स्वतंत्रता या आजादी के बाद हिन्दी का राजभाषा के रूप में विकास
राजभाषा (Official Language) क्या है ? राजभाषा का शाब्दिक अर्थ है-राज-काज की भाषा। जो भाषा देश के राजकीय कार्यों के लिए प्रयुक्त होती है, वह ‘राजभाषा’ कहलाती है। राजाओं-नवाबों के जमाने में इसे ‘दरबारी भाषा’ कहा जाता था। राजभाषा सरकारी कामकाज चलाने की आवश्यकता की उपज होती है।
स्वशासन आने के पश्चात् राजभाषा की आवश्यकता होती है। प्रायः राष्ट्रभाषा ही स्वशासन आने के पश्चात् राजभाषा बन जाती है। भारत में भी राष्ट्रभाषा हिन्दी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ।
राजभाषा एक संवैधानिक शब्द है। हिन्दी को 14 सितम्बर 1949 ई० को संवैधानिक रूप से राजभाषा घोषित किया गया। इसीलिए प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को ‘हिन्दी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
राजभाषा देश को अपने प्रशासनिक लक्ष्यों के द्वारा राजनीतिक-आर्थिक इकाई में जोड़ने का काम करती है। अर्थात् राजभाषा की प्राथमिक शर्त राजनीतिक प्रशासनिक एकता कायम करना है।
राजभाषा का प्रयोग-क्षेत्र सीमित होता है, यथा – वर्तमान समय में भारत सरकार के कार्यालयों एवं कुछ राज्यों हिन्दी क्षेत्र के राज्यों में राज-काज हिन्दी में होता है। अन्य राज्य सरकारें अपनी-अपनी भाषा में कार्य करती हैं, हिन्दी में नहीं- महाराष्ट्र मराठी में, पंजाब पंजाबी में, गुजरात गुजराती में आदि।
राजभाषा कोई भी भाषा हो सकती है स्वभाषा या परभाषा। जैसे, मुगल शासक अकबर के समय से लेकर मैकाले के काल तक फारसी राजभाषा तथा मैकाले के काल से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक अंग्रेजी राजभाषा थी जो कि विदेशी भाषा थी। जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया जो कि स्वभाषा है।
राजभाषा का एक निश्चित मानक स्वरूप होता है जिसके साथ छेड़छाड़ या प्रयोग नहीं किया जा सकता।
(1) हिन्दी की संवैधानिक स्थिति व उसकी समीक्षा
स्वतंत्रता के पूर्व जो छोटे बड़े राष्ट्रनेता राष्ट्रभाषा या राजभाषा के रूप में हिन्दी को अपनाने के मुद्दे पर सहमत थे, उनमें से अधिकांश गैर-हिन्दी भाषी नेता स्वतंत्रता मिलने के वक्त हिन्दी के नाम पर बिदकने लगे।
यही वजह थी कि संविधान सभा में केवल हिन्दी पर विचार नहीं हुआ- राजभाषा के नाम पर जो बहस वहाँ 11 सितम्बर 1949 ई० से 14 सितम्बर, 1949 ई० तक हुई, उसमें हिन्दी अंग्रेजी, संस्कृत एवं हिन्दुस्तानी के दावे पर विचार किया गया।
किन्तु संघर्ष की स्थिति सिर्फ हिन्दी एवं अंग्रेजी के समर्थकों के बीच ही देखने को मिली। हिन्दी समर्थक वर्ग में भी दो गुट थे-
- एक गुट देवनागरी लिपि वाली हिन्दी का समर्थक था;
- दूसरा गुट (महात्मा गाँधी, जे. एल. नेहरू, अबुल कलाम आजाद आदि)
दूसरा गुट दो लिपियों वाली हिन्दुस्तानी के पक्ष में था आजाद भारत में एक विदेशी भाषा, जिसे देश का बहुत थोड़ा-सा अंश (अधिक-से-अधिक 1 या 2%) ही पढ़-लिख और समझ सकता था, देश की राजभाषा नहीं बन सकती थी।
लेकिन यकायक अंग्रेजी को छोड़ने में भी दिक्कतें थीं। प्रायः 150 वर्षों से अंग्रेजी प्रशासन और उच्च शिक्षा की भाषा रही थी। हिन्दी देश की 46% जनता की भाषा थी। राजभाषा बनने के लिए हिन्दी का दावा न्याययुक्त था। साथ ही, प्रादेशिक भाषाओं की भी सर्वथा उपेक्षा नहीं की जा सकती थी।
