हिन्दी साहित्य – काल विभाजन, वर्गीकरण, नामकरण और इतिहास

Hindi Sahitya

हिन्दी साहित्य (Hindi Sahitya) ने अपनी शुरुआत लोकभाषा कविता के माध्यम से की और गद्य का विकास बहुत बाद में हुआ। हिन्दी का आरम्भिक साहित्य 8वीं शताब्दी की अपभ्रंश भाषा में मिलता है। हिन्दी भारत और विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। उसकी जड़ें प्राचीन भारत की संस्कृत तक जातीं हैं। परन्तु मध्ययुगीन भारत के अवधी, मागधी, अर्धमागधी तथा मारवाड़ी जैसी भाषाओं के साहित्य को हिन्दी का आरम्भिक साहित्य माना जाता हैं।

हिन्दी साहित्य का इतिहास

हिन्दी में तीन प्रकार का साहित्य मिलता है- गद्य, पद्य और चम्पू। जो गद्य और पद्य दोनों में हो उसे चम्पू कहते है। खड़ी बोली की पहली रचना कौन सी है, इस विषय में विवाद है लेकिन अधिकांश साहित्यकार लाला श्रीनिवासदास द्वारा लिखे गये उपन्यास परीक्षा गुरु को हिन्दी की पहली प्रामाणिक गद्य रचना मानते हैं।

हिंदी साहित्य का आरम्भ आठवीं शताब्दी से माना जाता है। यह वह समय है जब सम्राट हर्ष की मृत्यु के बाद देश में अनेक छोटे-छोटे शासन केन्द्र स्थापित हो गए थे जो परस्पर संघर्षरत रहा करते थे। मुसलमानों से भी इनकी टक्कर होती रहती थी।

हिन्दी साहित्य के अब तक लिखे गए इतिहासों में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा लिखे गए ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास‘ को सबसे प्रामाणिक तथा व्यवस्थित इतिहास माना जाता है। आचार्य शुक्ल जी ने इसे “हिन्दी शब्दसागर की भूमिका” के रूप में लिखा था जिसे बाद में स्वतंत्र पुस्तक के रूप में 1929 ई० में प्रकाशित आंतरित कराया गया। आचार्य शुक्ल ने गहन शोध और चिन्तन के बाद हिन्दी साहित्य के पूरे इतिहास पर प्रकाश डाला है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की पुस्तक में लगभग 1000 कवियों के जीवन चरित्र का विवेचन किया गया है। कवियों की संख्या की अपेक्षा उनके साहित्यिक मूल्यांकन को महत्त्व प्रदान किया गया है अर्थात् हिन्दी साहित्य के विकास में विशेष योगदान देने वाले कवियों को इसमें शामिल किया गया है।

Table of Contents (विषय सूची)

  1. हिन्दी साहित्य का वर्गीकरण
  2. आदिकाल (वीरगाथा काल)
    1. सिद्ध साहित्य
    2. नाथ साहित्य
    3. जैन साहित्य
    4. चारणी साहित्य
    5. प्रकीर्णक साहित्य
    6. अपभ्रंश काव्य
    7. देशभाषा काव्य
    8. आदिकाल की फुटकर रचनाएँ
  3. भक्ति काल (पूर्व मध्यकाल)
    1. रामभक्ति काव्यधारा (रामाश्रयी शाखा)
    2. कृष्णभक्ति काव्यधारा (कृष्णाश्रयी शाखा)
    3. संत काव्यधारा (ज्ञानाश्रयी शाखा)
    4. सूफी काव्यधारा (ज्ञानाश्रयी शाखा)
    5. भक्तिकाल की फुटकर रचनाएँ
    6. भक्तिकाल के अन्य कवि
    7. आख्यान काव्य
  4. रीति काल (उत्तर मध्य काल)
    1. रीतिबद्ध कवि
    2. रीतिसिद्ध कवि
    3. रीतिमुक्त कवि
    4. रीतिकाल के अन्य कवि
  5. आधुनिक काल (गद्यकाल)
    1. भारतेंदु युग
    2. द्विवेदी युग
    3. छायावादी युग
    4. छायावादोत्तर युग (शुक्लोत्तर युग)
      1. प्रगतिवाद
      2. प्रयोगवाद
      3. नयी कविता
      4. नवगीत
    5. उपन्यास
    6. हिन्दी कहानी
    7. हिन्दी नाटक
    8. हिन्दी निबंध
  6. हिन्दी साहित्य के सर्वप्रथम कवि

वर्गीकरण, काल विभाजन और नामकरण

हिन्दी साहित्य का वर्गीकरण एवं काल विभाजन और नामकरण को लेकर विद्वानों के विविध मत रहे हैं। काल विभाजन के सम्बन्ध में सबसे पहला वर्गीकरण ‘जॉर्ज ग्रियर्सन‘ का है, जो हिन्दी साहित्यकारों ने अस्वीकार कर दिया। इनके अतिरिक्त मिश्रबंधुओं, रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामकुमार वर्मा, गणपति चंद्र गुप्त, रामखेलावन, डॉ नगेन्द्र, डॉ बच्चन और रामस्वरूप चतुर्वेदी ने भी हिन्दी साहित्य का वर्गीकरण और नामकरण किया है। इनमें सबसे प्रसिद्ध रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी का हिन्दी साहित्य काल वर्गीकरण एवं विभाजन है।

Griyarsan Ka Hindi Sahitya Kaal Vibhajan
जॉर्ज ग्रियर्सन का वर्गीकरण एवं काल विभाजन
Mishra Bandhuo Ka Hindi Sahitya Kaal Vibhajan
मिश्रबंधुओं का वर्गीकरण एवं काल विभाजन
Ramchandra Shukla Ka Hindi Sahitya Kal Vibhajan
रामचंद्र शुक्ल का वर्गीकरण एवं काल विभाजन
Hazari Prasad Dwivedi Ka Hindi Sahitya Kaal Vibhajan
हजारी प्रसाद द्विवेदी का वर्गीकरण एवं काल विभाजन
Aadarsh Kal Vibhajan
हिन्दी साहित्य का आदर्श काल विभाजन

हिन्दी साहित्य के विकास को अध्ययन की सुविधा के लिये चार ऐतिहासिक भागों में वर्गीकृत या विभाजित करते हैं, जो इस प्रकार हैं- ‘आदिकाल (वीरगाथा काल)’, ‘भक्ति काल (पूर्व मध्यकाल)’, ‘रीति काल (उत्तर मध्य काल)’ और ‘आधुनिक काल (गद्यकाल)’।

  1. आदिकाल (वीरगाथा काल) – 1000 ई. से 1350 ई. तक।
  2. भक्ति काल (पूर्व मध्यकाल) – 1350 ई. से 1650 ई. तक।
  3. रीति काल (उत्तर मध्य काल) – 1650 ई. से 1850 ई. तक।
  4. आधुनिक काल (गद्यकाल) – 1850 ई. से अब तक।
Hindi Sahitya Ka Vargikaran
वर्गीकरण चार्ट

1. आदिकाल या वीरगाथा काल (1000 ई० -1350 ई०)

हिन्दी साहित्य के इतिहास में लगभग 10वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के मध्य तक के काल को आदिकाल कहा जाता है। यह नाम (आदिकाल) डॉ॰ हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिला है।

आदिकाल को ग्रियर्सन ने “चारण काल“, मिश्र बंधु ने “प्रारंभिक काल“, महावीर प्रसाद द्विवेदी ने “बीज वपन काल“, शुक्ल ने आदिकाल को “वीरगाथा काल“, राहुल सांकृत्यायन ने सिद्ध “सामंत काल“, रामकुमार वर्मा ने “संधिकाल व चारण काल“, और हजारी प्रसाद द्विवेदी ने “आदिकाल” की संज्ञा दी है।

आदिकाल में तीन प्रमुख प्रवृतियां मिलती हैं- धार्मिकता, वीरगाथात्मकताश्रृंगारिकता

आदिकाल की कुछ प्रतिनिधि रचनाएँ ये हैं- (i) खुमान रासो (ii) वीसलदेव रासो (iii) पृथ्वीराज रासो (iv) खुसरो की रचनाएँ और विद्यापति की पदावली।

आदिकाल की भाषा में निम्न प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं :-

  • राजस्थानी मिश्रित अपभ्रंश (डिंगल)- वीरगाथात्मक रासक ग्रंथों में इस भाषा का स्वरूप देखने को मिलता है।
  • मैथिली मिश्रित अपभ्रंश– इस भाषा का स्वरूप विद्यापति की पदावली और कीर्तिलता में देखने को मिलता है।
  • खड़ीबोली मिश्रित देशभाषा– इसका सुंदर प्रयोग अमीर खुसरो की पहेलियों एवं मुकरियों में हुआ है।

आदिकाल में मुख्यत: तीन तरह की रचनाएँ पायीं गई हैं। जो निम्न हैं-

  1. ऐतिहासिक काव्य-रचनाएँ (वीरगाथात्मकता)
  2. शृंगारपरक काव्य-रचनाएँ (श्रृंगारिकता)
  3. लौकिक काव्य रचनाएँ (धार्मिकता)

आदिकालीन रचनाओं की प्रमुख प्रवृत्ति थी ऐतिहासिक काव्य की रचना करना, जिसमें ऐतिहासिक व्यक्ति को केंद्र में रखकर काव्य-रचनाएँ की जाती थीं। किसी राजा के वीरत्व का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन प्रमुख प्रवृत्ति थी।

आदिकालीन युग की वीरगाथाएँ दो काव्य-रूपों में प्राप्त होती हैं-

  1. प्रबंधकाव्य के साहित्यिक रूप में
  2. वीरगीतों के रूप में

इनमें प्रथम प्रवृत्ति का प्रतिनिधि ग्रंथ है चंदबरदाई का “पृथ्वीराज रासो” तथा द्वितीय प्रवृत्ति का प्रतिनिधि ग्रंथ है नरपति नाल्ह का “वीसलदेव रासो“।

आदिकाल का साहित्य मुख्यतः चार रूपों में मिलता है : 1. सिद्ध-साहित्य तथा नाथ-साहित्य, 2. जैन साहित्य, 3. चारणी-साहित्य, 4. प्रकीर्णक साहित्य

सिद्ध-साहित्य

सिद्धों का सम्बन्ध बौद्ध धर्म की वज्रयानी शाखा से है। ये भारत के पूर्वी भाग में सक्रिय थे। इनकी संख्या 84 मानी जाती है जिनमें सरहप्पा, शबरप्पा, लुइप्पा, डोम्भिप्पा, कुक्कुरिप्पा (कणहपा) आदि मुख्य हैं। सरहप्पा प्रथम सिद्ध कवि थे। सिद्ध कवि निरीश्वरवादी थे।

नाथ-साहित्य

नाथ साहित्य साहित्य के आरंभकर्ता गोरखनाथ हैं। गोरखनाथ को मिश्र बंधुओं ने हिन्दी का प्रथम गद्य लेखक माना हैं। नाथ कवि ईश्वरवादी थे।

सिद्धों के महासुखवाद के विरोध में नाथ पंथ का उदय हुआ। नाथों की संख्या नौ है। इनका क्षेत्र भारत का पश्चिमोत्तर भाग है। इन्होंने सिद्धों द्वारा अपनाये गये पंचमकारों का नकार किया। नारी भोग का विरोध किया। इन्होंने बाह्याडंबरों तथा वर्णाश्रम का विरोध किया और योगमार्ग तथा कृच्छ साधना का अनुसरण किया। ये ईश्वर को घट-घट वासी मानते हैं। ये गुरु को ईश्वर मानते हैं। नाथ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण गोरखनाथ हैं। इनकी रचना गोरखबाणी नाम से प्रकाशित है।

जैन साहित्य – जैन पुराण साहित्य

ऐतिहसिक जानकारी हेतु जैन साहित्य भी बौद्ध साहित्य की ही तरह महत्त्वपूर्ण हैं। अब तक उपलब्ध जैन साहित्य प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में मिलतें है। जैन साहित्य के विशेषज्ञ तथा अनुसन्धानपूर्ण लेखक अगरचन्द नाहटा थे। जैन साहित्य, जिसे ‘आगम‘ कहा जाता है, इनकी संख्या 12 बतायी जाती है। आगे चलकर इनके “उपांग” भी लिखे गये। आगमों के साथ-साथ जैन ग्रंथों में 10 प्रकीर्ण, 6 छंद सूत्र, एक नंदि सूत्र, एक अनुयोगद्वार,  एवं 4 मूलसूत्र हैं। इन आगम ग्रंथों की रचना सम्भवतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यो द्वारा महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद की गयी।

चारणी साहित्य

चारण साहित्य में, श्रृंगार और वीर मुख्य रस थे। इस समय की प्रख्यात रचनाओं में चंदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो, दलपति कृत खुमाण-रासो, नरपति-नाल्ह कृत बीसलदेव रासो, जगनिक कृत आल्ह खंड आदि मुख्य हैं।

चारण के संदर्भ ऋग्वेद, रामायण, महाभारत, और श्रीमद भागवद के साथ-साथ जैन प्रबंध में पाए जाते हैं। प्राचीन काल के संस्कृत के महान कवि-नाटककार कालिदास ने भी अपने शास्त्रीय नाटकों में चारण चरित्र प्रमुखता से दर्शाएँ है। डिंगल भाषा और साहित्य का अस्तित्व मुख्यतः चारणों के कारण है। इसके अंतर्गत चारण के अलावा ब्रह्मभट्ट और अन्य बन्दीजन कवि भी आते हैं। सौराष्ट्र, गुजरात और पश्चिमी राजस्थान में चारणों का, तथा ब्रज-प्रदेश, दिल्ली तथा पूर्वी राजस्थान में भट्टों का प्राधान्य रहा था।

हिंदी के आदिकालीन साहित्य में प्रचुर परिमाण में चारण काव्य लिखा गया था। चारण कवि प्राय: राजा के दरबार या उनके संरक्षण में रहते थे, बहुधा उनके साथ युद्ध में भी भाग लेते थे और अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में काव्य रचना किया करते थे। ये काव्य डिंगल अथवा राजस्थानी में मिलते हैं। इन भाषाओं को डिंगल और पिंगल नाम भी मिले हैं।

प्रकीर्णक साहित्य

अमीर खुसरो इस समय के प्रमुख कवि है। ये खड़ी बोली के कवि माने जाते हैं। खुसरो की पहेलियां और मुकरियां प्रख्यात हैं। मैथिल-कोकिल विद्यापति भी इसी समय के अंतर्गत हुए हैं। विद्यापति के मधुर पदों के कारण इन्हें ‘अभिनव जयदेव‘ भी कहा जाता है। मैथिली और अवहट्ट में भी इनकी रचनाएं मिलती हैं। इनकी पदावली का मुख्य रस श्रृंगार माना गया है। अब्दुल रहमान कृत ‘संदेश रासक‘ भी इसी समय की एक सुंदर रचना है। इस छोटे से प्रेम-संदेश-काव्य की भाषा अपभ्रंश से अत्यधिक प्रभावित होने से कुछ विद्वान इसको हिंदी की रचना न मानकर अपभ्रंश की रचना मानते हैं।

अपभ्रंश काव्य

हिंदी साहित्य के इतिहास में ईसा की आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी तक का काल अपभ्रंश का काल माना जाता है। इस काल में अपभ्रंश भाषा साहित्य का एक अन्यतम माध्यम बनी हुई थी। संपूर्ण भारतवर्ष में अपभ्रंश में रचनाएँ हो रही थीं।

ऐतिहासिक दृष्टि से अपभ्रंश के प्रथम कवि ‘स्वयंभू’ माने जाते हैं। दूसरे प्रमुख कवि हैं पुष्यदंत। ऐसे ही धनपाल तथा चंदमुनि कवि भी महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। अपभ्रंश के दो काव्य-ग्रंथ स्वयंभू लिखित ‘रामायण’ तथा पुष्पदंत लिखित ‘महापुराण’ की गणना सुंदर ग्रंथों में की जाती है।

संपूर्ण भारतीय साहित्य में इन दोनों ग्रंथों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। सरहपा, कण्हपा, हेमचंद्र, जिनदत्त, शालिभद, राजशेखर तथा अब्दुल रहमान इस काल के विशिष्ट कवि माने जाते हैं। शाङर्गधर (हम्मीर रासो) तथा विद्यापति (कीर्ति लता, कीर्ति पताका, पदावली, गंगाकाव्यावली) भी इसी काल में महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिख चुके थे।

