुण संत कवियों ने अपनी सधुक्कड़ी भाषा में खड़ी बोली का प्रयोग किया।
खड़ी बोली पर मुस्लिम प्रभाव
कुछ विद्वानों का मानना है कि खड़ी बोली मुसलमानों द्वारा अस्तित्व में लाई गई, और इसका मूल रूप उर्दू है, जिससे अरबी-फारसी शब्दों को हटाकर आधुनिक हिन्दी बनी।
डॉ. ग्रियर्सन का मत
प्रसिद्ध भाषाविद् डॉ. ग्रियर्सन के अनुसार, खड़ी बोली अंग्रेजों की देन है। उन्होंने यह भी कहा कि मुगल साम्राज्य के पतन से इसके प्रचार को बल मिला। दिल्ली उजड़ने के बाद मीर, इंशा जैसे उर्दू शायर पूरब की ओर चले गए, और उसी के साथ दिल्ली के हिन्दू व्यापारी भी लखनऊ, फैजाबाद, प्रयाग, काशी, पटना आदि शहरों में बसने लगे। इनके साथ उनकी बोलचाल की भाषा भी फैलने लगी, जिससे बड़े शहरों में बाजार की भाषा खड़ी बोली बन गई।
ग्रियर्सन के अनुसार, 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अंग्रेजों ने हिन्दी (खड़ी बोली) को जन्म दिया। उन्होंने यह भी कहा कि लल्लू लाल ने अपने ग्रंथ प्रेमसागर (गिलक्राइस्ट की आज्ञा से) में सर्वप्रथम साहित्यिक गद्य के रूप में खड़ी बोली का प्रयोग किया।
लल्लू लाल एवं सदल मिश्र का योगदान
लल्लू लाल और सदल मिश्र को खड़ी बोली के प्रवर्तक और उन्नायक माना जाता है, लेकिन इन्हें खड़ी बोली का जन्मदाता कहना ऐतिहासिक रूप से असत्य प्रतीत होता है। यदि खड़ी बोली की प्राचीन परंपरा का अध्ययन किया जाए, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह भाषा पूर्व से ही विकसित हो रही थी।
उर्दू और खड़ी बोली का संबंध
मुसलमानों के आगमन ने निश्चित रूप से खड़ी बोली के प्रसार में सहायता की। उर्दू कोई स्वतंत्र भाषा नहीं, बल्कि खड़ी बोली की ही एक शैली है, जिसमें फारसी और अरबी शब्दों की अधिकता है और जो फारसी लिपि में लिखी जाती है। उर्दू साहित्य में इसे ‘रेख्ता’ कहा गया, और कई मुसलमान कवियों ने इसमें रचनाएँ कीं। यह परंपरा 18वीं और 19वीं शताब्दी तक जारी रही, जिसमें बहादुरशाह ज़फ़र और वाजिद अली शाह भी शामिल थे।
आधुनिक खड़ी बोली गद्य के प्रतिष्ठापक
साधारणत: लल्लू लाल, सदल मिश्र, इंशाअल्ला खाँ और मुंशी सदासुखलाल को खड़ी बोली गद्य के प्रतिष्ठापक माना जाता है, लेकिन इसकी स्थापना एवं प्रचार का श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र और राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिंद’ को दिया जाता है। इन्होंने अपनी सरल गद्यशैली के माध्यम से खड़ी बोली को प्रतिष्ठित किया। बाद में, भारतेन्दु की शैली को लोगों ने अधिक अपनाया।
आधुनिक हिन्दी साहित्य वास्तव में खड़ी बोली साहित्य ही है, जिसे देवनागरी लिपि में लिखा जाता है। इसमें संस्कृत, पालि, प्राकृत के साथ-साथ देश में प्रचलित अन्य भाषाओं और बोलियों का प्रभाव भी मिलता है। खड़ी बोली का विकास एक दीर्घकालीन प्रक्रिया रही है, जिसमें मुस्लिम शासन, अंग्रेजों का प्रभाव और भारतीय साहित्यकारों का योगदान सभी महत्वपूर्ण रहे हैं।