लौकिक संस्कृत (Laukik Sanskrit : 800 ई.पू. से 500 ई.पू. तक) ‘प्राचीन-भारतीय-आर्य-भाषा‘ का वह रूप है जिसका पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ में विवेचन किया गया है, वह ‘लौकिक संस्कृत’ कहलाता है। लौकिक संस्कृत में 48 ध्वनियाँ हैं। वैदिक संस्कृत की 4 ध्वनियाँ ळ, ळह, जिह्वमूलीय और उपध्मानीय के लुप्त होने से लौकिक संस्कृत में 48 ध्वनियाँ शेष बच गयी।
प्राचीन भारतीय आर्य भाषा का प्राचीनतम नमूना वैदिक-साहित्य (2000 ई.पू. से 800 ई.पू. तक) में दिखाई देता है। वैदिक साहित्य का सृजन वैदिक संस्कृत में हुआ है। वैदिक संस्कृत को वैदिकी, वैदिक, छन्दस, छान्दस् आदि भी कहा जाता है। वैदिक साहित्य में वैदिक संहिताएं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद आदि आते हैं। जबकि लौकिक संस्कृत में रचा गया साहित्य, लौकिक संस्कृत साहित्य होता है। आधुनिक संस्कृत लौकिक संस्कृत का ही एक रूप है।
लौकिक संस्कृत साहित्य
लौकिक संस्कृत में वेदांग, रामायण, महाभारत, नाटक, काव्य, उपवेद(आयुर्वेदादि), कथा साहित्य, वैज्ञानिक साहित्य एवं पौराणिक साहित्य, उपांग(दर्शन) आदि साहित्य आता है। अर्थात कह सकते हैं जो भी साहित्य वैदिक साहित्य के बाद संस्कृत में रचा गया, लौकिक संस्कृत साहित्य कहलाता है।
सभी वेदों की भाषा “वैदिक संस्कृत” ही है, किन्तु अंतिम वेद से वह संस्कृत “लौकिक संस्कृत” की ओर उन्मुख हो गई है, जिसे संधिकाल कहते हैं। इसी काल में रामायण और महाभारत जैसे ऐतिहासिक ग्रंथों की रचना हुई, जिसे “आरंभिक लौकिक साहित्य” माना जाता है। इसी दौरान ही (500-400 ई.पू.) संस्कृत व्याकरण के सुविख्यात लेखक ‘पाणिनि‘ का जन्म हुआ, जिन्होंने अपने समय में प्रचलित संस्कृत भाषा का व्यापक शोध करके ‘अष्टाध्यायी‘ नामक ग्रन्थ में भाषा-सम्बधी नियम बनाए। जो वर्तमान युग की संस्कृत का आधार ग्रंथ हैं। (पढ़ें: पाणिनी सूत्र)
लौकिक संस्कृत साहित्य में सामान्यतः निम्न को सम्मिलित किया जाता है-
- वेदांग
- रामायण
- महाभारत
- नाटक
- काव्य
- कथा साहित्य
- आयुर्वेद
- वैज्ञानिक साहित्य
- पौराणिक साहित्य
- उपांग(दर्शन)
अवश्य पढ़ें: वैदिक संस्कृत– संहिताएँ, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद आदि के बारे में।
वेदांग
वेदांग हिन्दू धर्म ग्रन्थ हैं। वेद का अर्थ ज्ञान में सहायक शास्त्र को ही वेदांग कहा जाता है। संख्या में कुल छः वेदांग हैं-
- शिक्षा वेदांग
- कल्प वेदांग
- व्याकरण वेदांग
- ज्योतिष वेदांग
- छन्द वेदांग
- निरूक्त वेदांग
1. शिक्षा वेदांग
ये सबसे प्राचीान ग्रन्थ हैं। इसमें वेद मन्त्रों के उच्चारण करने की विधि बताई गई है। स्वर एवं वर्ण आदि के उच्चारण-प्रकार की जहाँ शिक्षा दी जाती हो, उसे शिक्षा कहाजाता है। इसका मुख्य उद्येश्य वेदमन्त्रों के अविकल यथास्थिति विशुद्ध उच्चारण किये जाने का है। शिक्षा का उद्भव और विकास वैदिक मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण और उनके द्वारा उनकी रक्षा के उद्देश्य से हुआ है।
शिक्षा वेदांग में तीन प्रकार की रचनाएँ-
- प्रातिशाख्य
- शिक्षा-ग्रन्थ
- शिक्षा-सूत्र
प्रातिशाख्य ग्रन्थ
