प्राकृत भाषा (द्वितीय प्राकृत)
प्राकृत भाषा (1 ई. से 500 ई. तक) मध्यकालीन आर्यभाषा को ‘प्राकृत’ भी कहा गया है। प्राकृत भाषा की व्युत्पत्ति: ‘प्राकृत’ की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में दो मत प्रचलित हैं जो निम्न हैं-
प्राकृत प्राचीनतम् जनभाषा है-
प्राकृत प्राचीनतम प्रचलित जनभाषा है। नमि साधु ने इसका निर्वचन करते हुए लिखा है-
‘प्राक् पूर्व कृतं प्राकृत’
अर्थात् प्राक् कृत शब्द से इसका निर्माण हुआ है जिसका अर्थ है पहले की बनी हुई। जो भाषा मूल से चली आ रही है उसका नाम ‘प्राकृत’ है (नाम प्रकृतेः आगतं प्राकृतम्) ।
नामि साधु ने ‘काव्यालंकार‘ की टीका में लिखा है-
प्राकृतेति सकल-जगज्जन्तूनां व्याकरणादि मिरनाहत संस्कार: सहजो वचन व्यापारः प्रकृति: प्रकृति तत्र भवः सेव वा प्राकृतम्’
अर्थात सकल जगत् के जन्तुओं (प्राणियों) के व्याकरण आदि संस्कारों से रहित सहजवचन व्यापार को प्रकृति कहते हैं। उससे उत्पन्न अथवा वही प्राकृत है।
वाक्पतिराज ने ‘गउडबहो‘ में लिखा है-
सयलाओ इमं वाया विसंति एत्तो यणेति वायाओ।।
एंति समुद्धं चिह णेति सायराओ च्चिय जलाई ।।”
अर्थात्– जिस प्रकार जल सागर में प्रवेश करता है और वही से निकलता है, उसी प्रकार समस्त भाषाएँ प्राकृत में ही प्रवेश करती हैं और प्राकृत से ही निकलती हैं।
प्राकृत की उत्पत्ति संस्कृत से-
“प्राकृत की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है।” इस मत की पुष्टि करने वाले विद्वान् निम्नलिखित है-
- ‘प्रकृति: संस्कृतं तत्र भवं तत आगतवां प्राकृतम्’ अर्थात् प्रकृति या मूल संस्कृत है और जो संस्कृत से आगत है, वह प्राकृत है। (हेमचन्द्र)।
- ‘प्रकृति: संस्कृतं तत्र भवं प्राकृतमुच्यते” अर्थात् प्रकृति या मूल संस्कृत है, उससे उत्पन्न भाषा को प्राकृत कहते हैं। (प्राकृत सर्वस्य-मार्कण्डेय)।
- ‘प्रकृतस्य सर्वमेव संस्कृत योनिः’ अर्थात् प्राकृत की जननी संस्कृत है। (प्राकृत-संजीवनी-वासुदेव)।
- ‘कृतेः संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृती मता’ अर्थात् संस्कृत की विकृति प्राकृत है। (षड् भाषाचन्द्रिका-लक्ष्मीधर)।
- ‘प्रकृते: संस्कृतात् आगतं प्राकृतम्’ अर्थात् प्रकृति संस्कृत से आगत प्राकृत है। (सिंह देवमणि) ।
- अब प्रायः सभी विद्वानों ने इस बात को स्वीकार लिया है कि प्राकृत की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है।
- द्वितीय प्राकृत को ‘साहित्यिक प्राकृत‘ भी कहते हैं। प्राकृत भाषाओं के विषय में सर्वप्रथम भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में विचार किया।
मुख्य प्राकृत तथा गौण विभाषा के भेद एवं प्रकार
भरतमुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में 7 मुख्य प्राकृत तथा 7 गौण विभाषा की चर्चा की, जो अग्रांकित है-
मुख्य प्राकृत | गौण विभाषा |
---|---|
मागधी | शाबरी |
अवन्तिजा | आभीरी |
प्राच्या | चाण्डाली |
सूरसेनी (शौरसेनी) | सचरी |
अर्धमागधी | द्राविड़ी |
बाहलीक | उद्रजा |
दाक्षिणात्य (महाराष्ट्री) | वनेचरी |
प्राकृत-वैयाकरन
प्राकृत-वैयाकरणों में सर्वप्रथम नाम वररुचि (7वीं शताब्दी) का आता है। इनके व्याकरण का नाम ‘प्राकृत प्रकाश‘ है। इसमें 12 परिच्छेद हैं।
वररुचि ने ‘प्राकृत प्रकाश’ ग्रन्थ में प्राकृत भाषा के चार भेद बताए हैं, जो निम्नांकित हैं-
- महाराष्ट्री,
- पैशाची,
- मागधी,
- शौरसेनी।
हेमचन्द्र ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्ध ‘प्राकृत-व्याकरण‘ में प्राकृत भाषा के तीन और भेदों की चर्चा की, जो निम्न हैं-
- आर्षी (अर्धमागधी),
- चूलिका पैशाची,
- अपभ्रंश।
हेमचन्द्र को प्राकृत का पाणिनी माना जाता है। अपने व्याकरण के उदाहरणों के लिए हेमचन्द्र ने भट्टी के समान एक ‘द्वयाश्रय काव्य’ की भी रचना की है। हेमचन्द्र की ‘चूलिका-पैशाची‘ को ही आचार्य दण्डी ने ‘भूत भाषा‘ कहा है।
महाराष्ट्री
- महाराष्ट्री को प्राकृत वैयाकरणों ने आदर्श, परिनिष्ठित तथा मानक प्राकृत माना है। इस प्राकृत का मूल स्थान महाराष्ट्र है।
- डॉ. हार्नले के अनुसार महाराष्ट्री का अर्थ ‘महान् राष्ट्र’ की भाषा है। महान् राष्ट्र के अन्तर्गत राजपुताना तथा मध्यप्रदेश आदि आते हैं।
- जॉर्ज ग्रियर्सन एवं जूल ब्लाक ने महाराष्ट्री प्राकृत से ही मराठी की उत्पत्ति मानी है।
- भरतमुनि ने ‘दाक्षिणात्य प्राकृत भाषा का भेद महाराष्ट्री के लिए ही किया है।
- अवन्ती और वाह्लीक, ये दोनों भाषाएँ महाराष्ट्री भाषा में अन्तर्भूत है।
- डॉ. मनमोहन घोष और डॉ. सकुमार सेन का अभिमत है कि महाराष्ट्री प्राकृत शौरसेनी का ही विकसित रूप है।
- आचार्य दण्डी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘काव्यादर्श’ में महाराष्ट्री को सर्वोत्कृष्ट प्राकृत भाषा बतलाया है- महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदु :। सागरः सूक्तिरत्नानां सेतुबन्धादि यन्मयाम्।।
महाराष्ट्री प्राकृत में लिखी गई प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ निम्नालिखित हैं-
- राजा हाल कृत ‘गाहा सतसई’ (गाथा-सप्तशती),
- प्रवरसेन कृत ‘रावण वहो’ (सेतुबन्धः),
- वाक्पति कृत ‘गउडवहो’ (गौडवधः),
- जयवल्लभ कृत ‘वज्जालग्ग’,
- हेमचन्द्र कृत ‘कुमार पाल चरित’।
शौरसेनी प्राकृत
शौरसेनी प्राकृत मूलतः शूरसेन या मथुरा के आसपास की बोली थी। मध्यदेश की भाषा होने के कारण शौरसेनी का बहुत आदर था। (यो मध्ये मध्यदेशं विवसति स कविः सर्वभाषा निषण्णा:)। डॉ. पिशेल के अनुसार इसका विकास दक्षिण में हुआ। शौरसेनी मूलतः नाटकों के गद्य की भाषा थी। आचार्य भरतमुनि ने लिखा भी है – “शोरसैनम् समाश्रित्य भाषा कार्य तु नाटके।”