देशभाषा काव्य

देश भाषा काव्य को रासो साहित्य भी कहते हैं। इसकी प्रतिनिधि रचनाएं निम्नलिखित हैं:

परमाल रासो/आल्हखण्ड (आल्हा छंद)- जगनिक ने आल्ह-खण्ड नामक एक काव्य रचा था उसमें इन वीरों की 52 लड़ाइयों की गाथा वर्णित है। आदिकाल में आल्हा छंद बहुत प्रचलित था यह वीर रस का बड़ा ही लोकप्रिय छंद था। दोहा, रासा, तोमर, नाराच , पद्धति, अरिल्ल, आदि छंदों का प्रयोग आदिकाल में मिलता है। आल्हा मध्यभारत में स्थित एतिहासिक बुंदेलखण्ड के सेनापति थे और अपनी वीरता के लिए विख्यात थे। आल्हा के छोटे भाई का नाम ऊदल था और वह भी वीरता में अपने भाई से बढ़कर ही था।

जगनिक (1173 ई.) महोबा के चन्देल राजा परमार्दिदेव (परमाल 1165-1203ई.) के समकालीन जिझौतिया नायक परिवार में जन्मे कवि थे इनका पूरा नाम जगनिक नायक था। जिन्होंने महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों आल्हा और ऊदल (उदयसिंह) के वीरचरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था। इसे जनता ने इतना अपनाया और उत्तर भारत में इसका इतना प्रचार हुआ। परन्तु इसके बाद भी मूल काव्य संभवत: लुप्त हो गया। विभिन्न बोलियों में इसके भिन्न-भिन्न स्वरूप मिलते हैं। अनुमान है कि मूलग्रंथ बहुत बड़ा रहा होगा। 1865 ई. में फर्रूखाबाद के कलक्टर सर चार्ल्स इलियट ने ‘आल्ह खण्ड’ नाम से इसका संग्रह कराया जिसमें जिहुती हिंदवी भाषा की बहुलता है।

खुमान रासो– “दलपतविजय” भारतीय कवि था, जिसे खुमान रासो का रचयिता माना गया है। खुमान रासो नवीं शताब्दी की रचना मानी जाती है। इसमें नवीं शती के चित्तौड़ नरेश खुमाण के युद्धों का चित्रण है। तत्कालीन राजाओं के सजीव वर्णन, उस समय की परिस्थितियों के यथार्थ ज्ञान तथा आरंभिक हिंदी रूप के प्रयोग से इसके नवीं सदी की रचना होने का अनुमान किया जाता है। इसका रचयिता दलपत विजय को माना जाता है। इस ग्रंथ की प्रामाणिक हस्तलिखित प्रति पूना के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। यह पांच हजार छंदों का विशाल काव्य ग्रंथ है। राजाओं के युद्धों और विवाहों के सरल वर्णनों से इस काव्य की भावभूमि का विस्तार हुआ है। वीर रस के साथ-साथ शृंगार रस की भी प्रधानता है। इसमें दोहा, सवैया, कवित्त आदि छंद प्रयुक्त हुए है तथा इसकी भाषा राजस्थानी हिंदी है।

बीसलदेव रासो– “बीसलदेव रासो” पुरानी पश्चमी राजस्थानी की एक सुप्रसिद्ध रचना है। इसके रचनाकार नरपति नाल्ह हैं। इस रचना में उन्होंने कहीं पर स्वयं को “नरपति” कहा है और कहीं पर “नाल्ह”। सम्भव है कि नरपति उनकी उपाधि रही हो और “नाल्ह” उनका नाम हो। बीसलदेव रासो” की रचना चौदहवीं शती विक्रमी की मानी जाती है। बीसलदेव एक प्रतापशाली राजा एवं संस्कृत के अच्छे कवि थे। उन्होंने अपना ‘हरकेलिविजय’ नाटक शिलापट्टों पर खुदवाया तथा राजकवि सोमदेव ने ललित विग्रह नामक नाटक भी लिखा।

पृथ्वीराज रासो– “चंदबरदाई” (1148 ई०- 1192 ई०) हिन्दी के प्रथम महाकवि माने जाते हैं और इनका पृथ्वीराजरासो हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है। चंदबरदाई का जन्म लाहौर में एक राव भट्ट परिवार में हुआ था।  चंद दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट, महाराजा पृथ्वीराज के सामंत और राजकवि प्रसिद्ध हैं।

रणमल्ल छंद– “श्रीधर” ने 1397 ई० में ‘रणमल्ल छंद’ नामक एक काव्य रचा जिसमें राठौर राजा रणमल्ल की उस विजय का वर्णन है जो उसने पाटन के सूबेदार जफर खाँ पर प्राप्त की थी।

जयचंद प्रकाश– “भट्ट केदार” ने ‘जयचंदप्रकाश’ नाम का एक महाकाव्य लिखा था जिसमें महाराज जयचंद के प्रताप और पराक्रम का विस्तृत वर्णन था।

जयमयंक जस चंद्रिका– “मधुकर कवि” ने ‘जयमयंकजसचंद्रिका’ नाम का एक महाकाव्य लिखा था जिसमें महाराज जयचंद के प्रताप और पराक्रम का वर्णन था।

जयचंदप्रकाश और जयमयंकजसचंद्रिका, दोनों ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं हैं। केवल इनका उल्लेख सिंघायच दयालदास कृत ‘राठौड़ाँ री ख्यात’ में मिलता है जो बीकानेर के राज-पुस्तक-भंडार में सुरक्षित है। इस ख्यात में लिखा है कि दयालदास ने आदि से लेकर कन्नौज तक का वृत्तांत इन्हीं दोनों ग्रंथों के आधार पर लिखा है।

आदिकाल की फुटकर रचनाएँ

आदिकाल के फुटकल कवियों में दिल्ली के खुसरो मियाँ और तिरहुत के विद्यापति प्रमुख हैं। इनके पहले की जो कुछ संदिग्ध, असंदिग्ध सामग्री मिलती है, उस पर प्राकृत की रूढ़ियों का थोड़ा या बहुत प्रभाव अवश्य पाया जाता है।

अमीर खुसरो की “पहेलियाँ“, “मुकरी” और “दो सखुन” और विद्यापति की “पदावली” जैसी फुटकर (विविध) रचनाएँ भी इस काल में मिलती हैं। इन्होंने ये रचनाएं वीरगाथा काल के अंतिम समय में लिखी थीं।

पश्चिम की बोलचाल, गीत, मुख प्रचलित पद्य आदि का नमूना जिस प्रकार हम खुसरो की कृति में पाते हैं, उसी प्रकार बहुत पूरब का नमूना विद्यापति की पदावली में। उसके बाद फिर भक्तिकाल के कवियों ने प्रचलित देशभाषा और साहित्य के बीच पूरा-पूरा सामंजस्य घटित कर दिया।

2. पूर्व-मध्यकाल या भक्तिकाल (1350 ई० – 1650 ई०)

हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्ति काल महत्वपूर्ण स्थान रखता है। आदिकाल के बाद आये इस युग को ‘पूर्व मध्यकाल‘ भी कहा जाता है। कुछ एक विद्वान इसकी समयावधि 1375 वि.सं से 1700 वि.सं तक बताते हैं। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है जिसको जॉर्ज ग्रियर्सन ने स्वर्णकाल, श्यामसुन्दर दास ने स्वर्णयुग, आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने भक्ति काल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक जागरण कहा। सम्पूर्ण साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इसी में प्राप्त होती हैं।

दक्षिण में आलवार बंधु नाम से कई प्रख्यात भक्त हुए हैं। इनमें से कई तथाकथित नीची जातियों के भी थे। वे बहुत पढे-लिखे नहीं थे, परंतु अनुभवी थे। आलवारों के पश्चात दक्षिण में आचार्यों की एक परंपरा चली जिसमें रामानुजाचार्य प्रमुख थे। रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानंद हुए। उनका व्यक्तित्व असाधारण था। वे उस समय के सबसे बड़े आचार्य थे। उन्होंने भक्ति के क्षेत्र में ऊंच-नीच का भेद तोड़ दिया। सभी जातियों के अधिकारी व्यक्तियों को आपने शिष्य बनाया। उस समय का सूत्र हो गयाः

जाति-पांति पूछे नहिं कोई।
हरि को भजै सो हरि का होई।।

रामानंद ने विष्णु के अवतार राम की उपासना पर बल दिया। रामानंद ने और उनकी शिष्य-मंडली ने दक्षिण की भक्तिगंगा का उत्तर में प्रवाह किया। समस्त उत्तर-भारत इस पुण्य-प्रवाह में बहने लगा। भारत भर में उस समय पहुंचे हुए संत और महात्मा भक्तों का आविर्भाव हुआ।

महाप्रभु वल्लभाचार्य ने पुष्टि-मार्ग की स्थापना की और विष्णु के कृष्णावतार की उपासना करने का प्रचार किया। उनके द्वारा जिस लीला-गान का उपदेश हुआ उसने देशभर को प्रभावित किया। अष्टछाप के सुप्रसिध्द कवियों ने उनके उपदेशों को मधुर कविता में प्रतिबिंबित किया।

इसके उपरांत माध्व तथा निंबार्क संप्रदायों का भी जन-समाज पर प्रभाव पड़ा है। साधना-क्षेत्र में दो अन्य संप्रदाय भी उस समय विद्यमान थे। नाथों के योग-मार्ग से प्रभावित संत संप्रदाय चला जिसमें प्रमुख व्यक्तित्व संत कबीरदास का है। मुसलमान कवियों का सूफीवाद हिंदुओं के विशिष्टाद्वैतवाद से बहुत भिन्न नहीं है। कुछ भावुक मुसलमान कवियों द्वारा सूफीवाद से रंगी हुई उत्तम रचनाएं लिखी गईं।

भक्तिकाल के कवियों में सूरदास, संत शिरोमणि रविदास, ध्रुवदास, रसखान, व्यासजी, स्वामी हरिदास, मीराबाई, गदाधरभट्ट, हितहरिवंश, गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास, कुंभनदास, परमानंद, कृष्णदास, श्रीभट्ट, सूरदास, मदनमोहन, नंददास, चैतन्य महाप्रभु आदि कवि आते हैं।

भक्ति-युग की चार प्रमुख काव्य-धाराएं मिलती हैं :

  • सगुण भक्ति– सगुण काव्य धारा के कवि ईश्वर के सगुण अर्थात साकार रूप की आराधना करते थे। सगुण काव्य धारा के कवियों को मुख्यतः दो भागों में वर्गीकृत किया गया है।
    1. रामाश्रयी शाखा (रामभक्ति काव्यधारा)
    2. कृष्णाश्रयी शाखा (कृष्णभक्ति काव्यधारा)
  • निर्गुण भक्ति– निर्गुण काव्य धारा के कवि ईश्वर में निर्गुण अर्थात निराकार रूप की आराधना करते थे। निर्गुण काव्य धारा के कवियों को दो भागों में वर्गीकृत किया गया है।
    1. ज्ञानाश्रयी शाखा (संत काव्यधारा)
    2. प्रेमाश्रयी शाखा (सूफी काव्यधारा)

राम काव्य धारा के प्रमुख कवि

तुलसीदास– तुलसीदास को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। इन्होंने रामकथा को अवधी रूप दे कर घर घर मे प्रसारित कर दिया। इनका जन्म काल विवादित रहा है।

तुलसीदास के कुल 13 ग्रंथ मिलते हैं:- 1. दोहावली, 2. कवितावली, 3. गीतावली, 4.कृष्ण गीतावली, 5. विनय पत्रिका, 6. राम लला नहछू, 7. वैराग्य-संदीपनी, 8. बरवै रामायण, 9. पार्वती मंगल, 10. जानकी मंगल, 11.हनुमान बाहुक, 12. रामाज्ञा प्रश्न, 13. रामचरितमानस।

नाभादास– अग्रदास जी के शिष्य, बड़े भक्त और साधुसेवी थे। संवत् 1657 के लगभग वर्तमान थे और गोस्वामी तुलसीदास जी की मृत्यु के बहुत पीछे तक जीवित रहे।

नाभादास की 3 रचनाए उपलब्ध हैं:– 1. रामाष्टयाम, 2. भक्तमाल, 3. रामचरित संग्रह।

स्वामी अग्रदास– अग्रदास जी कृष्णदास पयहारी के शिष्य थे जो रामानंद की परंपरा के थे। सन् १५५६ के लगभग वर्तमान थे। इनकी बनाई चार पुस्तकों का पता है।

स्वामी अग्रदास की प्रमुख कृतियां है– 1. हितोपदेश उपखाणाँ बावनी, 2. ध्यानमंजरी, 3. रामध्यानमंजरी, 4. राम-अष्ट्याम।

कृष्ण काव्यधारा के प्रमुख कवि

सूरदास– सूरदास कृष्णभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं। सूरदास नेत्रहीन थे। इनका जन्म 1478 में हुआ था तथा मृत्यु 1573 में हुई थी। इनके पद गेय हैं। इनकी रचनाएं 3 पुस्तकों में संकलित हैं।

  1. सूर सारावली- इसमें 1103 पद हैं।
  2. साहित्य लहरी।
  3. सूरसागर- इसमें 12 स्कंध हैं और सवा लाख पद थे किंतु अब 45000 पद ही मिलते हैं। इसका आधार श्रीमद भागवत पुराण है।

कुंभनदास– कुंभनदास अष्टछाप के प्रमुख कवि हैं। जिनका जन्म 1468 में गोवर्धन, मथुरा में हुआ था तथा मृत्यु 1582 में हुई थी। इनके फुटकल पद ही मिलते हैं।

नंददास– नंददास 16वी शती के अंतिम चरण के कवि थे। इनका जन्म 1513 में रामपुर हुआ था तथा मृत्यु 1583 में हुई थी। इनकी भाषा ब्रज थी। नंददास की 13 रचनाएं प्राप्त हैं।

नंददास की प्रमुख रचनाएँ हैं- 1. रासपंचाध्यायी, 2. सिद्धांत पंचाध्यायी, 3. अनेकार्थ मंजरी, 4. मानमंजरी, 5. रूपमंजरी, 6. विरहमंजरी, 7. भँवरगीत, 8. गोवर्धनलीला, 9. श्यामसगाई, 10. रुक्मिणीमंगल, 11. सुदामाचरित, 12. भाषादशम-स्कंध, 13. पदावली।

रसखान– इनका असली नाम सैय्यद इब्राहिम था। इनका जन्म हरदोई में 1533 से 1558 के बीच हुआ था। इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन कृष्णभक्ति को समर्पित कर दिया था। इन्हें प्रेम रस की खान कहा जाता है।

रसखान की प्रमुख रचनाएँ हैं- 1. सुजान रसखान, 2. प्रेमवाटिका।

मीरा– मीराबाई स्वयं ही एक लोकनायिका हैं।इनका जन्म1498 में हुआ था तथा मृत्यु 1547 में। इन्होंने मध्य काल में स्त्रियों की पराधीन बेड़ियों को तोड़ कर स्वतंत्र हो कर कृष्णप्रेम का प्रदर्शन करने का साहस किया। इन्होंने सामाजिक और पारिवारिक दस्तूरों का बहादुरी से मुकाबला किया और कृष्ण को अपना पति मानकर उनकी भक्ति में लीन हो गयीं। उनके ससुराल पक्ष ने उनकी कृष्ण भक्ति को राजघराने के अनुकूल नहीं माना और समय-समय पर उनपर अत्याचार किये।

मीरा स्वयं को कृष्ण की प्रेयसी मानती हैं, तथा अपने सभी पदों में उसी तरह व्यवहार करती हैं। इनके मृत्यु को ले कर कई किवंदतियां प्रसिद्ध हैं। इनके सभी पद गेय हैं। इनकी रचनाएँ मीराबाई पदावली में संग्रहित हैं।

संत काव्य धारा के कवि

कबीरदास– कबीर सन्त परम्परा के प्रमुख और प्रतिनिधि कवि है। इनके जन्म के विषय मे प्रामाणित साक्ष्य उपलब्ध नही है। जनश्रुतियों के अनुसार कबीर का जन्म 1398 ई0 मे और मृत्यु 1518 ई0 मे हुई। कबीर नीरु और नीमा नामक जुलाहा दम्पति को तालाब की किनारे मिले थे। इन्होंने बच्चे का लालन – पालन किया। यही बच्चा बाद मे बडा होकर कबीर के नाम से जाना गया। कबीर के गुरु रामानन्द थे।