ऋषियों द्वारा निर्मित सूक्त दीर्घकाल तक श्रुति-परम्परा में ऋषि-परिवारों में सुरक्षित रखे जाते रहे। परन्तु शनैः-शनै: बोलचाल की भाषा से सूक्त की भाषा (साहित्यिक भाषा) की भिन्नता बढ़ती गई। सूक्तों के प्राचीन रूप को सुरक्षित रखने के लिए संहिता के प्रत्येक पद को सन्धि रहित अवस्था में अलग-अलग कर ‘पद-पाठ’ बनाया गया तथा पद-पाठ से संहिता पाठ बनाने के नियम निर्दिष्ट किये गये और इस प्रकार वेद की विभिन्न शाखाओं के ‘प्रातिशाख्य ग्रंथों’ की रचना की गई।
वेदों की प्रत्येक शाखाओं से सम्बन्धित होना ही प्रातिशाख्यों का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है। माधवीया धातुवृत्ति में भ्वादिगण के अन्तर्गत ‘शाखृ’ धातु से शाखा शब्द की निष्पत्ति बताई गई है- “शाखायां शाखायां प्रतिशाखम्। प्रतिशाखं भवं प्रातिशाख्यम्।”
वेदों की कुल 129 शाखाएँ मानी गयी हैं, उतने ही प्रातिशाख्य ग्रंथ होने चाहिए, किन्तु वर्तमान में छह प्रातिशाख्य ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं:
- ऋक् प्रातिशाख्य – आचार्य शौनक (ऋग्वेद का प्रातिशाख्य)
- वाजसनेयि प्रातिशाख्य – कात्यायन (शुक्ल यजुर्वेद का प्रातिशाख्य)
- तैत्तिरीय प्रातिशाख्य – तैत्तिरीय संहिता (कृष्ण यजुर्वेद का प्रातिशाख्य)
- पुष्प-सूत्र प्रातिशाख्य, ऋक्तन्त्र प्रातिशाख्य – शाकटायन/औदब्रजि (सामवेद के प्रातिशाख्य)
- चतुरध्यायिका – आचार्य शौनक (अथर्ववेद का प्रातिशाख्य)
- अथर्व प्रातिशाख्य, अथर्व प्रातिशाख्य सूत्र – (अथर्ववेद के प्रातिशाख्य)
इन प्रातिशाख्यों में अपनी-अपनी शाखा से सम्बन्धित वर्ण विचार, उच्चारण, पद पाठ आदि पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। ये ग्रन्थ वैदिक काल के सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक ध्वनि विज्ञान के ग्रन्थ हैं।
परम्परा से प्रातिशाख्यों को शिक्षा के अन्तर्गत माना जाता रहा है। कुछ आचार्य प्रातिशाख्य को व्याकरण के अन्तर्गत मानते हैं। तैत्तिरीय प्रातिशाख्य के उन्नीसवें अध्याय के अन्तिम सूत्र की व्याख्या में भी व्याकरण शास्त्र को ही प्रातिशाख्य का मूल बताया है। वस्तुतः प्रातिशाख्य न तो पूर्णरूप से व्याकरण है और न ही पूर्णरूप से शिक्षा । वास्तव में इसमें दोनों का समन्वय है। इसे व्याकरण का प्राचीन रूप माना जा सकता है, किन्तु शिक्षा से अलग नहीं। वाजसनेयि प्रातिशाख्य के ‘वृद्धं वृद्धिः’ सूत्र से जो कि प्रत्येक अध्याय की समाप्ति पर पठित है, की व्याख्या में उव्वट स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं कि प्रातिशाख्य में व्याकरण तथा शिक्षा दोनों का समावेश है।
प्रातिशाख्य ग्रंथों में– मन्त्रों का उच्चारण, मन्त्रों में स्वर-विधान, सन्धि, आवश्यकतानुसार छन्द के कारण ह्रस्व के स्थान में दीर्घ का विधान, संहितापाठ को पदपाठ में बदलने के नियम आदि महत्वपूर्ण विषयों के बारे में चर्चा की गई है।
शिक्षा-ग्रन्थ
प्रातिशाख्य के आधार पर शिक्षा-ग्रन्थों की रचना हुई है । शिक्षा-ग्रन्थ कारिकाओं में उपलब्ध है। शिक्षा-ग्रन्थों की संख्या निश्चित नहीं है। वर्तमान में 11 शिक्षा-ग्रन्थ उपलब्ध हैं-
- पाणिनीय शिक्षा
- याज्ञवल्क्य-शिक्षा
- वाशिष्ठी शिक्षा
- कात्यायनी
- पाराशरी
- माण्डव्यी
