वैदिक संस्कृत – वैदिक संस्कृत का इतिहास, साहित्य, व्याकरण एवं विशेषताएं

Vaidik Sanskrit

वैदिक संस्कृत (Vaidik Sanskrit : 2000 ई.पू. से 800 ई.पू. तक) एक ‘प्राचीन भारतीय आर्य भाषा (2000 से 500 ई.पू.)’ है, जिसका प्राचीनतम नमूना वैदिक-साहित्य में दिखाई देता है। वैदिक साहित्य का सृजन “वैदिक संस्कृत” में हुआ है। वैदिक संस्कृत को वैदिकी, वैदिक, छन्दस, छान्दस् आदि भी कहा जाता है।

भारत की धार्मिकता का मूल-बीज वेद ही है, जो वैदिक ऋषियों के अनुभवों का संकलन है। वेदों से ही धर्म का निरूपण माना जाता है। वैदिक काल (Vaidik Age) 1500 ई.पू. से 600 ई.पू. तक माना जाता है। वेदों की भाषा (वैदिक संस्कृत) और वैदिक साहित्य सबसे प्राचीन है। वैदिक साहित्य को तीन विभागों में वर्गीकृत किया जा सकता है- 1. संहिता 2. ब्राह्मण 3. आरण्यक तथा उपनिषद।

अतः कहा जा सकता है-

वेद संहिताओं, ब्राह्मण एवं आरण्यक तथा उपनिषद आदि की मूल भाषा को ही “वैदिक संस्कृत” कहते है।

वैदिक संस्कृत साहित्य

वेदों के पिता ब्रह्मा को बताया जाता है। ऋषियों ने लिखा है कि ‘तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये’; अर्थात- सृष्टि के आरंभ में आदि कवि ब्रह्मा के हृदय में वेद का प्रादुर्भाव हुआ था।उन्हीं के श्रीमुख से सर्वप्रथम वेद सुनने वाले ऋषि 4 हैं- अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य; इसीलिए इन्हें ‘वेदज्ञ ऋषि‘ और इन्हीं चार ऋषियों को प्रथम ‘मं‍त्र द्रष्टा ऋषि‘ कहा जाता है। मूलत: इन्हीं 4 को हिन्दू धर्म का संस्थापक माना जा सकता है।

आरंभिक काल में वेद एक ही था। “पुरुरवा ऋषि” ने त्रेतायुग में (श्रीराम के समय) वेद के तीन भाग- ‘ऋग्वेद‘, फिर ‘युजुर्वेद‘ और ‘सामवेद‘,  किए थे। इसीलिए पुरुरवा ऋषि को ‘वेदत्रयी‘ कहा जाता है। उसके बाद कालांतर में “अथर्वा ऋषि” ने ‘अथर्ववेद‘ का संकलन किया। इस प्रकार वैदिक साहित्य में सर्वाधिक प्राचीन ‘ऋग्वेद‘, फिर युजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद आदि 4 (चार) वेद हुए। इन्ही चार वेदों की व्याख्या के रूप में ऋषियों ने अन्य वैदिक साहित्य “ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद” आदि का निर्माण किया।

Vedagya Rishi of Vaidik Sanskrit Period

‘वेद’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की “विद्” धातु से हुई है, जिसका अर्थ है- ‘ज्ञान‘ है। इसी धातु से तीन शब्द “विदित, विद्या, विद्वान” बने हैं। इसीलिए वेदों को ‘त्रयी‘ के नाम से भी जाना जाता है। इसका अन्य कारण तीन प्राचीन वैदिक संहिताएं भी हैं- ऋक्, साम और यजुः। पद्य में रचा हुआ वेद मंत्र ‘ऋक्‘ अथवा ऋचा कहलता है। इन ऋचाओं के गायन को ‘साम’ कहते हैं और इन दोनों से पृथव गद्यात्मक वाक्यों को ‘यजुः’ कहते हैं। वेदों को ‘श्रुति‘ एवं ‘अपौरुस‘ (महापुरुष) भी कहा जाता है।

आदिवेद (ऋग्वेद) की भाषा सर्वत्र एक जैसी नहीं है। परंतु अन्‍य वेदों में जो भाषा का रूप प्राप्त होता है, वह अपेक्षाकृत सरल एवं शब्दरूपोंधातुरूपों की अनियमितता तथा अनेकता दूर होती जाती है। अन्‍य वेदों में हमें गद्य भी मिलता है, जबकि पूरी ऋग्वेद संहिता पद्यात्मक है। संहिताओ के बाद उनकी व्याख्याओं के रूप में ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद ग्रन्थ प्राप्त होते हैं।