कबीर अनपढ थे। उनके शिष्यो ने कबीर की वाणीको सजोकर रखा तथा बाद मे पुस्तक का आकार दिया। इनकी रचना ‘बीजक’ नाम से जानी जाती है। कबीर ने जीवन भर धार्मिक तथा सामाजिक अंधविश्वासो का तीखा विरोध किया तथा समाजिक बुराइयों का भी विरोध किया।

रामानन्द– रामानन्द जी के आविर्भाव काल , निधन काल , जीवन चरित आदि के सम्बंध मे कोई प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं है। ये लगभग 15 वीं शती के उत्तार्द्ध मे हुए थे। इनकी शिक्षा-दीक्षा काशी मे हुआ। ये रामानुजाचार्य परम्परा के शिष्य थे।

नामदेव– नामदेव महाराष्ट्र के भक्त के रुप मे प्रसिद्ध है। सतारा जिले के नरसी बैनी गांव मे सन् 1267 ई0 मे इनका जन्म हुआ था। इनके गुरु का नाम सन्त विसोवा खेवर था। नामदेव मराठी और हिंदी दोनो भाषाओ मे भजन गाते थे। उन्होने हिन्दू और मुस्लमान की मिथ्या रूढियों का विरोध किया।

सूफी काव्य धारा के प्रमुख कवि

मलिक मुहम्मद जायसी– जायसी का जन्म 1492 ई0 के लगभग हुआ था। रायबरेली जिले के जायस नामक स्थान पर जन्म लेने वाले मलिक मुहम्मद जायसी के बचपन का नाम मलिक शेख मुंसफी था। जायस के निवासी होने कारण वे जायसी कहलाते थे। मलिक मुहम्मद जायसी सूफी काव्य धारा (प्रेममार्गी शाखा) के प्रतिनिधि कवि है। इन्होंने पद्मावत, अखरावट, आखिरी कलाम, चित्ररेखा आदि रचनाएं लिखीं।

मुल्ला दाउद– सूफी कवि मुल्ला दाउद की रचना ‘चन्दायन’ है। इस ग्रंथ की रचना 1379 ई0 मे हुई थी। यह प्रेमाख्यानक परम्परा का दूसरा काव्य है।

कुतुबन– कुतुबन की रचना ‘मृगावती’ है। जिसका रचना काल 1503 ई0 है। ये चिश्ती वंश के शेख बुरहान के शिष्य थे, तथा जौनपुर के बादशाह हुसैनशाह के आश्रित थे। यह ग्रन्थ अवधी भाषा मे लिखा गया है।

भक्तिकाल की फुटकर रचनाएँ

पंचसहेली– “छीहल” राजपूताने कवि थे। संवत् 1575 में इन्होंने ‘पंचसहेली’ नाम की एक छोटी सी पुस्तक दोहों में राजस्थानी मिली भाषा में बनाई जो कविता की दृष्टि से अच्छी नहीं कही जा सकती। इसमें पाँच सखियों की विरह वेदना का वर्णन है।

हरिचरित‘ और ‘भागवत दशम स्कंध भाषा‘- “लालचदास” रायबरेली के एक हलवाई थे। इन्होंने संवत् 1585 में ‘हरिचरित’ और संवत् 1587 में ‘भागवत दशम स्कंध भाषा’ नाम की पुस्तक अवधी मिली भाषा में बनाई। ये दोनों पुस्तकें काव्य की दृष्टि से सामान्य श्रेणी की हैं और दोहे चौपाइयों में लिखी गई हैं। ‘दशम स्कंध भाषा’ का उल्लेख हिंदुस्तानी के फारसी विद्वान गार्सां द तासी ने किया है और लिखा है कि उसका अनुवाद फारसी भाषा में हुआ है।

हिततरंगिणी– “कृपाराम” का कुछ वृत्तांत ज्ञात नहीं। इन्होंने संवत् 1598 में रसरीति पर ‘हिततरंगिणी’ नामक ग्रंथ दोहों में बनाया। रीति या लक्षण ग्रंथों में यह बहुत पुराना है।

रुक्मिणीमंगल‘, ‘छप्पय नीति‘ और ‘कवित्तसंग्रह‘- “महापात्र नरहरि बंदीजन” का जन्म संवत् 1562 में और मृत्यु संवत् 1667 में कही जाती है। महापात्र की उपाधि इन्हें अकबर के दरबार से मिली थी। ये असनी फतेहपुर के रहनेवाले थे और अकबर के दरबार में इनका बहुत मान था। नरहरि बंदीजन के दो ग्रंथ परंपरा से प्रसिद्ध हैं ‘रुक्मिणीमंगल’ और ‘छप्पय नीति’। एक तीसरा ग्रंथ ‘कवित्तसंग्रह’ भी खोज में मिला है।

सुदामाचरित्र‘ और ‘ध्रुवचरित‘- “नरोत्तमदास” सीतापुर जिले के वाड़ी नामक कस्बे के रहनेवाले थे। नरोत्तमदास का ‘सुदामाचरित्र’ ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध है। इसमें घर की दरिद्रता का बहुत ही सुंदर वर्णन है। नरोत्तमदास ने खंडकाव्य ‘ध्रुवचरित’ भी लिखा है।

माधावानल कामकंदला– “आलम” अकबर के समय के एक मुसलमान कवि थे जिन्होंने ‘माधावानल कामकंदला’ नाम की प्रेमकहानी दोहा चौपाई में लिखी।

शतप्रश्नोत्तारी– “मनोहर” एक कछवाहे सरदार थे जो अकबर के दरबार में रहा करते थे। शिवसिंहसरोज में लिखा है कि ये फारसी और संस्कृत के अच्छे विद्वान थे और फारसी कविता में अपना उपनाम ‘तौसनी’ रखते थे। इन्होंने ‘शतप्रश्नोत्तारी’ नाम की पुस्तक बनाई है तथा नीति और श्रृंगाररस के बहुत से फुटकल दोहे कहे हैं। इनका कविताकाल संवत् 1620 के आगे माना जा सकता है। इनके शृंगारिक दोहे मार्मिक और मधुर हैं पर उनमें कुछ फारसीपन के छींटे मौजूद हैं।

नखशिख– “बलभद्र मिश्र”ओरछा के सनाढय ब्राह्मण पं. काशीनाथ के पुत्र और प्रसिद्ध कवि केशवदास के बड़े भाई थे। इनका जन्मकाल संवत् 1600 के लगभग माना जा सकता है। इनका ‘नखशिख’ श्रृंगार का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसमें इन्होंने नायिका के अंगों का वर्णन उपमा, उत्प्रेक्षा, संदेह आदि अलंकारों के प्रचुर विधान द्वारा किया है। संवत् 1891 में गोपाल कवि ने बलभद्र कृत नखशिख की एक टीका लिखी जिसमें उन्होंने बलभद्र कृत तीन और ग्रंथों का उल्लेख किया है,”बलभद्री व्याकरण“, “हनुमन्नाटक” और “गोवर्ध्दनसतसई” टीका। पुस्तकों की खोज में इनका ‘दूषणविचार‘ नाम का एक और ग्रंथ मिला है जिसमें काव्यदोषों का निरूपण है।

भक्तिकाल के अन्य कवि

महाराज टोडरमल– टोडरमल अकबर के नवरत्नों में से थे। टोडरमल का जन्म 1 जनवरी 1500, लहरपुर में हुआ था यह सीतापुर(उत्तर प्रदेश) जिले में स्थित था। अकबर के समय से प्रारंभ हुई भूमि पैमाइश का आयोजन टोडरमल के द्वारा ही किया गया था। ये कुछ दिनों तक बंगाल के सूबेदार भी थे। ये जाति के खत्री थे। निधन: 08 नवम्बर 1589, लाहौर, पाकिस्तान में हुआ। इनकी कोई पुस्तक तो नहीं मिलती, फुटकल कवित्त इधर उधर मिलते हैं। जैसे-

जार को विचार कहाँ, गनिका को लाज कहाँ,
गदहा को पान कहाँ, ऑंधारे को आरसी।
निगुनी को गुन कहाँ, दान कहाँ दारिद को।
सेवा कहाँ सूम की अरंडन की डार सी,
मदपी को सुचि कहाँ, साँच कहाँ लंपट को,
नीच को बचन कहाँ स्यार की पुकार सी।
टोडर सुकवि ऐसे हठी तौ न टारे टरै,
भावै कहाँ सूधी बात भावै कहाँ फारसी।

महाराज बीरबल– बीरबल, मुग़ल बादशाह अकबर के मुख्य सलाहकार थे। बीरबल का मुग़ल साम्राज्य के साथ घनिष्ट संबंध था, इसीलिये उन्हें मुग़ल शासक अकबर के नवरत्नों में से एक कहा जाता था। बीरबल भारतीय इतिहास में उनकी चतुराई के लिये जाने जाते है, और उनपर लिखित काफी कहानिया भी हमे देखने को मिलती, जिसमे बताया गया है की कैसे बीरबल चतुराई से अकबर की मुश्किलो को हल करते थे। बीरबल की व्यंग्यपूर्ण कहानियों और काव्य रचनाओं ने उन्हें प्रसिद्ध बनाया था। इनकी कोई पुस्तक नहीं मिलती है, पर कई सौ कवित्तों का एक संग्रह भरतपुर में है। इनकी, रचना अलंकार आदि काव्यांगों से पूर्ण और सरस होती थी। कविता में ये अपना नाम ब्रह्म रखते थे। जैसे-

उछरि उछरि भेकी झपटै उरग पर,
उरग पै केकिन के लपटै लहकि हैं।
केकिन के सुरति हिए की ना कछू है, भए,
एकी करी केहरि, न बोलत बहकि है।
कहै कवि ब्रह्म वारि हेरत हरिन फिरैं,
बैहर बहत बड़े जोर सो जहकि हैं।
तरनि कै तावन तवा सी भई भूमि रही,
दसहू दिसान में दवारि सी दहकि है

गंग– गंग अकबर के दरबारी कवि थे और रहीम खानखाना इन्हें बहुत मानते थे। गंग कवि के जन्मकाल तथा कुल आदि का ठीक वृत्त ज्ञात नहीं। कुछ लोग इन्हें ब्राह्मण कहते हैं, पर अधिकतर ये ‘ब्रह्मभट्ट’ ही प्रसिद्ध हैं। ऐसा कहा जाता है कि किसी नवाब या राजा की आज्ञा से इन्हें हाथी के पाँव से कुचलवा दिया था और उसी समय मरने के पहले इन्होंने यह दोहा कहा था –

कबहुँ न भड़घआ रन चढ़े, कबहुँ न बाजी बंब।
सकल सभाहि प्रनाम करि, बिदा होत कवि गंग

गंग अपने समय के प्रधान कवि माने जाते थे। इनकी कोई पुस्तक अभी नहीं मिली है। पुराने संग्रह ग्रंथों में इनके बहुत-से कवित्त मिलते हैं। सरल हृदय के अतिरिक्त वाग्वैदग्ध्य भी इनमें प्रचुर मात्रा में था। वीर और श्रृंगार रस के बहुत ही रमणीक कवित्त इन्होंने कहे हैं। कुछ अन्योक्तियाँ भी बड़ी मार्मिकहैं। हास्यरस का पुट भी बड़ी निपुणता से ये अपनी रचना में देते थे। घोर अतिशयोक्तिपूर्ण वस्तुव्यंग्य पद्ध ति पर विरहताप का वर्णन भी इन्होंने किया है। उस समय की रुचिको रंजित करने वाले सब गुण इनमें वर्तमान थे, इसमें कोई संदेह नहीं। इनका कविताकाल विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी का अंत मानना चाहिए। रचना के कुछ नमूने देखिए-

बैठी थी सखिन संग, पिय को गवन सुन्यो,
सुख के समूह में बियोग-आगि भरकी।
गंग कहै त्रिाविधा सुगंधा कै पवन बह्यो,
लागत ही ताके तन भई बिथा जर की
प्यारी को परसि पौन गयो मानसर कहँ,
लागत ही औरे गति भई मानसर की।
जलचर जरे और सेवार जरि छार भयो,
तल जरि गयो, पंक सूख्यो भूमि दरकी

जमाल– भारतीय काव्यपरंपरा से पूर्णत: परिचित सहृदय मुसलमान कवि थे, जिनका रचनाकाल लगभग संवत 1627 अनुमानित किया गया है। इनके नीति और श्रृंगार के दोहे राजपूताने की तरफ बहुत जनप्रिय हैं। इन्होंने कुछ पहेलियाँ भी अपने दोहों में रखी हैं –

पूनम चाँद, कुसूँभ रँग नदी तीर द्रुम डाल।
रेत भीत, भुस लीपणो ए थिर नहीं जमाल
रंग ज चोल मजीठ का संत वचन प्रतिपाल।
पाहण रेख रु करम गत ए किमि मिटैं जमाल
जमला ऐसी प्रीति कर जैसी केस कराय।
कै काला, कै ऊजला जब तब सिर स्यूँ जाय
मनसा तो गाहक भए नैना भए दलाल।
धानी बसत बेचै नहीं किस बिधा बनै जमाल
बालपणे धौला भया तरुणपणे भया लाल।
वृद्ध पणे काला भया कारण कोण जमाल
कामिण जावक रँग रच्यो दमकत मुकता कोर।
इम हंसा मोती तजे इम चुग लिए चकोर।

केशवदास– ये सनाढय ब्राह्मण कृष्णदत्ता के पौत्र और काशीनाथ के पुत्र थे। इनका जन्म संवत् 1612 में और मृत्यु 1674 के आसपास हुई। ओरछा नरेश महाराजा रामसिंह के भाई इंद्रजीत सिंह की सभा में ये रहते थे, जहाँ इनका बहुत मान था।  केशव ने अलंकारों पर ‘कविप्रिया’ और रस पर ‘रसिकप्रिया’ लिखी। ये काव्य में अलंकार का स्थान प्रधान समझने वाले चमत्कारवादी कवि थे जैसा कि इन्होंने स्वयं कहा है-

जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरस सुवृत्त।
भूषन बिनु न बिराजई, कविता बनिता मित्ता।

केशव के रचे सात ग्रंथ मिलते हैं- कविप्रिया, रसिकप्रिया, रामचंद्रिका, वीरसिंहदेवचरित, विज्ञानगीता, रतनबावनी और जहाँगीरजसचंद्रिका।

अब्दुर्रहीम खानखाना– रहीम अकबर बादशाह के अभिभावक प्रसिद्ध मुगल सरदार बैरम खाँ के पुत्र थे। इनका जन्म संवत् 1610 में हुआ। अकबर के समय में ये प्रधान सेनानायक और मंत्री थे और अनेक बड़े बड़े युध्दों में भेजे गए थे। अब्दुर्रहीम खानखाना संस्कृत, अरबी और फारसी के पूर्ण विद्वान और हिन्दी काव्य के पूर्ण मर्मज्ञ कवि थे।

लड़ाई में धोखा देने के अपराध में एक बार जहाँगीर के समय इनकी सारी जागीर जब्त हो गई और कैद कर लिए गए। कैद से छूटने पर इनकी आर्थिक अवस्था कुछ दिनों तक बड़ी हीन रही। गंग कवि को इन्होंने एक बार ३६ लाख रुपये दे डाले थे। अपनी दरिद्रता का दुख वास्तव में इन्हें उसी समय होता था जिस समय इनके पास कोई याचक जा पहुँचता और ये उसकी यथेष्ट सहायता नहीं कर सकते थे। अपनी अवस्था के अनुभव की व्यंजना इन्होंने इस दोहे में की है-

तबही लौं जीबो भलो देबौ होय न धीम।
जग में रहिबो कुचित गति उचित न होय रहीम।

गोस्वामी तुलसीदास जी से रहीम का बड़ा स्नेह था। ऐसी जनश्रुति है कि एक बार एक ब्राह्मण अपनी कन्या के विवाह के लिए धान न होने से घबराया हुआ गोस्वामी जी के पास आया। गोस्वामी जी ने उसे रहीम के पास भेजा और दोहे की यह पंक्ति लिखकर दे दी-

‘सुरतिय नरतिय नागतिय यह चाहत सब कोय।’

रहीम ने उस ब्राह्मण को बहुत सा द्रव्य देकर विदा किया और दोहे की दूसरी पंक्ति इस प्रकार पूरी करके दे दी,

‘गोद लिये हुलसी फिरै तुलसी सो सुत होय।’

रहीम ने ‘वाकयात बाबरी’ का तुर्की से फारसी में अनुवाद किया था। कुछ मिश्रित रचना भी इन्होंने की है,’रहीम काव्य’ हिन्दी संस्कृत की खिचड़ी है और ‘खेट कौतुकम्’ नामक ज्योतिष का ग्रंथ संस्कृत और फारसी की खिचड़ी है। कुछ संस्कृत श्लोकों की रचना भी ये कर गए हैं।

कादिरबख्श– कादिर पिहानी जिला हरदोई के रहनेवाले और सैयद इब्राहीम के शिष्य थे। इनका जन्म संवत् 1635 में माना जाता है। इनकी कोई पुस्तक तो नहीं मिलती पर फुटकल कवित्त पाए जाते हैं। कविता ये चलती भाषा में अच्छी करते थे। इनका यह कवित्त लोगों के मुँह से बहुत सुनने में आता है-

गुन को न पूछै कोऊ, औगुन की बात पूछै,
कहा भयो दई! कलिकाल यों खरानो है।
पोथी औ पुरान ज्ञान ठट्ठन में डारि देत,
चुगुल चबाइन को मान ठहरानो है
कादिर कहत यासों कछु कहिबे को नाहिं,
जगत की रीत देखि चुप मन मानो है।
खोलि देखौ हियो सब ओरन सों भाँति भाँति,
गुन ना हिरानो, गुनगाहक हिरानो है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने अपने ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’ नामक ग्रंथ में हरदोई से संबद्ध रसलीन, सम्मन, कादिर बख्श, सैय्यद मुबारक़ अली बिलग्रामी आदि का उल्लेख किया है।

सैयद मुबारक अली– मुबारक बिलग्रामी का जन्म संवत् 1640 में हुआ था। ये संस्कृत, फारसी और अरबी के अच्छे पंडित और हिन्दी के सहृदय कवि थे। ये केवल श्रृंगार की ही कविता करते थे। इन्होंने नायिका के अंगों का वर्णन बड़े विस्तार से किया है। कहा जाता है कि दस अंगों को लेकर इन्होंने एक एक अंग पर सौ सौ दोहे बनाए थे। इनका प्राप्त ग्रंथ ‘अलकशतक’ और ‘तिलशतक’ उन्हीं के अंतर्गत है। इन दोहों के अतिरिक्त इनके बहुत से कवित्त सवैये संग्रह ग्रंथों में पाए जाते और लोगों के मुँह से सुने जाते हैं। इनकी उत्प्रेक्षा बहुत बढ़ी चढ़ी होती थी और वर्णन के उत्कर्ष के लिए कभी कभी ये बहुत दूर तक बढ़ जाते थे। जैसे-

परी मुबारक तिय बदन अलक ओप अति होय।
मनो चंद की गोद में रही निसा सी सोय
चिबुक कूप में मन परयो छबिजल तृषा विचारि।
कढ़ति मुबारक ताहि तिय अलक डोरि सी डारि
चिबुक कूप रसरी अलक तिल सु चरस दृग बैल।
बारी वैस सिंगार को सींचत मनमथ छैल।

बनारसीदास– बनारसीदास जौनपुर के रहनेवाले एक जैन जौहरी थे जो आमेर में भी रहा करते थे। इनके पिता का नाम खड़गसेन था। ये संवत् 1643 में जन्में थे। इन्होंने संवत् 1698 तक का अपना जीवनवृत्त “अर्ध्दकथानक” नामक ग्रंथ में दिया है। ये पहले श्रृंगार रस की कविता किया करते थे, पर पीछे ज्ञान हो जाने पर इन्होंने वे सब कविताएँ गोमती नदी में फेंक दीं और ज्ञानोपदेशपूर्ण कविताएँ करने लगे।

कुछ उपदेश इनके ब्रजभाषा गद्य में भी हैं। इन्होंने जैनधर्म संबंधी अनेक पुस्तकों के सारांश हिन्दी में कहे हैं। अब तक इनकी बनाई इतनी पुस्तकों का पता चला है- बनारसी विलास (फुटकल कवित्तों का संग्रह), नाटक समयसार (कुंदकुंदाचार्य कृत ग्रंथ का सार), नाममाला (कोश), अर्ध्दकथानक, बनारसी पद्ध ति मोक्षपदी, धा्रुववंदना, कल्याणमंदिर भाषा, वेदनिर्णय पंचाशिका, मारगन विद्या।

सेनापति– सेनापति अनूपशहर के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम गंगाधार, पितामह का परशुराम और गुरु का नाम हीरामणि दीक्षित था। इनका जन्मकाल संवत् 1646 के आसपास माना जाता है। ये बड़े ही सहृदय कवि थे। ऋतुवर्णन तो इन्होनें ऐसा किया कि किसी श्रृंगारी कवि ने नहीं किया है। इनके भक्तिभाव से पूर्ण अनेक कवित्त ‘कवित्तरत्नाकर’ में मिलते हैं। सेनापतिजी के भक्तिप्रेरित उद्गार भी बहुत अनूठे और चमत्कारपूर्ण हैं। “आपने करम करि हौं ही निबहौंगे तौ तौ हौं ही करतार, करतार तुम काहे के?” वाला प्रसिद्ध कवित्त इन्हीं का है।

पुहकर कवि– पुहकर परतापुर, मैनपुरी के रहने वाले थे, परंतु बाद में गुजरात में सोमनाथ जी के पास भूमिगाँव में रहते थे। ये जाति के कायस्थ थे और जहाँगीर के समय में थे। कहते हैं कि जहाँगीर ने किसी बात पर इन्हें आगरे में कैद कर लिया था। वहीं कारागार में इन्होंने ‘रसरतन’ नामक ग्रंथ संवत् 1673 में लिखा जिस पर प्रसन्न होकर बादशाह ने इन्हें कारागार से मुक्त कर दिया।

सुंदर– सुंदर ग्वालियर के ब्राह्मण थे और शाहजहाँ के दरबार में कविता सुनाया करते थे। इन्हें बादशाह ने पहले कविराय की और फिर महाकविराय की पदवी दी थी। इन्होंने संवत् 1688 में ‘सुंदरश्रृंगार’ नामक नायिकाभेद का एक ग्रंथ लिखा। इसके अतिरिक्त ‘सिंहासनबत्तीसी’ और ‘बारहमासा’ नाम की इनकी दो पुस्तकें और हैं।

लालचंद या लक्षोदय– लालचंद मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह (संवत् 1685-1709) की माता जांबवती जी के प्रधान श्रावक हंसराज के भाई डूँगरसी के पुत्र थे। इन्होंने संवत् 1700 में ‘पद्मिनीचरित्र’ नामक एक प्रबंधकाव्य की रचना की जिसमें राजा रत्नसेन और पद्मिनी की कथा का राजस्थानी मिली भाषा में वर्णन है।

इनकी पटरानी प्रभावती ने राजा के सामने जो भोजन रखा वह उसे पसंद न आया। इस पर रानी ने चिढ़कर कहा कि यदि मेरा भोजन अच्छा नहीं लगता तो कोई पद्मिनी ब्याह लाओ-

तब तड़की बोली तिसे जी राखी मन धारि रोस।
नारी आणों काँ न बीजी द्यो मत झूठो दोस
हम्मे कलेवी जीणा नहीं जी किसूँ करीजै बाद।
पदमणि का परणों न बीजी जिमि भोजन होय स्वाद
इसपर रत्नसेन यह कहकर उठ खड़ा हुआ,
राणो तो हूँ रतनसी परणूँ पदमिनि नारि।

आख्यान काव्य

आख्यान काव्यों का प्रमाण ऋग्वेद की संहिता में ही हमें उपलब्ध होता है। अथर्ववेद में आख्यान का इतिहास तथा पुराण का उल्लेख मौखिक साहित्य के रूप में न होकर लिखित ग्रंथ के रूप में  मिलता है। आख्यान काव्य ऐतिहासिक या पौराणिक होते हैं। हिन्दी साहित्य के कुछ प्रमुख आख्यान काव्य निम्नलिखित हैं-

  1. सत्यवती कथा (ईश्वरदास) कृत ‘सत्यवती कथा’ में वृत्त सारा कल्पित है। यह एक ऐतिहासिक या पौराणिक काव्य है।
  2. अर्ध्दकथानक (जैन कवि बनारसीदास) द्वारा रचित ‘अर्ध्दकथानक’ है। भक्तिकाल में यही एक आत्मकथा काव्य मिलता हैं।
  3. रामचरितमानस (तुलसी)
  4. ढोला मारू रा दूहा (प्राचीन)
  5. हरिचरित्र (लालचदास)
  6. लक्ष्मणसेन पद्मावती कथा(दामो कवि)
  7. रुक्मिणीमंगल (नरहरि)
  8. रुक्मिणीमंगल (नंददास)
  9. माधावानल कामकंदला (आलम)
  10. सुदामाचरित्र (नरोत्तमदास)
  11. रसरतन (पुहकर कवि)
  12. रामचंद्रिका (केशवदास)
  13. पद्मिनीचरित्र (लालचंद)
  14. वीरसिंहदेवचरित (केशव)
  15. कनकमंजरी (काशीराम)
  16. बेलि क्रिसन रुकमणी री (जोधपुर के राठौड़ राजाप्रिथीराज)

3. उत्तर मध्यकाल या रीतिकाल (1650 ई०- 1850 ई०)

नामांकरण की दृष्टि से उत्तर-मध्यकाल हिंदी साहित्य के इतिहास में विवादास्पद है। इसे मिश्र बंधु ने- ‘अलंकृत काल‘, तथा रामचंद्र शुक्ल ने- ‘रीतिकाल‘, और विश्वनाथ प्रसाद ने- ‘श्रृंगार काल‘ कहा है।

रीतिकालीन कविता में लक्ष्मण ग्रंथ, नायिका भेद, श्रृंगारिकता आदि की जो प्रवृतियां मिलती है उसकी परंपरा संस्कृत साहित्य से चली आ रही थी। हिंदी में “रीति” या “काव्यरीति” शब्द का प्रयोग काव्यशास्त्र के लिए हुआ था। इसलिए काव्यशास्त्रबद्ध सामान्य सृजनप्रवृत्ति और रस, अलंकार आदि के निरूपक बहुसंख्यक लक्षणग्रंथों को ध्यान में रखते हुए इस समय के काव्य को “रीतिकाव्य” कहा गया। इस काव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों की पुरानी परंपरा के स्पष्ट संकेत संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, फारसी और हिंदी के आदिकाव्य तथा कृष्णकाव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों में मिलते हैं।

हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार संस्कृत के प्राचीन साहित्य विशेषता रामायण और महाभारत से यदि भक्तिकाल के कवियों ने प्रेरणा ली तो रीतिकाल के कवियों ने उत्तर कालीन संस्कृत साहित्य से प्रेरणा व प्रभाव लिया। लक्ष्मण ग्रंथ, नायिका भेद, अलंकार और संचारी भावों के पूर्व निर्मित वर्गीकरण का आधार लेकर यह कवि बधी सधी बोली में बंधे सदे भाव की कवायद करने लगे।।

इस काल में कई कवि ऐसे हुए हैं जो आचार्य भी थे और जिन्होंने विविध काव्यांगों के लक्षण देने वाले ग्रंथ भी लिखे। इस युग में शृंगार रस की प्रधानता रही। यह युग मुक्तक-रचना का युग रहा। मुख्यतया कवित्त, सवैये और दोहे इस युग में लिखे गए।

कवि राजाश्रित होते थे इसलिए इस युग की कविता अधिकतर दरबारी रही जिसके फलस्वरूप इसमें चमत्कारपूर्ण व्यंजना की विशेष मात्रा तो मिलती है परंतु कविता साधारण जनता से विमुख भी हो गई।

रीति ग्रन्थकार कवि-

रीतिकाल के कवियों को तीन वर्गों में बांटा जाता है – 1. रीतिबद्ध कवि 2 . रीतिसिद्ध कवि 3 . रीतिमुक्त कवि।

रीतिबद्ध कवि

रीतिबद्ध कवियों ने अपने लक्षण ग्रंथों में प्रत्यक्ष रूप से रीति परंपरा का निर्वाह किया है। जैसे- केशवदास, चिंतामणि, मतिराम, सेनापति, देव, आदि। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने केशवदास को कठिन काव्य का प्रेत कहा है।

केशवदास– आचार्य केशवदास का जन्म 1555 ईस्वी में ओरछा में हुआ था। वे जिझौतिया ब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम काशीनाथ था। ओरछा के राजदरबार में उनके परिवार का बड़ा मान था। केशवदास स्वयं ओरछा नरेश महाराज रामसिंह के भाई इन्द्रजीत सिंह के दरबारी कवि, मन्त्री और गुरु थे। इन्द्रजीत सिंह की ओर से इन्हें इक्कीस गाँव मिले हुए थे। वे आत्मसम्मान के साथ विलासमय जीवन व्यतीत करते थे।

चिंतामणि– ये यमुना के समीपवर्ती गाँव टिकमापुर या भूषण के अनुसार त्रिविक्रमपुर (जिला कानपुर) के निवासी काश्यप गोत्रीय कान्यकुब्ज त्रिपाठी ब्राह्मण थे। इनका जन्मकाल संo १६६६ विo और रचनाकाल संo १७०० विo माना जाता है। ये रतिनाथ अथवा रत्नाकर त्रिपाठी के पुत्र (भूषण के ‘शिवभूषण’ की विभिन्न हस्तलिखित प्रतियों में इनके पिता के उक्त दो नामों का उल्लेख मिलता है) और कविवर भूषण, मतिराम तथा जटाशंकर (नीलकंठ) के ज्येष्ठ भ्राता थे।

चिंतामणि की अब तक कुल छ: कृतियों का पता लगा है – (1) काव्यविवेक, (2) कविकुलकल्पतरु, (3) काव्यप्रकाश, (4) छंदविचारपिंगल, (5) रामायण और (6) रस विलास (7) श्रृंगार मंजरी (8) कृष्ण चरित।

चिंतामणि की ‘शृंगारमंजरी’ नामक एक और रचना प्रकाश में आई है, जो तेलुगु लिपि में लिखित संस्कृत के गद्य ग्रंथ का ब्रजभाषा में पद्यबद्ध अनुवाद है। ‘रामायण’ के अतिरिक्त कवि की उक्त सभी रचनाएँ काव्यशास्त्र से संबंधित हैं, जिनमें सर्वोपरि महत्व ‘कविकुलकल्पतरु’ का है। संस्कृत ग्रंथ ‘काव्यप्रकाश’ के आदर्श पर लिखी गई यह रचना अपने रचयिता की कीर्ति का मुख्य कारण है।

मतिराम– मतिराम, हिंदी के प्रसिद्ध ब्रजभाषा कवि थे। इनके द्वारा रचित “रसराज” और “ललित ललाम” नामक दो ग्रंथ हैं; परंतु इधर कुछ अधिक खोजबीन के उपरांत मतिराम के नाम से मिलने वाले आठ ग्रंथ प्राप्त हुए हैं।

मतिराम की प्रथम कृति ‘फूलमंजरी’ है जो इन्होंने संवत् 1678 में जहाँगीर के लिये बनाई और इसी के आधार पर इनका जन्म संवत् 1660 के आसपास स्वीकार किया जाता है क्योंकि “फूल मंजरी” की रचना के समय वे 18 वर्ष के लगभग रहे होंगे।

मतिराम का दूसरा ग्रंथ ‘रसराज’ इनकी प्रसिद्धि का मुख्य आधार है। यह शृंगाररस और नायिकाभेद पर लिखा ग्रंथ है और रीतिकाल में बिहारी सतसई के समान ही लोकप्रिय रहा। इसका रचनाकाल सवंत् 1690 और 1700 के मध्य माना जाता है। इस ग्रंथ में सुकुमार भावों का अत्यंत ललित चित्रण है।

सेनापति– सेनापति ब्रजभाषा काव्य के एक अत्यन्त शक्तिमान कवि माने जाते हैं। इनका समय रीति युग का प्रारंभिक काल है। उनका परिचय देने वाला स्रोत केवल उनके द्वारा रचित और एकमात्र उपलब्ध ग्रंथ ‘कवित्त रत्नाकर’ है।

सेनापति का काव्य विदग्ध काव्य है। इनके द्वारा रचित दो ग्रंथों का उल्लेख मिलता है – एक ‘काव्यकल्पद्रुम’ और दूसरा ‘कवित्त रत्नाकर’। परन्तु, ‘कवित्त रत्नाकर’ परन्तु, ‘काव्यकल्पद्रुम’ अभी तक प्राप्त नहीं हुआ। ‘कवित्तरत्नाकर’ संवत्‌ 1706 में लिखा गया और यह एक प्रौढ़ काव्य है। यह पाँच तरंगों में विभाजित है। प्रथम तरंग में 97 कवित्त हैं, द्वितीय में 74, तृतीय में 62 और 8 कुंडलिया, चतुर्थ में 76 और पंचम में 88 छंद हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर इस ग्रंथ में 405 छंद हैं। इसमें अधिकांश लालित्य श्लेषयुक्त छंदों का है परन्तु श्रृंगार, षट्ऋतु वर्णन और रामकथा के छंद अत्युुत्कृष्ट हैं।

देव– रीतिकाल के रीतिग्रंथकार कवि हैं। उनका पूरा नाम देवदत्त था। औरंगजेब के पुत्र आलमशाह के संपर्क में आने के बाद देव ने अनेक आश्रयदाता बदले, किन्तु उन्हें सबसे अधिक संतुष्टि भोगीलाल नाम के सहृदय आश्रयदाता के यहाँ प्राप्त हुई, जिसने उनके काव्य से प्रसन्न होकर उन्हें लाखों की संपत्ति दान की।

देव कृत कुल ग्रंथों की संख्या 42 से 72 तक मानी जाती है। उनमें- रसविलास, भावविलास, भवानीविलास, कुशलविलास, अष्टयाम, सुमिल विनोद, सुजानविनोद, काव्यरसायन, प्रेमदीपिका, प्रेम चन्द्रिका आदि प्रमुख हैं। देव के कवित्त-सवैयों में प्रेम और सौंदर्य के इंद्रधनुषी चित्र मिलते हैं। संकलित सवैयों और कवित्तों में एक ओर जहाँ रूप-सौंदर्य का आलंकारिक चित्रण हुआ है, वहीं रागात्मक भावनाओं की अभिव्यक्ति भी संवेदनशीलता के साथ हुई है।

रीतिसिद्ध कवि

रीतिसिद्ध कवियों की रचना की पृष्ठभूमि में अप्रत्यक्ष रूप से रीति परिपाटी काम कर रही होती है। उनकी रचनाओं को पढ़ने से साफ पता चलता है कि उन्होंने काव्यशास्त्र को पचा रखा है। बिहारी, रसनिधि आदि इस वर्ग में आते हैं।

बिहारी– बिहारीलाल का जन्म (1538) संवत् 1595 ग्वालियर में हुआ। वे जाति के माथुर चौबे (चतुर्वेदी) थे। उनके पिता का नाम केशवराय था। जब बिहारी 8 वर्ष के थे तब इनके पिता इन्हे ओरछा ले आये तथा उनका बचपन बुंदेलखंड में बीता। इनके गुरु नरहरिदास थे और युवावस्था ससुराल मथुरा में व्यतीत हुई।

बिहारी की कविता का मुख्य विषय श्रृंगार है। उन्होंने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का वर्णन किया है। संयोग पक्ष में बिहारी ने हावभाव और अनुभवों का बड़ा ही सूक्ष्म चित्रण किया हैं। एक उदाहरण देखिए –

बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।
सोह करे, भौंहनु हंसे दैन कहे, नटि जाय॥

बिहारी का वियोग वर्णन बड़ा अतिशयोक्ति पूर्ण है। यही कारण है कि उसमें स्वाभाविकता नहीं है, विरह में व्याकुल नायिका की दुर्बलता का चित्रण करते हुए उसे घड़ी के पेंडुलम जैसा बना दिया गया है –

इति आवत चली जात उत, चली, छसातक हाथ।
चढी हिंडोरे सी रहे, लगी उसासनु साथ॥

सूफी कवियों की अहात्मक पद्धति का भी बिहारी पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। वियोग की आग से नायिका का शरीर इतना गर्म है कि उस पर डाला गया गुलाब जल बीच में ही सूख जाता है –

औंधाई सीसी सुलखि, बिरह विथा विलसात।
बीचहिं सूखि गुलाब गो, छीटों छुयो न गात॥

बिहारी मूलतः श्रृंगारी कवि हैं। उनकी भक्ति-भावना राधा-कृष्ण के प्रति है और वह जहां तहां ही प्रकट हुई है। सतसई के आरंभ में मंगला-चरण का यह दोहा राधा के प्रति उनके भक्ति-भाव का ही परिचायक है –

मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाई परे, स्याम हरित दुति होय॥

रसनिधि– दतिया राज्य के बरौनी क्षेत्र के जमींदार पृथ्वीसिंह, ‘रसनिधि’ नाम से काव्यरचना करते थे। इनका रचनाकाल संवत् 1660 से 1717 तक माना जाता है। इनका सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ ‘रतनहजारा’ है जो बिहारी सतसई को आदर्श मानकर लिखा गया प्रतीत होता है। रतनहजारा के अतिरिक्त विष्णुपदकीर्तन, बारहमासी, रसनिधिसागर, गीतिसंग्रह, अरिल्ल और माँझ, हिंडोला भी इनकी रचनाएँ बताई जाती हैं। इनके दोहों का एक संग्रह छतरपुर के श्री जगन्नाथप्रसाद ने प्रकाशित किया है।

रीतिमुक्त कवि

रीति परंपरा से मुक्त कवियों को रीतिमुक्त कवि कहा जाता है। घनानंद, आलम, ठाकुर, बोधा आदि इस वर्ग में आते हैं।

घनानंद– इनका जन्मकाल संवत 1730 के आसपास है। ये ‘आनंदघन’ नाम से भी प्रसिद्ध हैं। इनके जन्मस्थान और जनक के नाम अज्ञात हैं। आरंभिक जीवन दिल्ली तथा उत्तर जीवन वृंदावन में बीता। जाति के कायस्थ थे। साहित्य और संगीत दोनों में इनकी असाधारण गति थी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रीतिमुक्त घनानन्द का समय सं. १७४६ तक माना है। इस प्रकार आलोच्य घनानन्द वृंदावन के आनन्दघन हैं। शुक्ल जी के विचार में ये नादिरशाह के आक्रमण के समय मारे गए।

घनानंद द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 41 बताई जाती है- सुजानहित, कृपाकंदनिबंध, वियोगबेलि, इश्कलता, यमुनायश, प्रीतिपावस, प्रेमपत्रिका, प्रेमसरोवर, व्रजविलास, रसवसंत, अनुभवचंद्रिका, रंगबधाई, प्रेमपद्धति, वृषभानुपुर सुषमा, गोकुलगीत, नाममाधुरी, गिरिपूजन, विचारसार, दानघटा, भावनाप्रकाश, कृष्णकौमुदी, घामचमत्कार, प्रियाप्रसाद, वृंदावनमुद्रा, व्रजस्वरूप, गोकुलचरित्र, प्रेमपहेली, रसनायश, गोकुलविनोद, मुरलिकामोद, मनोरथमंजरी, व्रजव्यवहार, गिरिगाथा, व्रजवर्णन, छंदाष्टक, त्रिभंगी छंद, कबित्तसंग्रह, स्फुट पदावली और परमहंसवंशावली।

आलम– आलम रीतिकाल के एक हिन्दी कवि थे जिन्होने रीतिमुक्त काव्य रचा। आचार्य शुक्ल के अनुसार इनका कविता काल 1683 से 1703 ईस्वी तक रहा। इनका प्रारंभिक नाम लालमणि त्रिपाठी था। इनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। एक मुस्लिम महिला शेख नामक रंगरेजिन से विवाह के लिए इन्होंने नाम आलम रखा। ये औरगजेब के दूसरे बेटे मुअज्जम के आश्रय में रहते थे।

आलम की प्रसिद्ध रचनाएं हैं :- माधवानल कामकंदला (प्रेमाख्यानक काव्य), श्यामसनेही (रुक्मिणी के विवाह का वर्णन, प्रबंध काव्य), सुदामाचरित (कृष्ण भक्तिपरक काव्य), आलमकेलि (लौकिक प्रेम की भावनात्मक और परम्परामुक्त अभिव्यक्ति, श्रृंगार और भक्ति इसका मूल विषय है)।

ठाकुर– देलखंडी ठाकुर रीतिकालीन रीतियुक्त भाव-धारा के विशिष्ट और प्रेमी कवि थे जिनका जन्म ओरछे में सं० 1823 और देहावसान सं० 1880 के लगभग माना गया है। इनका पूरा नाम था ठाकुरदास। ये श्रीवास्तव कायस्थ थे। ठाकुर जैतपुर (बुंदेलखंड) के निवासी और वहीं के स्थानीय राजा केसरीसिंह के दरबारी कवि थे। पिता गुलाबराय महाराजा ओरछा के मुसाहब और पितामह खंगराय काकोरी (लखनऊ) के मनसबदार थे।

बोधा– आचार्य शुक्ल के अनुसार बोधा एक रसिक कवि थे। पन्ना के राजदरबार में बोधा अक्सर जाया करते थे। राजदरबार में सुबहान (सुभान) नामक वेश्या से इन्हें बेहद प्रेम हो गया। महाराज को जब यह बात पता चली तो उन्होंने बोधा को छह महीने के देशनिकाले की सजा दे दी।

वेश्या के वियोग में बोधा ने “विरहवारीश” नामक पुस्तक लिख डाली। छह महीने बाद राजदरबार में हाजिर हुए तो महाराज ने पूछा – “कहिये कविराज! अकल ठिकाने आयी? इन दिनों कुछ लिखा क्या?” इस पर बोधा ने अपनी पुस्तक विरहवारीश के कुछ कवित्त सुनाये।

महाराज ने कहा – “शृंगार की बातें बहुत हो चुकीं अब कुछ नीति की बात बताइये।” इस पर बोधा ने एक छन्द कहा-

हिलि मिलि जानै तासों मिलि के जनावै हेत,
हित को न जानै ताको हितू न विसाहिए।
होय मगरूर तापै दूनी मगरूरी करै,
लघु ह्वै के चलै तासों लघुता निवाहिए॥
बोधा कवि नीति को निबेरो यही भाँति अहै,
आपको सराहै ताहि आपहू सराहिए।
दाता कहा, सूर कहा, सुन्दरी सुजान कहा,
आपको न चाहै ताके बाप को न चाहिए॥

महाराज ने बोधा से प्रसन्न होकर कुछ माँगने को कहा। इस पर बोधा के मुख से निकला – “सुभान अल्लाह!” महाराज उनकी हाजिरजवाबी से बहुत खुश हुए और उन्होंने अपनी बेहद खूबसूरत राजनर्तकी (सुबहान) बोधा को उपहार में दे दी। इस प्रकार बोधा के मन की मुराद पूरी हुई।

बोधा की कृतियाँ- 1. विरहवारीश – वियोग शृंगार रस की कविताएँ, 2.  इश्कनामा – शृंगारपरक कविताएँ।

रीतिकाल के अन्य कवि

  1. भूषण– भूषण वीर रस के कवि थे। इनका जन्म कानपुर में यमुना किनारे ‘तिकवांपुर’ में हुआ था।  भूषणरचित छ: ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। इनमें से ये तीन ग्रन्थ- ‘भूषणहज़ारा’, ‘भूषणउल्लास’, ‘दूषणउल्लास’ यह ग्रंथ अभी तक देखने में नहीं आये हैं। बाकी तीन ग्रंथ “शिवराज भूषण”, “शिवा बावनी” और “छत्रसाल दशक” हैं।
  2. सैय्यद मुबारक़ अली बिलग्रामी– जन्म संवत 1640 में हुआ था, अत: इनका कविता काल संवत 1670 है। इनके सैकड़ों कवित्त और दोहे पुराने काव्यसंग्रहों में मिलते हैं, किंतु अभी तक इनका ‘अलकशतक’ और ‘तिलशतक’ ग्रंथ ही उपलब्ध हो सका है। ‘शिवसिंह सरोज’ में इनकी पाँच कविताएँ संकलित हैं, जिनमें चार कवित्त और एक सवैया है।
  3. बेनी– बेनी रीति काल के कवि थे। बेनी ‘असनी’ के बंदीजन थे। इनका कोई भी ग्रंथ नहीं मिलता, किंतु फुटकर कवित्त बहुत से सुने जाते हैं, जिनसे यह अनुमान होता है कि इन्होंने ‘नख शिख’ और ‘षट्ऋतु’ पर पुस्तकें लिखी होंगी।
  4. मंडन– मंडन रीति काल के कवि थे, जो जेतपुर, बुंदेलखंड के रहने वाले थे। इनके फुटकर कवित्त सवैये बहुत सुने जाते हैं, किंतु अब तक इनका कोई ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुआ है। पुस्तकों की खोज करने पर मंडन के पाँच ग्रंथों का पता चलता है- “रसरत्नावली”, “रसविलास”, “जनक पचीसी”, “जानकी जू को ब्याह”, और “नैन पचासा”।
  5. कुलपति मिश्र– ये आगरा के रहने वाले ‘माथुर चौबे’ थे और महाकवि बिहारी के भानजे के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके मुख्य ग्रंथ ‘रस रहस्य’ और ‘मम्मट’ हैं। बाद में इनके निम्नलिखित ग्रंथ और मिले हैं- द्रोणपर्व (संवत् 1737), युक्तितरंगिणी (1743), नखशिख, संग्रहसार, गुण रसरहस्य (1724)।
  6. सुखदेव मिश्र– सुखदेव मिश्र दौलतपुर, ज़िला रायबरेली के रहने वाले मुग़ल कालीन कवि थे। इनके सात ग्रंथों हैं – वृत्तविचार (संवत् 1728), छंदविचार, फाजिलअलीप्रकाश, रसार्णव, श्रृंगारलता, अध्यात्मप्रकाश (संवत् 1755), दशरथ राय।
  7. कालिदास त्रिवेदी– कालिदास त्रिवेदी अंतर्वेद के रहने वाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण एवं मुग़ल कालीन कवि थे। संवत 1749 में इन्होंने ‘वार वधू विनोद’ बनाया था। बत्तीस कवित्तों की इनकी एक छोटी सी पुस्तक ‘जँजीराबंद’ भी है। ‘राधा माधव बुधा मिलन विनोद’ नाम का इनका एक और ग्रंथ मिला है। इन रचनाओं के अतिरिक्त इनका बड़ा संग्रह ग्रंथ ‘कालिदास हज़ारा’ प्रसिद्ध है।
  8. राम– ये रीति काल के कवि थे। राम का ‘शिवसिंह सरोज’ में जन्म संवत् 1703 लिखा है और कहा गया है कि इनके कवित्त कालिदास के ‘हज़ारा’ में हैं। इनका नायिका भेद का एक ग्रंथ ‘श्रृंगार सौरभ’ है जिसकी कविता बहुत ही मनोरम है। इनका एक ‘हनुमान नाटक’ भी पाया गया है।
  9. नेवाज– नेवाज अंतर्वेद के रहने वाले ब्राह्मण थे और संवत 1737 के लगभग मुग़ल कालीन कवि थे। इनके ‘शकुंतला नाटक’ का निर्माणकाल संवत 1737 है। इन्होंने ‘शकुंतला नाटक’ का आख्यान दोहा, चौपाई, सवैया आदि छंदों में लिखा।
  10. श्रीधर– श्रीधर ‘रीति काल’ के कवि थे। इनका नाम ‘श्रीधर’ या ‘मुरलीधर’ मिलता है। श्रीधर प्रयाग के रहने वाले ब्राह्मण थे। श्रीधर ने कई पुस्तकें लिखीं और बहुत सी फुटकर कविता बनाई। इनके तीन रीतिग्रंथों का उल्लेख है, नायिकाभेद, चित्रकाव्य, जंगनामा।
  11. सूरति मिश्र– सूरति मिश्र आगरा के रहने वाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इन्होंने ‘अलंकारमाला’ संवत 1766 में और ‘अमरचंद्रिका’ टीका संवत 1794 में लिखी। इन्होंने ‘बिहारी सतसई’, ‘कविप्रिया’ और ‘रसिकप्रिया’ पर विस्तृत टीकाएँ रची हैं। इन्होंने निम्नलिखित रीतिग्रंथ रचे हैं – अलंकारमाला, रसरत्नमाला, रससरस, रसग्राहकचंद्रिका, नखशिख, काव्यसिध्दांत, रसरत्नाकर।
  12. कवींद्र– इनका जन्म- 1680 ई., वास्तविक नाम ‘उदयनाथ’, ये रीति काल के प्रसिद्ध कवि थे। इनके द्वारा रचित तीन – ‘रस-चन्द्रोदय’, ‘विनोद चन्द्रिका’ तथा ‘जोगलीला’ पुस्तकें हैं।
  13. श्रीपति– श्रीपति कालपी के रहने वाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण एवं रीति काल के कवि थे। इन्होंने संवत 1777 में ‘काव्यसरोज’ नामक रीति ग्रंथ बनाया। इसके अतिरिक्त इनके निम्नलिखित ग्रंथ और हैं – कविकल्पद्रुम, रससागर, अनुप्रासविनोद, विक्रमविलास, सरोज कलिका, अलंकारगंगा।
  14. बीर– रीति काल के कवि बीर दिल्ली के रहने वाले ‘श्रीवास्तव कायस्थ’ थे। इन्होंने ‘कृष्णचंद्रिका’ नामक रस और नायिका भेद का एक ग्रंथ संवत 1779 में लिखा।
  15. कृष्ण– रीति काल के कवि कृष्ण माथुर चौबे थे और बिहारी के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनका ‘बिहारी सतसई’ पर टीका प्रसिद्ध है।
  16. पराग (कवि)– पराग नामक कवि का नाम संवत् 1883 में काशी के महाराज उदित नारायण सिंह के आश्रितों में आता है। इन्होंने तीन खण्डों में ‘अमरकोश’ की भाषा सृजित की थी।
  17. गजराज उपाध्याय– गजराज उपाध्याय की उपस्थिति शिव सिंह सरोज ने संवत् 1874 में मानी है। इनके द्वारा रचित पिंगल भाषा का ग्रंथ ‘वृहत्तर तथा रामायण’ कहा जाता है।
  18. रसिक सुमति– रसिक सुमति रीति काल के कवि और ईश्वरदास के पुत्र थे। इन्होंने ‘अलंकार चंद्रोदय’ नामक एक अलंकार ग्रंथ कुवलया नंद के आधार पर दोहों में बनाया।
  19. गंजन– रीति काल के कवि गंजन काशी के रहने वाले गुजराती ब्राह्मण थे। इन्होंने संवत 1786 में ‘कमरुद्दीन खाँ हुलास’ नामक श्रृंगार रस का एक ग्रंथ बनाया।
  20. अली मुहीब ख़ाँ– आगरा के रहने वाले रीति काल के कवि थे। इनका उपनाम ‘प्रीतम’ था। इन्होंने संवत 1787 में ‘खटमल बाईसी’ नाम की हास्य रस की एक पुस्तक लिखी।
  21. भिखारी दास– भिखारी दास रीति काल के कवि थे जो प्रतापगढ़, अवध के पास टयोंगा गाँव के रहने वाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इनके निम्न ग्रंथों का पता लगा है – रससारांश संवत, छंदार्णव पिंगल, काव्यनिर्णय, श्रृंगार निर्णय, नामप्रकाश कोश, विष्णुपुराण भाषा, छंद प्रकाश, शतरंजशतिका, अमरप्रकाश।
  22. भूपति– भूपति राजा गुरुदत्त सिंह अमेठी के राजा थे। ये रीति काल के प्रसिद्ध कवियों में गिने जाते थे। भूपति ने संवत 1791 में श्रृंगार के दोहों की एक ‘सतसई’ बनाई थी। इसके अतिरिक्त ‘कंठाभरण’, ‘सुरसरत्नाकर’, ‘रसदीप’, ‘रसरत्नावली’ नामक ग्रंथ भी इनके रचे हुए बतलाए जाते हैं।
  23. तोषनिधि– तोषनिधि रीति काल के एक प्रसिद्ध कवि हुए हैं। तोषनिधि शृंगवेरपुर, सिंगरौर, ज़िला इलाहाबाद) के रहने वाले थे। तोषनिधि ने संवत 1791 में ‘सुधानिधि’ नामक ग्रंथ लिखा। दो पुस्तकें हैं – विनयशतक और नखशिख।
  24. बंसीधर– रीति काल के कवि बंसीधर ब्राह्मण थे और अहमदाबाद, गुजरात के रहने वाले थे। बंसीधर ने दलपति राय के साथ मिलकर संवत 1792 में उदयपुर के महाराणा जगतसिंह के नाम पर ‘अलंकार रत्नाकर’ नामक ग्रंथ बनाया।
  25. दलपति राय– रीति काल के कवि दलपति राय महाजन थे और अहमदाबाद गुजरात के रहने वाले थे। दलपति राय ने बंसीधर के साथ मिलकर संवत 1792 में उदयपुर के महाराणा जगतसिंह के नाम पर ‘अलंकार रत्नाकर’ नामक ग्रंथ बनाया।
  26. सोमनाथ माथुर– सोमनाथ माथुर ब्राह्मण थे और भरतपुर के महाराज बदनसिंह के कनिष्ठ पुत्र प्रतापसिंह के यहाँ रहते थे। सोमनाथ ने संवत 1794 में ‘रसपीयूषनिधि’ नामक ग्रंथ लिखा। इनके तीन ग्रंथ और हैं, कृष्ण लीलावती पंचाध्यायी, सुजानविलास, माधवविनोद नाटक।