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए संविधान निर्माताओं ने राजभाषा की समस्या को हल करने की कोशिश की। संविधान सभा के भीतर और बाहर हिन्दी के विपुल समर्थन को देखकर संविधान सभा ने हिन्दी के पक्ष में अपना फैसला दिया। यह फैसला हिन्दी विरोधी एवं हिन्दी समर्थकों के बीच ‘मुंशी-आयंगार फॉर्मूले’ के द्वारा समझौते के परिणामस्वरूप सामने आया, जिसकी प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार थीं-
- हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि राजभाषा है।
- संविधान के लागू होने के दिन से 15 वर्षों की अवधि तक अंग्रेजी बनी रहेगी।
- एक अस्पष्ट निर्देश (अनु० 351) के आधार पर हिन्दी एवं हिन्दुस्तानी के विवाद को दूर कर लिया गया।
संविधान में भाषा विषयक उपबंध अनु० 120, अनु० 210 एवं भाषा विषयक एक पृथक् भाग–भाग 17 (राजभाषा) के अनु० 343 से 351 तक एवं 8वीं अनुसूची में दिए गए हैं। संविधान के ये भाषा-विषयक उपबंध हिन्दी, अंग्रेजी एवं प्रादेशिक भाषाओं के परस्पर विरोधी दावों के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करते हैं।
संसद में प्रयोग की जानेवाली भाषा – अनु० 120
संसद का कार्य हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जाएगा, परन्तु यथास्थिति लोकसभाध्यक्ष या राज्य सभा का सभापति किसी सदस्य को उसकी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकता है। संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तो 15 वर्ष की अवधि के पश्चात् ‘या अंग्रेजी में’ शब्दों का लोप किया जा सकेगा।
राज्य विधानमंडल में प्रयोग की जानेवाली भाषा – अनु० 210
राज्यों के विधानमंडलों का कार्य अपने-अपने राज्य की राजभाषा या राजभाषाओं में या हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जाएगा, परन्तु यथास्थिति विधानसभाध्यक्ष या विधान परिषद का सभापति किसी सदस्य को उसकी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकता है। संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तो 15 वर्ष की अवधि के पश्चात् ‘या अंग्रेजी में’ शब्दों का लोप किया जा सकेगा।
संविधान “भाग-17” – राजभाषा
अध्याय 1- संघ की भाषा
अनु० 343 – संघ की राजभाषा
- संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। अंकों का रूप भारतीय अंकों का अन्तर्राष्ट्रीय रूप होगा।
- इस संविधान के प्रारंभ से 15 वर्ष की अवधि तक (अर्थात् 1965 तक) उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए पहले प्रयोग किया जा रहा था।
- परन्तु राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान संघ के शासकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिन्दी भाषा का और भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय रूप के अतिरिक्त देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा।
- संसद उक्त 15 वर्ष की अवधि के पश्चात्, विधि द्वारा (i) अंग्रेजी भाषा का; या (ii) अंकों के देवनागरी रूप का, ऐसे प्रयोजनों के लिए प्रयोग उपबंधित कर सकेगी जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट किए जाएँ।
अनु० 344
राजभाषा के संबंध में आयोग – 5 वर्ष के उपरांत राष्ट्रपति द्वारा और 10 वर्ष के उपरांत संसद की समिति द्वारा
अध्याय 2 – प्रादेशिक भाषाएँ
अनु० 345
राज्य की राजभाषा या राजभाषाएं (प्रादेशिक भाषा भाषाएं या हिन्दी; ऐसी व्यवस्था होने तक अंग्रेजी का प्रयोग जारी)
अनु० 346
एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच या किसी राज्य और संघ के बीच पत्रादि की राजभाषा (संघ द्वारा तत्समय प्राधिकृत भाषा; आपसी करार होने पर दो राज्यों के बीच हिन्दी)
अनु० 347