- अमोघानन्दिनी
- माध्यन्दिनी
- केशवी
- नारदीया
- माण्डूकी शिक्षा
शिक्षा-ग्रन्थों में– शुद्ध-उच्चारण का महत्त्व, शुद्ध-उच्चारण के नियम, पाठक के गुण, और पाठक के दोष आदि महत्वपूर्ण विषयों के बारे में चर्चा की गई है।
शिक्षा-सूत्र
प्राचीन शिक्षासूत्र जैसे- आपिशली, पाणिनि और चन्द्रगोमी। शिक्षासूत्रों में वर्णों की उत्पत्ति के स्थान और वर्णों के उच्चारण में होने वाले प्रयत्न आदि पर प्रकाश डाला गया है। सृष्टि के आदि में ऋषियों, मनीषियों ने भाषा का बहुत ही सूक्ष्म विवेचन किया था । भारत में भाषाशास्त्र (आधुनिक भाषाविज्ञान) के इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से शिक्षा-वेदाङ्ग का बहुत महत्त्व है।
वेदों के मंत्रों का पठन पाठन तथा उच्चारण ठीक रीति से करने की सूचना ‘शिक्षा वेदांग’ से प्राप्त होती है। इस समय ‘पाणिनीय शिक्षा’ भारत में विशेष मानी जाती है।
2. कल्प वेदांग
वेदों के किस मन्त्र का प्रयोग किस कर्म में करना चाहिये, इसका कथन किया गया है। इसकी तीन शाखायें हैं- श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र। कल्प वेद-प्रतिपादित कर्मों का भलीभाँति विचार प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है। इसमें यज्ञ सम्बन्धी नियम दिये गये हैं।
3. व्याकरण वेदांग
इससे प्रकृति और प्रत्यय आदि के योग से शब्दों की सिद्धि और उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित स्वरों की स्थिति का बोध होता है। वेद-शास्त्रों का प्रयोजन जानने तथा शब्दों का यथार्थ ज्ञान हो सके अतः इसका अध्ययन आवश्यक होता है। इस सम्बन्ध में पाणिनीय व्याकरण ही वेदांग का प्रतिनिधित्व करता है। व्याकरण वेदों का मुख भी कहा जाता है।
4. निरुक्त वेदांग
वेदों में जिन शब्दों का प्रयोग जिन-जिन अर्थों में किया गया है, उनके उन-उन अर्थों का निश्चयात्मक रूप से उल्लेख निरूक्त में किया गया है। इसे वेद पुरुष का कान कहा गया है। निःशेषरूप से जो कथित हो, वह निरुक्त है। इसे वेद की आत्मा भी कहा गया है।
5. ज्योतिष वेदांग
इससे वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानों का समय ज्ञात होता है। यहाँ ज्योतिष से मतलब `वेदांग ज्योतिष´ से है। यह वेद पूरुष का नेत्र माना जाता है। वेद यज्ञकर्म में प्रवृत होते हैं और यज्ञ काल के आश्रित होते है तथा जयोतिष शास्त्र से काल का ज्ञान होता है। अनेक वेदिक पहेलियों का भी ज्ञान बिना ज्योतिष के नहीं हो सकता।
6. छन्द वेदांग
वेदों में प्रयुक्त गायत्री, उष्णिक आदि छन्दों की रचना का ज्ञान छन्दशास्त्र से होता है। इसे वेद पुरुष का पैर कहा गया है। ये छन्द वेदों के आवरण है। छन्द नियताक्षर वाले होते हैं। इसका उदेश्य वैदिक मन्त्रों के समुचित पाठ की सुरक्षा भी है।
रामायण
रामायण “वाल्मीकि” द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य है। रामायण को आदिकाव्य तथा इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि को ‘आदिकवि‘ कहा जाता है। रामायण को चतुर्विंशति संहिता कहते हैं, क्यूंकि इसमें 23,440 संस्कृत श्लोक है, जो कि 24,000 के करीब है।
रामायण में सात काण्ड हैं – बालकाण्ड, अयोध्यकाण्ड, अरण्यकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, लङ्काकाण्ड और उत्तरकाण्ड।