4. आधुनिक काल या गद्यकाल (1850 ईसवी से अब तक)

आधुनिक काल रीतिकाल के बाद का काल है। आधुनिक काल को हिंदी भाषा साहित्य का सर्वश्रेष्ठ युग माना जा सकता है। जिसमें पद्य के साथ-साथ गद्य, कहानी, समालोचना, नाटक व पत्रकारिता का भी विकास हुआ। जिसमें पद्य के साथ-साथ गद्य, समालोचना, कहानी, नाटक व पत्रकारिता का भी विकास हुआ।

1800 विक्रम संबत के उपरांत भारत में अनेक यूरोपीय जातियां व्यापार के लिए आईं। उनके संपर्क से यहां पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव पड़ना प्रारंभ हुआ। विदेशियों ने यहां के देशी राजाओं की पारस्परिक फूट से लाभ उठाकर अपने पैर जमाने में सफलता प्राप्त की। जिसके परिणाम-स्वरूप यहां पर ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना हुई। अंग्रेजों ने यहां अपने शासन कार्य को सुचारु रूप से चलाने एवं अपने धर्म-प्रचार के लिए जन-साधारण की भाषा को अपनाया। इस कार्य के लिए गद्य ही अधिक उपयुक्त होती है। इस कारण आधुनिक युग की मुख्य विशेषता गद्य की प्रधानता रही।

इस काल में होने वाले मुद्रण कला के आविष्कार ने भाषा-विकास में महान योगदान दिया। स्वामी दयानंद ने भी आर्य समाज के ग्रंथों की रचना राष्ट्रभाषा हिंदी में की और अंग्रेज़ मिशनरियों ने भी अपनी प्रचार पुस्तकें हिंदी गद्य में ही छपवाईं। इस तरह विभिन्न मतों के प्रचार कार्य से भी हिंदी गद्य का समुचित विकास हुआ।

इस काल में राष्ट्रीय भावना का भी विकास हुआ। इसके लिए श्रृंगारी ब्रजभाषा की अपेक्षा खड़ी बोली उपयुक्त समझी गई। समय की प्रगति के साथ गद्य और पद्य दोनों रूपों में खड़ी बोली का पर्याप्त विकास हुआ। भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र तथा बाबू अयोध्या प्रसाद खत्रीने खड़ी बोली के दोनों रूपों को सुधारने में महान प्रयत्न किया। उन्होंने अपनी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा द्वारा हिंदी साहित्य की सम्यक संवर्धना की।

इस काल के आरंभ में राजा लक्ष्मण सिंह, भारतेंदु हरिश्चंद्र, जगन्नाथ दास रत्नाकर, श्रीधर पाठक, रामचंद्र शुक्ल आदि ने ब्रजभाषा में काव्य रचना की। इनके उपरांत भारतेंदु जी ने गद्य का समुचित विकास किया और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसी गद्य को प्रांजल रूप प्रदान किया। इसकी सत्प्रेरणाओं से अन्य लेखकों और कवियों ने भी अनेक भांति की काव्य रचना की। इनमें मैथिलीशरण गुप्त, रामचरित उपाध्याय, नाथूराम शर्मा शंकर, ला. भगवान दीन, रामनरेश त्रिपाठी, जयशंकर प्रसाद, गोपाल शरण सिंह, माखन लाल चतुर्वेदी, अनूप शर्मा, रामकुमार वर्मा, श्याम नारायण पांडेय, दिनकर, सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रभाव से हिंदी-काव्य में भी स्वच्छंद (अतुकांत) छंदों का प्रचलन हुआ।

भारतेंदु युग

भारतेंदु युग का नामकरण हिंदी नवजागरण के अग्रदूत भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम पर किया गया है। भारतेंदु युग की प्रवृत्तियां नवजागरण, सामाजिक, चेतना, भक्ति भावना, श्रृंगारिक्ता रीति निरूपण समस्या पूर्ति थी।

हिंदी साहित्य के भारतेंदु युग में भारतेंदु को केंद्र में रखते हुए अनेक कृति साहित्यकारों का एक उज्जवल मंडल प्रस्तुत हुआ जिसे भारतेंदु मंडल के नाम से जाना गया। इसमें भारतेंदु के समान धर्मा रचनाकार थे। इस मंडल के रचनाकारों ने भारतेंद्र से प्रेरणा ग्रहण की और हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि का काम किया।

आधुनिक हिंदी काव्य के प्रथम चरण को “भारतेन्दु युग” की संज्ञा प्रदान की गई है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र को हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग का प्रतिनिधि माना जाता है। उन्होंने “कविवचन सुधा”, “हरिश्चन्द्र मैगज़ीन” और “हरिश्चंद्र पत्रिका” भी निकाली। इसके साथ ही अनेक नाटकों आदि की रचना भी की। भारतेन्दु युग में निबंध, नाटक, उपन्यास तथा कहानियों की रचना हुई।

नवजागरण काल– भारतेंदु काल को “नवजागरण काल” भी कहा गया है। हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के संक्राति काल के दो पक्ष हैं। इस समय के दरम्यान एक और प्राचीन परिपाटी में काव्य रचना होती रही और दूसरी ओर सामाजिक राजनीतिक क्षेत्रों में जो सक्रियता बढ़ रही थी और परिस्थितियों के बदलाव के कारण जिन नये विचारों का प्रसार हो रहा था, उनका भी धीरे-धीरे साहित्य पर प्रभाव पड़ने लगा था।

प्रारंभ के 25 वर्षों (1843 से 1869) तक साहित्य पर यह प्रभाव बहुत कम पड़ा, किन्तु सन 1868 के बाद नवजागरण के लक्षण अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगे थे। विचारों में इस परिवर्तन का श्रेय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को है। इसलिए इस युग को “भारतेन्दु युग” भी कहते हैं। भारतेन्दु के पहले ब्रजभाषा में भक्ति और श्रृंगार परक रचनाएँ होती थीं और लक्षण ग्रंथ भी लिखे जाते थे।

भारतेन्दु के समय से काव्य के विषय चयन में व्यापकता और विविधता आई। श्रृंगारिकता, रीतिबद्धता में कमी आई। राष्ट्र-प्रेम, भाषा-प्रेम और स्वदेशी वस्तुओं के प्रति प्रेम कवियों के मन में भी पैदा होने लगा। उनका ध्यान सामाजिक समस्याओं और उनके समाधान की ओर भी गया। इस प्रकार उन्होंने सामाजिक राजनीतिक क्षेत्रों में गतिशील नवजागरण को अपनी रचनाओं के द्वारा प्रोत्साहित किया।

भारतेंदु युग के प्रमुख रचनाकार– भारतेंदु मंडल के प्रमुख रचनाकार भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रताप नारायण मिश्र ,बद्रीनारायण चौधरी (प्रेमघन), बालकृष्ण भट्ट, अंबिकादत्त व्यास, राधा चरण गोस्वामी, ठाकुर जगमोहन सिंह, लाला श्रीनिवास दास, सुधाकर द्विवेदी, राधा कृष्ण दास आदि थे।

द्विवेदी युग

हिंदी साहित्य में दिवेदी युग बीसवीं सदी के पहले दो दशकों का युग है। द्विवेदी युग का समय सन 1900 से 1920 तक माना जाता है। बीसवीं शताब्दी के पहले दो दशक के पथ-प्रदर्शक, विचारक और साहित्य नेता आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर ही इस काल का नाम “द्विवेदी युग” पड़ा। इसे “जागरण सुधारकाल” भी कहा जाता है।

महावीर प्रसाद द्विवेदी हिन्दी के ऐसे पहले लेखक थे, जिन्होंने अपनी जातीय परंपरा का गहन अध्ययन ही नहीं किया था, अपितु उसे आलोचकीय दृष्टि से भी देखा। उन्होंने वेदों से लेकर पंडितराज जगन्नाथ तक के संस्कृत साहित्य की निरंतर प्रवाहमान धारा का अवगाहन किया एवं उपयोगिता तथा कलात्मक योगदान के प्रति एक वैज्ञानिक नज़रिया अपनाया। कविता की दृष्टि से द्विवेदी युग “इतिवृत्तात्मक युग” था। इस समय आदर्शवाद का बोलबाला रहा।

भारत का उज्ज्वल अतीत, देश-भक्ति, सामाजिक सुधार, स्वभाषा-प्रेम आदि कविता के मुख्य विषय थे। नीतिवादी विचारधारा के कारण श्रृंगार का वर्णन मर्यादित हो गया। कथा-काव्य का विकास इस युग की विशेषता है। मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्यासिंह उपाध्याय “हरिऔध”, श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी आदि इस युग के यशस्वी कवि थे।

जगन्नाथदास “रत्नाकर” ने इसी युग में ब्रजभाषा में सरस रचनाएँ प्रस्तुत कीं। दो दशकों के कालखंड में हिंदी कविता को श्रृंगारिकता से राष्ट्रीयता, जड़ता से प्रगति तथा रूढ़ि से स्वच्छंदता के द्वार पर ला खड़ा किया। द्विवेदी युग को जागरण सुधार काल भी कहा जाता है .द्विवेदी युग के पथ प्रदर्शक विचारक और सर्व स्वीकृत साहित्य नेता आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर इसका नाम द्विवेदी युग रखा गया है।

1903 में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने “सरस्वती” पत्रिका के संपादन का भार संभाला। उन्होंने खड़ी बोली गद्य के स्वरूप को स्थिर किया और पत्रिका के माध्यम से रचनाकारों के एक बड़े समुदाय को खड़ी बोली में लिखने को प्रेरित किया।

इस काल में निबंध, उपन्यास, कहानी, नाटक एवं समालोचना का अच्छा विकास हुआ। इस युग के निबंधकारों में महावीर प्रसाद द्विवेदी, माधव प्रसाद मिश्र, श्यामसुंदर दास, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बालमुकंद गुप्त और अध्यापक पूर्णसिंह आदि उल्लेखनीय हैं। इनके निबंध गंभीर, ललित एवं विचारात्मक हैं, किशोरीलाल गोस्वामी और बाबू गोपाल राम गहमरी के उपन्यासों में मनोरंजन और घटनाओं की रोचकता है।

हिन्दी कहानी का वास्तविक विकास “द्विवेदी युग” से ही शुरू हुआ। किशोरी लाल गोस्वामी की “इंदुमती” कहानी को कुछ विद्वान् हिन्दी की पहली कहानी मानते हैं। अन्य कहानियों में बंग महिला की “दुलाई वाली”, रामचन्द्र शुक्ल की “ग्यारह वर्ष का समय”, जयशंकर प्रसाद की “ग्राम” और चंद्रधर शर्मा गुलेरी की “उसने कहा था” आदि महत्त्वपूर्ण हैं। समालोचना के क्षेत्र में पद्मसिंह शर्मा उल्लेखनीय हैं। अयोध्यासिंह उपाध्याय “हरिऔध”, शिवनंदन सहाय तथा राय देवीप्रसाद पूर्ण द्वारा भी कुछ नाटक लिखे गए।

द्विवेदी युग के प्रमुख कवि– इस युग के प्रसिद्ध कवियों में जिन्हें गिना जाता है, उनके नाम इस प्रकार हैं- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, अयोध्यासिंह उपाध्याय “हरिऔध”, रामचरित उपाध्याय, जगन्नाथदास “रत्नाकर”, गयाप्रसाद शुक्ल “सनेही”, श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी, मैथिलीशरण गुप्त, लोचन प्रसाद पाण्डेय, सियारामशरण गुप्त।