किसी राज्य की जनसंख्या के किसी अनुभाग द्वारा बोली जानेवाली भाषा के संबंध में विशेष उपबंध
अध्याय 3 – SC, HC आदि की भाषा
अनु० 348
SC और HC में और संसद व राज्य विधान मंडल में विधेयकों, अधिनियमों आदि के लिए प्रयोग की जानेवाली भाषा (उपबंध होने तक अंग्रेजी जारी)
अनु० 349
भाषा से संबंधित कुछ विधियां अधिनियमित करने के लिए विशेष प्रक्रिया (राजभाषा संबंधी कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी के बिना पेश नहीं की जा सकती और राष्ट्रपति भी आयोग की सिफारिशों पर विचार करने के बाद ही मंजूरी दे सकेगा)
अध्याय 4 – विशेष निदेश
अनु० 350
व्यथा के निवारण के लिए अभ्यावेदन में प्रयोग की जानेवाली भाषा (किसी भी भाषा में)
- भाषाई अल्पसंख्यक वर्गों के लिए प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएँ
- भाषाई अल्पसंख्यक वर्गों के लिए विशेष अधिकारी की नियुक्ति (राष्ट्रपति द्वारा)
अनु० 351 – हिन्दी के विकास के लिए निदेश
संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और 8वीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदावली को आत्मसात करते हुए जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करें।
8वीं अनुसूची
भाषाएँ
8वीं अनुसूची में संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त 22 प्रादेशिक भाषाओं का उल्लेख है।
- इस अनुसूची में आरंभ में 14 भाषाएँ (1. असमिया 2. बांग्ला 3. गुजराती 4. हिन्दी 5. कन्नड़ 6. कश्मीरी 7. मलयालम 8. मराठी 9. उड़िया 10. पंजाबी 11. संस्कृत 12. तमिल 13. तेलुगू 14. उर्दू ) थीं।
- बाद में सिंधी को (21 वां संशोधन, 1967 ई०), तत्पश्चात् कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली को (71 वां संशोधन, 1992 ई०) शामिल किया गया, जिससे इसकी संख्या 18 हो गई।
- तदुपरांत बोडो, डोगरी, मैथिली, संथाली को (92 वां सब 2003) शामिल किया गया और इस प्रकार इस अनुसूची में 22 भाषाएँ हो गई।
अध्याय 1 “संघ की भाषा” की समीक्षा
अनु० 343 के संदर्भ में
- अनु० 343 (1) के अनुसार संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी घोषित की गई है। इससे देश के बहुमत की इच्छा ही प्रतिध्वनित होती है।
- अनु० 343 (2) के अनुसार इसे भारतीय संविधान लागू होने की तारीख अर्थात् 26 जनवरी, 1950 ई० से लागू नहीं किया जा सकता था। इसे लागू करने के लिए संविधान लागू होने के 15 वर्ष बाद की अवधि रखी तो गई, परन्तु फिर –
- अनु० 343 (3) के द्वारा सरकार ने यह शक्ति प्राप्त कर ली कि वह इस 15 वर्ष की अवधि के बाद भी अंग्रेजी का प्रयोग जारी रख सकती है।
- रही-सही कसर, बाद में राजभाषा अधिनियम, 1963 ने पूरी कर दी क्योंकि इस अधिनियम ने सरकार के इस उद्देश्य को साफ कर दिया कि अंग्रेजी की हुकूमत देश पर अनंत काल तक बनी रहेगी।
इस प्रकार, संविधान में की गई व्यवस्था 343 (1) हिन्दी के लिए वरदान थी। परन्तु 343 (2) एवं 343 (3) की व्यवस्थाओं ने इस वरदान को अभिशाप में बदल दिया। वस्तुतः संविधान निर्माणकाल में संविधान निर्माताओं में जन साधारण की भावना के प्रतिकूल व्यवस्था करने का साहस नहीं था, इसलिए 343 (1) की व्यवस्था की गई। परन्तु अंग्रेजियत का वर्चस्व बनाये रखने के लिए 343 (2) एवं 343 (3) से उसे प्रभावहीन कर देश पर मानसिक गुलामी लाद दी गई।
अनु० 344 के संदर्भ में
अनु० 344 के अधीन प्रथम राजभाषा आयोग (बी० जी० खेर आयोग) का 1955 में तथा संसदीय राजभाषा समिति (जी० बी० पंत समिति) का 1957 में गठन हुआ। जहाँ खेर आयोग ने हिन्दी को एकान्तिक व सर्वश्रेष्ठ स्थिति में पहुँचाने पर जोर दिया वहाँ पंत समिति ने हिन्दी को प्रधान राजभाषा बनाने पर जोर तो दिया लेकिन अंग्रेजी को हटाने की बजाय उसे सहायक राजभाषा बनाये रखने की वकालत की।
