कन्नौजी
कन्नौजी– यह कन्नौज प्रदेश की भाषा है। इसका क्षेत्र अत्यन्त सीमित है। यह कानपुर, पीलीभीत, शाहजहाँपुर, हरदोई आदि प्रदेशों में बोली जाती है। पश्चिम में यह ब्रज की सीमाओं का स्पर्श करती है, अतः ब्रज और कन्नौजी में भेद करना कठिन हो जाता है। तथापि ब्रज और कन्नौजी में कतिपय संरचनागत भेद पाये जाते हैं, जैसे ब्रज की ऐ तथा औ ध्वनियों को कन्नौजी में संयुक्त स्वर अइ तथा अउ रूप में बोला जाता है, जैसे- कौन > कउन।
कन्नौज वर्तमान में एक जिला है, जो उत्तर प्रदेश में है। यह भारत का अति प्राचीन प्रसिद्ध एवं समृद्ध नगर रहा है। इसका उल्लेख प्राचीन ग्रंथों रामायण आदि में मिलता है।
कन्नौजी भाषा का विकास शौरसेनी प्राकृत की भाषा पांचाली प्राकृत से हुआ। इसीलिए आचार्य किशोरीदास बाजपेई ने इसे पांचाली नाम दिया। वस्तुतः पांचाल प्रदेश की मुख्य बोली ‘पांचाली’ अर्थात् ‘कन्नौजी’ ही है।
कन्नौजी का क्षेत्र बहुत विस्तृत नहीं है, परन्तु भाषा के सम्बंध में यह कहावत बड़ी सटीक है कि-
व्यवहार में देखा जाता है कि एक गाँव की भाषा अपने पड़ोसी गाँव की भाषा से कुछ न कुछ भिन्नता लिए होती है। इसी आधार पर कन्नौजी की उपबोलियों का निर्धारण किया गया है।
कन्नौजी बोली का क्षेत्र
कन्नौजी उत्तर प्रदेश के कन्नौज, औरैया, कानपुर, मैनपुरी, इटावा, शाहजहांपुर, फर्रुखाबाद, हरदोई, पीलीभीत जिलों के ग्रामीण अंचल में बहुतायत से बोली जाती है। कन्नौजी भाषा या कनउजी, पश्चिमी हिन्दी के अन्तर्गत आती हॅ।
कन्नौजी बोली की उप बोलियाँ
कन्नौजी क्षेत्र में विभिन्न बोलियों का व्यवहार होता है, जिनको इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है- मध्य कन्नौजी, तिरहारी, पछरुआ, बंग्रही, शहजहाँपुरिया, पीलीभीती, बदउआँ, अन्तर्वेदी आदि। पहचानाने की दृष्टि से कन्नौजी ओकारान्त बोली है।
ब्रजभाषा और कन्नौजी में मूल अन्तर यही है कि कन्नौजी के ओकारान्त और एकारान्त के स्थान पर ब्रजभाषा में “औकारान्त” और “ऐकारान्त” क्रियाएँ आती हैं अतः ब्रज और कन्नौजी में भेद करना कठिन हो जाता है। तथापि ब्रज और कन्नौजी में कतिपय संरचनागत भेद पाये जाते हैं, जैसे ब्रज की ऐ तथा औ ध्वनियों को कन्नौजी में संयुक्त स्वर अइ तथा अउ रूप में बोला जाता है, जैसे- कौन > कउन।
कन्नौजी बोली की ध्वनियाँ एवं शब्द
इसकी ध्वनियो में मध्यम ‘ह’ का लोप हो जाता है- जाहि, जाइ शब्दारम्भ में ल्ह, र्ह, म्ह् व्यंजन मिलते हैं- ल्हसुन, र्हँट, महंगाई आदि।
अन्त्य अल्पप्राण महाप्राण में बदल जाता है-
स्वरों में अनुनासिकीकरण की प्रवृत्ति पाई जाती है-
“य” के स्थान पर “ज” हो जाता है-
“व” के स्थान पर “ब” का व्यवहार होता है-
कहीं – कहीं पर “व” के स्थान पर “उ” भी प्रयुक्त होता है-
अवधी की भाँति उकारान्त की प्रवृत्ति भी पाई जाती है-
कहीं-कहीं “ख” के स्थान पर “क” उच्चरित होता है-
“ण” “ड़” हो जाता है-
“स” के स्थान पर “ह”-
उपेक्षाभाव से उच्चरित संज्ञा शब्दों में “टा” प्रत्यय का योग विशेष उल्लेखनीय है-