- बालकाण्ड
- अयोध्यकाण्ड
- अरण्यकाण्ड
- सुन्दरकाण्ड
- किष्किन्धाकाण्ड
- लङ्काकाण्ड
- उत्तरकाण्ड
महाभारत
महाभारत को लगभग तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व या तीसरी शताब्दी के बीच संकलित किया गया था, जिसमें सबसे पुराने संरक्षित भाग 400 ईसा पूर्व के आसपास के माने जाते हैं। महाकाव्य से संबंधित मूल घटनाएँ संभवतः 9 वीं और 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के बीच की हैं।
महाभारत भारत का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति के इतिहास वर्ग में आता है। यह महाकाव्य ‘जय संहिता‘, ‘भारत‘ और ‘महाभारत‘ इन तीन नामों से प्रसिद्ध हैं। धर्म की अधर्म पर विजय होने के कारण इन्हें ‘जय‘ भी कहा जाने लगा। महाभारत में एक कथा आती है कि- जब देवताओं ने तराजू के एक पासे में चारों “वेदों” को रखा और दूसरे पर ‘भारत ग्रंथ’ को रखा, तो ‘भारत ग्रंथ’ सभी वेदों की तुलना में सबसे अधिक भारी सिद्ध हुआ। अतः ‘भारत’ ग्रंथ की इस महत्ता (महानता) को देखकर देवताओं और ऋषियों ने इसे ‘महाभारत’ नाम दिया और इस कथा के कारण मनुष्यों में भी यह काव्य ‘महाभारत‘ के नाम से सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ।
वेदव्यास रचित महाकाव्य महाभारत में संस्कृत श्लोकों की संख्या लगभग 100,000 हैं, इसीलिए इसे शतसाहस्त्री संहिता कहते हैं।
वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं।
नाटक
नाट्य शब्द ‘नट्‘ धातु से बना हैं, जिसका अर्थ होता है- गिरना/नाचना। कला का उत्कृष्ट रूप काव्य है, और उत्कृष्टतम रूप नाटक है। भरतमुनि का ‘नाटय-शास्त्र‘ सबसे प्राचीन ग्रन्थ है, जो अपनी विचारों के साथ साथ व्यापक विषयगत समग्रता से परिपूर्ण है। भारतीय नाट्य कला पर विचार करते समय नाट्यशास्त्र सदा आगे आ जाता है। यह महान ग्रन्थ नाट्यकला के अतिरिक्त काव्य, संगीत, नृत्य, शिल्प तथा अन्य ललित कलाओं का भी विषयगत कोष है।
संस्कृत नाट्य साहित्य का विकास क्रमशः वैदिककाल से ही प्रारंभ हो गया था। वेदों के पश्चात् रामायण एवं महाभारत में भी नाटक के संकेत प्राप्त होते हैं-
- महाभारत में ‘‘रामायण नाटक’’ तथा ‘‘कौबेर रंगाभिसार’’ नामक नाटकों के नाम आये हैं।
- महाभारत के विराट पर्व में रंगशाला तथा नट का प्रयोग है।
- रामायण में भी ‘‘नट’’, ‘‘नाटक’’, ‘‘रंग’’ तथा नर्तक का अनेक स्थानों पर उल्लेख प्राप्त होता है।
पाणिनि ने भी ‘अष्टाध्यायी’’ में पाराशर्य शिलालिभ्यां भिक्षुनटसूत्रयोः’ द्वारा नाटकों की पूर्व रचना का आभास दिया है।
- 400 ई.पूर्व के कौटिल्यीय ‘‘अर्थशास्त्र’’ के अध्ययन से ज्ञात होता है कि नट, नर्तक, गायक, वादक, प्लवक, कुशीलव, सौमित्र तथा चारण आदि नाटकादि करके अपना जीवकोपार्जन करते थे।
बौद्ध ग्रन्थों में ‘‘विनयपिटक’’ के ‘‘चुल्लवग्ग’’ में एक कथा है कि अश्वजित तथा पुनर्वसु अभिनय देखने के पश्चात् नर्तकी के साथ प्रेमालाप कर रहे थे तो उन्हें महास्थविर ने विहार से तत्काल निष्कासित कर दिया था। इस समय में नाट्यकला भारतव्यापी हो गई थी।
पतंजलि ने ‘‘महाभाष्य’’ में ‘‘कंसवध’’ तथा ‘‘बलिबन्ध’’ दो नाटकों का नामोल्लेख किया है। महाभाष्य में ‘‘रसिको नटः’’ पद सिद्ध करता है कि पतंजलि के समय रस सिद्धान्त का पूर्ण ज्ञान था।
आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय में नाटक को “पंचम वेद” की संज्ञा दी-
न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला।
न स योगो न तत्कर्म नाट्ऽयेस्मिन् यन्न दृष्यते॥
विस्तार से पढ़ें: नाटक और ‘नाटय-शास्त्र‘ के बारे में।
काव्य
जिस समय छापेखाने का आविष्कार नहीं हुआ था और दस्तावेज़ों की अनेक प्रतियां बनाना आसान नहीं था। उस समय महत्वपूर्ण बातों को याद रखना ही सर्वोत्तम साधन था। यही कारण है कि उस समय साहित्य के साथ साथ राजनीति, विज्ञान और आयुर्वेद को भी पद्य (कविता) में ही लिखा गया। भारत की प्राचीनतम कविताएं संस्कृत भाषा में ऋग्वेद में हैं, जिनमें प्रकृति की प्रशस्ति में लिखे गए छंदों का सुंदर संकलन हैं। जीवन के अनेक अन्य विषयों को भी इन कविताओं में स्थान मिला है।
आचार्य मम्मट या मम्मटाचार्य ने “काव्यप्रकाश” में जिन प्राथमिक लेखकों का वर्णन किया हैं उनमें- मयूरभट्ट, वामन, भामह, विश्वनाथ तथा कुंतक आदि आते हैं। इसमें किसी भी लेखक को काव्य का जनक नहीं बताया गया है। अतः यह निश्चित नहीं है कि काव्य के जनक थे कौन। परंतु इसका प्रारंभ भरतमुनि से समझा जा सकता है।
कथा साहित्य
संस्कृत भाषा में निबद्ध कथाओं का प्रचुर साहित्य है। कथासाहित्य से संबद्ध ग्रंथों के आलोचन से स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृत साहित्य में तीनों प्रकार की कहानियों के उदाहरण मिलते हैं-
- परियों की कहानियाँ (फ़ेअरी टेल्स)
- जंतुकथाएँ (फ़ेबुल्स)
- उपदेशमयी कहानियाँ (डायडेक्टिक टेल्स)
कथाओं के मूल स्रोत की खोज के लिए वैदिक संहिताओं का अनुशीलन आवश्यक है। ऋग्वेद की मंत्रसंहिता में अनेक रोचक कहानियों की सूचना मिलती है जिनका परिबृहण शौनक ने “बृहद्देवता” में, षड्गुरुशिष्य ने “कात्यायन सर्वानुक्रमणी” की वेदार्थदीपिका में, यास्क ने निरुक्त में, सायण ने अपने वेदभाष्यों में तथा स्याद्विवेद ने “नीति मंजरी” (रचनाकाल 15वीं शती का अंत) में किया है। यहीं से ये कथाएँ पुराणों के माध्यम से होकर जनता के मनोरंजन तथा शिक्षण के निमित्त लौकिक संस्कृत साहित्य में अवतीर्ण हुई।
कथासाहित्य के प्रमुख ग्रंथ इस प्रकार हैं-
- पंचतंत्र
- हितोपदेश
- बृहत्कथा
- बैतालपचीसी / वेताल पंचविंशति
- सिंहासनबतीसी/ विक्रमचरित / सिंहासन द्वात्रिंशिका
- शुकसप्तति
- भरटक द्वात्रिंशिका
- कथारत्नाकार
संस्कृत का कथासाहित्य और विशेषत: पंचतंत्र, विश्वसाहित्य को भारत की देन है। ये कहानियाँ भारत के निवासियों का ही शिक्षण और मनोरंजन नहीं करतीं, प्रत्युत विश्व के सभ्य साहित्य का अंग बनकर नाना देशों के निवासियों का भी मनोरंजन करती हैं।
कलेलाह-व-दिमनाह :- फारस (इरान) के प्रसिद्ध सम्राट् खुसरों नौशेरवाँ (531ई.-579 ई.) के राज्यकाल में पंचतंत्र की कहानियाँ पहलवी भाषा (पुरानी) में प्रथमत: 533 ई. में अनूदित की गई। अनुवादक का नाम था हकीम बुरजोई। प्रथम तंत्र के शृगालबंधुओं ‘करटक और दमनक’ के नाम पर यह अनुवाद “कलेलाह-व-दिमनाह” के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
- 560 ई. में “बुद” नामक एक ईसाई संत ने इस पहलवी अनुवाद को सीरियाई भाषा में रूपांतरित किया।
- 750 ई. में सीरियाई से अरबी अनुवाद करने का श्रेय प्राप्त है- अब्दुल्ला-बिन-अलमुकफ्फा को, जो स्वयं तो मुसलमान था, परंतु जिसका पिता पारसी था।
- अरबी अनुवाद के भी अनेक अनुवाद लैटिन, ग्रीक, स्पेनिश, इतालीय, जर्मन तथा अंग्रेजी भाषाओं में भिन्न-भिन्न शताब्दियों में होते रहे।
इस प्रकार ये कहानियाँ 16वीं शती से पूर्व ही यूरोप के विभिन्न देशों में घर कर गई।
आयुर्वेद
आयुर्वेद एक वैकल्पिक चिकित्सा प्रणाली है जिसकी जड़ें भारतीय उपमहाद्वीप में हैं। भारत, नेपाल और श्रीलंका में आयुर्वेद का अत्यधिक प्रचलन है, जहाँ लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या इसका उपयोग करती है। आयुर्वेद विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है।
विभिन्न विद्वानों ने संसार की प्राचीनतम् पुस्तक ऋग्वेद का रचना काल ईसा के 3,000 से 50,000 वर्ष पूर्व तक का माना है। ऋग्वेद-संहिता में भी आयुर्वेद के अतिमहत्त्व के सिद्धान्त यत्र-तत्र विकीर्ण है। चरक, सुश्रुत, काश्यप आदि मान्य ग्रन्थ आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं। इससे आयुर्वेद की प्राचीनता सिद्ध होती है।
आयुर्वेद के आचार्य:- अश्विनीकुमार (आदि आचार्य), धन्वंतरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त्य, अत्रि तथा उनके छः शिष्य (अग्निवेश, भेड़, जतुकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत), सुश्रुत और चरक।
ब्रह्मा जी ने आयुर्वेद को आठ भागों में बाँटकर प्रत्येक भाग का नाम ‘तन्त्र’ रखा, जो इस प्रकार हैं-
# | तन्त्र | आधुनिक चिकित्सा विज्ञान |
---|---|---|
1 | शल्यतन्त्र | शल्यक्रिया |
2 | शालाक्यतन्त्र | कर्णनासाकंठ विज्ञान |
3 | कायचिकित्सा | सामान्य दवा |
4 | भूतविद्या तन्त्र | मनश्चिकित्सा |
5 | कौमारभृत्य | बालचिकित्सा |
6 | अगदतन्त्र | विषविज्ञान |
7 | रसायनतन्त्र | जराविद्या और जराचिकित्सा |
8 | वाजीकरणतन्त्र | पौरुषीकरण और कामोद्दीपक का विज्ञान |
उपरोक्त सम्पूर्ण आयुर्वेदीय चिकित्सा के “आठ अंग” माने गए हैं, जिन्हें “अष्टांग वैद्यक” कहा जाता है।
आयुर्वेद के ग्रन्थ में “त्रिदोष“, तीन शारीरिक दोषों- वात, पित्त, कफ; के असंतुलन को रोग का कारण मानते हैं। और इनकी समान स्थिति को आरोग्य।
आयुर्वेद को त्रिस्कन्ध (तीन कन्धों वाला) अथवा त्रिसूत्र भी कहा जाता है, ये तीन स्कन्ध अथवा त्रिसूत्र हैं – हेतु, लिंग, औषध।
वैज्ञानिक साहित्य
विज्ञान लेखन का अर्थ है, विज्ञान, आयुर्विज्ञान, प्रौद्योगिकी के बारे में सामान्य जनता के पढ़ने के लिये लिखना। भारत में वैज्ञानिक विषयों पर लेखन की बहुत प्राचीन परम्परा रही है। गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, स्थापत्य, व्याकरण आदि पर अनेकानेक ग्रन्थ रचे गये। इन ग्रन्थों में पुराने ग्रन्थों या उनके रचनाकारों का नामोल्लेख करने की परम्परा थी। ग्रन्थों के भाष्य भी लिखे जाते थे क्योंकि मूल ग्रन्थ संक्षिप्त या सूत्ररूप में होते थे। इसके साथ ही ग्रन्थों को लिखते समय विषय को वैज्ञानिक ढंग से अभिव्यत करने की विधियों पर भी गहन चिन्तन हुआ है।