यद्यपि सभी वेदों की भाषा “वैदिक संस्‍कृत” ही है, किन्तु अंतिम वेद से वह संस्‍कृत “लौकिक संस्‍कृत” की ओर झुक गई है। जिसे संधिकाल कहते हैं। इसी काल में रामायण और महाभारत की रचना हुई, जिसे आरंभिक लौकिक साहित्य माना जाता है। इसी दौरान ही (500-400 ई.पू.) संस्‍कृत व्याकरण के सुविख्यात लेखक ‘पाणिनि‘ का जन्म हुआ, जिन्होंने अपने समय में प्रचलित संस्कृत भाषा का व्यापक शोध करके ‘अष्टाध्यायी‘ नामक ग्रन्थ में भाषा-सम्बधी नियम बनाए। जो वर्तमान युग की संस्कृत का आधार ग्रंथ हैं। (पढ़ें: पाणिनी सूत्र)

प्रत्येक वेद को दो विधियों से समझा जाता है- ‘वेदो हि मंत्रब्राह्मणभेदेन द्विविध:’।

  1. मंत्र
  2. ब्राह्मण

वेदों के मंत्र वाले भाग को ही ‘संहिता‘ कहते हैं। संहितापरक भाष्य को ‘ब्राह्मण‘; तथा ब्राह्मण ग्रंथों के विवेचन को ‘आरण्यक‘ और ‘उपनिषद‘ कहा जाता हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण वैदिक साहित्य चार प्रकार के ग्रंथों में ही सिमट गया है। जिसका विवरण आगे दिया जा रहा है।

प्रमुख वैदिक संस्कृत साहित्य इस प्रकार है-

  1. संहिता
  2. ब्राह्मण
  3. आरण्यक
  4. उपनिषद

अवश्य पढ़ें: लौकिक संस्कृत (800 ई.पू. से 500 ई.पू. तक)- वेदांग, रामायण, महाभारत, पुराण, नाटक, काव्य, कथा साहित्य, आयुर्वेद तथा वैज्ञानिक साहित्‍य आदि।

संहिता

संहिता, ऐसे ग्रंथ हैं जिनमें वेदों के केवल मंत्र भाग का संकलन है। संहिता-विभाग में ‘ऋक् संहिता‘, ‘साम संहिता‘, ‘यजुः संहिता‘ एवं ‘अथर्व संहिता‘ आते हैं। संहिता हिन्दू धर्म के पवित्रतम और सर्वोच्च धर्मग्रन्थ वेदों का मन्त्र वाला खण्ड है। ये वैदिक संस्कृत का पहला हिस्सा है जिसमें काव्य रूप में देवताओं की यज्ञ के लिये स्तुति की गयी है। इनकी भाषावैदिक संस्कृत‘ है।

Vaidik Sanhita

वेद चार हैं इसीलिए चार संहिताएँ हैं, जो निम्न हैं-

1. ऋक् संहिता (ऋग्वेद संहिता)

ऋग्‍वेद संहिता में ऋग्वैदिक संस्कृत काल का ‘मन्त्र-भाग’ है। ऋग्वेद को विश्‍व का प्राचीनतम ग्रंथ माना जाता है। जिसका रचनाकाल विद्वान 6000BC से भी अधिक प्राचीन है। इसके पंडित “होता या होतृ” कहे जाते हैं।

‘ऋक्’ का शाब्दिक अर्थ है- स्तुति करना। महत्त्व की दृष्टि से सबसे प्रधान ‘ऋक् संहिता’ है। ऋग्वेद की मूल लिपि ब्राह्मी को माना जाता है। ऋकसंहिता का वर्गीकरण दो प्रकार से किया जाता है-

  1. अष्टक-क्रम
  2. मण्डल-क्रम

अष्टक-क्रम : इसके अनुसार सम्पूर्ण ऋक् संहिता 8 अष्टकों में विभाजित है, प्रत्येक अष्टक में 8 अध्याय हैं। और और हर अध्याय में कुछ वर्ग हैं। और प्रत्येक वर्ग में सामान्यतः 5 ऋचाएँ (गेय मंत्र) हैं। कुल अध्यायों की संख्या 64 और वर्गों की संख्या 2006 है।

मण्डल-क्रम : इसके अनुसार ऋग्वेद में 10 मण्डल, 85 अनुवाक, 1028 सूक्त एवं 10580 ऋचाएँ हैं। ऋकसंहिता के सूक्त प्रायः यज्ञों के अवसरों पर पढ़ने के लिए देवताओं की स्तुतियों से सम्बन्ध रखने वाले गीतात्मक काव्य हैं।

ऋग्वेद के मंडल एवं उनके रचियता

प्रथम मंडल कई ऋषि
द्वित्तीय मंडल गृत्समद
तृत्तीय मंडल विश्वामित्र
चतुर्थ मंडल वामदेव
पंचम मंडल अत्रि
षष्ठम मंडल भारद्वाज
सप्तम मंडल वशिष्ठ
अष्ठम मंडल आंगिरस,कण्व
नवम मंडल अनेक ऋषिगण
दशम मंडल अनेक ऋषिगण

