नाट्यशास्त्र (Natya Shastra)

Natya Shastra

नाट्यशास्त्र (Natya Shastra) में नाटक से संबंधित शास्त्रीय जानकारी होती है। यह नाटकों से संबंधित सबसे प्राचीनतम् ग्रंथ है। नाट्य शास्त्र को 300 ई०पू० भरतमुनि ने लिखा था। जिनका जन्म 400 से 100 ईशा पूर्व के मध्य हुआ था। नाट्यशास्त्र में नाट्य कला एवं शास्त्रीय संस्कृत रंगमंच के सभी पहलुओं का वर्णन है।

नाट्यशास्त्र के अध्यायों में नृत्य, संगीत, कविता एवं सामान्य सौंदर्यशास्त्र सहित नाटक की सभी भारतीय अवधारणाओं में समाहित हर प्रकार की कला पर विस्तार से विचार-विमर्श किया गया है। संगीत, नाटक और अभिनय के सम्पूर्ण ग्रंथ के रूप में भरतमुनि के नाट्य शास्त्र का आज भी बहुत सम्मान है।

नाट्य शास्त्र का मूल महत्व भारतीय नाटक को जीवन के चार लक्ष्यों धर्म, अर्थ, काममोक्ष के प्रति जागरूक बनाने के माध्यम के रूप में इसका औचित्य सिद्ध करना है।

नाट्य शास्त्र में केवल नाट्य रचना के नियमों का आकलन नहीं होता बल्कि अभिनेता, रंगमंच और प्रेक्षक इन तीनों तत्वों की पूर्ति के साधनों का विवेचन होता है। नाट्यशास्त्र के 36 अध्यायों में नाट्य कला एवं शास्त्रीय संस्कृत रंगमंच के  अभिनेता, अभिनय, नृत्यगीतवाद्य, दर्शक, दशरूपक और रस निष्पत्ति से सम्बन्धित सभी तथ्यों का विवेचन किया है।

भरतमुनि के नाट्य शास्त्र के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाटक की सफलता केवल लेखक की प्रतिभा पर आधारित नहीं होती बल्कि विभिन्न कलाओं और कलाकारों के सम्यक सहयोग से ही होती है।

नाट्यशास्त्र का परिचय

नट् धातु से नाट्य शब्द बना हैं जिसका अर्थ होता है गिरना-नाचना। कला का उत्कृष्ट रूप काव्य है और उत्कृष्टतम रूप नाटक है। भरतमुनि का नाटय-शास्त्र सबसे प्राचीन ग्रन्थ है, जो अपनी विचारों के साथ साथ व्यापक विषयगत समग्रता से परिपूर्ण है। भारतीय नाट्य कला पर विचार करते समय नाट्यशास्त्र सदा आगे आ जाता है। यह महान ग्रन्थ नाट्यकला के अतिरिक्त काव्य, संगीत, नृत्य, शिल्प तथा अन्य ललित कलाओं का भी विषयगत कोष है।

नाट्यशास्त्र ग्रन्थ ने भारत की रंगमच्चीय कला को शताब्दियों से प्रभावित कर रखा है – क्योंकि इस अकेले ग्रन्थ में नाट्य विषयक विवरण जितनी तन्मयता के साथ प्रस्तुत हुआ हैं वह अन्य किसी उत्तरकालीन ग्रन्थ में दुर्लभ ही है। तत्कालीन संसार के किसी अन्य ग्रन्थ में भी प्राप्त नहीं होता। इसका कारण यह भी है कि भारतीयनाटयकला की नाटयशास्त्र को छोडकर कल्पना करना सम्भव ही नहीं हैं और प्राचीन भारत में व्यबह्रत नाटयकला के स्वरूप तत्व तथा प्रकृति को पूर्णतः हृदयागं करने के लिए एकमात्र नाट्यशास्त्र ही आधार है।

नाट्यशास्त्र में नाट्य तथा रंग से सम्बद्ध काव्य, शिल्प, संगीत, नृत्य आदि ललित कलाओं का व्यापक विवरण दिया गया है। तथा अनेक प्रकार की शास्त्रों, शिल्पों, कलाओं, तथा प्रयोगो की चर्चा की गयी है। इस ग्रन्थ की विविधता ने इसे काव्य नाट्य शिल्प तथा ललित विधाओं का विश्वकोष बना दिया।

इस नाट्यशास्त्र में भरतमुनि ने नाट्यकला को व्यवस्थित कर जो स्वरूप प्रदान किया है। वह इतना व्यापक तथा सूक्ष्म तात्विक हुआ कि परवर्ती आचार्यों को इसी के प्रभाव तथा छाया में आकर ही अपना विश्लेषण प्रस्तुत करना पडेगा। भरतमनि के नाटय सिद्धान्तों में मौलिकता एवं व्यापकता का ऐसी बीज है जिनकी शाश्वती स्थिति आज भी देखी जा सकती है।

भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में चतुर्विध अभिनय का सिद्धान्त, गीत, एवं वाद्यविधि, पात्रों की विविध प्रकार की प्रकृति तथा भूमिका आदि का विवेचन विश्व की किसी भी उन्नत नाट्य कला से कम नहीं है। भरतमुनि के द्वारा रचित नाट्यशास्त्र ने शाश्वत भारत का ऐसा स्वरूप उपस्थित किया जिर काव्य, नाट्य, संगीत, तथा नृत्य जैसी सुकुमार ललित कलाओं के द्वारा मानव के शाश्वत जीवन की कल्पना की गयी है।

नाटयशास्त्र के सांगोपांग वर्णन से नाट्यशास्त्र को जो अप्रतिम स्वरूप प्रदान किया है। वह आज तक अक्षुण्ण है। भरतमुनि ने भारत की समस्त चेतना कला को अपनी प्रतिभा के द्वारा निर्माण किया था जिसका कीर्तिस्तम्भ नाट्यशास्त्र है।

नाट्यशास्त्र का स्वरूप

ललित विधाओं के विश्वकोष इस नाट्यशास्त्र ने भारत की उदात्त कला को निर्माण किया है। भरत ने नाट्यशास्त्र को वेद की संज्ञा दी है क्योंकि अन्य वेद केवल द्विजमात्र के लिए है किन्तु नाट्य का उपयोग प्रत्येक वर्ण के लिए है। प्रत्येक व्यक्ति इस आनन्द का अधिकारी माना गया है इसी कारण अन्य शास्त्रकारों ने भी नाट्यवेद तथा भरतमुनि को मुनि के रूप में आदर के साथ स्मरण किया है।

वर्तमान में नाट्यशास्त्र के छत्तीस या कुछ सस्करणों में सैतीस अध्याय उपलब्ध है तथा इस नाट्यशास्त्र में छः हजार श्लोक है। इसी तथ्य का संकेत आचार्य अभिनवगुप्त ने अपनी प्रसिद्ध नाट्यशास्त्र व्याख्या अभिनवभारती में किया है।

शारदातनय तथा इसके उत्तरवर्ती आचार्यों ने नाट्यशास्त्र को दो संस्करणों या पाठों का उल्लेख किया है। इनके अनुसार इनके अनुसार नाट्यवेद के वृहद् तथा लधु दो पाठ थे, जिनमें छः हजार तथा बारह श्लोक थे।

रामकृष्ण कवि ने इस बात को स्पष्ट करते हुए बतलाया कि बारह: हजार श्लोक की संख्या वृद्धभरत की रचना थी जिस को संक्षेप करते हुए भरतमुनि ने छः हजार श्लोकों में नाट्यशास्त्र का संकलन किया। प्राचीन नाटय शास्त्र का नाम नाटयवेद था तथा दीर्ध या द्वादशसाहस्त्री का पाठ ही प्राचीन पाठ था, जिसके कुछ अंशप्राप्त भी है।

अन्य विद्वान् श्रीरामकृष्ण कवि ने इन तर्कों से सहमत नहीं हैं। उनका मत है कि लघु या षट्साहस्त्री संहिता का पाठ ही प्राचीन है जिनमें अन्य प्रक्षेपों तथा विषयों को जोड़कर विस्तृत बनाना ही उत्तरवर्ती पाठ की स्थिति तथा आयाम को तार्किक सहारा देने योग्य बनाता है।

धनञ्जय भोज तथा आचार्य अभिनवगुप्त के समय तक दोनों पाठों की परम्पराएँ चल रही थी। धनञ्जय ने नाट्यशास्त्र के षट्साहस्त्री रूप को आधार माना है तो भोजराज ने द्वादशसाहस्त्री या बृहत् पाठ को रचना का आधार माना था। परन्तु आचार्य अभिनवगुप्त ने अपनी सुप्रसिद्ध अभिनवभारती नाट्यशास्त्र के षट्साहस्त्री पाठ पर ही लिखी थी।

इन दोनों पाठों का विवरण शारदातनय ने अपने भावप्रकाशन में सविवरण दिया है। तदनुसार मूल नाट्यवेद को मनु के आग्रह पर दो रूप में विभाजित किया गया था जिनमें एक षट्साहस्त्री तथा दूसरी द्वादशसाहस्त्री थी।

द्वादशसाहस्त्री का पाठ भरत की परम्परा में प्रचलित था। यमलाण्टक तत्र के अनुसार नाट्यवेद का विस्तार छत्तीस हजार श्लोकों का था जिसे संक्षेप में द्वादशसाहस्त्री में प्रतिपादित किया गया परन्तु यह विवरण उत्तर काल किसी भी नाट्यशास्त्रीय विवरण से मेल नही खाता और नहीं शारदातनय के वर्णन से कहीं समानताप्राप्त करता है।

अतएव इसे निराधार कल्पना मानकर प्रसन्न हुआ जा सकता है। यदि ‘गन्धर्ववेद’ अपने सैद्धान्तिक विवरणों में संगीत रत्नाकर जैसे उत्तरवर्ती ग्रंथों से जहाँ विषयगत समानता रखता हो तो फिर नाट्यवेद का विवरण भी इसी परम्परा में होने आवश्यक थे।

इस विषय में दूसरा तर्क यह भी है कि वर्तमान नाट्यशास्त्र को कही भी षट्साहस्त्री संहिता से यद्यपि अलग नहीं बताया गया है तथापि धनिक जैसे प्रथितयशस्क आचार्य तथा उत्तरवर्ती अनेक आचार्यों के द्वारा नाट्यशास्त्र के जिस विवरण को स्थापित किया गया है वह षट्साहस्त्री संहिता ही है। जो वर्तमान में नाट्यशास्त्र का लधुपाठ है पर अन्य का द्वादशसहस्त्री का प्रतिषेधक नहीं मानना चाहिए।

इसका कारण यह है कि बहुरूपमिश्र द्वारा रचित दशरूपक टीका में तथा अन्यत्र द्वादशसाहस्त्री संहिता के कुछ उद्धरण मिलता है यह शारदातनय के उस विवरण को पुष्टि देता है कि द्वादशसहस्त्री संहिता का दीर्घ पाठ नाट्यशास्त्र का एक बृहद् रूप अवश्य था जो प्राचीन काल में विद्यमान था। इन विवरणों पर ध्यान देने से यह भी पता चल जाता है कि इनमें चर्चित ब्रह्मा, शिव, तथा भरत का व्यक्तित्व नाट्यशास्त्र के मुख्य विद्वानों में है। जिनमें बाद में विष्णु तथा तण्डु को भी समाविष्ट किया गया।

इस प्रकार स्पष्ट है कि भरतमुनि का नाट्यशास्त्र अपने व्यापक विषय विस्तार के कारण पुराण काल से आज तक विवेचक विद्वानों को आकृष्ट करता चला आ रहा है, जो इस बात का सूचक है कि पूरा भारतीय प्रज्ञा ने लोकप्रिय कलाओं को कितने गम्भिर रूप में ग्रहण किया होगा तथा उसे उन्नत स्थान पर स्थापित करवाने में कितना समय तथा श्रय लगाया होगा।

नाट्यशास्त्र के अध्याय

अभिनव गुप्त के अनुसार नाट्य शास्त्र में 36 अध्याय हैं। इसमें कुल 4426 श्लोक और कुछ गद्यभाग हैं। नाट्यशास्त्र में प्रत्यभिज्ञा दर्शन की छाप है। प्रत्यभिज्ञा दर्शन में स्वीकृत 36 मूल तत्वों के प्रतीक स्वरूप इसमें भी 36 अध्याय हैं। जिनकी संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है-

  • पहले अध्याय में नाट्योत्पत्ति हुई है।
  • दूसरे में मण्डपविधान दिया गया है।
  • अगले तीन अध्यायों में नाट्यारम्भ से पूर्व की प्रक्रिया का विधान वर्णित है।
  • छठे और सातवें अध्याय में रसों और भावों का व्याख्यान है, जो भारतीय काव्यशास्त्र में व्याप्त रस सिद्धान्त की आधारशिला है।
  • आठवें और नवें अध्याय में उपांग एवं अंगों द्वारा प्रकल्पित अभिनय के स्वरूप की व्याख्या की है।
  • अगले चार अध्यायों में गति और करणों का उपन्यास किया है।
  • अगले चार अध्यायों में छन्द और अलंकारों का स्वरूप तथा स्वरविधान बतालाया है।
  • नाट्य के भेद तथा कलेवर का सांगोपांग विवरण 18वें और 19वें अध्याय में देकर 20वें वृत्ति विवेचन किया है।
  • तत्पश्चात् 21वें अध्याय में विविध प्रकार के अभिनयों की विशेषताएँ दी गई हैं।
  • 21 से 34 अध्याय तक गीत वाद्य का विवरण देकर ३५वें अध्याय में भूमिविकल्प की व्याख्या की है।
  • अंतिम अध्याय उपसंहारात्मक है।

यह ग्रंथ मुख्यत: दो पाठान्तरों में उपलब्ध है-

  1. औत्तरीय पाठ।
  2. दाक्षिणात्य पाठ।

नाट्यशास्त्र का पाण्डुलिपियों में एक और 37वाँ अध्याय भी कठिनाई से उपलब्ध होता है जिसका समावेश निर्णयसागरी संस्करण में संपादक ने किया है। इसके अतिरिक्त मूल मात्र ग्रंथ का प्रकाशन चौखंबा संस्कृत सीरीज, वाराणसी से भी हुआ है जिसका पाठ ‘निर्णयसागरी पाठ’ से भिन्न है। नाट्य शास्त्र के 36 अध्याय निम्नलिखित हैं-

  1. नाट्य
  2. नाट्यमण्डप
  3. रङ्गपूजा
  4. ताण्डव
  5. पूर्वरङ्ग
  6. रस
  7. भाव
  8. उपाङ्ग
  9. अङ्ग
  10. चारीविधान
  11. मण्डलविधान
  12. गतिप्रचार
  13. करयुक्तिधर्मीव्यञ्जक
  14. छन्दोविधान
  15. छन्दोविचितिः
  16. काव्यलक्षण
  17. काकुस्वरव्यञ्जन
  18. दशरूपनिरूपण
  19. सन्धिनिरूपण
  20. वृत्तिविकल्पन
  21. आहार्याभिनय
  22. सामान्याभिनय
  23. नेपथ्य
  24. पुंस्त्र्युपचार
  25. चित्राभिनय
  26. विकृतिविकल्प
  27. सिद्धिव्यञ्जक
  28. जातिविकल्‍प
  29. ततातोद्यविधान
  30. सुषिरातोद्यलक्षण
  31. ताल
  32. गुणदोषविचार
  33. प्रकृति
  34. नाट्यशाप
  35. भूमिकाविकल्प
  36. गुह्यतत्त्वकथन

नाट्यशास्त्र के विषयों का संक्षिप्त परिचय

यहाँ नाट्यशास्त्र का संक्षिप्त विषय दिया जा रहा है। जिसमें अध्याय क्रम काशी के संस्करण के आधार पर दिया जा रहा है।

प्रथम अध्याय

नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय में भरतमुनि के आत्रेय आदि ऋषियों द्वारा नाटयवेद के विषयों में जिज्ञासा पूर्वक प्रश्न किये गये कि नाट्यवेद की उत्पत्ति कैसे हुई? किसके लिए हुई ? इसके कौन कौन अंग है? उसकी प्राप्ति के उपाय कौन से है तथा उसका प्रयोग कैसे हो सकता है ? भरतमुनि ने इस के उत्तर में कहा कि नाटयवेद का ऋग्वेद से पाठ्य अंश, सामवेद से संगीत, यजुर्वेद से अभिनय अथर्वेद से रसों का प्रणयन किया गया है। इसे इस स्वरूप में निर्मित कर मुनि ने अपने सौ पुत्रों को पढ़ाया।

द्वितीय अध्याय

नाट्यशास्त्र के इस अध्याय में भरतमुनि ने नाट्यप्रदर्शन के लिये आवश्यक होने के कारण पेक्षागृह का वर्णन करते हुए उसके तीन प्रकार तथा उनके शिल्प, आकार तथा साधनों का विस्तार से विवेचना किया गया है।

तृतीय अध्याय

नाट्यशास्त्र के इस अध्याय में नाट्यमण्डप में सम्पादित की जाने वाली आवश्यक धार्मिक क्रियाओं का निरूपण करते हुए विभिन्न देवताओं की पूजा तथा उनसे प्राप्त होने वाले फलों का निरूपण किया गया है।

चतुर्थ अध्याय

भरतमुनि द्वारा अमृत मन्थन नाट्यप्रयोग के देवताओं के सम्मुख प्रस्तुत करने तथा त्रिपुरादाह को महेश्वर के सम्मुख करने तथा महेश्वर के आदेश से तण्ड द्वारा भरत को अंगहार, ताण्डव नृत्य की उत्पत्ति, तथा शिल्प को सांगोपांग विवेचन किया गया है।

पचंम अध्याय

नाट्यशास्त्र के इस अध्याय में नाट्यप्रयोग के आरम्भ में प्रस्तुत किये जाने वाले पूर्व रंगविधान नान्दी, प्रस्तावना तथा धुवाओ का सांगोपांग विवेचन किया गया है।

षष्ठ अध्याय

नाट्यशास्त्र के इस अध्याय में रस का सम्यग रूप से विवेचना किया गया है।

सप्तम अध्याय

नाट्यशास्त्र के इस अध्याय में भाव, विभाव, स्थायी तथा सच्चारी या व्यभिचारी भावों का सम्यग रूप से विवेचन किया गया है।

अष्टम अध्याय

नाट्यशास्त्र के इस अध्याय में अभिनय के आंगिक वाचिक आहार्य तथा सात्विक भेद बताकर अभिनय के संगोपांग विवेचना किया गया है।

नवम अध्याय

इस अध्याय में आंगिक अभिनय के क्रम को दर्शाते हुए हस्त, कुक्षि, कटि, जानु तथा पाद; जैसे शरीर के अंगो का अभिनय विस्तार से निरूपण करते हुए नृत्य में हस्त मुद्राओं की परमोपयोगिता का वर्णन किया गया है।

दशम अध्याय

नाट्यशास्त्र के इस अध्याय में वक्ष कटि तथा शरीर के अन्य भागों के परिचालनजन्य पाँच प्रकारों का विवरण देकर उनके विभिन्न अवसरों पर किये जाने अभिनय का प्रयोग बतलाये गये है।

एकादश अध्याय

नाट्यशास्त्र के इस अध्याय में चारों का निरूपण करते हुए १६ प्रकार के भौमी १६ प्रकार के आकाशिकी चारियों के लक्षण तथा प्रयोग को बतलाया गया है तथा खण्ड करण तथा मण्डलों की नाटयोपयोगिता का वर्णन किया गया है।

द्वादश अध्याय

नाट्यशास्त्र के इस अध्याय में मण्डलों का लक्षण, संख्या तथा प्रयोग आदि का विशद् निरूपण किया गया है।

त्रयोदश अध्याय

इस अध्याय में गति प्रचार का निरूपण है। इसमे इसादि के अवसरों एवं अवस्थाओं के अनुकूल पात्रों की गति के विवरण बतलाये गये है। इसमे नाट्यप्रयोग के आरम्भ में प्रस्तुत होने वाली धुवाओं के गान के समय में होने वाली पात्रों की गति से लेकर देव, राजा मध्यवर्ग के स्त्री पुरूष, निम्न वर्ग के लोगो की गति में लगने वाले समय रौद्र वीभत्स वीर आदि तथा पात्रों के अभिनय करने का विवरण दिया गया है।

चतुर्दश अध्याय

इस अध्याय में रंगमच्च पर विद्यमान गृह, उपवन, वन, जल, स्थल आदि प्रदेश को संकेत करने का निश्चय समय के अनुसार अंगानुसारी विभाजन तथा देश वेषभूषा आधार आदि पर चार प्रकार की प्रवृत्तियों का निरूपण मुख्य रूप से किया गया है

पंचदश अध्याय

इस अध्याय में वाचिकाभिनय प्रारम्भ होता है। इसमें आरम्भ के अक्षरों पर अश्रित वाणी का नाट्य के वाचिक अभिनय में उपयोग बताते हुए अक्षरों के स्वर व्यज्जनात्मा विभेद बतलाकर उसके स्थान प्रयत्न का विवरण आदि दिया गया है। अन्त में गुरूलघु तथा यति मात्रा आदि छन्द: शास्त्र के पारिभाषिक शब्दों का सभ्यग रूप से विवेचन किया गया है।

षोडश अध्याय

नाट्यशास्त्र के इस अध्याय में भी वाचिकाभिनय में उपयोगी वृत्तों का सोदाहरण निरूपण किया गया है अन्त में सम तथा विषयकृत का वर्णन करके आर्या के प्रभेदों का विवरण दिया गया है

सत्रहवें अध्याय

इस अध्याय में अभिनय के अन्तर्गत काव्य के छत्तीस लक्षणों का विवरण है। इसके उपरान्त उपमा रूपक दीपक तथा यमक नामक काव्य के अलंकार का वर्णन करते हुए उनके गुण तथा दोषों का वर्णन किया गया है

अठारहवें अध्याय

इस अध्याय में नाटकोपयोगी भाषाओं का विवरण देते हुए संस्कृत प्राकृत तथा अपभ्रष्ट या देशी शब्द के उच्चारण भेद द्वारा होने वाले परिवर्तनों का विवरण देकर भाषा एवं विभाषाओं का वर्णन किया गया है।

उन्नीसवें अध्याय

इस अध्याय में उच्च नीच्च मध्य वर्ग के पात्रों को सम्बोधन करने की विविध प्रणालियों का निरूवण है। इनके अतिरिक्त वर्गों के पात्रों का नामकरण का उपाय स्वर व्यंजनों के उच्चारण स्थान द्रुत तथा विलम्बित जैसे अलंकारों का वर्णन किया गया है।

बीसवें अध्याय

नाट्यशास्त्र के इस अध्याय में रूपकों के भेद बतलाते हुए नाटयशास्त्र के मुख्य विषय का प्रारम्भ किया गया है। इसमें दशरूपकों के लक्षण का वैशिष्टयबतलाया गया है।

इक्कीसवें अध्याय

इस अध्याय में नाटक की कथा वस्तु के आधिकारिक तथा प्रासंगिक भेदों का निरूपण पन्च सन्धियाँ , पाच अवस्थाए पाँच अर्थप्रकृतियाँ तथा सन्धियों के सभी अगों के लक्षण का विशेष रूप से वर्णन किया गया है।

बाइसवें अध्याय

इस अध्याय में नाटकोपयोगी वृत्तियों का वर्णन किया गया है। वृत्तियों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भगवान विष्णु के द्वारा मधुकैटभ दैत्यों से युद्ध करने तथा वृत्तियों के भेद प्रभेद विभिन्न रसों के योजना का वर्णन किया गया है।

तेइसवें अध्याय

नाट्यशास्त्र के इस अध्याय में आहार्याभिनय का वर्णन किया गया है।

चौबीसवा अध्याय

नाट्यशास्त्र के इस अध्याय में सामान्य रूप से अभिनय का वर्णन किया गया है।

पच्चीसवें अध्याय

इस अध्याय में वैशिकपरूष का लक्षण बतलाकर उसके सामान्य गुणों का विस्तार से वर्णन किया गया है।

छब्बीसवां अध्याय

इस अध्याय में चित्राभिनय का वर्णन किया गया है इसमें सामान्य अभिनय के अन्तर्गत जिन आंगिक आदि अभिनयों का वर्णन छूट गया था ऐसे विशिष्ट अभिनयों का वर्णन किया गया है।

सत्ताइसवाँ अध्याय

इस अध्याय में सिद्धिव्यन्ज का ध्याय का वर्णन किया गया है। इस में नाटय-प्रदर्शन में होने वाली देवी तथा मानुषी सिद्धि का सांगोपाग विवेचन करते हुए उनमें होने वाले विध्नों का वर्णन किया गया है।

अटठाइसवें अध्याय

नाट्यशास्त्र के इस अध्याय में संगीत शास्त्र का विशेष रूप वर्णन किया गया है।

उन्तीसवें अध्याय

नाट्यशास्त्र के इस अध्याय में जातियों के रसाश्रित प्रयोग का विवरण है। वर्ण तथा अलंकारों का भी विशेष रूप से वर्णन किया गया है।

तीसवें अध्याय

नाट्यशास्त्र के इस अध्याय में वाँसूरी के स्वरूप का विवेचन तथा उसकी वादन विधि का वर्णन किया गया है।

इकतीसवें अध्याय

नाट्यशास्त्र के इस अध्याय में ताल और लय तथा समयनियमन हेतु ताल विधान को विस्तार से वर्णन किया गया है।

बत्तीसवाँ अध्याय

इस अध्याय में ध्रुवाध्याय का वर्णन किया गया है। इसमें पात्रों के प्रदेश आदि अवस्थाओं में गायी जाने वाली धुवावों का वर्णन किया गया है।

तैतीसवाँ अध्याय

नाट्यशास्त्र के इस अध्याय को ‘वाद्याध्याय’ कहते है जिसमे मुदंग आदि अवन वाद्यो का विस्तार से वर्णन किया गया है।

चौत्तीसवाँ अध्याय

इस अध्याय में पुरूष एवं स्त्रियों की विविध प्रकृति का निरूपण करने के ही चार प्रकार के नायकों का सलक्षण वर्णन किया गया है।

पैतीसवां अध्याय

इस अध्याय को भूमिका पात्र विकल्पाध्याय कहते है। इसमें नाटयमण्डली के सदस्यों का विभाजन करते समय उनकी व्यक्तिगत विशषताओं को दर्शाया गया है।

छत्तीसवाँ अध्याय

यह अन्तिम अध्याय है इस अध्याय में मुनियों ने भरतमुनि से पृथ्वी पर नाटय के अवतरित होने के विषय में पुनः जिज्ञासा की ? मुनि ने इसके उत्तर में दो आख्यान प्रस्तुत कियें प्रथम में भरत पुत्रों के द्वारा मुनिजनों उपहासकारी नाटय से रूष्ट होकर ऋषियों से शप्त हो जाने की तथा दूसरे में इसी कारण राजा नहुष की प्रार्थना पर स्वर्गस्थ नाटय की भूतल पर अवतरण होने की कथा है।

नाट्यशास्त्र में कुछ सस्करणों में ३६ तथा कुछ सस्करणों में ३७ अध्याय है। उसमें नहुष की कथा का वर्णन किया है।

नाट्य शास्त्र में नाट्य शास्त्र से संबंधित सभी विषयों का आवश्यकतानुसार विस्तार के साथ अथवा संक्षेप में निरूपण किया गया है। नाट्यशास्त्र ने जिस तरह से और जैसा निरूपण नाट्य स्वरूप का किया है, उसे देखते हुए यदि ‘न भूतो न भविष्यति‘ कहें तो उचित ही है, क्योंकि ऐसा निरूपण पिछले 2000 वर्षों में किसी ने नहीं किया।

इस ग्रंथ में मूलत: 12000 पद्य (जिसमें 4426 श्लोक) और कुछ गद्यभाग थे। इसी कारण नाट्यशास्त्र को ‘द्वादशसाहस्री संहिता‘ भी कहा जाता है। परन्तु कालक्रमानुसार इसका संक्षिप्त संस्करण प्रचलित हो चला जिसका आयाम 6000 पद्यों का रहा और यह संक्षिप्त संहिता ‘षटसाहस्री‘ कहलाई।

  • सदियों से इसे आर्ष सम्मान प्राप्त है।
  • भरतमुनि ‘उभय संहिता‘ के प्रणेता माने जाते हैं।
  • प्राचीन टीकाकार उन्हें ‘द्वादश साहस्रीकार‘ तथा ‘षट्साहस्रीकार‘ की उपाधि से उनके उद्धरण टीकाओं में लिखते हैं।
  • नाट्यशास्त्र के वाक्य ‘भरतसूत्र‘ कहे जाते हैं।
  • यह ग्रन्थ ‘नाट्य संविधान‘ तथा ‘रस सिद्धान्त‘ की मौलिक संहिता है।

जिस तरह आज उपलब्ध चाणक्य नीति का आधार ‘वृद्ध चाणक्य’ और स्मृतियों का आधार क्रमशः वृद्ध वसिष्ठ, वृद्ध मनु आदि माना जाता है, उसी तरह वृद्ध भरत का भी उल्लेख मिलता है। इसका यह तात्पर्य नहीं कि वसिष्ठ, मनु, चाणक्य, भरत आदि दो दो व्यक्ति हो गए, परन्तु इस सन्दर्भ में ‘वृद्ध‘ का तात्पर्य परिपूर्ण संहिताकार से है।

नाट्य शब्द का अर्थ

साहित्यशास्त्र में काव्य के दो भेद हैं- दृश्य काव्य, श्रव्य काव्यदृश्य काव्य के द्वारा भावक किसी भी घटना या वस्त का चाक्षष ज्ञान ग्रहण करता है, किन्त श्रव्य काव्य के द्वारा केवल श्रवण ही प्राप्त होता है। श्रव्य काव्य में आनन्दानुभूति कल्पना मार्ग से प्राप्त होती है जबकि दृश्य काव्य के द्वारा इसी आनन्द की प्राप्ति रंगमंच पर साकार रूप से होती है। जिसका अभिनय किया जा सके उसे दृश्य काव्य कहते हैं ‘दृश्यं तत्राभिनेयं‘। इसी दृश्य काव्य को रूप या रूपक संज्ञा से भी जाना जाता है।

रूपक शब्द की निष्पत्ति रूप धातु में ण्वुल प्रत्यय के योग से होती है। ये दोनों ही शब्द साहित्य में ‘नाट्य‘ के द्योतक है। नाट्यशास्त्र में ‘दशरूप‘ शब्द का प्रयोग नाट्य की विधाओं के अर्थ में हुआ है। अब प्रश्न यह उठता है कि नाट्य क्या है? दशरूपककार आचार्य धनंजय नाट्य की परिभाषा इस प्रकार देते हैं — ‘अवस्थानुकृतिर्नाट्यम्‘ अर्थात् अवस्था के अनुकरण को नाट्य कहते हैं।

Bharatanatyam - Natya Shastra
Bharatanatyam : भरतनाट्यम् को सबसे प्राचीन नृत्य माना जाता है। इस नृत्य को तमिलनाडु में देवदासियों द्वारा विकसित व प्रसारित किया गया था। शुरू शुरू में इस नृत्य को देवदासियों के द्वारा विकसित होने के कारण उचित सम्मान नहीं मिल पाया, लेकिन बीसवी सदी के शुरू में ई. कृष्ण अय्यर और रुकीमणि देवी के प्रयासों से इस नृत्य को दुबारा स्थापित किया गया। भरत नाट्यम के दो भाग होते हैं इसे साधारणत दो अंशों में सम्पन्न किया जाता है पहला नृत्य और दुसरा अभिनय। नृत्य शरीर के अंगों से उत्पन्न होता है इसमें रस, भाव और काल्पनिक अभिव्यक्ति जरूरी है।

नाट्य साहित्य का उद्भव

संस्कृत रूपकों के उद्भव एवं विकास का प्रश्न भी नाम रूपात्मक जगत की सृष्टि के समान विवादास्पद है। अधिकांश विद्वानों का दृष्टिकोण है कि परमात्मा ने जिस प्रकार नामरूपात्मक जगत की सृष्टि की है उसी प्रकार नाट्य विद्या की भी नाट्य विद्या के सम्बन्ध में भारतीय तत्ववेत्ता मनीषी यह अवधारणा रखतें हैं कि इसकी उत्पत्ति के मूल में परमात्मा ही है। यहां हम भारतीय एवं पाश्चात्य मतों को संक्षेप में प्रस्तुत कर रहे हैं –

उद्भव सम्बन्धी भारतीय मत

1. दैवीय उत्पत्ति सिद्धान्त

नाट्य विद्या की उत्पत्ति के सम्बन्ध में शुभंकर ने अपने संगीत दामोदर में लिखा है कि एक समय देवराज इन्द्र ने ब्रह्मा से प्रार्थना की कि वे एक ऐसे वेद की रचना करें जिसके द्वारा सामान्य लोगों का भी मनोरंजन हो सके। इन्द्र की प्रार्थना सुनकर ब्रह्मा ने समाकर्षण कर नाट्य वेद की सृष्टि की। सर्वप्रथम देवाधिदेव शिव ने ब्रह्मा को इस नाट्य वेद की शिक्षा दी थी और ब्रह्मा ने भरतमुनि को और भरत मुनि ने मनुष्य लोक में इसका इसका प्रचार प्रसार किया। इस प्रकार शिव, ब्रह्मा भरत मुनि नाट्य विद्या के प्रायोजक सिद्ध होते हैं।

भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में नाट्यविद्या के उद्भव के सम्बन्ध में कहा है कि सभी देवताओं ने ब्रह्मा से प्रार्थना की कि वे जनसामान्य के मनोरंजन के लिए किसी ऐसी विधा की रचना करें। उनके इस कथन से ब्रह्मा ने ऋग्वेद से पाठ्य सामवेद से गायन यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस ग्रहण करके इस नाट्य वेद नामक पंचम वेद की रचना की। दशरूपककार आचार्य धनंजय ने भी इसी मत को स्वीकार किया है। भारतीय विद्वानों की यह मान्यता है कि पथ्वी पर सर्वप्रथम इन्द्रध्वज महोत्सव के समय पर नाट्य का अभिनय हुआ था।

2. संवादसूक्त सिद्धान्त

इस सिद्धान्त के प्रतिपादकों का विचार है कि ऋग्वेद के अनेक सूक्तों में संवाद प्राप्त होते हैं। यथा – ‘यम यमी संवाद’, पुरूरवा उर्वशी,शर्मा पाणि संवाद,इन्द्रमरूत, इन्द्र इन्द्राणी ,विश्वामित्र नदी आदि प्रमुख संवाद है । यजुर्वेद में अभिनय सामवेद में संगीत और अथर्ववेद में रसों की संस्थिति है। इन्हीं तत्वों से धीरे धीरे रूपको का विकास हआ।

उद्भव सम्बन्धी पाश्चात्य मत

संस्कृत नाटकों के उद्भव के सम्बन्ध में पाश्चात्य विचारकों के मत इस प्रकार है-

1. वीरपूजा सिद्धान्त

पाश्चात्य विद्वान डा. रिजवे का मत है कि रूपकों के उद्भव में वीर पूजा का भाव मूल कारण है। दिवंगत वीर पुरूषों के प्रति समादर का भाव प्रकट करने की रीति ग्रीस, भारत आदि देशों में अत्यधिक प्राचीन काल से है। दिवंगत आत्माओं की प्रसन्नता के लिए उस समय रूपकों का अभिनय हुआ करता था । परन्तु डा. रिजवे के इस सिद्धान्त से विद्वान सहमत नहीं हैं।

2. प्रकृति परिवर्तन सिद्धान्त

डा0 कीथ के मतानुसार प्राकृतिक परिवर्तन को मूर्त रूप में देखने की स्पृहा ने इस सिद्धान्त को जन्म दिया। इसके प्रबल समर्थक डा0 कीथ प्रकृति परिवर्तन से नाटक की उत्पत्ति को स्वीकार करते हैं। ‘कंसवध‘ नामक नाटक में हम इसके मूर्त रूप का दर्शन कर सकते हैं। परन्तु डा0 कीथ के इस मत को भी विद्वानों का समर्थन प्राप्त न हो सका।

3. पुत्तलिका नृत्य सिद्धान्त

जर्मन के प्रसिद्ध विद्वान डा0 पिशेल संस्कृत नाटक का उद्भव पुत्तलिकाओं के नृत्य तथा अभिनय से मानते हैं । ‘सूत्रधार’ एवं स्थापक शब्दों का नाटक में प्रयोग हुआ है । इन शब्दों का सम्बन्ध पुत्तलिका नृत्य से है महाभारत, बाल रामायण कथासरित्सागर इत्यादि में दारूमयी , पुत्तलिका आदि शब्दों का प्रयोग इस मत को पुष्टता प्रदान करते हैं। परन्तु विद्वानों के मध्य यह मत भी सर्वमान्य न हो सका।

4. छाया नाटक सिद्धान्त

छाया नाटकों से रूपक की उत्पत्ति एवं विकास का समर्थन करने वाले प्रसिद्ध विद्वान डा0 लथर्स एवं क्रोनो है। अपने मत के समर्थन में वे महाभाष्य को प्रगाढ रूप में प्रस्तुत करते हैं। महाभाष्य में शौभिक छाया नाटकों की छाया मूर्तियों के व्याख्याकार थे पर दूतांगद नामक छाया नाटक अधिक प्राचीन नही है। अत: इसे नाटकों की उत्पत्ति का मूलकारण मानना न्यायोचित नहीं। अत: विद्वानों का यह मत भी अधिक मान्य नहीं हुआ।

5. मेपोलनत्य सिद्धान्त

इस सिद्धान्त के समर्थक इन्द्रध्वज नामक महोत्सव को नाटक की उत्पत्ति का मूल कारण स्वीकार करते हैं। पाश्चात्य देशों में मई के महीने में लोग वसन्त की शोभा को देखकर एक लम्बा बाँस गाडकर उसके चारों तरफ उछलते कूदते एवं नाचते गाते हैं। यह इन्द्रध्वज जैसा ही महोत्सव है ऐसे ही उत्सवों से शनै: शनै: नाटक की उत्पत्ति हुई। परन्तु दोनो महोत्सवों के समय में पर्याप्त अन्तर है तथा इनके स्वरूप में भी परस्पर भिन्नता है अत: यह सिद्धान्त भी सर्वमान्य नहीं है।

उपर्युक्त सिद्धान्तों के अतिरिक्त कुछ विद्वान लोकप्रिय स्वांग सिद्धान्त तथा वैदिक अनुष्ठान सिद्धान्त को भी रूपकों की उत्पत्ति का कारण मानते हैं। किन्तु विद्वान इस मत से भी सहमत नहीं हैं। विद्वानों के उपर्युक्त मतों के अनुशीलन से हम इस निष्कर्ष पर पहुचते हैं कि रूपकों के उद्भव का विषय अत्यन्त विवादास्पद है।

प्राचीन भारतीय परम्परा नाट्यवेद का रचयिता ब्रह्मा को इंगित करती है और लोक प्रचारक के रूप में भरतमुनि को निर्दिष्ट करती है। आधनिक विद्वान इससे भिन्न मत रखते हैं यद्यपि यह माना जा सकता है कि इन मतों में से कोई मत नाटक की उत्पत्ति का कारण हो सकता है परन्तु यह कहना अत्यन्त कठिन है कि अमुक मत ही नाटक की उत्पत्ति का मूल कारण है।

नाट्य का विकास

ऋग्वेद से ही हमें नाट्य के अस्तित्व का पता चलने लगता है। सोम के विक्रय के समय यज्ञ में उपस्थित दर्शकों के मनोरजंन के लिए एक प्रकार का अभिनय होता था। ऋग्वेद के संवाद सूक्त भी नाटकीयता का द्योतन करते हैं। यजुर्वेद में ‘शैलूष‘ शब्द का प्रयोग किया गया है जो नट (अभिनेता) वाची शब्द है। सामवेद में तो संगीत है ही।

इस प्रकार नाटक के लिए आवश्यक तत्व गीत, नृत्य, वाद्य सभी का प्रचार वैदिक युग में था। यह निश्चित है कि भारतीय नाट्य परम्परा के मूल उदगम ग्रंथ वेद ही है। आदिकाव्य रामायण में नाट्य तत्त्वों का उल्लेख हुआ है। महर्षि वेदव्यास प्रणीत महाभारत में भी नट, नर्तक, गायक, सूत्रधार आदि का स्पष्ट उल्लेख है।

हरिवंशपुराण में उल्लेख हआ है कि कोबेररम्भाभिसार नामक नाटक का अभिनय हुआ था जिसमें शुर रावण के रूप में और मनोवती ने रम्भा का रूप धारण कर रक्खा था। मार्कण्डेय पुराण में भी काव्य संलाप और गीत शब्द के साथ नाटक का भी प्रयोग हुआ है। संस्कृत भाषा के महान वैयाकरण महर्षि पाणिनी ने अपनी अष्टाध्यायी में नट सूत्रों का स्पष्ट उल्लेख किया है। महर्षि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में ‘कंसवध‘ और ‘बलिबन्ध‘ नामक नाटकों का उल्लेख करते हुए ‘शोभनिक‘ शब्द का प्रयोग किया है।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में नट, नर्तक, गायक एवं कुशीलव शब्दों का प्रयोग हुआ है। भरतमुनि नाट्यशास्त्र के प्रमुख आचार्य माने गये हैं। भरतमुनि ने सुप्रसिद्ध ‘नाट्यशास्त्र’ की रचना की है। इसमें नाट्य से सम्बन्धित विषयों का विधिवत् विवेचन हुआ है। इन्होनें कोटल शाण्डिल्य, वात्सम, धूर्तिल आदि आचार्यों के नामों का उल्लेख किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इनके समय तक अनेक नाटकों की रचना हो चुकी थी और नाट्यकला का विधिवत् विकास हो चुका था ।

वेदों से लेकर भरतमुनि प्रणीत नाट्यशास्त्र के अनुशीलन से हम यह कह सकते हैं कि संस्कृत नाटकों की रचना पुरातन काल से होती चली आ रही है परन्तु परिष्कृत नाटकों की रचना ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के पूर्वाद्ध में मानी जाती है।

संस्कृत नाटकों में महाकवि भास के नाटक अत्यधिक प्रतिष्ठा को प्राप्त हुए हैं। परिष्कृत रूपक रचनाओं में भास के रूपकों को प्राचीन माना जाता है । भास के पश्चात् शद्रक, कालिदास,अश्वघोष, हर्ष, भवभूति, विशाखादत्त, मुरारि,शक्तिभद्र, दामोदर मिश्र, राजशेखर, दिंगनाग, कृष्ण मिश्र, जयदेव, वत्सराज आदि आते हैं। इनके उच्चकोटि के नाटकों ने संस्कृत साहित्य की सम्यक् श्री वृद्धि की है।

नाट्यशास्त्र पर टीका

अभिनव भारती टीका सहित नाट्यशास्त्र का संस्करण गायकवाड सीरीज़ के अंतर्गत बड़ौदा से प्रकाशित है। यह टीका भरत मुनि के नाट्यशास्त्र पर सर्वाधिक प्रमाणिक और विद्वत्तापूर्ण है। इसको सन् 1013 ई० में किया गया था। इनके अतिरिक्त इनसे पहले नाट्यशास्त्र पर उद्भट त्नोल्लट, शंकुक, कीर्तिधर, भट्टनायक आदि ने टीकाएं कीं थी।  संस्कृत नाट्यकार कालिदास, बाण, श्रीहर्ष, भवभूति आदि नाट्य शास्त्र को मुख्य प्रमाणित रचना मानते थे। प्राचीन टीकाकार उन्हें ‘द्वादश साहस्रीकार‘ तथा ‘षट्साहस्रीकार‘ की उपाधि से उनके उद्धरण टीकाओं में लिखे हैं।

नाट्यशास्त्र पर अनेक व्याख्याएँ लिखी गईं और भरतसूत्रों के व्याख्याता अपने अपने सिद्धान्त के प्रतिष्ठापक आचार्य माने गए जिनके मत काव्यशास्त्र सम्बंधी विविध वाद के रूप में प्रचलित हुए। ऐसे आचार्यों में उल्लेखनीय नाट्यशास्त्र के व्याख्याता हैं-

  1. रीतिवादीभट्ट उद्भट, पुष्टिवादी- भट्ट लोल्लट, अनुमितिवादी- शंकुक, मुक्तिवादी- भट्ट नायक और अभिव्यक्तिवादी- अभिनव गुप्त
  2. इनके व्याख्याताओं अतिरिक्त नखकुट्ट, मातृगुप्त, राहुलक, कीर्तिधर, थकलीगर्भ, हर्षदेव तथा श्रीपादशिष्य ने भी इस पर अपनी-अपनी व्याख्याएँ प्रस्तुत की थीं।
  3. इनमें से सबसे प्राचीन टीका ‘श्रीपादशिष्य’ कृत ‘भरततिलक‘ नाम की है।
  4. अभिनवगुप्त द्वारा रचित अभिनवभारती, नाट्यशास्त्र पर सर्वाधिक प्रचलित भाष्य है।
  5. अभिनवगुप्त ने नाट्यशास्त्र को ‘नाट्यवेद‘ भी कहा है।

नाट्यशास्त्र में दिए गए संगीताध्याय के टीकाकार अनेक हो गए हैं। जिनमें प्रमुख भट्ट सुमनस्, भट्टवृद्धि, भट्टयंत्र और भट्ट गोपाल हैं। इनके अतिरिक्त भरतमुनि के प्रधान शिष्य मातंग, दत्तिल एवं कोहल नाट्यशास्त्र के आधार पर संगीतपरक स्वतंत्र ग्रंथ, सदाशिव और रंदिकेश्वर ने नृत्य पर तथा भट्ट तौत प्रभृति ने रसमीमांसा पर रचे हैं। भरत नाट्यशास्त्र का रस भावाध्याय भारतीय मनोविज्ञान का आधार ग्रंथ माना जाता है।

अतः कहा जा सकता कि नाट्यशास्त्र (Natya Shastra), ‘नाट्य संविधान‘ तथा ‘रस सिद्धान्त‘ की मौलिक संहिता है। नाट्य शास्त्र की मान्यता इतनी अधिक है कि इसके वाक्य ‘भरतसूत्र‘ कहे जाते हैं।

Frequently Asked Questions (FAQ)

1. नाट्यशास्त्र के लेखक कौन है?

नाट्यशास्त्र के लेखक भरत मुनि थे। भरत मुनि का जन्म ईशा से 400 बर्ष पूर्व हुआ था।

2. नाट्य कला क्या है?

पारम्परिक सन्दर्भ में, नाटक, काव्य का एक रूप है (दृश्यकाव्य)। जो रचना श्रवण द्वारा ही नहीं अपितु दृष्टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानुभूति कराती है उसे नाटक या दृश्य-काव्य कहते हैं। नाटक में श्रव्य काव्य से अधिक रमणीयता होती है। श्रव्य काव्य होने के कारण यह लोक चेतना से अपेक्षाकृत अधिक घनिष्ठ रूप से संबद्ध है।

3. भरत मुनि ने कौन सा ग्रंथ लिखा?

भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र नामक ग्रंथ लिखा। इनका समय विवादास्पद है। इन्हें 400 ई॰पू॰ 100 ई॰ सन् के बीच किसी समय का माना जाता है।

4. नाट्य शास्त्र के अनुसार रसों की संख्या कितनी है?

भरत ने नाट्यशास्त्र में मूलतः नौ रसों को ही मान्यता दी। भक्ति को भाव माना जाय या रस इस पर काव्यशास्त्रियों ने थोड़ा विवेचन किया।

5. नाटक के 3 प्रकार कौन से हैं?

नाटक की तीन विधाएँ थीं कॉमेडी, व्यंग्य नाटक, और सबसे महत्वपूर्ण, त्रासदी।

6. नाटक कितने प्रकार के होते हैं?

नाटक चार प्रकार के होते हैं, वे हैं कॉमेडी, ट्रेजेडी, ट्रेजिकोमेडी और मेलोड्रामा। इन शैलियों की उत्पत्ति अलग-अलग समय में हुई है, लेकिन उनमें से प्रत्येक की अपनी विशेषताएं हैं। हालांकि, उन सभी का आधुनिक संस्कृति में अपना स्थान है और इसकी सराहना की जानी चाहिए।

7. 11 रस कौन से हैं?

श्रृंगार रस, हास्य रस, रौद्र रस, करुण रस, वीर रस, अद्भुत रस, वीभत्स रस, भयानक रस, शांत रस, वात्सल्य रस, और भक्ति रस। भरत ने नाट्यशास्त्र में मूलतः नौ रसों को ही मान्यता दी।

8. रस सूत्र के जनक कौन है?

भरतमुनि (200 ई. पू.) को रस सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है। उन्होंने ही रस का सबसे पहले निरूपण ‘नाट्यशास्त्र’ में किया, इसीलिए उन्हें रस निरूपण का प्रथम व्याख्याता एवं उनके ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ को रस निरूपण का प्रथम ग्रंथ माना जाता है।

9. हस्य रस का देवता कौन है?

हास्य (संस्कृत: हास्य) भारतीय सौंदर्यशास्त्र के नौ रसों या भावों में से एक के लिए संस्कृत शब्द है, जिसे आमतौर पर हास्य या हास्य के रूप में अनुवादित किया जाता है। हस्य से जुड़ा रंग सफेद है और देवता, प्रमथ , और मन के उल्लास की ओर ले जाता है।

10. नाट्यशास्त्र के प्रणेता कौन है?

नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरत मुनि थे। भरत मुनि का जीवनकाल ४०० ईसापूर्व से १०० ई के मध्य किसी समय माना जाता है।

11. नाट्यशास्त्र किसकी रचना है?

नाट्यशास्त्र भरत मुनि की रचना है।

12. नाट्यशास्त्र UPSC or State PSC?

भरतनाट्यम UPSC IAS or State PSC परीक्षा के लिए जरूर पढ़ें। यह हिन्दी साहित्य के अंतर्गत आता है।

13. सबसे प्रसिद्ध नाटककार कौन है?

शेक्सपियर निर्विवाद रूप से अब तक जीवित रहने वाले सबसे सफल नाटककारों में से एक हैं, थिएटर और स्कूल आज उन्हें समर्पित हैं – उनके कार्यों का हर जीवित भाषा में अनुवाद किया गया है और इतिहास में किसी भी अन्य नाटककार की तुलना में अधिक प्रदर्शन किया जाता है।

14. विश्व का सबसे बड़ा नाटककार कौन है?

विलियम शेक्सपियर एक अंग्रेजी नाटककार, कवि और अभिनेता थे, जिन्हें व्यापक रूप से अंग्रेजी भाषा का सबसे बड़ा लेखक और दुनिया का सबसे बड़ा नाटककार माना जाता था।

15. विश्व का पहला नाटककार कौन है?

एशिलस, (जन्म 525/524 ईसा पूर्व- मृत्यु 456/455 ईसा पूर्व, गेला, सिसिली), शास्त्रीय एथेंस के महान नाटककारों में से पहले, जिन्होंने त्रासदी की उभरती कला को कविता और नाटकीय शक्ति की महान ऊंचाइयों तक पहुंचाया।

16. हिंदी का पहला नाटककार कौन है?

हिंदी में नाटकों का प्रारंभ भारतेन्दु हरिश्चंद्र से माना जाता है।

17. आधुनिक काल के प्रमुख नाटक कर कौन है?

आधुनिक काल के प्रमुख नाटककार प्रसाद, सेठ गोविंद दास, गोविंद वल्लभ पंत, लक्ष्मीनारायण मिश्र, उदयशंकर भट्ट, रामकुमार वर्मा आदि हैं।

18. नाटक सम्राट के नाम से कौन जाना जाता है?

हिन्दी साहित्य में नाटक विधा को चरमोत्कर्ष तक पहुँचाने के कारण जयशंकर प्रसाद को ‘नाटक सम्राट’ कहा जाता है।

19. भारतेंदु ने कितने मौलिक नाटक लिखे थे?

भारतेंदु जी के द्वारा अनूदित एवं मौलिक सब मिलाकर कुल 17 (सत्रह) नाटक लिखे गये थे। जिनमें से आठ अनूदित एवं नौ मौलिक नाटक माने जाते हैं।

20. द्विवेदी युग के नाटककार कौन है?

द्विवेदी युग के नाटककारों में मोहम्मद मियां ‘रौनक’, सैयद मेंहदी ‘हसन’, नारायण प्रसाद ‘बेताब’, आगा मोहम्मद हश्र ‘कश्मीरी’ और राधेश्याम कथावाचक आदि प्रमुख हैं।

21. भारत का प्रथम नाटक कौन सा है?

नहुष, भारतेन्दु ने अपने पिता गोपालचंद्र गिरिधरदास कृत नहुष (1857) को हिन्दी का प्रथम नाटक स्वीकार किया है।

22. नाटक की उत्पत्ति कैसे हुई?

भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में नाट्यविद्या के उद्भव के सम्बन्ध में कहा है कि सभी देवताओं ने ब्रह्मा से प्रार्थना की कि वे जनसामान्य के मनोरंजन के लिए किसी ऐसी विधा की रचना करें। उनके इस कथन से ब्रह्मा ने ऋग्वेद से पाठ्य सामवेद से गायन यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस ग्रहण करके इस नाट्य वेद नामक पंचम वेद की रचना की।

23. नाटककार कितने प्रकार के होते हैं?

नाटककार की तीन (3) श्रेणियां हैंअर्थात्: शास्त्रीय/सार्वभौमिक नाटककार, आधुनिक नाटककार और समकालीन नाटककार।

24. काव्य नाटक के जनक कौन है?

एलियट, इन्होंने काव्य नाटक के सिद्धांत को प्रतिपादित किया। यह वह था जिसने 20 वीं शताब्दी में अपनी परंपरा स्थापित की थी। कैथेड्रल में हत्या उनका पहला पूर्ण लंबाई का काव्य नाटक है।

25. संस्कृत के प्रथम नाटककार कौन थे?

महाकवि भास, (जन्म तीसरी शताब्दी ईस्वी, भारत), सबसे पहले ज्ञात संस्कृत नाटककार, जिनके कई पूर्ण नाटक पाए गए हैं। 1912 में एक भारतीय विद्वान ने भास के 13 नाटकों के ग्रंथों की खोज की और उन्हें प्रकाशित किया, जिन्हें पहले केवल प्राचीन संस्कृत नाटककारों के संकेतों से जाना जाता था।

26. नाटक के प्रमुख कितने तत्व होते हैं?

संस्कृत आचार्यों ने नाटक के तत्त्व कुल 5 माने हैं-कथावस्तु, नेता, रस, अभिनय और वृत्ति। पाश्चात्य विद्वान छः मूलतत्त्व मानते हैं- कथावस्तु, पात्र, कथोपकथन, देश-काल, शैली और उद्देश्य। हिन्दी साहित्य के समालोचकों पर संस्कृत आचार्यों और ऑग्ल विद्वानों, दोनों का प्रभाव है।

27. नाटक के मुख्य घटक क्या हैं?

नाटक के छह तत्वों या घटकों में शामिल हैं: विचार, विषयवस्तु, विचार; कार्रवाई या साजिश; पात्र; भाषा; संगीत; और तमाशा (दृश्यावली, वेशभूषा और विशेष प्रभाव) ।

28. नाटक का मूल आधार क्या है?

भाषा, संवाद, नैरेशन ध्वनि एवं संगीत नाटक के उपकरण होते हैं। और कथानक, पात्र, दृश्य संवाद एवं उद्देश्य नाटक के प्रमुख बिन्दु। नाटककार में संवेदनशीलता बहुत जरूरी है। अध्ययन एवं अनुभव जितना अधिक होगा उतनी ही उसकी प्रतिक्रिया शक्ति अच्छी होगी।

29. नाटक के 4 प्रकार कौन से हैं?

नाटक के चार मुख्य रूप हैं। वे कॉमेडी, ट्रेजेडी, ट्रेजिकोमेडी और मेलोड्रामा हैं। इन सभी प्रकारों में नाटक शैली की सामान्य विशेषताएं हैं; वे हैं, कथानक, पात्र, संघर्ष, संगीत और संवाद। कॉमेडी एक प्रकार का नाटक है जिसका उद्देश्य दर्शकों को हंसाना है।

30. हिंदी नाटक को कितने भागों में बांटा गया है?

प्रसाद पूर्व हिंदी नाटक इस काल के साहित्य को दो उप-खंडों में विभाजित किया जा सकता है । (1) भारतेंदु युगीन नाटक (2) द्विवेदी युगीन नाटक।

31. नाट्य शास्त्र को क्या संज्ञा दी गई है?

नाट्यशास्त्र को पंचम वेद की संज्ञा दी गई है।

32. नाट्य शास्त्र का अर्थ क्या है?

नाट्यशास्त्र, पूर्ण भरत नाट्यशास्त्र में, जिसे नाट्यशास्त्र भी कहा जाता है, नाटकीय कला पर विस्तृत ग्रंथ और पुस्तिका जो शास्त्रीय संस्कृत रंगमंच के सभी पहलुओं से संबंधित है । ऐसा माना जाता है कि इसे पौराणिक ब्राह्मण ऋषि और पुजारी भरत (पहली शताब्दी ईसा पूर्व- तीसरी शताब्दी सीई) द्वारा लिखा गया था।

33. नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति कैसे हुई?

इस जानकारी का सबसे पुराना ग्रंथ भी नाट्यशास्त्र के नाम से जाना जाता है जिसके रचयिता भरत मुनि थे। भरत मुनि का जीवनकाल ४०० ईसापूर्व से १०० ई के मध्य किसी समय माना जाता है। संगीत, नाटक और अभिनय के सम्पूर्ण ग्रंथ के रूप में भारतमुनि के नाट्य शास्त्र का आज भी बहुत सम्मान है।