हिन्दी के दुर्भाग्य से सरकार ने खेर आयोग को महज औपचारिक माना और हिन्दी के विकास के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए; जबकि सरकार ने पंत समिति की सिफारिशों को स्वीकार किया, जो आगे चलकर राजभाषा अधिनियम 1963/67 का आधार बनी जिसने हिन्दी का सत्यानाश कर दिया।
समग्रता से देखें तो स्वतंत्रता-संग्राम काल में हिन्दी देश में राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक थी अतएव राष्ट्रभाषा बनी, और राजभाषा अधिनियम 1963 के बाद यह केवल संपर्क भाषा होकर रह गयी।
अध्याय 2 (प्रादेशिक भाषाएँ) एवं 8वीं अनुसूची की समीक्षा
अनु० 345, 346
अनु० 345, 346 से स्पष्ट है कि भाषा के संबंध में राज्य सरकारों को पूरी छूट दी गई। संविधान की इन्हीं अनुच्छेदों के अधीन हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी राजभाषा बनी। हिन्दी इस समय 9 राज्यों-उत्तर प्रदेश,
उत्तरांचल, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, बिहार, झारखंड, राजस्थान, हरियाणा, व हिमाचल प्रदेश तथा 1 केन्द्र शासित प्रदेश–दिल्ली की राजभाषा है।
उक्त प्रदेशों में आपसी पत्र-व्यवहार की भाषा हिन्दी है। दिनोंदिन हिन्दी
भाषी राज्यों में हिन्दी का प्रयोग सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए बढ़ता जा रहा है। इनके अतिरिक्त, अहिन्दी भाषी राज्यों में महाराष्ट्र, गुजरात व पंजाब की एवं केन्द्र शासित प्रदेशों में चंडीगढ़ व अंडमान निकोबार
की सरकारों ने हिन्दी को द्वितीय राजभाषा घोषित कर रखा है तथा हिन्दी भाषी राज्यों से पत्र-व्यवहार के लिए हिन्दी को स्वीकार कर लिया है।
अनु० 347
अनु० 347 के अनुसार यदि किसी राज्य का पर्याप्त अनुपात चाहता है कि उसके द्वारा बोली जानेवाली कोई भाषा राज्य द्वारा अभिज्ञात की जाय तो राष्ट्रपति उस भाषा को सरकारी अभिज्ञा दे सकता है।
समय-समय पर राष्ट्रपति ऐसी अभिज्ञा देते रहे हैं, जो 8वीं अनुसूची में स्थान पाते रहे हैं, जैसे 1967 में सिंधी, 1992 में कोंकणी, मणिपुरी व नेपाली एवं 2003 में बोडो, डोगरी, मैथिली व संथाली।
यही कारण है कि संविधान लागू होने के समय जहाँ 14 प्रादेशिक भाषाओं को मान्यता प्राप्त थी वहीं अब यह संख्या बढ़कर 22 हो गई है।
अध्याय 3 (SC, HC आदि की भाषा अर्थात् न्याय व विधि/कानून की भाषा) की समीक्षा
अनु० 348, 349 से स्पष्ट हो जाता है कि न्याय व कानून की भाषा, उन राज्यों में भी जहाँ हिन्दी को राजभाषा मान लिया गया है, अंग्रेजी ही है। नियम, अधिनियम, विनियम तथा विधि का प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी में होने के कारण सारे नियम अंग्रेजी में ही बनाये जाते हैं। बाद में उनका अनुवाद मात्र कर दिया जाता है।
इस प्रकार, न्याय व कानून के क्षेत्र में हिन्दी का समुचित प्रयोग हिन्दी राज्यों में भी अभी तक नहीं हो सका है।
अध्याय 4 ‘विशेष निदेश’ की समीक्षा
अनु० 350
अनु० 350 भले ही संवैधानिक स्थिति के अनुसार व्यक्ति को अपनी व्यथा के निवारण हेतु किसी भी भाषा में अभ्यावेदन करने का हकदार माना गया है लेकिन व्यावहारिक स्थिति यही है कि आज भी अंग्रेजी में अभ्यावेदन करने पर ही अधिक तवज्जो / ध्यान देना गवारा करते हैं।
अनु० 351 – ‘हिन्दी के विकास के लिए निदेश’