ऋग्वेद के तीसरे मंडल में गायत्री मंत्र वर्णित है, सूर्य देवता(सविता) को समर्पित गायत्री मंत्र के रचनाकार विश्वामित्र हैं। ऋग्वेद के नौवें मंडल के सभी मंत्र जो कि 114 हैं, सोम को समर्पित हैं।

ऋग्वेद में 5 शाखाएं प्रमुख हैं- शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन।

ऋग्वेद संहिता में 20 छन्दों का प्रयोग हुआ है। इनमें सात प्रमुख छन्द निम्न हैं-

  1. गायत्री – 24 अक्षर
  2. उषिणक – 28 अक्षर
  3. अनुष्टुप – 32 अक्षर
  4. बृहती – 36 अक्षर
  5. पंकित – 40 अक्षर
  6. त्रिष्टुप – 44 अक्षर
  7. जगती – 48 अक्षर

ऋग्वेद के द्रष्टा (ऋषि एवं ऋषिका)

मण्डल सूक्त संख्या महर्षि
प्रथम 191 मधुच्छन्दा: , मेधातिथि, दीर्घतमा:, अगस्त्य, गौतम, पराशर आदि।
द्वितीय 43 गृत्समद एवं उनके वंशज
तृतीय 62 विश्वामित्र एवं उनके वंशज
चतुर्थ 58 वामदेव एवं उनके वंशज
पंचम 87 अत्रि एवं उनके वंशज
षष्ठम 75 भरद्वाज एवं उनके वंशज
सप्तम 104 वशिष्ठ एवं उनके वंशज
अस्ठम 103 कण्व, भृगु, अंगिरा एवं उनके वंशज
नवम 114 ऋषिगण, विषय-पवमान सोम
दसम 191 त्रित, विमद, इन्द्र, श्रद्धा, कामायनी इन्द्राणी, शची आदि।

सभी मन्त्रों के द्रष्टा-ऋषियों में गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भरद्वाज, वसिष्ठ, भृगु और अंगिरा प्रमुख ऋषि हैं। कुछ वैदिक नारियां भी मन्त्रों की द्रष्टा रही हैें। प्रमुख ऋषिकाओं के रूप में वाक आम्भृणी, सूर्या, सावित्री, सार्पराज्ञी, यमी, वैवस्वती, उर्वशी, लोपामुद्रा, घोषा आदि के नाम प्रमुख हैें।

प्रमुख सूक्त: ऋग्वेद-संहिता के सूक्तों को वर्ण्य-विषय और शैली के आधार पर प्राय: इस प्रकार विभाजित किया जाता है- (1) पुरुष सूक्त (2) देवस्तुतिपरकसूक्त (3) दार्शनिक सूक्त (4) लौकिक सूक्त (5) संवाद सूक्त (6) आख्यान सूक्त (7) श्री सूक्त आदि।

ऋग्वेद में देवता: इसमें सबसे अधिक सूक्त इन्द्र देवता की स्तुति में कहे गये हैं और उसके बाद संख्या की दृष्टि से अग्नि के सूक्तों का स्थान है। अत: इन्द्र और अगिन वैदिक आर्यों के प्रधान देवता प्रतीत होते हैं। कुछ सूक्तों में मित्रवरुणा, इन्द्रवायू, धावापृथिवी जैसे युगल देवताओं की स्तुतियां हैं। अनेक देवगण जैसे आदित्य, मरुत, रुद्र, विश्वेदेवा आदि भी मन्त्रों में स्तवनीय हैं। देवियों में उषा और अदिति का स्थान अग्रगण्य है।

2. साम संहिता (सामवेद संहिता)

‘सामवेद’ में सोम यागों में वीणा के साथ गाये जाने वाले सूक्तों को गेय पदों के रूप में सजाया गया है। सामवेद में केवल 75 मन्त्र ही मौलिक हैं, शेष ऋग्वेद से लिए गए हैं। सामवेद में कुल 1824 मन्त्र हैं। सामवेद संहिता के दो भाग हैं, आर्चिक और गान। सामवेद के पंडित “पंचविश या उद्गाता” कहे जाते हैं।

पुराणों में जो विवरण दिया गया है, उससे सामवेद की एक सहस्त्र शाखाओं के होने की जानकारी मिलती है। इसमें मुख्य 3 शाखाएं हैं- कौथुमीय, राणायनीय ,और जैमिनीय।

3. यजुः संहिता (यजुर्वेद संहिता)

यजुः संहिता में यज्ञों के कर्मकाण्ड में प्रयुक्त मन्त्र पद्य एवं गद्य दोनों रूपों में संगृहीत हैं। यजुः संहिता’, कृष्ण एवं शुक्ल इन दो रूपों में सुरक्षित है। ‘कृष्ण यजुर्वेद संहिता’ में मंत्र भाग एवं गद्यमय व्याख्यात्मक भाग साथ-साथ संकलित किये गये हैं। परन्तु शुक्ल यजुर्वेद संहिता में केवल मन्त्र भाग संगृहीत है। यजुर्वेद के पंडित “अध्वुर्य” होते हैं।