छायावादी युग

हिंदी साहित्य के इतिहास में छायावाद के वास्तविक अर्थ को लेकर विद्वानों में विभिन्न मतभेद है। छायावाद का अर्थ मुकुटधर पांडे ने “रहस्यवाद, सुशील कुमार ने “अस्पष्टता” महावीर प्रसाद द्विवेदी ने “अन्योक्ति पद्धति”, रामचंद्र शुक्ल ने “शैली बैचित्र्य”, नंददुलारे बाजपेई ने “आध्यात्मिक छाया का भान”, डॉ नगेंद्र ने “स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह”बताया है।

“द्विवेदी युग” के बाद के समय को छायावाद युग कहा जाता है। बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध छायावादी कवियों का उत्थान काल था। इस युग को जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” और सुमित्रानंदन पंत जैसे छायावादी प्रकृति उपासक-सौन्दर्य पूजक कवियों का युग कहा जाता है। “द्विवेदी युग” की प्रतिक्रिया का परिणाम ही “छायावादी युग” है।

छायावादी युग में हिन्दी साहित्य में गद्य गीतों, भाव तरलता, रहस्यात्मक और मर्मस्पर्शी कल्पना, राष्ट्रीयता और स्वतंत्र चिन्तन आदि का समावेश होता चला गया। इस समय की हिन्दी कविता के अंतरंग और बहिरंग में एकदम परिवर्तन हो गया। वस्तु निरूपण के स्थान पर अनुभूति निरूपण को प्रधानता प्राप्त हुई थी। प्रकृति का प्राणमय प्रदेश कविता में आया। जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”, सुमित्रानन्दन पंत और महादेवी वर्मा “छायावादी युग” के चार प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं।

छायावाद के कवि– जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा इस युग के चार प्रमुख कवि हैं।

छायावादोत्तर युग या शुक्लोत्तर युग – काव्यखंड

सन् 1936 ईo से 1947 ईo तक के काल को शुक्लोत्तर युग/छायावादोत्तर युग कहा गया। छायावादोत्तर युग में हिन्दी काव्यधारा बहुमुखी हो जाती है-

पुरानी काव्यधारा

  1. राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्यधारा– सियाराम शरण गुप्त, माखन लाल चतुर्वेदी, दिनकर, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, सोहन लाल द्विवेदी, श्याम नारायण पाण्डेय आदि।
  2. उत्तर-छायावादी काव्यधारा– निराला, पंत, महादेवी, जानकी वल्लभ शास्त्री आदि।

नवीन काव्यधारा

  1. वैयक्तिक गीति कविता धारा (प्रेम और मस्ती की काव्य धारा)- बच्चन, नरेंद्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, भगवती चरण वर्मा, नेपाली, आरसी प्रसाद सिंह आदि।
  2. प्रगतिवादी काव्यधारा – केदारनाथ अग्रवाल, राम विलास शर्मा, नागार्जुन, रांगेय राघव, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, त्रिलोचन आदि।
  3. प्रयोगवादी काव्य धारा – अज्ञेय, गिरिजा कुमार माथुर, मुक्तिबोध, भवानी प्रसाद मिश्र, शमशेर बहादुर
  4. नयी कविता काव्य धारा – सिंह, धर्मवीर भारती आदि।

प्रगतिवाद

प्रगतिवाद एक राजनैतिक एवं सामाजिक शब्द है। ‘प्रगति शब्द का अर्थ है ‘आगे बढ़ना, उन्नति। प्रगतिवाद का अर्थ है ”समाज, साहित्य आदि की निरन्तर उन्नति पर जोर देने का सिद्धांत।’ प्रगतिवाद छायावादोत्तर युग के नवीन काव्यधारा का एक भाग हैं।

यह उन विचारधाराओं एवं आन्दोलनों के सन्दर्भ में प्रयुक्त किया जाता है जो आर्थिक एवं सामाजिक नीतियों में परिवर्तन या सुधार के पक्षधर हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से अमेरिका में प्रगतिवाद २०वीं शती के आरम्भ में अपने शीर्ष पर था जब गृह-युद्ध समाप्त हुआ और बहुत तेजी से औद्योगीकरण आरम्भ हुआ।

प्रगतिवाद (1936 ई०से…) संगठित रूप में हिन्दी में प्रगतिवाद का आरंभ ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ द्वारा 1936 ई० में लखनऊ में आयोजित उस अधिवेशन से होता है जिसकी अध्यक्षता प्रेमचंद ने की थी। इसमें उन्होंने कहा था, ‘साहित्य का उद्देश्य दबे-कुचले हुए वर्ग की मुक्ति का होना चाहिए।’

1935 ई० में इ० एम० फोस्टर ने प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन नामक एक संस्था की नींव पेरिस में रखी थी। इसी की देखा देखी सज्जाद जहीर और मुल्क राज आनंद ने भारत में 1936 ई० में प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना की।

प्रयोगवाद

प्रयोगवाद (1943 ई० से…) यों तो प्रयोग हरेक युग में होते आये हैं किन्तु ‘प्रयोगवाद‘ नाम कविताओं के लिए रूढ़ हो गया है जो कुछ नये बोधों, संवेदनाओं तथा उन्हें प्रेषित करनेवाले शिल्पगत चमत्कारों को लेकर शुरू-शुरू में ‘तार सप्तक’ के माध्यम से वर्ष 1943 ई० में प्रकाशन जगत में आई और जो प्रगतिशील कविताओं के साथ विकसित होती गयी तथा जिनका पर्यावसान ‘नयी कविता’ में हो गया।

काव्य में अनेक प्रकार के नए-नए कलात्मक प्रयोग किये गए इसीलिए इस कविता को प्रयोगवादी कविता कहा गया प्रयोगवादी काव्य में शैलीगत तथा व्यंजनागत नवीन प्रयोगों की प्रधानता होती है।

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त के शब्दों में – “नयी कविता,नए समाज के नए मानव की नयी वत्तियों की नयी अभिव्यक्ति नयी शब्दावली में हैं,जो नए पाठकों के नए दिमाग पर नए ढंग से नया प्रभाव उत्पन्न करती हैं।”

प्रयोगवाद का जन्म ‘छायावाद’ और ‘प्रगतिवाद’ की रुढ़ियों की प्रतिक्रिया में हुआ। डॉ. नगेन्द्र प्रयोगवाद के उदय के विषय में लिखते हैं ‘भाव क्षेत्र में छायावाद की अतिन्द्रियता और वायवी सौंदर्य चेतना के विरुद्ध एक वस्तुगत, मूर्त और ऐन्द्रिय चेतना का विकास हुआ और सौंदर्य की परिधि में केवल मसृण और मधुर के अतिरिक्त पुरुष, अनगढ़, भदेश आदि का समावेश हुआ।’

छायावादी कविता में वैयक्तिकता तो थी, किंतु उस वैयक्तिकता में उदात्त भावना थी। इसके विपरीत्त प्रगतिवाद में यथार्थ का चित्रण तो था, किंतु उसका प्रतिपाद्य विषय पूर्णत: सामाजिक समस्याओं पर आधारित था और उसमें राजनीति की बू थी।

“अत: इन दोनों की प्रतिक्रिया स्वरूप प्रयोगवाद का उद्भव हुआ, जो ‘घोर अहंमवादी’, ‘वैयक्तिकता’ एवं ‘नग्न-यथार्थवाद’ को लेकर चला।”

श्री लक्ष्मी कांत वर्मा के शब्दों में, ‘प्रथम तो छायावाद ने अपने शब्दाडम्बर में बहुत से शब्दों और बिम्बों के गतिशील तत्त्वों को नष्ट कर दिया था। दूसरे, प्रगतिवाद ने सामाजिकता के नाम पर विभिन्न भाव-स्तरों एवं शब्द-संस्कार को अभिधात्मक बना दिया था।

ऐसी स्थिति में नए भाव-बोध को व्यक्त करने के लिए न तो शब्दों में सामर्थ्य था और न परम्परा से मिली हुई शैली में। परिणामस्वरूप उन कवियों को जो इनसे पृथक थे,सर्वथा नया स्वर और नये माध्यमों का प्रयोग करना पड़ा। ऐसा इसलिए और भी करना पड़ा,क्योंकि भाव-स्तर की नई अनुभूतियां विषय और संदर्भ में इन दोनों से सर्वथा भिन्न थी।

प्रयोग शब्द का सामान्य अर्थ है, ‘नई दिशा में अन्वेषण का प्रयास’। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रयोग निरंतर चलते रहते हैं। काव्य के क्षेत्र में भी पूर्ववर्ती युग की प्रतिक्रिया स्वरूप या नवीन युग-सापेक्ष चेतना की अभिव्यक्ति हेतु प्रयोग होते रहे हैं। सभी जागरूक कवियों में रूढ़ियों को तोड़कर या सृजित पथ को छोड़ कर नवीन पगडंडियों पर चलने की प्रवृत्ति न्यूनाधिक मात्रा में दिखाई पड़ती है। चाहे यह पगडंडी राजपथ का रूप ग्रहण न कर सके।

सन् 1943 या इससे भी पांच-छ: वर्ष पूर्व हिंदी कविता में प्रयोगवादी कही जाने वाली कविता की पग-ध्वनि सुनाई देने लगी थी। कुछ लोगों का मानना है कि 1939 में नरोत्तम नागर के संपादकत्व में निकलने वाली पत्रिका ‘उच्छृंखल’ में इस प्रकार की कविताएं छपने लगी थी जिसमें ‘अस्वीकार’,’आत्यंतिक विच्छेद’ और व्यापक ‘मूर्ति-भंजन’ का स्वर मुखर था तो कुछ लोग निराला की ‘नये पत्ते’, ‘बेला’ और ‘कुकुरमुत्ता’ में इस नवीन काव्य-धारा के लक्षण देखते हैं।

लेकिन 1943 में अज्ञेय के संपादन में ‘तार-सप्तक’ के प्रकाशन से प्रयोगवादी कविता का आकार स्पष्ट होने लगा और दूसरे तार-सप्तक के प्रकाशन वर्ष 1951 तक यह स्पष्ट हो गया।

नयी कविता

नयी कविता (1951 ई० से…): यों तो ‘नयी कविता‘ के प्रारंभ को लेकर विद्वानों में विवाद है, लेकिन ‘दूसरे सप्तक’ के प्रकाशन वर्ष 1951 ई०से नयी कविता’ का प्रारंभ मानना समीचीन है। इस सप्तक के प्रायः कवियों ने अपने वक्तव्यों में अपनी कविता को नयी कविता की संज्ञा दी है।

  • नयी कविता हिंदी साहित्य की उन कविताओं को कहा गया, जिनमें परंपरागत कविता से आगे नये भावबोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों और नये शिल्प-विधान का अन्वेषण किया गया।
  • यह प्रयोगवाद के बाद विकसित हुई हिंदी कविता की नवीन धारा है।
  • नई कविता अपनी वस्तु-छवि और रूप-छवि दोनों में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद का विकास होकर भी विशिष्ट है।

आधुनिक हिंदी कविता प्रयोगशीलता की प्रवृति से आगे बढ़ गयी है और अब वह पहले से अपनी पूर्ण पृथकता घोषित करने के लिए प्रयत्नशील है.आधुनिक काल की इस नवीन काव्यधारा को अभी तक कोई नया नाम नहीं दिया गया है।

केवल नयी कविता नाम से ही अभी इसका बोध कराया जाता है सन १९५४ ई. में डॉ.जगदीश गुप्त और डॉ.रामस्वरुप चतुर्वेदी के संपादन में नयी कविता काव्य संकलन का प्रकाशन हुआ। इसी को आधुनिक काल के इस नए रूप का आरम्भ माना जाता है। इसके पश्चात इसी नाम के पत्र पत्रिकाओं तथा संकलनों के माध्यम से यह काव्यधारा निरंतर आगे बढ़ती चली आ रही हैं।

नयी कविता में प्रयोगवाद की संकचिता से ऊपर उठकर उसे अधिक उदार और व्यापक बनाया नयी कविता की आधारभूत विश्शेश्ता यह है कि वह किसी भी दर्शन के साथ बंधी नहीं है और वर्तमान जीवन के सभी स्तरों के यथार्थ को नयी भाषा नवीन अभिव्यजना विधान और नूतन कलात्मकता के साथ अभिव्यक्त करने
में संलठन है।

हिंदी की यह नयी कविता के परंपरागत रूप से इतनी भिन्न हो गयी है कि इस कविता न कहकर अकविता कहा जाने लगा है।

जिस तरह प्रयोगवादी काव्यांदोलन को शुरू करने का श्रेय अज्ञेय की पत्रिका ‘प्रतीक’ को प्राप्त है उसी तरह नयी कविता आंदोलन को शुरू करने का श्रेय जगदीश प्रसाद गुप्त के संपादकत्व में निकलनेवाली पत्रिका ‘नयी कविता’ को जाता है।

‘नयी कविता’ भारतीय स्वतंत्रता के बाद लिखी गयी उन कविताओं को कहा जाता है, जिनमें परम्परागत कविता से आगे नये भाव बोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों और नये शिल्प विधान का अन्वेषण किया गया।

अज्ञेय को ‘नयी कविता का भारतेन्दु‘ कह सकते हैं क्योंकि जिस प्रकार भारतेन्दु ने जो लिखा सो लिखा ही, साथ ही उन्होंने समकालीनों को इस दिशा में प्रेरित किया उसी प्रकार अज्ञेय ने भी स्वयं पृथुल साहित्य सृजन किया तथा औरों को प्रेरित-प्रोत्साहित किया।

आम तौर पर ‘दूसरा सप्तक’ और ‘तीसरा सप्तक’ के कवियों को नयी कविता के कवियों में शामिल किया जाता है।

  •  ‘दूसरा सप्तक‘ के कविगण रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, नरेश
    मेहता, शमशेर बहादुर सिंह, भवानी प्रसाद मिश्र, शकुंतला माथुर व हरि नारायण व्यास।
  • तीसरा सप्तक‘ के कविगण : कीर्ति चौधरी, प्रयाग नारायण त्रिपाठी, केदार नाथ सिंह, कुँवर नारायण, विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना व मदन वात्स्यायन।
  • अन्य कवि : श्रीकांत वर्मा, दुष्यंत कुमार, मलयज, सरेंद्र तिवारी, धूमिल, लक्ष्मीकात वर्मा, अशोक बाजपेयी, चंद्रकांत देवताले आदि।

नवगीत (गीति काव्य)

हिन्दी साहित्य में गीतिकाव्य की परंपरा आदिकाल से ही रही है। इसकी झलक विद्यापति, अमीर खुसरो की रचनाओं में देखने को मिलती है। भक्तिकाल के कवियों में इसका चरमोत्कर्ष देखने को मिलता है, खासकर कृष्णभक्त कवियों में सूरदास, नंददास, मीराबाई के पद गेय रहे है। रीतिकाल में नृत्य, संगीत जैसे कलाओं का बहुमुखी विकास हुआ। यहाँ से भारतेन्दु काल तक गीत परंपरा की जड़ों से पोषित रहे है। द्विवेदी युग में प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी ने सफल गीतों का लेखन किया।

नवगीत‘ नाम सर्वप्रथम श्री. राजेद्र प्रसाद सिंह ने ‘गीतांगिनी’ के माध्यम से सन 1958 में प्रदान किया। इन्होंने ही ‘आईना’ पत्रिका के माध्यम से नवगीत को नई ऊँचाइयाँ दीं।

नवगीत का आधुनिक विकास तीन कालखंडों में विभाजित कर देखा जा सकता है-

  1. प्रथम स्तर (1950 से 1960 तक)
  2. द्वित्तीय स्तर (1960 से 1970 तक)
  3. तृतीय स्तर (1970 से अब तक)

नवगीत कवि और उनकी प्रतिनिधि रचनाएं:

  • शंभुनाथ सिंह:- माध्यम मैं, जहाँ दर्द नीला है
  • रामदरश मिश्र:- मेरे प्रिय गीत
  • कुँवर बेचैन:- भीतर साँकल-बाहर साँकल
  • अनुप अशेष:- वह मेरे गाँव की हँसी थी
  • मयंक श्रीवास्तव:- सहसा हुआ घर
  • देवेद्र शर्मा इंद्र:- पथरीले शोर में, कुहरे की प्रत्यांचा
  • विरेद्र मिश्र:- अविराम चल मधुवंती
  • योगेद्रदत्त शर्मा:- खुशबुओं के दंश
  • जहीर कुरेशी:- एक टुकडा धूप
  • महेश्वर तिवारी:- हरसिंगार कोई तो हो
  • ठाकुरप्रसाद सिंह:- वंशी और मादल
  • उमाकांत मालवीय:- एक चावल नेह रीधा
  • बुध्दिनाथ मिश्र:- जाल फेक रे मछेरे
  • श्रीराम सिंह शलभ:- पॉच जोड बाँसूरी
  • पाल भसीन:- खुशबुओं की सौगात
  • नचिकेता:- आदमकद खबरे
  • विद्यासागर वर्मा:- कोहरे का गाँव
  • रमेश रंजक:- हरापन नहीं टुटेगा

