बहुव्रीहि समास की परिभाषा
“अन्यपदार्थप्रधानो बहुव्रीहिः”, ‘अनेकमन्यपदार्थ’
बहुव्रीहि समास में समस्तपदों में विद्यमान दो में से कोई पद प्रधान न होकर तीसरे अन्य पद की प्रधानता होती है। इसमें अनेक प्रथमान्त सुबन्त पदों का समस्यमान पदों से अन्य पद के अर्थ में बहुव्रीहि समास होता है। जैसे-
- शुक्लम् अम्बरं यस्याः सा = शुक्लाम्बरा,
- लम्वं उदरं यस्य सः = लम्बोदरः,
- महान् आत्मा यस्य सः = महात्मा।
बहुव्रीहि समास के उदाहरण
- शुक्लम् अम्बरं यस्याः सा = शुक्लाम्बरा
- लम्वं उदरं यस्य सः = लम्बोदरः ।
- महान् आत्मा यस्य सः = महात्मा
बहुव्रीहि समास के भेद
बहुव्रीहि समास के दो मुख्य प्रकार होते हैं – 1. समानाधिकरण बहुव्रीहि और 2. व्यधिकरण बहुव्रीहि । दोनों का विवरण इस प्रकार है-
1. समानाधिकरण बहुव्रीहि
इस समास में प्रधान पद विशेषण होता है और दूसरा पद विशेष्य तथा सामासिक पद में अन्य पद की प्रधानता होती है। जैसे-
- दश आननानि यस्य सः = दशाननः
- जितानि इन्द्रयाणि यस्य सः = जितेन्द्रियः
2. व्यधिकरण बहुव्रीहि
इसमें समस्यमान पद भिन्न-भिन्न विभक्तिवाले होते हैं। इस समास में विशेषण-विशेष्य का भाव नहीं रहता है। जैसे-
- चन्द्रः(प्रथमा विभक्ति) शेखरे(सप्तमी विभक्ति) यस्य सः = चन्द्रशेखरः
बहुव्रीहि समास कुछ अन्य भेद
1. तुल्ययोग बहुव्रीहि
इसमें ‘सह’ (साथ) के द्वारा एक के साथ दूसरे का भी किसी क्रिया के साथ समान योग होता है। जैसे- पुत्रेण सह = सपुत्रः ।
2. कर्मव्यतिहार बहुव्रीहि
इसमें लड़ाई का बोध होने पर तृतीयान्त और सप्तम्यन्त पदों के साथ जो समास होता है, यानी जिस समास में क्रिया की अदला-बदली होती है। जैसे- केशेषु-केशेषु गृहीत्वा इदं युद्धं प्रवृत्तम् इति केशाकेशि। (परस्पर केशों (बालों) को पकड़-पकड़ कर लड़ी गई लडाई).
3. नञ् बहुव्रीहि
इसमें नञ (नहीं) शब्द के साथ समास होता है। जैसे- अविद्यमानः पुत्रः यस्य सः = अपुत्रः।
4. मध्यमपदलोपी बहुव्रीहि
इसमें बीच के पदों का लोप हो जाया करता है, परन्तु अन्य तीसरे पद की बात ही कही जाती है मध्यमपदलोपी तत्पुरुष की भाँति उन्हीं पदों में से किसी की प्रधानता नहीं रहती। जैसे- निर्गतं धन यस्मात् सः (लोप)= निर्धनः।
‘तेन सहेति तुल्ययोगे वोत्सिर्जनस्य”- ‘सह’ के साथ समास होने पर विकल्प से ‘स’ या ‘सह’ हो जाता है। जैसे–
- पुत्रेण सह वर्तमानः = सपुत्रः / सहपुत्रः।
‘नित्यमसिचु प्रजामेधयोः‘ – नञ् दुः और सु के साथ ‘प्रजा’ और ‘मेधा’ के साथ समास होने पर ‘असिच‘ प्रत्यय होता है। पदान्त में ‘अस्’ लगता है और उसका ‘वेधस्’ के समान रूप चलता है। जैसे-
- नास्ति प्रजाः यस्य सः = अप्रजाः
- सु प्रजाः यस्य सः = सुप्रजाः
- दुः मेधा यस्य सः = मुर्मेधाः
“धर्मादनिच केवलास” – ‘धर्म’ शब्द के बाद में ‘अनिच’ प्रत्यय लगता है। अनिच् का केवल ‘अन्’ रह जाता है। इसके समस्तपद का रूप ‘आत्मन’ के समान चलता है। जैसे-
- सुष्टुः धर्मः यस्य सः = सुधर्मा
- विदितः धर्मः येन सः – विदितधर्मा
“आत्महतः समानाधिकरणजातीयः” – कर्मधारय या बहुव्रीहि समास में पहले पद के स्थान पर यदि ‘महत्’ रहे तो उसका ‘महा’ हो जाता है। जैसे-
- महान्तौ बाहू यस्य सः = महाबाहुः (बहुव्रीहि)
- महान् राजा = महाराजः (कर्मधारय) ।
“धनुषश्च”- यदि बहुव्रीहि समासान्त में ‘धनुष’ शब्द रहे तो ‘अनङ’ प्रत्यय लगकर ‘धन्वा’ बन जाता है। इसका रूप भी ‘आत्मन्’ के समान ही चलता है। जैसे-
- शोभनं धनुः यस्य सः = सुधन्वा
“जायायानिङ्” बहुव्रीहि में ‘जाया’ का ‘जानि’ हो जाया करता है। जैसे-
- युवती जाया यस्य सः = युवजानि
- प्रिया जाया यस्य सः = प्रियजानि
‘‘नाभेः संज्ञायार्थी’’- संज्ञार्थ अथवा ‘नाभि’ के बाद ‘अपू’ प्रत्यय होता है। इस कारण से ‘नाम’ बन जाता है। इसका रूप ‘गज’ की तरह चलता है। जैसे-
- पद्मं नाभौ यस्य सः = पद्मनाभः
कर्मधारय और बहुव्रीहि में अन्तर
कर्मधारय समास | बहुव्रीहि समास |
---|---|
कर्मधारय तत्पुरुष का उपभेद है | बहुव्रीहि स्वतंत्र समास है |
कर्मधारय में विशेषण विशेष्य, उपमान-उपमेय का समास होता है इन्हीं दोनों में से किसी पद की प्रधानता होती है | बहुव्रीहि में अन्य पद प्रधान रहता है इसमें अवस्थित दो में से कोई पद प्रधान नहीं होता |
कर्मधारय समास का विग्रह पदात्मक होता है | बहुव्रीहि का विग्रह वाक्यात्मक होता है |
पीतम् अम्बरम् = पीताम्बरः पीला है कपड़ा जिसका-विष्णु | पीतम् अम्बरं यस्य = पीताम्बरः पीला कपड़ा |
बहुव्रीहि समास के अन्य उदाहरण
समास-विग्रह | समस्तपद | हिन्दी अर्थ |
---|---|---|
शुक्लम् अम्बरंयस्याः सा | शुक्लाम्बरा | सरस्वती |
लम्बे उदरं यस्य सः | लम्बोदरः | गणेश |
महान् आत्मा यस्य सः | महात्मा | – |
दशआननानि यस्य सः | दशाननः रावण | – |
चत्वारि आननानि यस्य सः | चतुराननः | ब्रह्मा |
प्राप्तम् उदकं यं सः | प्राप्तोदकः | जिसे जल प्राप्त हो |
प्राप्ता कुल्या यत् तत् | प्राप्तकुल्यम् | जहाँ तक नहर पहुँची |
वशीकृतं चित्तं यथा सा | वशीकृतचित्ता | जिसने अपने चित्त को वश में कर लिया वह |
दत्तं भोजनं यस्मै सः | दत्तभोजनः | जिसे भोजन दिया गया |
अर्पिता भक्तिः यस्यै सा | अर्पितभक्तिः | अर्पित है भक्ति जिसे वह |
दिक् अम्बरं यस्य सः | दिगम्बरः | दिक् दिशा है अम्वर जिसका वह |
वीराः पुरुषाः यस्मिन् ग्रामे | वीरपुरुषः | वीर है पुरुष जिस गाँव में |
न चौरः यस्मिन् तत् | अचौरम् | नहीं है चोर जिस नगर में |
रूपवती भार्या यस्य सः | रूपवदुभार्यः | रूपवती स्त्री है जिसकी वह |
चित्राः गावः यस्य सः | चित्रगुः | चितकबरी गायें हैं जिसकी वह |
शूल पाणौ यस्य सः | शूलपाणिः | शूल है पाणि हाथ में जिसके वह |
शीतिः कण्ठे यस्य सः | शीतिकण्ठः | नीलापन है कण्ठ में जिससे वह |
चक्र पाणौ यस्य सः | चक्रपाणिः | चक्र है पाणि में जिसके वह |
वीणा पाणौ यस्याः सा | वीणापाणि | वीणा है पाणि में जिसके वह |
चन्द्रस्य कान्तिः यस्य सः | चन्द्रकान्तः | चन्द्रमा की कान्ति है जिसकी वह |
परिवारेण सह | सपरिवारः | परिवार के साथ है जो वह |
अनुजेन सह | सानुजः | अनुज के साथ है जो वह |
दण्डैश्च दण्डैश्च प्रहृत्य | दण्डादण्डि | लाठी लाठी से जो लड़ाई हुई |
मुष्टिभिश्च मुष्टिभिश्च प्रहृत्यः | मुष्टीमुष्टि | मुक्के मुक्के से जो लड़ाई हुई |
द्वौ वा त्रयः वा | द्विवाः | दो या तीन |
त्रयः वा चत्वारः वा | त्रिचतुराः | तीन या चार |
पञ्चः वा षट्वा | पञ्चषा | पाँच या छह |
सीता जाया यस्य सः | सीताजानिः | जिसकी स्त्री सीता है, वह |
गन्तुं कामः यस्य सः | गन्तुकामः | जाने की इच्छावाला |
पठितुं कामः यस्य सः | पठितुकामः | पढ़ने की इच्छावाला |
लघु पतनं यस्य सः | लघुपतनकः | शीघ्र जानेवाला |
बहुः सर्पिः यस्य सः | बहुसर्पिष्कः | बहुत घीवाला |
अविद्यमानं धनं यस्य सः | अधनः | निर्धन / अधनी |
निर्गतः जनः यस्मान् तत् | निर्जनम् | – |
विगतः अर्थः यस्मात् सः | व्यर्थः | – |
प्रपतितानि पर्णानि यस्मात् सः | प्रपर्णः | – |
दण्डेन् सह | सदण्डः | – |
अग्रजेन् सह | सहाग्रजः | – |
सुष्टुः धर्मः यस्य सः | सुधर्मा | – |
बहिर्लोमानि यस्य सः | बहिर्लोमः | – |
गंगा भार्या यस्य सः | गंगाभार्यः | – |
ब्राह्मणी भार्या यस्य सः | ब्राह्मणी भार्यः | – |
पंचमी भार्या यस्य सः | पंचमी भार्यः | – |
सुकेशी भार्या यस्य सः | सुकेशी भार्यः | – |
बहवः दण्डिनः यस्मिन् सः | बहुदण्डिकः | – |
उदात्तं मनः यस्य सः | उदात्तमनस्कः | – |
कत्ती यस्य सः | ईश्वरकर्तृकः | – |
सुन्दरी स्त्री यस्य सः | सुन्दरस्त्रीकः | – |
सुन्दरी वधुः यस्य सः | सुन्दरवधूकः | – |
मूर्खः भ्राता यस्य सः | मूर्खभ्रातृकः | प्रशंसार्थ मूर्खभ्राता |
मृतः भर्ता यस्या सा | मृतभर्तृका | – |
प्रोषितः पतिः यस्या सा | प्रोषितपतिका | – |
पल्या सह वर्तमानः यः सः | सपनीकः | – |
समानं वयः यस्य सः | समानवयः / समानवयस्कः | – |
महती मतिः यस्य सः | महामतिः | – |
निर्गतः अर्थः यस्मात् तत् | निरर्थकम् | – |
लब्धं यशः चेन सः | लुब्धयशः / लब्धयशस्कः | – |
गन्तुं कामः यस्य सः | गन्तुकामः | – |
हन्तुं मनः यस्य सः | हन्तुमनाः | – |
समानं गोत्रं यस्य सः | सगोत्रः | – |
शोभनं हृदयं यस्य सः | सुहृतः | – |
उद्गाता नासिका यस्य सः | उन्नसः | – |
विगतानि चरवारि यस्य सः | विचतुरः | – |
शोभनानि चरवारि यस्य सः | सुचतुरः | – |
वाक् च मनश्च | वाङ्मनसे | – |
त्रहक् च साम च | ऋक्सामे | – |
निश्चितम् श्रेयः | निःश्रेयसम् | – |
पुरुषस्य आयुः | पुरुषायुषम् | – |
अनुकूला आपः यस्मिन् देशे सः | अनूपः | – |
द्वयोः पाश्र्वयोः गताः अपः यस्मिन् तत् | द्वीपम् | – |
अन्तर्गताः आषः यस्मिन् तत् | अन्तरीपम् | – |
प्रतिकूलाः आपः यस्मिन् तत् | प्रतीपम् | – |
संगताः आपः यस्मिन् तत् | समीपम् | – |
द्वौ दन्तौ यस्य सः | द्विर्दन् | दो दाँतवाला शिशु |
शोभनाः दन्ताः यस्य सः | सुदन् | – |
ज्योतिषः स्तोमः | ज्योतिष्तोमः | – |
कुत्सितः अश्वः | कदश्वः | – |
कुत्सितम् अन्नम् | कदननम् | – |
ईषत् थोड़ा जलम् | काजलम् | – |
कुत्सितः पन्थाः | कापथम् | – |
कुत्सितः अम्लः | काम्लः | – |
कुत्सितः पुरुषः | कापुरुषः / कुपुरुषः | – |
ईषत् उष्णम् | कवोष्णम्/ कोष्णम् / कदुष्णम् | – |
अमराः अस्या सन्ति इति | अमरावती | – |
बहुव्रीहि समास हिंदी में
अन्य पद प्रधान समास को बहुब्रीहि समास कहते हैं। इसमें दोनों पद किसी अन्य अर्थ को व्यक्त करते हैं और वे किसी अन्य संज्ञा के विशेषण की भांति कार्य करते हैं। दूसरे शब्दों में- बहुव्रीहि समास ऐसा समास होता है जिसके समस्त्पदों में से कोई भी पद प्रधान नहीं होता एवं दोनों पद मिलकर किसी तीसरे पद की और संकेत करते हैं वह समास बहुव्रीहि समास कहलाता है।
परिभाषा
बहुव्रीहि समास के अंतर्गत शब्द का विग्रह करने पर नया शब्द बनता है या नया नाम सामने आता है। इस समास में कोई भी पद प्रधान न होकर अन्य पद प्रधान होता है विग्रह करने पर नया शब्द निकलता है पहला पद विशेषण नहीं होता है विग्रह करने पर समूह का बोध भी नहीं होता है।
उदाहरण
- गजानन : गज से आनन वाला (गणेश )
- चतुर्भुज : चार हैं भुजाएं जिसकी (विष्णु)
- त्रिलोचन : तीन आँखों वाला (शिव)
- त्रिनेत्र : भगवान शिव
- वीणापाणी : सरस्वती
- श्वेताम्बर : सरस्वती
- गजानन ; भगवान गणेश
- गिरधर) : भगवान श्रीकृष्ण
- दशानन : दश हैं आनन जिसके ( रावण )
- पंचानन पांच हैं मुख जिनके ( शंकर जी )
- गिरिधर : गिरि को धारण करने वाले ( श्री कृष्ण )
- चतुर्भुज : चार हैं भुजायें जिनके ( विष्णु )
- गजानन : गज के समान मुख वाले ( गणेश जी )
- चक्र को धारण करने वाला : श्रीकृष्ण)
- दशानन : दस सर है जिसके (रावण)
- लम्बोदर ; लम्बा पेट है जिसका (गणेश)
- मुरलीधर : मुरली बजाने वाला (श्रीकृष्ण)
- गिरिधर : गोवर्धन पर्वत को उठाने वाला (श्रीकृष्ण)
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