यजुर्वेद में 1975 मंत्र और 40 अध्याय हैं। इस वेद में अधिकतर यज्ञ के मंत्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। ऋग्वेद के लगभग 663 मंत्र यथावत् यजुर्वेद में मिलते हैं।

यजुर्वेद मे कर्मकाण्ड के कई यज्ञों का विवरण है, जिनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं-

  • अग्निहोत्र
  • अश्वमेध
  • वाजपेय
  • सोमयज्ञ
  • राजसूय
  • अग्निचयन

यजुर्वेद की प्रमुख 5 पाँच शाखाएं निम्न हैं- काठक, कपिष्ठल, मैत्रियाणी, तैतीरीय और वाजसनेयी।

4. अथर्व संहिता (अथर्ववेद संहिता)

इसमें हिन्दू धर्म के पवित्रतम वेदों में से चौथे वेद अथर्ववेद की संहिता अर्थात् मन्त्र भाग है। इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहते हैं। इसमें देवताओं की स्तुति के साथ, चिकित्सा, विज्ञान और दर्शन के भी मन्त्र हैं। अथर्ववेद में 5,687 मंत्र जो 8 कांड और 20 अध्यायों में बांटे गए हैं। इसमें अधिकांश ऋचाएं  ऋग्वेद की ही हैं। अथर्ववेद संहिता में जन साधारण में प्रचलित मन्त्र-तन्त्र, टोने-टोटकों का भी वर्णन है।

अथर्वसंहिता की नौ शाखाएँ हैं- पैपल, दान्त, प्रदान्त, स्नात, सौल, ब्रह्मदाबल, शौनक, देवदर्शत और चरणविद्या। जिसमें से वर्तमान में केवल दो शाखाएं प्रमुख हैं- शौनक संहिता और पिप्पलाद संहिता शाखा।

अथर्ववेद- आयुर्वेद में, अनेक प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों के वर्णन में, गृहस्थाश्रम के अंदर पति-पत्नी के कर्त्तव्यों तथा विवाह के नियमों एवं मान-मर्यादाओं का उत्तम विवेचन में अग्रणी है। अथर्ववेद में ब्रह्म की उपासना संबन्धी बहुत से मन्त्र हैं। वैदिक धर्म की दृष्टि से ॠग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद चारों का बड़ा ही महत्त्व है।

ब्राह्मण

वेदों को गद्य में समझाने वाले ग्रंथ ‘ब्राह्मण‘ कहलाते हैं। काल-क्रम में ब्राह्मण, वैदिक संस्कृत का दूसरा भाग है। इसमें गद्य रूप में देवताओं की तथा यज्ञ की व्याख्या की गयी है, और मन्त्रों का भावार्थ भी दिया गया है।

ब्राह्मण में कर्मकाण्ड की व्याख्या की गई है। प्रत्येक संहिता के अपने-अपने ब्राह्मण ग्रंथ होते हैं। इनमें ऋग्वेद का ‘ऐतरेय ब्राह्मण’, सामवेद का ‘ताण्डव अथवा पंचविंश ब्राह्मण’, शुक्ल यजुर्वेद का ‘शतपथ ब्राह्मण’, कृष्ण यजुर्वेद का तैत्तिरीय-ब्राह्मण’ ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं।

  1. ऋग्वेद : ऐतरेयब्राह्मण (शैशिरीयशाकलशाखा), कौषीतकि या शांखायन ब्राह्मण (बाष्कल शाखा)।
  2. सामवेद : प्रौढ या पंचविंश ब्राह्मण, षडविंश ब्राह्मण, आर्षेय ब्राह्मण, मन्त्र या छान्दिग्य ब्राह्मण, जैमिनीय या तावलकर ब्राह्मण।
  3. यजुर्वेद
    1. शुक्ल यजुर्वेद : शतपथब्राह्मण (माध्यन्दिनीय वाजसनेयि शाखा), शतपथब्राह्मण-(काण्व वाजसनेयि शाखा)।
    2. कृष्ण यजुर्वेद : तैत्तिरीयब्राह्मण, मैत्रायणीब्राह्मण, कठब्राह्मण या कपिष्ठलब्राह्मण।
  4. अथर्ववेद : गोपथब्राह्मण (पिप्पलाद शाखा)।

ब्राह्मण ग्रंथ का शाब्दिक अर्थ है- सत-ज्ञान ग्रंथ, वेदों के कई सूक्तों या मंत्रों का अर्थ करने मे सहायक रहे हैं। वेदों में दैवताओं के सूक्त हैं जिनको वस्तु, व्यक्तिनाम या आध्यात्मिक-मानसिक शक्ति मानकर के कई व्याख्यान बनाए गए हैं। ब्राह्मण ग्रंथ इन्ही में मदद करते हैं। जैसे –