अनु० 351 राजभाषा विषयक उपबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें हिन्दी के भावी स्वरूप के विकास की परिकल्पना सन्निहित है। हिन्दी को विकसित करने की दिशाओं का इसमें संकेत है। इस अनुच्छेद के अनुसार संघ सरकार का यह कर्तव्य है कि वह हिन्दी भाषा के विकास और प्रसार के लिए समुचित प्रयास करे ताकि भारत में राजभाषा हिन्दी के ऐसे स्वरूप का विकास हो, जो समूचे देश में प्रयुक्त हो सके और जो भारत की मिली-जुली संस्कृति की अभिव्यक्ति की वाहिका बन सके।
इसके लिए संविधान में इस बात का भी निर्देश दिया गया है कि हिन्दी में हिन्दुस्तानी और मान्यताप्राप्त अन्य भारतीय भाषाओं की शब्दावली और शैली को भी अपनाया जाय और मुख्यतः संस्कृत तथा गौणतः अन्य भाषाओं (विश्व की किसी भी भाषा) से शब्द ग्रहण कर उसके शब्द-भंडार को समृद्ध किया जाय।
संविधान के निर्माताओं की यह प्रबल इच्छा थी कि हिन्दी भारत में ऐसी सर्वमान्य भाषा के स्वरूप को ग्रहण करे, जो सब प्रांतों के निवासियों को स्वीकार्य हो। संविधान के निर्माताओं को यह आशा थी कि हिन्दी अपने स्वाभाविक विकास में भारत की अन्य भाषाओं से वरिष्ठ संपर्क स्थापित करेगी और हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के बीच में साहित्य का आदान-प्रदान भी होगा।
संविधान के निर्माताओं ने उचित ढंग से यह आशा की थी कि राजभाषा हिन्दी अपने भावी रूप का विकास करने में अन्य भारतीय भाषाओं का सहारा लेगी। यह इसलिए था कि राजभाषा हिन्दी को सबके लिए सुलभ और ग्राह्य रूप धारण करना है।
(2) 1950 ई० के बाद हिन्दी की संवैधानिक प्रगति
राष्ट्रपति का संविधान आदेश, 1952
राज्यपालों, SC एवं HC के न्यायाधीशों की नियुक्ति के अधिपत्रों के लिए हिन्दी का प्रयोग प्राधिकृत।
राष्ट्रपति का संविधान आदेश, 1955
कुछ प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी का प्रयोग निर्धारित, जैसे-
- जनता के साथ पत्र-व्यवहार में,
- प्रशासनिक रिपोर्ट, सरकारी पत्रिकाओं व संसदीय रिपोर्ट में,
- संकल्पों (resolutions) व विधायी नियमों में,
- हिन्दी को राजभाषा मान चुके राज्यों के साथ पत्र-व्यवहार में,
- संधिपत्र और करार में,
- राजनयिक व अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में भारतीय प्रतिनिधियों के नाम जारी किये जानेवाले पत्रों में।
प्रथम राजभाषा आयोग/बाल गंगाधर (बी.जी.) खेर आयोग –
7 जून, 1955 (गठन); 31 जुलाई, 1956 (प्रतिवेदन)
आयोग की सिफारिशें :
- सारे देश में माध्यमिक स्तर तक हिन्दी अनिवार्य की जाए।
- देश में न्याय देश की भाषा में किया जाए।
- जनतंत्र में अखिल भारतीय स्तर पर अंग्रेजी का प्रयोग संभव नहीं।
अधिक लोगों द्वारा बोली जानेवाली हिन्दी भाषा समस्त भारत के लिए उपयुक्त है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी का प्रयोग ठीक है, किन्तु शिक्षा, प्रशासन, सार्वजनिक जीवन तथा दैनिक कार्यकलापों में विदेशी भाषा का व्यवहार अनुचित है।
टिप्पणी– आयोग के दो सदस्यों ने बंगाल के सुनीति कुमार चटर्जी व तमिलनाडु के पी० सुब्बोरोयान आयोग की सिफारिशों से असहमति प्रकट की और आयोग के सदस्यों पर हिन्दी का पक्ष लेने का आरोप लगाया।
जो भी हो, प्रथम राजभाषा आयोग ‘खेर आयोग‘ ने हिन्दी के अधिकाधिक और प्रगामी प्रयोग पर बल दिया था। खेर आयोग ने जो ठोस सुझाव रखे थे, सरकार ने उन्हें महज औपचारिक मानते हुए राजभाषा हिन्दी के विकास के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए।
संसदीय राजभाषा समिति / गोविंद बल्लभ (जी० बी०) पंत समिति –
16 नवम्बर, 1957 (गठन); 8 फरवरी, 1959 (प्रतिवेदन) – पंत समिति ने कहा कि राष्ट्रीय एकता को द्योतित करने के लिए एक भाषा को स्वीकार कर लेने का स्वतंत्रता-पूर्व का जोश ठंढा पड़ गया है।