उपन्यास

हिंदी में उपन्यास शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के उपन्यस्त शब्द से हुआ है। उपन्यास शब्द का शाब्दिक अर्थ है- उप + न्यास, निकट रखी हुई वस्तु। अर्थात हमारी कथा, भाषा, संस्कृति, प्रकृति को अपनी कहानी के रूप में, अपने जबान में व्यक्त की हुई रचना, उपन्यास होती है।

इसलीए प्रेमचंद ने उसकी परिभाषा देते हुए कहा है की, “मैं उपन्यास को मानव जीवन का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है।”

इस दृष्टि से उपन्यास की कथा मानव जीवन से जुड़ी और उसके व्यक्तित्व के रहस्यों को खोलने वाली होती है। वह कल्पनात्मक एवं यथार्थ होती है। जीवन की तरह उसकी घटनाएँ क्रमबध्द होती है।

  • वर्तमान में हिंदी में उपन्यास शब्द अंग्रेजी नॉवेल का पर्याय मात्र बनकर रह गया है।
  • हिंदी का पहला मौलिक उपन्यास ‘लाला श्री निवास दास’ द्वारा लिखित “परीक्षा गुरु” को माना जाता है।

उपन्यास के विकास क्रम को स्पष्ट करने के लिए मुख्यतः निम्न आधारों को ग्रहण किया जाता है-

  1. प्रेमचंद पूर्व युग (1877-1918)
  2. प्रेमचंद युग (1918-1936)
  3. प्रेमचंदोत्तर युग विभिन्न प्रवृत्तियाँ सामाजिक मनोवैज्ञानिक, प्रगतिवाद, प्रयोगशील (1936-1960)
  4. साठोत्तरी उपन्यास
  5. समकालीन परिदृश्य (1960 से 2000 तक)
    1. आधुनिकता-बोध (1960- 1980)
    2. उत्तर-आधुनिकता बोध (1981-2000)
  6. त्रासदी का प्रारंभिक दशक – (2000 से 2010)

मुंशी प्रेमचंद ने हिंदी उपन्यास को सामाजिक-सामयिक जीवन से सम्बद्ध करके एक नया मोड़ दिया था। वे उपन्यास को मानव चरित्र का चित्रण समझते थे। प्रेमचंद के बाद जैनेंद्र, इलाचंद्र जोशी, अज्ञेय, यशपाल, उपेंद्र नाथ अश्क, भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर, नरेश मेहता, फणीश्वर नाथ रेणु, धर्मवीर भारती, राजेंद्र यादव, आदि लेखको ने हिंदी उपन्यास साहित्य को समृद्ध किया है।

हिन्दी कहानी

कहानी, हिन्दी गद्य साहित्य की सबसे प्राचीन विधा है। मानव सभ्यताओं के विकास के साथ-साथ कहानी का भी जन्म हुआ, और कहानी सुनाना एवं सुनना मानव का जन्मजात स्वभाव बन गया। इसी कारण से आज भी प्रत्येक समाज में कहानियाँ पाई जाती हैं। भारत में कहानियों की बड़ी लंबी, उत्तम और सम्पन्न परंपरा रही है।

कहानी के विषय में प्रेमचंद का कथन है कि, “कहानी वह रचना है जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उददेश्य रहता है। उसके चरित्र, उसकी शैली, उसका कथा विन्यास उसी एक भाव की पुष्टि करते हैं। उपन्यास की भाँति उसमें मानव-जीवन का संपूर्ण तथा बृहत रूप दिखाने का प्रयास नहीं किया जाता। वह ऐसा रमणीय उद्यान नहीं जिसमें भाँति-भाँति के फूल, बेल-बूटे सजे हुए हैं, बल्कि एक गमला है जिसमें एक ही पौधे का माधुर्य अपने समुन्नत रूप में दृष्टिगोचर होता है।”

  • किशोरीलाल गोस्वामी द्वारा लिखित कहानी “इन्दुमती” को सभी विद्वान प्रथम कहानी स्वीकार करते हैं, जिसकी रचना सन 1811 में हुई है।
  • हिन्दी कहानी का वास्तविक प्रारंभ भारतेंदु काल के उपरान्त 20वीं सदी के आरम्भ मे हुआ।

20वीं सदी से पूर्व ‘बैताल पच्चीसी’, ‘सिंहासन बत्तीसी’ आदि कथाओं का संस्कृत से अनुवाद किया गया था। कुछ लोग गोकुलनाथ की ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ को हिन्दी की पहली गद्य-कहानियों का संग्रह मानते है। जिसमें प्रमुख कृष्णभक्त वैष्णवों का जीवन-चरित दिया गया है। परन्तु इन्हे कहानियाँ न मानकर पुरानी शैली के जीवन-चरित मानना ही अधिक उचित है।

लल्लू लालजी, सदल मिश्र, इंशाअल्ला खाँ के ग्रन्थ एक प्रकार से विभिन्न कथाओं के संग्रह मात्र माने जा सकते है। अगर ‘कहानी’ शब्द मात्र से कहानी का अर्थ लिया जाए तो ‘रानी केतकी की कहानी‘ हिन्दी की सर्वप्रथम मौलिक कहानी मानी जानी चाहिए। इसमें कथा को छोडकर कहानी के अन्य तत्त्वों का अभाव है।

इसी प्रकार राजा शिवप्रसाद ‘सितार-ए-हिन्द’ द्वारा लिखित ‘राजा भोज का सपना‘ तथा ‘वीरसिंह वृतान्त‘ को भी पूर्ण रूप से कहानी नही माना जाना चाहिए क्योंकि इसमे चरित्र-चित्रण और कथोपकथन का अभाव है। भारतेंदु युग के अन्त मे उपन्यास तो लिखे जाने लगे थे परन्तु कहानियाँ लिखना आरम्भ न हो पाया था। उपन्यासो की भाँति भारतेंदु युग में बँगला, मराठी और अंग्रेजी से कुछ कहानियों का अनुवाद अवश्य किया गया था।

हिन्दी कहानी के विकास का अध्ययन करने के लिए हम कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द को यदि केन्द्र-बिन्दु मान लें तो उसे चार भागों में विभाजित कर सकते हैं-

  1. प्रेमचन्द पूर्व कहानी (1811 से 1907 तक)
  2. प्रेमचन्द युगीन कहानी (1907 से तक)
  3. प्रेमचंदोत्तर कहानी (1936 से 1960 तक)
  4. नई कहानी – स्वतंत्र्योत्तर कहानी (1960 से अब तक)

हिंदी कहानी के विकास में प्रेमचंद का महत्वपूर्ण योगदान है। प्रेमचंदोत्तर या छायावादोत्तर युग में जैनेंद्र, अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी, यशपाल, उपेंद्र नाथ अश्क, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, अमरकांत, मोहन राकेश, फणीश्वर नाथ रेणु, बृजेंद्र नाथ निर्गुण, शिवप्रसाद सिंह, धर्मवीर भारती, मन्नू भंडारी, शिवानी, निर्मल वर्मा, आदि लेखकों ने इस दिशा को अधिक कलात्मक तथा समृद्ध बनाया है।

हिन्दी नाटक

हिन्दी में नाटक के स्वरुप का समुचित विकास आधुनिक युग में भारतेंदु हरिश्चंद्र के काल से आरंभ से होता है। सन् 1850 से अब तक के नाटक साहित्य को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. भारतेन्दु युग (1850 से 1900 ई.)
  2. प्रसाद युग (1900 से 1930 ई.)
  3. प्रसादोत्तर युग (1930 से अब तक )

नाटक काव्य का एक रूप है, अर्थात जो रचना केवल श्रवण द्वारा ही नहीं, अपितु दृष्टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानुभूति कराती है उसे नाटक कहते हैं। हिन्दी का पहला नाटक ‘नहुष’ है जिसका रचनाकाल 1857 ई. है और लेखकगोपाल चन्द्र गिरधरदास” हैं।

हिंदी साहित्य में मौलिक नाटकों का आरंभ भारतेंदु हरिश्चंद्र से माना जाता है। द्विवेदी युग में इसका अधिक विकास नहीं हुआ था। छायावाद युग में जयशंकर प्रसाद ने ऐतिहासिक नाटकों के विकास में योगदान रहा है, छायावादोत्तर युग में लक्ष्मी नारायण मिश्र, उदय शंकर भट्ट, उपेंद्रनाथ अश्क, सेठ गोविंद दास, डॉ. रामकुमार वर्मा, जगदीश चंद्र माथुर, मोहन राकेश, आदि ने इस विधा में कार्य किया है।

हिन्दी निबंध

भारतेन्दु युग से लेकर अब तक के निबन्ध साहित्य को चार विभागों में विभाजित किया जा सकता हैं-

  1. भारतेन्दु युग (सन् 1857-1900) – हिन्दी निबन्ध का अभ्युत्थान
  2. द्विवेदी युग (सन् 1900-1920) – हिन्दी निबन्ध का परिमार्जन
  3. शुक्ल युग (सन् 1920-1940) – हिन्दी निबन्ध का उत्कर्ष
  4. शुक्लोत्तर युग (सन् 1940 – अबतक ) – हिन्दी निबन्ध का प्रसरण

हिन्दी साहित्य में गद्य का प्रारम्भ ‘भारतेन्दु युग’ से माना जाता है, इस काल में भारतेन्दु और अन्य लेखकों को सर्वाधिक सफलता प्राप्त हुई निबन्ध लेखन से। इस काल में प्रमुख लेखकों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रताप नारायण मिश्र (दाँत, भौं, नारी) बाल कृष्ण भट्ट (कृषकों की दुरावस्था) तथा प्रेमघन का नाम लिया जा सकता है। द्विवेदी युग के निबन्ध लेखकों में महावीर प्रसाद द्विवेदी, बालमुकुन्द गुप्त (शिवशंभु का चिट्ठा), सरदार पूर्णसिंह, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने प्रसिद्धि प्राप्त की है। छायावाद युग तो निबन्ध के क्षेत्र में शुक्ल युग के नाम से ही जाना जाता है।

अन्य निबन्धकारों में जिन लेखकों ने अपनी पहचान बनाई है वे हैं- नंद दुलारे वाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. नगेन्द्र, दिनकर, अज्ञेय, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, विद्यानिवास मिश्र तथा कुबेरनाथ राय आदि।

भारतेन्दु काल में ही निबंध का विकास क्यूँ हुआ? इसके कारण स्पष्ट ही हैं – एक तो अब गद्य का विकास हो चुका था और दूसरे मुद्रणतंत्र तथा समाचार पत्रों के प्रचलन ने साहित्य के इस अंग को प्रोत्साहन दिया। इसके अतिरिक्त भारतेन्दु युग के साहित्यकार पर विविधमुखी दायित्व था; जिसकी पूर्ति गद्य साहित्य के अन्य अन्गों की अपेक्षा निबन्ध के द्वारा सहज तथा सबल रुपमें हो सकती थी। भारतेन्दु पूर्व काल में उस सामाजिक और राजनीतिक चेतना का भी उन्मेश नहीं हुआ था; जिसने आधुनिक युग के निबन्धों में प्राण फूँके।

हिन्दी साहित्य का सर्व प्रथम कवि

हिन्दी साहित्य का प्रथम कवि कौन था, इस पर विद्वान एकमत नहीं है। विभिन्न साहित्यकारों के अनुसार हिन्दी साहित्य का पहला कवि:

क्रम साहित्यकार (इतिहासकार) पहला कवि
1. रामकुमार वर्मा के अनुसार  स्वयंभू (693 ई.)
2. राहुल सांकृत्यायन के अनुसार  सरहपा (769 ई.)
3. शिवसिंह सेंगर के अनुसार  पुष्पदन्त या पुण्ड (10वीं शताब्दी)
4. चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ के अनुसार  राजा मुंज (993 ई.)
5. रामचंद्र शुक्ल के अनुसार  राजा मुंज व भोज (993 ई.)
6. गणपति चंद्र गुप्त के अनुसार  शालिभद्र सूरि (1184  ई.)
7. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार  अब्दुल रहमान (13वीं शताब्दी)
8. बच्चन सिंह के अनुसार  विद्यापति (15वीं शताब्दी)

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अक्सर पूंछे जाने वाले प्रश्न उत्तर 

हिंदी साहित्य के इतिहास काल विभाजन कीजिए?

संपूर्ण इतिहास हिंदी साहित्य का विभाजन चार युग अथवा काल खंडों में किया गया है- (1)आदिकाल (2)भक्तिकाल (3)रीतिकाल (4)आधुनिक काल। आचार्य शुक्ल द्वारा और उनके अनुसरण पर नागरी प्रचारिणी सभा के इतिहासों में इसी को ग्रहण किया गया है। कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार केवल तीन युगों की कल्पना ही विवेक सम्मत है- (1)आदिकाल (2)मध्यकाल (3)आधुनिक काल; भारतीय हिंदी परिषद के इतिहास में इसे ही स्वीकार किया गया है और गणपति चंद्र गुप्त ने भी अपनी वैज्ञानिक इतिहास में इसी का अनुमोदन किया है।

आदिकाल का दूसरा नाम क्या है?

8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के मध्य तक के काल को आदिकाल कहा जाता है। इस युग को यह नाम डॉ॰ हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिला है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘वीरगाथा काल’ तथा विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे ‘वीरकाल‘ नाम दिया है। इस काल के समय के आधार पर साहित्य का इतिहास लिखने वाले मिश्र बंधुओं ने इसका नाम “आरंभिक काल” किया और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘बीजवपन काल‘। डॉ॰ रामकुमार वर्मा ने इस काल की प्रमुख प्रवृत्तियों के आधार पर इसको “चारण-काल” कहा है और राहुल संकृत्यायन ने “सिद्ध-सामन्त काल“।

हिंदी साहित्य का इतिहास कब और किसने लिखा?

हिंदी साहित्य का इतिहास आदिकाल से लिखना शुरू हुआ जिसमें हिंदी के कई विद्वानों ने अपना-अपना योगदान दिया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा लिखे गए ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास‘ को सबसे प्रामाणिक तथा व्यवस्थित इतिहास माना जाता है। आचार्य शुक्ल जी ने इसे “हिन्दी शब्दसागर की भूमिका” के रूप में लिखा था जिसे बाद में स्वतंत्र पुस्तक के रूप में 1929 ई० में प्रकाशित आंतरित कराया गया।

हिंदी साहित्य के जनक कौन है?

भारतेंदु हरिश्चंद्र को ‘आधुनिक हिंदी साहित्य का जनक’ कहा जाता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र (9 सितंबर 1850 – 6 जनवरी 1885) को हिंदी साहित्य के जनक के रूप में जाना जाता है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर 1850 को बनारस के कवि गोपाल चंद्र के घर पर हुआ था। 18 साल की उम्र में, उन्होंने बंगाली नाटक ‘विद्यासुंदर’ का हिंदी अनुवाद लिखा। हरिश्चंद्र ने हिंदी को स्थापित करने के लिए जो गद्य लिखा था, उसमें से अधिकांश आज हम कविवचनसुधा और हरिश्चंद्र पत्रिका में जानते हैं, जिसकी स्थापना उन्होंने 1873 में की थी। उन्होंने कलम नाम ‘रासा’ के तहत लिखा, देश की गरीबी, अमानवीय शोषण और विभिन्न अन्य सामाजिक कल्याण से जुड़े विषयों पर प्रकाश डाला।

हिंदी साहित्य का आरंभ कब हुआ?

हिन्दी का आरम्भिक साहित्य अपभ्रंश में मिलता है। हिन्दी भारत और विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। उसकी जड़ें प्राचीन भारत की संस्कृत तक जातीं हैं। परन्तु मध्ययुगीन भारत के अवधी, मागधी, अर्धमागधी तथा मारवाड़ी जैसी भाषाओं के साहित्य को हिन्दी का आरम्भिक साहित्य माना जाता हैं। हिंदी साहित्य का आरंभ 8वीं शताब्दी में आदिकाल के साथ माना जाता है।

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