  1. विद्वासों हि देवा – शतपथ ब्राह्मण के इस वचन का अर्थ है, विद्वान ही देवता होते हैं।
  2. यज्ञः वै विष्णु – यज्ञ ही विष्णु है।
  3. अश्वं वै वीर्यम, – अश्व वीर्य, शौर्य या बल को कहते हैं।
  4. राष्ट्रम् अश्वमेधः – तैत्तिरीय संहिता और शतपथ ब्राह्मण के इन वचनों का अर्थ है – लोगों को एक करना ही अशवमेध है।
  5. अग्नि वाक, इंद्रः मनः, बृहस्पति चक्षु .. (गोपथ ब्राह्मण)। – अग्नि वाणी, इंद्र मन, बृहस्पति आँख, विष्णु कान हैं।

ब्राह्मण ग्रंथों की संख्या : 13 है; ऋग्वेद के लिए 2, सामवेद के 5, यजुर्वेद के 5, और अथर्ववेद के लिए 1 ब्राह्मण का निर्माण किया गया है।

आरण्यक

वेद का वह भाग, जिसमें यज्ञानुष्ठान-पद्धति, याज्ञिक मन्त्र, पदार्थ एवं फलादि में आध्यात्मिकता का संकेत दिया गया, वे ‘आरण्यक’ हैं। वानप्रस्थाश्रम में संसार-त्याग के उपरांत अरण्य (वन) में अध्ययन होने के कारण भी इन्हें ‘आरण्यक’ कहा गया। प्रमुख आरण्यकों में ऐतरेय आरण्यक, शांखायन्त आरण्यक, बृहदारण्यक, मैत्रायणी उपनिषद् आरण्यक तथा तवलकार आरण्यक (इसे जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण भी कहते हैं) आदि हैं। आरण्यक ग्रन्थों में प्राण विद्या मी महिमा का प्रतिपादन विशेष रूप से मिलता है। इनमें कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी हैं, जैसे- तैत्तिरीय आरण्यक में कुरू, पंचाल, काशी, विदेह आदि महाजनपदों का उल्लेख है।

वेद सम्बन्धित आरण्यक
1. ऋग्वेद ऐतरेय आरण्यक, शांखायन या कौषीतकि आरण्यक
2. यजुर्वेद बृहदारण्यक, मैत्रायणी, तैत्तिरीयारण्यक
3. सामवेद जैमनीयोपनिषद या तवलकार आरण्यक
4. अथर्ववेद

नोट:- अथर्ववेद का कोई आरण्यक उपलब्ध नहीं है। आरण्यकों की संख्या 6 हैं। संस्कृत में वन को ‘अरण्य’ कहते हैं। इसीलिए अरण्य में उत्पन्न हुए ग्रंथों को ‘आरण्यक’ कहा जाता है।

Ritvij - Vaidik Sahitya Sanskrit

उपनिषद

ब्राह्मण ग्रन्थों के परिशिष्ट या अन्तिम भाग उपनिषदों के नाम से प्रसिद्ध हुए। इनमें वैदिक मनीषियों के आध्यात्मिक एवं पारमार्थिक चिन्तन के दर्शन होते हैं। उपनिषदों की संख्या 108 बताई गई है किन्तु 12 उपनिषद् ही मुख्य हैं-

  1. ईशावास्योपनिषद
  2. केनोपनिषद
  3. कठोपनिषद
  4. प्रश्नोपनिषद
  5. मुण्डकोपनिषद
  6. माण्डूक्योपनिषद
  7. तैत्तरीयोपनिषद
  8. ऐतरेयोपनिषद
  9. छान्दोग्योपनिषद
  10. बृहदारण्यकोपनिषद
  11. श्वेताश्वतरोपनिषद
  12. कौशितकी उपनिषद

आदि गुरु शंकराचार्य ने उपरोक्त में से 10 उपनिषदों पर टीका लिखी थी- ईश, ऐतरेय, कठ, केन, छान्दोग्य, प्रश्न, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक, मांडूक्य, और मुण्डक उपनिषद; जिन्हे प्रामाणिक उपनिषद माना जाता है।

  • माण्डूक्योपनिषद – सबसे छोटा उपनिषद
  • बृहदारण्यक – सबसे बड़ा उपनिषद

उपनिषद ‘वेदों का सार‘ हैं। और ‘गीता‘ को उपनिषदों का सार माना जाता है। इस क्रम से वेद, उपनिषद और गीता ही धर्मग्रंथ हैं, दूसरा अन्य कोई नहीं।

स्मृतियों में वेद वाक्यों को विस्तृत समझाया गया है। वाल्मीकि कृत रामायण और व्यास कृत महाभारत को इतिहास पुराणों को पुरातन इतिहास का ग्रंथ माना गया है। पुराणों की संख्या 18 (अठारह) ही है। विद्वानों ने वेद, उपनिषद और गीता के पाठ को ही उचित बताया है।

उपवेद– ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का शिल्पवेद– ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद हैं।

वेदांग– वेदों के अंग 6 हैं- शिक्षा, छंद, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और कल्प।

उपांग– उपांग की संख्या भी 6 हैं- प्रतिपदसूत्र, अनुपद, छंदोभाषा (प्रातिशाख्य), धर्मशास्त्र, न्याय तथा वैशेषिक। वर्तमान में ये 6 उपांग ग्रंथ उपलब्ध हैं। इन्हीं से ही भारत के षड्दर्शन का निर्माण हुआ हैं, जो इस तरह है- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत।

दर्शन शास्त्र– वेद और उपनिषद को पढ़कर ही 6 ऋषियों ने अपना-अपना दर्शन रचा है। इसे ही भारतीय षड्दर्शन कहा जाता है। ये दर्शन निम्न हैं-

  1. न्याय दर्शन
  2. वैशेषिक दर्शन
  3. सांख्य दर्शन
  4. योग दर्शन
  5. मीमांसा दर्शन
  6. वेदांत दर्शन

उपरोक्त दर्शनों को वैदिक दर्शन (आस्तिक-दर्शन) कहा जाता हैं। आगे दिए गए 3 को अवैदिक दर्शन (नास्तिक-दर्शन) कहा है-

  1. चार्वाक दर्शन
  2. बौद्ध दर्शन
  3. जैन दर्शन

वेद को प्रमाण मानने वाले आस्तिक और न मानने वाले नास्तिक दर्शन हैं, इस दृष्टि से उपर्युक्त न्यायवैशेषिकादि को आस्तिक और चार्वाकादि दर्शन को नास्तिक कहा गया है।

अवश्य पढ़ें: लौकिक संस्कृत के बारे में।

 वैदिक व्याकरण एवं वैदिक संस्कृत की विशेषताएं
वैदिक व्याकरण एवं वैदिक संस्कृत की विशेषताएं

वैदिक संस्कृत ध्वनियाँ

डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. उदय नारायण तिवारी, डॉ. कपिल देव द्विवेदी प्रभृति विद्वानों ने वैदिक ध्वनियों की संख्या 52 मानी है जिसमें 13 स्वर तथा 39 व्यंजन है। डॉ. हरदेव बाहरी ने वैदिक स्वरों की संख्या 14 मानी है। वैदिक ध्वनियों का वर्गीकरण निम्न ढंग से किया जा सकता हैं-

वैदिक स्वर (संख्या 13)

  • मूल स्वर- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लृ
  • संयुक्त स्वर- ए, ओ, ऐ, औ

वैदिक व्यंजन (संख्या 39)

वैदिक व्यंजन संख्या - Vadik Vyanjan - 39

वैदिक संस्कृत की विशेषताएँ

  • वैदिक संस्कृत श्लिष्ट योगात्मक है।
  • वैदिक संस्कृत में संगीतात्मक एवं बलात्मक दोनों ही स्वराघात मौजूद है।
  • वैदिक संस्कृत में तीन लिंग (पुलिंग, स्त्रीलिंग एवं नपुंसकलिंग), तीन वचन (एकवचन, द्विवचन एवं बहुवचन),
  • वैदिक संस्कृत में तीन वाच्य (कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य एवं भाववाच्य)
  • वैदिक संस्कृत में आठ विभक्तियों (कर्ता, सम्बोधन, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्ध, अधिकरण) का प्रयोग मिलता है।
  • वैदिक संस्कृत में धातुओं के रूप आत्मने एवं परस्मै दो पदों में चलते थे। कुछ एक धातुएँ उभयपदी थीं।
  • डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार वैदिक संस्कृत में केवल तत्पुरुष, कर्मधारय, बहुब्रीहि एवं द्वन्द्व ये चार ही समास मिलते हैं।
  • वैदिक संस्कृत में काल एवं भाव (क्रियार्थ) मिलाकर क्रिया के 10 प्रकार के रूपों का प्रयोग मिलता है।
  • चार-काल-(1) लोट् (आज्ञा), (2) लिट् (परोक्ष या सम्पन्न), (3) लङ् (अनद्यतन या सम्पन्न), (4) लुङ् (सामान्य भूत)।
  • छह भाव-(1) लोट् (आज्ञा), (2) विधि लिङ् (सम्भावनार्थ), (3) आशीलिङ (इच्छार्थ), (4) लुङ् (हेतुहेतु समुद्भाव या निर्देश), (5) लेट (अभिप्राय), और (6) लेङ् (निर्बन्ध)।
  • क्रिया के 10 काल और भाव भेद को ही लकार कहते हैं।
  • वैदिक संस्कृत में विकरण की भिन्नता के अनुसार धातुओं को 10 गणों में विभिक्त किया गया था जो निम्न है- भ्वादिगण, अदादिगण, ह्वादिगण (जुहोत्यादि), दिवादिगण, स्वादिगण, तुदादिगण, तनादिगण, रूधादिगण, क्रयादिगण, चुरादिगण।

लौकिक संस्कृत: लौकिक संस्कृत ‘प्राचीन-भारतीय-आर्य-भाषा’ का वह रूप जिसका पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ में विवेचन किया गया है, वह ‘लौकिक संस्कृत’ कहलाता है। संस्कृत में 48 ध्वनियाँ ही शेष रह गई। वैदिक संस्कृत की 4 ध्वनियाँ ळ, ळह, जिह्वमूलीय और उपध्मानीय के लुप्त होने से लौकिक संस्कृत की 48 ध्वनियाँ शेष बच गयी।

वैदिक और लौकिक संस्कृत में अंतर

  • वैदिक संस्कृत– संहिताएँ, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद आदि।
  • लौकिक संस्कृत– वेदांग, रामायण, महाभारत, नाटक, काव्य, कथा साहित्य, आयुर्वेद, वैज्ञानिक साहित्‍य आदि।
वैदिक संस्कृत लौकिक संस्कृत
वैदिक संस्कृत के दौरान की रचनाएं पूर्णतः धार्मिक हैं। इस दौरान की रचनाओं में लौकिकता देखने को मिलती है।
वैदिक संस्कृत में पर्याप्त शब्दों का उपयोग किया गया है। जैसे – देवासः, जनामः । कुछ वैदिक शब्द विलुप्त हो गये। जैसे – देवः, जनः ।
वैदिक संस्कृत में स्वरों की संख्या अधिक है। स्वरों की संख्या कम है अर्थात जैसे लृ स्वर का लोप हो गया है।
वैदिक संस्कृति में उपसर्ग धातुओं से पृथक हैं। इनका स्वतंत्र प्रयोग किया जा सकता था। लौकिक संस्कृत में उपसर्ग धातु से जुड़े हैं । उपसर्गों के स्वतंत्र प्रयोग पर प्रतिबद्धता लग गयी।
वैदिक संस्कृत में कुछ स्थानों में सप्तमी एकवचन विलुप्त हो जाता है। लौकिक संस्कृति में सप्तमी एकवचन विलुप्त नहीं होता है।
व्याकरण की दृष्टि से वैदिक संस्कृत में कुछ अव्यवस्था देखने को मिलती है। लौकिक संस्कृति में व्याकरण के नियमों का अनुसरण करना अनिवार्य है।
लोट् लकार की उपलब्धता। लोट् लकार का अभाव।
शब्दों के अर्थ में अन्तर : पत् – उड़ना, सह – जीतना, असुर – शक्तिशाली, अराति – कृपण, वध -घातक शस्त्र, क्षिति – गृहं शब्दों के अर्थ में अन्तर : पत् – गिरना, सह – सहना, असुर – दैत्य, अराति – शत्रु, वध – हत्या, क्षिति – पृथ्वी
भाषा में स्वरों का उपयोग किया जाता था। भाषा में स्वरों का उपयोग विलुप्त हो गया।
संगीतात्मक शब्दों का प्रयोग देखने को मिलता है। संगीतात्मक शब्दों के स्थान पर बलात्मक शब्दों का प्रयोग प्रारंभ हो गया।

अवश्य पढ़ें: लौकिक साहित्य या लोक भाषा काव्य के बारे में।

वैदिक साहित्य प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1: शुक्ल और कृष्ण ये दो भेद किस वेद के होते है?

उत्तर: यजुर्वेद के भेद- कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद हैं।

प्रश्न 2: शिवसंकल्पसूक्त की देवता कौन है?

उत्तर: मनोदेवताः देवता, शिवसंकल्पसूक्त के हर मंत्र का अंत इस वाक्यांश के साथ होता है- “तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु” अर्थात- उस ईश्वरीय शुभ संकल्प में मेरा मन रमण करे।

प्रश्न 3: ‘न ब्राह्मणासो न सुतेकरासः’ इस मंत्र के भाग में ‘सुतेकरासः’ इस पद का सायणाचार्य के अनुसार क्या अर्थ है?

उत्तर: इस मंत्र में “सुतेकरासः” शब्द को सायणाचार्य ‘ऋत्विजः‘ अर्थात् उपासना करनेवाला, या यज्ञ करनेवाला बताते हैं।​ सूक्त : इमे ये नार्वाङ्न परश्चरन्ति न ब्राह्मणासो न सुतेकरासः। त एते वाचमभिपद्य पापया सिरीस्तन्त्रं तन्वते अप्रजज्ञयः॥ अर्थात- “जो मनुष्य इस लोक के शास्त्र को नहीं जानते तथा न परलोकशास्त्र अर्थात् अध्यात्मशास्त्र को जानते हैं, वे न ब्राह्मण हैं, न उपासक हैं, किन्तु अज्ञानरूप पाप से युक्त हुए केवल सन्तान वंश का या अपने शरीर का ही विस्तार करते हैं।” यह सूक्त ज्ञानसूक्त के नाम से जानी जाती है। इस सूक्त का विवरण निम्न है –

  • ऋषि – बृहस्पति, अंगिरस
  • देवता – ज्ञान
  • छंद – त्रिष्टुप्, नवम मंत्र : जगति
  • कुल मंत्रसंख्या – ११

प्रश्न 4: ‘मा नो वधाय हत्नवे जिहीव्ठानस्य रीरधः।” इस सूक्त में किस देव की स्तुति की है?

उत्तर: वरुण देव की; सूक्त : मा नो वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः । मा हृणानस्य मन्यवे।। अर्थात – ईश्वर उपदेश करता है कि हे मनुष्यो ! जो अल्पबुद्धि अज्ञानीजन अपनी अज्ञानता से तुम्हारा अपराध करें, तुम उसको दण्ड ही देने को मत प्रवृत्त और वैसे ही जो अपराध करके लज्जित हो अर्थात् तुम से क्षमा करवावे तो उस पर क्रोध मत छोड़ो, किन्तु उसका अपराध सहो और उसको यथावत् दण्ड भी दो। इस सूक्त का विवरण निम्न है –

  • ऋषि – शुनःशेप आजीगर्ति
  • देवता – वरुण
  • छन्द – गायत्री

प्रश्न 5: ऋग्वेद में ‘सत्यश्चित्रश्रवस्तमः’ देवता कौन है?

उत्तर: अग्निः देवता हैं; सूक्त: अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः। देवो देवेभिरा गमत्॥ अर्थात- हे अग्निदेव। आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप् युक्त है। आप देवो के साथ इस यज्ञ मे पधारें ।

प्रश्न 6: ईशोपनिषद के अनुसार कौन से लोग घोर अंधःकर में प्रवेश करते है?

उत्तर: जो अविद्या का अनुसरण करते हैं ‘ये अविद्यामुपासते‘; सूक्त: अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः॥ अर्थात- जो अविद्या का अनुसरण करते हैं वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं। और जो केवल विद्या में ही रत रहते हैं वे मानों उससे भी अधिक घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं।

प्रश्न 7: इन्द्रसूक्त के द्रष्टा ऋषि कौन है?

उत्तर: गृत्समद ऋषि; द्वितीय मंडल में गृत्समद ऋषि ने अनेक इंद्र सूक्तोंं की रचना की है।

प्रश्न 8: वेदों के कितने अङ्गों का उल्लेख संस्कृत साहित्य में हुआ है?

उत्तर: वेदों के अंग 6 हैं- शिक्षा, छंद, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और कल्प।

प्रश्न 9: उपनिषदों की प्रमाणिक संख्या क्या होती है?

उत्तर: 10 उपनिषद; उपनिषदों की संख्या 108 मानी गयी है, परन्तु आदिगुरु शंकराचार्य ने जिन 10 उपनिषदों पर अपना भाष्य लिखा है, उनको प्रमाणित माना गया है- ईश, ऐतरेय, कठ, केन, छान्दोग्य, प्रश्न, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक, मांडूक्य, और मुण्डक उपनिषद।

FAQs

वैदिक संस्कृत किसे कहते हैं?
वेदों में प्रयुक्त भाषा को वैदिक संस्कृत कहते हैं। यह दुनियाँ की सबसे प्राचीन भाषा मानी जाती है।

वेदों की संख्या कितनी है? सभी वेदों के नाम लिखिए।
वेदों की संख्या चार (4) है- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।

उपवेद कितने हैं? नाम सहित लिखो।
उपवेद की संख्या चार (4) है- ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का शिल्पवेद।

वैदिक व्याकरण की वर्णमाला में कितने अक्षर हैं?
डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. उदय नारायण तिवारी, डॉ. कपिल देव द्विवेदी प्रभृति विद्वानों ने वैदिक ध्वनियों की संख्या 52 मानी है जिसमें 13 स्वर तथा 39 व्यंजन है।

ऋग्वेद की कितनी शाखाएं हैं?
ऋग्वेद में 5 शाखाएं प्रमुख हैं- शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन।

वैदिक संस्कृत (Vaidik Sanskrit) का समयकाल (time period) क्या है?
वैदिक संस्कृत की अवधि 2000 से 800 ईसा पूर्व मानी जाती हैं, तो कुछ इससे भी अधिक प्राचीन मानते हैं।

वैदिककाल (Vaidik period) कितना माना जाता है?
कुछ विद्वान वैदिक युग (Vedic Age) को 1500 से 600 ईसा पूर्व के बीच की अवधि को मानते हैं।

वेद कितने पुराने हैं? (How old are the Vedas?)
सबसे पुराना वे ऋग्वेद है, जिसका समय 10,000 ईपू से अधिक प्राचीन माना गया है। वेदों के संकलन का कार्य 2000 ईसा पूर्व के बाद आरंभ हुआ। इससे पहले विद्वान इन्हें मौखिक रूप से एक दूसरे को सौंपते हुए आए हैं।

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