सिफारिशें:
- हिन्दी संघ की राजभाषा का स्थान जल्दी-से-जल्दी ले। लेकिन इस परिवर्तन के लिए कोई निश्चित तारीख (जैसे 26 जनवरी, 1965 ई०) नहीं दी जा सकती यह परिवर्तन धीरे-धीरे स्वाभाविक रीति से होना चाहिए।
- 1965 ई० तक अंग्रेजी प्रधान राजभाषा और हिन्दी सहायक राजभाषा रहनी चाहिए। 1965 के बाद जब हिन्दी संघ की प्रधान राजभाषा हो जाये, अंग्रेजी संघ की सहायक / सह राजभाषा रहनी चाहिए।
टिप्पणी– पंत समिति के सिफारिशों से राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन और सेठ गोविंद दास असहमत व असंतुष्ट थे और उन्होंने यह आरोप लगाया कि सरकार हिन्दी को राजभाषा के रूप में प्रस्थापित करने के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाए है। इन दोनों नेताओं ने समिति द्वारा अंग्रेजी को राजभाषा बनाये रखने की भी घोर विरोध किया। जो भी हो, सरकार ने पंत समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया।
राष्ट्रपति का आदेश, 1960
शिक्षा मंत्रालय, विधि मंत्रालय वैज्ञानिक अनुसंधान व सांस्कृतिक कार्य मंत्रालय तथा गृह मंत्रालय को हिन्दी को राजभाषा के रूप में विकसित करने हेतु विभिन्न निर्देश।
राजभाषा अधिनियम, 1963 (1967 में संशोधित)
संविधान के अनुसार 15 वर्ष के बाद अर्थात् 1965 ई० से सारा काम-काज हिन्दी में शुरू होना था, परन्तु सरकार की ढुल-मुल नीति के कारण यह संभव नहीं हो सका। अहिन्दी क्षेत्रों में, विशेषतः बंगाल और तमिलनाडु (DMK द्वारा) में हिन्दी का घोर विरोध हुआ। इसकी प्रतिक्रिया हिन्दी क्षेत्र में हुई।
जनसंघ (स्थापना-1951 ई०, संस्थापक-श्यामा प्रसाद मुखर्जी) एवं प्रजा सोशलिस्ट पार्टी / पी० एस० पी० (स्थापना-1952 ई०, संस्थापक-लोहिया) द्वारा हिन्दी का घोर समर्थन किया गया। हिन्दी के कट्टरपंथी समर्थकों ने भाषायी उन्माद को उभारा जिसके कारण हिन्दी की प्रगति के बदले हिन्दी को हानि पहुँची।
इस भाषायी कोलाहल के बीच प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने आश्वासन दिया कि हिन्दी को एकमात्र राजभाषा स्वीकार करने से पहले अहिन्दी क्षेत्रों की सम्मति प्राप्त की जाएगी और तब तक अंग्रेजी को नहीं हटाया जाएगा।
राजभाषा विधेयक को गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने प्रस्तुत किया।
राजभाषा विधेयक का उद्देश्य
जहाँ राजकीय प्रयोजनों के लिए 15 वर्ष बाद यानी 1965 से हिन्दी का प्रयोग आरंभ होना चाहिए था वहां व्यवस्था को पूर्ण रूप से लागू न करके उस अवधि के बाद भी संघ के सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग बनाये रखना।
राजभाषा अधिनियम के प्रावधान
राजभाषा अधिनियम, 1963 में कुल 9 धाराएं है जिनमें सर्वप्रथम है— 26 जून, 1965 से हिन्दी संघ की राजभाषा तो रहेगी ही पर उस समय से हिन्दी के अतिरिक्त अंग्रेजी भी संघ के उन सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए बराबर प्रयुक्त होती रहेगी जिनके लिए वह उस तिथि के तुरन्त पहले प्रयुक्त की जा रही थी।
टिप्पणी– इस प्रकार 26 जून, 1965 से राजभाषा अधिनियम, 1963 के तहत द्विभाषिक स्थिति प्रारंभ हुई, जिसमें संघ के सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाएँ प्रयुक्त की जा सकती थीं।
राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 1967