विद्वानों ने शौरसेनी प्राकृत का आधार भिन्न-भिन्न बताया है, जो निम्नलिखित है –
विद्वान् | शौरसेनी का आधार |
---|---|
वररुचि | संस्कृत (प्रकृतिः संस्कृतम) |
रामशर्मन | महाराष्ट्री (विरच्यते सम्प्रति शौरसेनी पूर्वेवभाषा प्रकृतिः किलास्याः) |
पुरुषोत्तम | संस्कृत तथा महाराष्ट्री (‘संस्कृतानुगमनाद् बहुलम’; तथा ‘शेषे महाराष्ट्री’) |
- वररुचि ने शौरसेनी प्राकृत को ही प्राकृत-भाषा का मूल जाना है (प्रकृतिः शौरसेनी-प्राकृत प्रकाश-10-2)।
पैशाची प्राकृत
- पैशाची प्राकृत को पैशाचिकी, पैशाचिका, ग्राम्य भाषा, भूतभाषा, भूतवचन, भूतभाषित आदि नामों से भी पुकारा जाता है।
- जॉर्ज ग्रियर्सन ने पैशाची भाषा-भाषी लोगों का आदि-वास-स्थान उत्तर-पश्चिम पंजाब अथवा अफगानिस्तान को माना है तथा इसे ‘दरद‘ से प्रभावित बताया।
- लक्ष्मीधर ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘षड् भाषा चंन्द्रिका’ में राक्षस, पिचाश तथा नीच पात्रों के लिए पैशाची भाषा का प्रयोग बतलाया है (रक्ष पिशाचनीचेषु पैशाची द्वितयं भवेत)।
- मार्कण्डेय ने ‘प्राकृत सर्वस्व’ में कैकय पैशाची, शौरसेन पैशाची और पाचाल पैशाची, इन तीन प्रकार की पैशाची भाषाओं का तीन देशों के आधार पर नामकरण किया है।
मागधी प्राकृत
- मागधी प्राकृत मगध देश की भाषा रही है। मार्कण्डेय ने शौरसेनी से मागधी की व्युत्पत्ति बतायी है। (मागधी शौरसेनीत:)।
- मागधी के शाकारी, चाण्डाली और शाबरी, ये तीन प्रकार मिलते हैं। मागधी प्राकृत का प्राचीनतम रूप अश्वघोष के नाटकों में मिलता है।
- भरतमुनि के अनुसार मागधी अन्त:पुर के नौकरों, अश्वपालों आदि की भाषा थी।
अर्धमागधी प्राकृत
- अर्धमागधी प्राकृत के सम्बन्ध में जॉर्ज ग्रियर्सन ने बताया कि यह मध्य देश (शूरसेन) और मगध के मध्यवर्ती देश (अयोध्या या कोसल) की भाषा थी।
- श्रीजिनदा सगणिमहत्तर (7वीं शताब्दी) ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘निशीथचुर्णि’ में अर्धमागधी को मगधदेश के अर्ध प्रदेश की भाषा में निबद्ध होने के कारण अर्धमागध कहा है (मगहद्ध विसयभाषा निबद्धं अद्धभागहं)।
- अर्धमागधी का प्रयोग मुख्यत: जैन-साहित्य में हुआ है। भगवान् महावीर का सम्पूर्ण धर्मोपदेश इसी भाषा में निबद्ध है।
- जैनियों ने अर्धमागधी को ‘आर्ष’, ‘आर्षी’, ‘ऋषिभाषा’ या ‘आदिभाषा’ नाम से भी अभिहित किया है।
- डॉ. जैकोबी ने प्राचीन जैन-सूत्रों की भाषा को प्राचीन महाराष्ट्री कहकर जैन महाराष्ट्री’ नाम दिया है।
- आचार्य विश्वनाथ ने ‘साहित्य दर्पण’ में अर्धमागधी को चेट, राजपूत एवं सेठों की भाषा बताया है।