तन्त्रयुक्ति, ताच्छील्य, कल्पना आदि का वर्णन प्राचीन ग्रन्थों में हुआ है। इनका उपयोग वैज्ञानिक साहित्य की गुणवत्ता को स्तरीय बनाये रखने के लिये किया जाता था। इन सुस्थापित लेखन-पद्धतियों के कारण ही संहिताएँ, संग्रह-ग्रन्थ, और निघण्टु आदि की रचना इतनी एकरूपता लिये हुए हो सकी और अच्छे स्तर का साहित्य निर्मित हुआ।
“न्यायशास्त्र (न्यायसूत्र)” अन्य सभी शास्त्रों के लिये तर्कशास्त्र का मूलग्रन्थ है। यह भारतीय दर्शन का प्राचीन ग्रन्थ है। इसके रचयिता ‘अक्षपाद गौतम‘ हैं। यह न्यायदर्शन का सबसे प्राचीन रचना है। इसकी रचना का समय दूसरी शताब्दी ईसापूर्व है। इसमें पांच अवयवों (पञ्चावयव) का विधान बताया गया है- प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि अवयवाः, अर्थात-
- प्रतिज्ञा
- हेतु
- उदाहरण
- उपनय
- निगमन
चरकसंहिता के विमानस्थान में ‘शास्त्रपरीक्षा‘ नाम से वैज्ञानिक लेखन के लिये आवश्यक तत्त्वों का वर्णन किया गया है। इनको वहाँ ‘तन्त्रगुण‘ कहा गया है। तन्त्रगुण के अन्तर्गत लेखन की भाषा, क्रम, मात्रा (विस्तार), विधि आदि आते हैं। यद्यपि ये गुण, आयुर्वेद के ग्रन्थों के लिये बताये गये हैं, किन्तु ये अन्य शास्त्रों की संहिताओं के लिये भी सत्य हैं।
आचार्य चरक कृत “चरकसंहिता” आयुर्वेद का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। यह संस्कृत भाषा में है। इसके उपदेशक अत्रिपुत्र पुनर्वसु, ग्रंथकर्ता अग्निवेश और प्रतिसंस्कारक चरक हैं। चरकसंहिता और सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद के दो प्राचीनतम आधारभूत ग्रन्थ हैं जो काल के गाल में समाने से बचे रह गए हैं।
भारतीय चिकित्साविज्ञान के तीन बड़े नाम हैं – चरक, सुश्रुत और वाग्भट। चरक संहिता, सुश्रुतसंहिता तथा वाग्भट का अष्टांगसंग्रह आज भी भारतीय चिकित्सा विज्ञान (आयुर्वेद) के मानक ग्रन्थ हैं।
अवश्य पढ़ें: लौकिक साहित्य या लोक भाषा काव्य के बारे में।
लौकिक और वैदिक संस्कृत में अंतर
- वैदिक संस्कृत– संहिताएँ, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद आदि।
- लौकिक संस्कृत– वेदांग, रामायण, महाभारत, नाटक, काव्य, कथा साहित्य, आयुर्वेद, वैज्ञानिक साहित्य आदि।
वैदिक संस्कृत | लौकिक संस्कृत |
---|---|
वैदिक संस्कृत के दौरान की रचनाएं पूर्णतः धार्मिक हैं। | इस दौरान की रचनाओं में लौकिकता देखने को मिलती है। |
वैदिक संस्कृत में पर्याप्त शब्दों का उपयोग किया गया है। जैसे – देवासः, जनामः । | कुछ वैदिक शब्द विलुप्त हो गये। जैसे – देवः, जनः । |
वैदिक संस्कृत में स्वरों की संख्या अधिक है। | स्वरों की संख्या कम है अर्थात जैसे लृ स्वर का लोप हो गया है। |
वैदिक संस्कृति में उपसर्ग धातुओं से पृथक हैं। इनका स्वतंत्र प्रयोग किया जा सकता था। | लौकिक संस्कृत में उपसर्ग धातु से जुड़े हैं । उपसर्गों के स्वतंत्र प्रयोग पर प्रतिबद्धता लग गयी। |
वैदिक संस्कृत में कुछ स्थानों में सप्तमी एकवचन विलुप्त हो जाता है। | लौकिक संस्कृति में सप्तमी एकवचन विलुप्त नहीं होता है। |
व्याकरण की दृष्टि से वैदिक संस्कृत में कुछ अव्यवस्था देखने को मिलती है। | लौकिक संस्कृति में व्याकरण के नियमों का अनुसरण करना अनिवार्य है। |
लोट् लकार की उपलब्धता। | लोट् लकार का अभाव। |
शब्दों के अर्थ में अन्तर : पत् – उड़ना, सह – जीतना, असुर – शक्तिशाली, अराति – कृपण, वध -घातक शस्त्र, क्षिति – गृहं | शब्दों के अर्थ में अन्तर : पत् – गिरना, सह – सहना, असुर – दैत्य, अराति – शत्रु, वध – हत्या, क्षिति – पृथ्वी |
भाषा में स्वरों का उपयोग किया जाता था। | भाषा में स्वरों का उपयोग विलुप्त हो गया। |
संगीतात्मक शब्दों का प्रयोग देखने को मिलता है। | संगीतात्मक शब्दों के स्थान पर बलात्मक शब्दों का प्रयोग प्रारंभ हो गया। |
‘भगवद गीता‘ को उपनिषदों का सार माना जाता है। स्मृतियों में वेद वाक्यों को विस्तृत समझाया गया है। वाल्मीकि कृत रामायण और व्यास कृत महाभारत को इतिहास पुराणों को पुरातन इतिहास का ग्रंथ माना गया है।
वेदांग 6 हैं– शिक्षा, छंद, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और कल्प।
उपवेद
उपवेद चार हैं– ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का शिल्पवेद– ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद हैं।
- आयुर्वेद
- धनुर्वेद
- गंधर्ववेद
- शिल्पवेद
पुराण
‘पुराण’ शब्द का शब्द विन्यास है- “पुरा + अण” है, जिसमें पुरा का अर्थ है- “अनागत एवं अतीत”, जबकि अण का अर्थ है- “कहना या बतलाना”। आदिकवि कालिदास ने “रघुवंशम्” में लिखा है “पुराण पत्रापग मागन्नतरम्” अर्थात “प्राचीन: वृत्तान्त:”। इस प्रकार पुराण का अर्थ हुआ- ‘प्राचीन आख्यान’ या ‘पुरानी कथा’। पुराणों की रचना वेदों के काफी बाद की है। महर्षि वेदव्यास को पुराणों का रचनाकार माना जाता है।
पुराणों की संख्या 18 (अठारह) है, जो निम्न हैं-
- विष्णु पुराण
- भागवत पुराण
- नारद पुराण
- गरुड़ पुराण
- पद्म पुराण
- वराह पुराण
- ब्रह्म पुराण
- ब्रह्माण्ड पुराण
- ब्रह्म वैवर्त पुराण
- मार्कण्डेय पुराण
- भविष्य पुराण
- वामन पुराण
- शिव पुराण (वायु पुराण)
- लिङ्ग पुराण
- स्कन्द पुराण
- अग्नि पुराण
- मत्स्य पुराण
- कूर्म पुराण
पुराणों में भगवान के विभिन्न अवतार एवं देवी-देवताओं की जानकारी, पाप-पुण्य एवं सत्य-असत्य की कहानियाँ इत्यादि दीं हुई हैं।
उपांग एवं दर्शन
उपांग भी 6 हैं– प्रतिपदसूत्र, अनुपद, छंदोभाषा (प्रातिशाख्य), धर्मशास्त्र, न्याय तथा वैशेषिक। वर्तमान में ये 6 उपांग ग्रंथ उपलब्ध हैं। उपांगों से ही भारत के षड्दर्शन का निर्माण हुआ हैं, जो इस तरह है- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत।
दर्शन शास्त्र– वेद और उपनिषद को पढ़कर ही 6 ऋषियों ने अपना-अपना दर्शन रचा है। इसे ही भारतीय षड्दर्शन कहा जाता है। ये दर्शन निम्न हैं-
- सांख्य दर्शन (कपिल)
- न्याय दर्शन (गौतम)
- योग दर्शन (पतंजली)
- पूर्व मीमांसा (जैमिनी)
- उत्तर मीमांसा (बादरायण)
- वैशेषिक दर्शन (कणाद या उलूक)
उपरोक्त दर्शनों को वैदिक दर्शन (आस्तिक-दर्शन) कहा जाता हैं। आगे दिए गए 3 को अवैदिक दर्शन (नास्तिक-दर्शन) कहा है-
- चार्वाक दर्शन
- बौद्ध दर्शन
- जैन दर्शन
वेद को प्रमाण मानने वाले आस्तिक और न मानने वाले नास्तिक दर्शन हैं, इस दृष्टि से उपर्युक्त न्यायवैशेषिकादि को आस्तिक और चार्वाकादि दर्शन को नास्तिक कहा गया है।