समय-समय पर संसद के भीतर और बाहर जवाहर लाल नेहरू द्वारा दिए गए आश्वासनों और लाल बहादुर शास्त्री द्वारा राजभाषा विधेयक, 1963 को प्रस्तुत करते समय अहिन्दी भाषियों को दिलाए गए। विश्वास को मूर्त रूप प्रदान करने के उद्देश्य से इंदिरा गांधी, जो अपने पिता की भाँति अहिन्दी भाषियों से सहानुभूति रखती थी, के शासनकाल में राजभाषा (संशोधन) विधेयक, 1967 पारित किया गया।
राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 1967 के प्रावधान
इस अधिनियम के तहत राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा के स्थान पर नये उपबंध लागू हुए। इसके अनुसार, अंग्रेजी भाषा का प्रयोग समाप्त कर देने के लिए ऐसे सभी राज्यों के विधानमंडल द्वारा, जिन्होंने हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है, संकल्प (resolution) पारित करना होगा और विधानमंडलों के संकल्पों पर विचार कर लेने के पश्चात् उसकी समाप्ति के लिए संसद के हर एक सदन द्वारा संकल्प पारित करना होगा। ऐसा नहीं होने पर अंग्रेजी अपनी पूर्व स्थिति में बनी रहेगी।
टिप्पणी– इस अधिनियम के द्वारा इस बात की व्यवस्था की गई कि अंग्रेजी सरकार के कामकाज में सहभाषा के रूप में तब तक बनी रहेगी जब तक अहिन्दी भाषी राज्य हिन्दी को एकमात्र राजभाषा बनाने के लिए सहमत न हो जाएं। इसका मतलब यह हुआ कि भारत का एक भी राज्य चाहेगा कि अंग्रेजी बनी रहे तो वह सारे देश की सहायक राजभाषा बनी रहेगी।
संसद द्वारा पारित संकल्प (Resolution), 1968
- राजभाषा हिन्दी एवं प्रादेशिक भाषाओं की प्रगति को सुनिश्चित करना।
- त्रिभाषा सूत्र (Three Language Formula) को लागू करना।
एकता की भावना के संवर्द्धन हेतु भारत सरकार राज्यों के सहयोग से त्रिभाषा सूत्र को लागू करेगी। त्रिभाषा सूत्र के अन्तर्गत यह प्रस्तावित किया गया कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी व अंग्रेजी के अतिरिक्त दक्षिणी भारतीय भाषाओं में से किसी एक को तथा अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में प्रादेशिक भाषा व अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी को पढ़ाने की व्यवस्था की जाय।
टिप्पणी– त्रिभाषा सूत्र का प्रयोग सफल नहीं हुआ। न तो हिन्दी क्षेत्र के लोगों ने किसी दक्षिणी भारतीय भाषा का अध्ययन किया और न ही गैर-हिन्दी क्षेत्र के लोगों ने हिन्दी का।
राजभाषा नियम, 1976 (यथासंशोधित, 1987)
इन नियमों की संख्या 12 है जिनमें हिन्दी के प्रयोग के संदर्भ में भारत के क्षेत्रों का 3 वर्गीय विभाजन किया गया है और प्रधान राजभाषा हिन्दी और सह राजभाषा अंग्रेजी एवं प्रादेशिक भाषाओं के प्रयोग हेतु नियम दिये गये हैं। आज भी इन्हीं नियमों के अनुसार सरकार की द्विभाषिक नीति का अनुपालन हो रहा है।
राजभाषा के विकास से संबंधित संस्थाएँ
केन्द्रीय हिन्दी समिति, नई दिल्ली
केन्द्रीय हिन्दी समिति की स्थापना 1967 में नई दिल्ली में हुई। इसका कार्य भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों द्वारा हिन्दी के प्रचार-प्रसार के संबंध में चालू कार्यक्रमों में समन्वय स्थापित करना होता है। इसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं।
राजभाषा विधायी आयोग
राजभाषा विधायी आयोग की स्थापना 1975 में की गई। यह आयोग पहले गृह मंत्रालय के अधीन था परंतु वर्तमान में विधि/कानून मंत्रालय के अंतर्गत आता है। इसका कार्य प्रमुख कानूनों के हिन्दी पाठ का निर्माण करना होता है।
शिक्षा मंत्रालय के अधीन संस्थाएँ
संस्था का नाम | स्थापना | कार्य |
---|---|---|
1. साहित्य अकादमी, नई दिल्ली | 1954 | साहित्य को बढ़ावा देने वाली शीर्षस्थ संस्था |
2. नेशनल बुक ट्रस्ट (National Book Trust N.B.T.), नई दिल्ली | 1957 | शिक्षा, विज्ञान व साहित्य की उच्च कोटि की पुस्तकों का प्रकाशन कम मूल्यों पर जनता को उपलब्ध कराना। |
3. केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, नई दिल्ली | 1960 | शब्दकोशों, विश्वकोशों, अहिन्दी भाषियों के लिए पाठ्यपुस्तकों का प्रकाशन |
4. वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली | 1961 | विज्ञान व तकनीक से संबंधित शब्दावलियों का प्रकाशन |
गृह मंत्रालय के अधीन संस्थाएँ
संस्था का नाम | स्थापना | कार्य |
---|---|---|
1. राजभाषा विधायी आयोग | 1965-75 | केन्द्रीय अधिनियमों के हिन्दी पाठ का निर्माण |
2. केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो | 1971 | देश में अनुवाद की सबसे बड़ी संस्था |
3. राजभाषा विभाग | 1975 | संघ के विभिन्न शासकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी के प्रगामी प्रयोग से संबंधित सभी मामले |
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन संस्थाएँ
- प्रकाशन विभाग (Publication Division) – 1944
- फिल्म प्रभाग (Films Division) – 1948
- पत्र सूचना कार्यालय (Press Information Bureau), नई दिल्ली – 1956
- आकाशवाणी – 1957
- दूरदर्शन – 1976
राष्ट्रभाषा व राजभाषा संबंधी कुछ विविध तथ्य
- प्रताप नारायण मिश्र ने ‘हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान’ का नारा दिया।
- हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का विचार सर्वप्रथम बंगाल में उदित हुआ।
- कांग्रेस के फैजपुर अधिनेशन (1936 ई०) एवं हरिपुरा अधिवेशन (1938 ई०) में कांग्रेस के विराट मण्डप में ‘राष्ट्रभाषा सम्मेलन’ आयोजित किये गये, जिनकी अध्यक्षता राजेन्द्र प्रसाद (फैजपुर) एवं जमना लाल बजाज (हरिपुरा) ने की।
- संविधान सभा में हिन्दी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव गोपाल स्वामी आयंगर ने रखा जिसका समर्थन शंकरराव देव ने किया।
- संविधान सभा में राजभाषा के नाम पर हुए मतदान में हिन्दुस्तानी को 77 वोट तथा हिन्दी को 78 वोट मिले।
आजादी-पूर्व हिन्दी का समर्थन करनेवाले व आजादी बाद हिन्दी का विरोध करने वाले व्यक्तित्व
सी० राजागोपालाचारी, सुनीति कुमार चटजी, हुमायूं कबीर, अनंत शयनम आय्यंगार आदि।
- ‘मैं कभी भी हिन्दी का विरोधी नहीं हूँ। मैं उन हिन्दी वालों का विरोध करता हूँ जो वस्तुस्थिति को नहीं समझकर अपने स्वार्थ के कारण हिन्दी को लादने की बात सोचते हैं।’ – सी० राजगोपालाचारी
- ‘हिन्दी अहिन्दी लोगों के लिए ठीक उतनी ही विदेशी है। जितनी कि हिन्दी समर्थकों के लिए अंग्रेजी।’ – सी० राजगोपालाचारी (1958)
- ‘हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान’ वाले राष्ट्रबाद की सबसे बड़ी सीमा यह है कि यह समूचे दक्षिण भारत को भूल जाता है। – इरोड वैकट रामास्वमी (ई० वी० आर०) ‘पेरियार’
1952 में एक विख्यात स्वतंत्रता सेनानी पोटी श्रीरामालु ने तेलुगू भाषी लोगों के लिए एक पृथक राज्य आंध्र प्रदेश बनाने की मांग पर आमरण अनशन करते हुए 58 दिन बाद (19 अक्तू., 16 दिस.) अपनी जान दे दी। इसके बाद भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की मुहिम में तेजी आई।
पंजाब, महाराष्ट्र और गुजरात राज्य अपने शासन में क्रमशः पंजाबी, मराठी और गुजराती भाषा के साथ-साथ हिन्दी को ‘सहभाषा’ के रूप में घोषित कर रखा है।
(देखें – स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान हिन्दी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास)