रीति काल – उत्तर मध्य काल – रीतिकालीन हिंदी साहित्य का इतिहास

reetikaal - ya madhya kaal ke hindi sahitya kaa itihas

रीतिकाल या मध्यकालीन साहित्य

रीतिकाल साहित्य (Reetikaal Hindi Sahitya) का समयकाल 1650 ई० से 1850 ई० तक माना जाता है।  नामांकरण की दृष्टि से उत्तर-मध्यकाल हिंदी साहित्य के इतिहास में विवादास्पद है। इसे मिश्र बंधु ने- ‘अलंकृत काल‘, तथा रामचंद्र शुक्ल ने- ‘रीतिकाल‘, और विश्वनाथ प्रसाद ने- ‘श्रृंगार काल‘ कहा है।

रीतिकाल के उदय के संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत है- इसका कारण जनता की रुचि नहीं, आश्रय दाताओं की रूचि थी, जिसके लिए वीरता और अकर्मण्यता का जीवन बहुत कम रह गया था।

रीतिकालीन कविता में लक्ष्मण ग्रंथ, नायिका भेद, श्रृंगारिकता आदि की जो प्रवृतियां मिलती है उसकी परंपरा संस्कृत साहित्य से चली आ रही थी। हिंदी में “रीति” या “काव्यरीति” शब्द का प्रयोग काव्यशास्त्र के लिए हुआ था। इसलिए काव्यशास्त्रबद्ध सामान्य सृजनप्रवृत्ति और रस, अलंकार आदि के निरूपक बहुसंख्यक लक्षणग्रंथों को ध्यान में रखते हुए इस समय के काव्य को “रीतिकाव्य” कहा गया। इस काव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों की पुरानी परंपरा के स्पष्ट संकेत संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, फारसी और हिंदी के आदिकाव्य तथा कृष्णकाव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों में मिलते हैं।

हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार संस्कृत के प्राचीन साहित्य विशेषता रामायण और महाभारत से यदि भक्तिकाल के कवियों ने प्रेरणा ली तो रीतिकाल के कवियों ने उत्तर कालीन संस्कृत साहित्य से प्रेरणा व प्रभाव लिया। लक्ष्मण ग्रंथ, नायिका भेद, अलंकार और संचारी भावों के पूर्व निर्मित वर्गीकरण का आधार लेकर यह कवि बधी सधी बोली में बंधे सदे भाव की कवायद करने लगे।।

इस काल में कई कवि ऐसे हुए हैं जो आचार्य भी थे और जिन्होंने विविध काव्यांगों के लक्षण देने वाले ग्रंथ भी लिखे। इस युग में शृंगार रस की प्रधानता रही। यह युग मुक्तक-रचना का युग रहा। मुख्यतया कवित्त, सवैये और दोहे इस युग में लिखे गए।

कवि राजाश्रित होते थे इसलिए इस युग की कविता अधिकतर दरबारी रही जिसके फलस्वरूप इसमें चमत्कारपूर्ण व्यंजना की विशेष मात्रा तो मिलती है परंतु कविता साधारण जनता से विमुख भी हो गई।

रीतिकाल के कवियों का इतिहास

रीतिकाल के अधिकांश कवि दरवारी थे अर्थात राजाओ के दरवार में अपनी कविता किया करते थे जिससे उनकी कविता आम लोगो तक सही से नहीं मुखर हो पायी। प्रमुख रीतिकालीन कवि निम्नलिखित हैं:-

# रीतिकाल के कवि उनका दरवार
1. केशवदास ओरछा
2. प्रताप सिंह चरखारी
3. बिहारी जयपुर, आमेर
4. मतिराम बूँदी
5. भूषण पन्ना
6. चिंतामणि नागपुर
7. देव पिहानी
8. भिखारीदास प्रतापगढ़-अवध
9. रघुनाथ काशी
10. बेनी किशनगढ़
11. गंग दिल्ली
12. टीकाराम बड़ौदा
13. ग्वाल पंजाब
14. चन्द्रशेखर बाजपेई पटियाला
15. हरनाम कपूरथला
16. कुलपति मिश्र जयपुर
17. नेवाज पन्ना
18. सुरति मिश्र दिल्ली
19. कवीन्द्र उदयनाथ अमेठी
20. ऋषिनाथ काशी
21. रतन कवि श्रीनगर-गढ़वाल
22. बेनी बन्दीजन अवध
23. बेनी प्रवीन लखनऊ
24. ब्रह्मदत्त काशी
25. ठाकुर बुन्देलखण्डी जैतपुर
26. बोधा पन्ना
27. गुमान मिश्र पिहानी

अनेक कवि तो राजा ही थे, जैसे- महाराज जसवन्त सिंह (तिर्वा), भगवन्त राय खीची, भूपति, रसनिधि (दतिया के जमींदार), महाराज विश्वनाथ, द्विजदेव (महाराज मानसिंह)।

रीतिकाव्य साहित्य का आरंभ

रीतिकाव्य रचना का आरंभ एक संस्कृतज्ञ ने किया। ये थे आचार्य केशवदास, जिनकी सर्वप्रसिद्ध रचनाएँ कविप्रिया, रसिकप्रिया और रामचंद्रिका हैं। कविप्रिया में अलंकार और रसिकप्रिया में रस का सोदाहरण निरूपण है। लक्षण दोहों में और उदाहरण कवित्तसवैए में हैं। लक्षण-लक्ष्य-ग्रंथों की यही परंपरा रीतिकाव्य में विकसित हुई। रामचंद्रिका केशव का प्रबंधकाव्य है जिसमें भक्ति की तन्मयता के स्थान पर एक सजग कलाकार की प्रखर कलाचेतना प्रस्फुटित हुई।

केशव के कई दशक बाद चिंतामणि से लेकर अठारहवीं सदी तक हिंदी में रीतिकाव्य का अजस्र स्रोत प्रवाहित हुआ जिसमें नर-नारी-जीवन के रमणीय पक्षों और तत्संबंधी सरस संवेदनाओं की अत्यंत कलात्मक अभिव्यक्ति व्यापक रूप में हुई।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रीतिकाव्य का शुरूआत केशवदास से न मानकर चिन्तामणि से माना है| उनका कहना है कि – ” केशवदास जी ने काव्य के सब अंगो का निरूपण शास्त्रीय पद्धति पर किया | यह नि:सन्देह है कि काव्यरीति का सम्यक समावेश पहले पहल ऑ.केशव ने ही किया | हिन्दी में रीतिग्रन्थों की अविरल और अखंडित परम्परा का प्रवाह केशव की “कविप्रिया ” के प्राय:पचास वर्ष पीछे चला और वह भी एक भिन्न आदर्श को लेकर केशव के आदर्श को लेकर नही |” वे कहते है कि-“हिन्दी रीतिग्रन्थो की अखण्ड परम्परा चिन्तामणि त्रि.से चली , अत:रीतिकाल का आरम्भ उन्हीं से मानना चाहिए”

रीतिकाल के कवि

रीतिकाल के कवियों को तीन वर्गों में बांटा जाता है – 1. रीतिबद्ध कवि 2 . रीतिसिद्ध कवि 3 . रीतिमुक्त कवि। 

रीतिबद्ध कवि

रीतिबद्ध कवियों ने अपने लक्षण ग्रंथों में प्रत्यक्ष रूप से रीति परंपरा का निर्वाह किया है। जैसे- केशवदास, चिंतामणि, मतिराम, सेनापति, देव, आदि। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने केशवदास को कठिन काव्य का प्रेत कहा है।

केशवदास

आचार्य केशवदास का जन्म 1555 ईस्वी में ओरछा में हुआ था। वे जिझौतिया ब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम काशीनाथ था। ओरछा के राजदरबार में उनके परिवार का बड़ा मान था। केशवदास स्वयं ओरछा नरेश महाराज रामसिंह के भाई इन्द्रजीत सिंह के दरबारी कवि, मन्त्री और गुरु थे। इन्द्रजीत सिंह की ओर से इन्हें इक्कीस गाँव मिले हुए थे। वे आत्मसम्मान के साथ विलासमय जीवन व्यतीत करते थे।

चिंतामणि

ये यमुना के समीपवर्ती गाँव टिकमापुर या भूषण के अनुसार त्रिविक्रमपुर (जिला कानपुर) के निवासी काश्यप गोत्रीय कान्यकुब्ज त्रिपाठी ब्राह्मण थे। इनका जन्मकाल संo १६६६ विo और रचनाकाल संo १७०० विo माना जाता है। ये रतिनाथ अथवा रत्नाकर त्रिपाठी के पुत्र (भूषण के ‘शिवभूषण’ की विभिन्न हस्तलिखित प्रतियों में इनके पिता के उक्त दो नामों का उल्लेख मिलता है) और कविवर भूषण, मतिराम तथा जटाशंकर (नीलकंठ) के ज्येष्ठ भ्राता थे।

चिंतामणि की अब तक कुल छ: कृतियों का पता लगा है – (१) काव्यविवेक, (२) कविकुलकल्पतरु, (३) काव्यप्रकाश, (४) छंदविचारपिंगल, (५) रामायण और (६) रस विलास (7) श्रृंगार मंजरी (8) कृष्ण चरित।

इनकी ‘शृंगारमंजरी’ नामक एक और रचना प्रकाश में आई है, जो तेलुगु लिपि में लिखित संस्कृत के गद्य ग्रंथ का ब्रजभाषा में पद्यबद्ध अनुवाद है। ‘रामायण’ के अतिरिक्त कवि की उक्त सभी रचनाएँ काव्यशास्त्र से संबंधित हैं, जिनमें सर्वोपरि महत्व ‘कविकुलकल्पतरु’ का है। संस्कृत ग्रंथ ‘काव्यप्रकाश’ के आदर्श पर लिखी गई यह रचना अपने रचयिता की कीर्ति का मुख्य कारण है।

मतिराम

मतिराम, हिंदी के प्रसिद्ध ब्रजभाषा कवि थे। इनके द्वारा रचित “रसराज” और “ललित ललाम” नामक दो ग्रंथ हैं; परंतु इधर कुछ अधिक खोजबीन के उपरांत मतिराम के नाम से मिलने वाले आठ ग्रंथ प्राप्त हुए हैं।

मतिराम की प्रथम कृति ‘फूलमंजरी’ है जो इन्होंने संवत् 1678 में जहाँगीर के लिये बनाई और इसी के आधार पर इनका जन्म संवत् 1660 के आसपास स्वीकार किया जाता है क्योंकि “फूल मंजरी” की रचना के समय वे 18 वर्ष के लगभग रहे होंगे।

इनका दूसरा ग्रंथ ‘रसराज’ इनकी प्रसिद्धि का मुख्य आधार है। यह शृंगाररस और नायिकाभेद पर लिखा ग्रंथ है और रीतिकाल में बिहारी सतसई के समान ही लोकप्रिय रहा। इसका रचनाकाल सवंत् 1690 और 1700 के मध्य माना जाता है। इस ग्रंथ में सुकुमार भावों का अत्यंत ललित चित्रण है।

सेनापति

सेनापति ब्रजभाषा काव्य के एक अत्यन्त शक्तिमान कवि माने जाते हैं। इनका समय रीति युग का प्रारंभिक काल है। उनका परिचय देने वाला स्रोत केवल उनके द्वारा रचित और एकमात्र उपलब्ध ग्रंथ ‘कवित्त रत्नाकर’ है।

सेनापति का काव्य विदग्ध काव्य है। इनके द्वारा रचित दो ग्रंथों का उल्लेख मिलता है – एक ‘काव्यकल्पद्रुम’ और दूसरा ‘कवित्त रत्नाकर’। परन्तु, ‘कवित्त रत्नाकर’ परन्तु, ‘काव्यकल्पद्रुम’ अभी तक प्राप्त नहीं हुआ। ‘कवित्तरत्नाकर’ संवत्‌ 1706 में लिखा गया और यह एक प्रौढ़ काव्य है।

यह पाँच तरंगों में विभाजित है। प्रथम तरंग में 97 कवित्त हैं, द्वितीय में 74, तृतीय में 62 और 8 कुंडलिया, चतुर्थ में 76 और पंचम में 88 छंद हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर इस ग्रंथ में 405 छंद हैं। इसमें अधिकांश लालित्य श्लेषयुक्त छंदों का है परन्तु श्रृंगार, षट्ऋतु वर्णन और रामकथा के छंद अत्युुत्कृष्ट हैं।

देव

रीतिकाल के रीतिग्रंथकार कवि हैं। उनका पूरा नाम देवदत्त था। औरंगजेब के पुत्र आलमशाह के संपर्क में आने के बाद देव ने अनेक आश्रयदाता बदले, किन्तु उन्हें सबसे अधिक संतुष्टि भोगीलाल नाम के सहृदय आश्रयदाता के यहाँ प्राप्त हुई, जिसने उनके काव्य से प्रसन्न होकर उन्हें लाखों की संपत्ति दान की।

अनुप्रास और यमक के प्रति देव में प्रबल आकर्षण है। अनुप्रास द्वारा उन्होंने सुंदर ध्वनिचित्र खींचे हैं। ध्वनि-योजना उनके छंदों में पग-पग पर प्राप्त होती है। शृंगार के उदात्त रूप का चित्रण देव ने किया है। देव कृत कुल ग्रंथों की संख्या ५२ से ७२ तक मानी जाती है।

उनमें- रसविलास, भावविलास, भवानीविलास, कुशलविलास, अष्टयाम, सुमिल विनोद, सुजानविनोद, काव्यरसायन, प्रेमदीपिका, प्रेम चन्द्रिका आदि प्रमुख हैं। देव के कवित्त-सवैयों में प्रेम और सौंदर्य के इंद्रधनुषी चित्र मिलते हैं। संकलित सवैयों और कवित्तों में एक ओर जहाँ रूप-सौंदर्य का आलंकारिक चित्रण हुआ है, वहीं रागात्मक भावनाओं की अभिव्यक्ति भी संवेदनशीलता के साथ हुई है।

रीतिसिद्ध कवि

रीतिसिद्ध कवियों की रचना की पृष्ठभूमि में अप्रत्यक्ष रूप से रीति परिपाटी काम कर रही होती है। उनकी रचनाओं को पढ़ने से साफ पता चलता है कि उन्होंने काव्यशास्त्र को पचा रखा है। बिहारी, रसनिधि आदि इस वर्ग में आते हैं।

बिहारी

बिहारीलाल का जन्म (1538) संवत् 1595 ग्वालियर में हुआ। वे जाति के माथुर चौबे (चतुर्वेदी) थे। उनके पिता का नाम केशवराय था। जब बिहारी 8 वर्ष के थे तब इनके पिता इन्हे ओरछा ले आये तथा उनका बचपन बुंदेलखंड में बीता। इनके गुरु नरहरिदास थे और युवावस्था ससुराल मथुरा में व्यतीत हुई।

बिहारी की कविता का मुख्य विषय श्रृंगार है। उन्होंने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का वर्णन किया है। संयोग पक्ष में बिहारी ने हावभाव और अनुभवों का बड़ा ही सूक्ष्म चित्रण किया हैं। संयोग का एक उदाहरण देखिए –

बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।
सोह करे, भौंहनु हंसे दैन कहे, नटि जाय॥

बिहारी का वियोग वर्णन बड़ा अतिशयोक्ति पूर्ण है। यही कारण है कि उसमें स्वाभाविकता नहीं है, विरह में व्याकुल नायिका की दुर्बलता का चित्रण करते हुए उसे घड़ी के पेंडुलम जैसा बना दिया गया है –

इति आवत चली जात उत, चली, छसातक हाथ।
चढी हिंडोरे सी रहे, लगी उसासनु साथ॥

सूफी कवियों की अहात्मक पद्धति का भी बिहारी पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। वियोग की आग से नायिका का शरीर इतना गर्म है कि उस पर डाला गया गुलाब जल बीच में ही सूख जाता है –

औंधाई सीसी सुलखि, बिरह विथा विलसात।
बीचहिं सूखि गुलाब गो, छीटों छुयो न गात॥

बिहारी मूलतः श्रृंगारी कवि हैं। उनकी भक्ति-भावना राधा-कृष्ण के प्रति है और वह जहां तहां ही प्रकट हुई है। सतसई के आरंभ में मंगला-चरण का यह दोहा राधा के प्रति उनके भक्ति-भाव का ही परिचायक है –

मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाई परे, स्याम हरित दुति होय॥

बिहारी ने नीति और ज्ञान के भी दोहे लिखे हैं, किंतु उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। धन-संग्रह के संबंध में एक दोहा देखिए –

मति न नीति गलीत यह, जो धन धरिये जोर।
खाये खर्चे जो बचे तो जोरिये करोर॥

प्रकृति-चित्रण में बिहारी किसी से पीछे नहीं रहे हैं। षट ॠतुओं का उन्होंने बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है। ग्रीष्म ॠतु का चित्र देखिए –

कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ।
जगत तपोतवन सो कियो, दारिग़ दाघ निदाघ॥

बिहारी गाँव वालो कि अरसिक्त का उपहास करते हुए कहते हैं-

कर फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि।
रे गंधी मतिअंध तू इत्र दिखावत काहि॥

बिहारी की भाषा साहित्यिक भाषा ब्रज भाषा है। इसमें सूर की चलती ब्रज भाषा का विकसित रूप मिलता है। पूर्वी हिंदी, बुंदेलखंडी, उर्दू, फ़ारसै आदि के शब्द भी उसमें आए हैं, किंतु वे लटकते नहीं हैं। बिहारी का शब्द चयन बड़ा सुंदर और सार्थक है।

शब्दों का प्रयोग भावों के अनुकूल ही हुआ है और उनमें एक भी शब्द भारती का प्रतीत नहीं होता। बिहारी ने अपनी भाषा में कहीं-कहीं मुहावरों का भी सुंदर प्रयोग किया है। जैसे –

मूड चढाऐऊ रहै फरयौ पीठि कच-भारु,
रहै गिरैं परि, राखिबौ तऊ हियैं पर हारु॥

विषय के अनुसार बिहारी की शैली तीन प्रकार की है

  1. माधुर्य पूर्ण व्यंजना प्रधानशैली – वियोग के दोहों में।
  2. प्रसादगुण से युक्त सरस शैली – भक्ति तथा नीति के दोहों में।
  3. चमत्कार पूर्ण शैली – दर्शन, ज्योतिष, गणित आदि विषयक दोहों में।

रसनिधि

दतिया राज्य के बरौनी क्षेत्र के जमींदार पृथ्वीसिंह, ‘रसनिधि’ नाम से काव्यरचना करते थे। इनका रचनाकाल संवत् १६६० से १७१७ तक माना जाता है। इनका सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ ‘रतनहजारा’ है जो बिहारी सतसई को आदर्श मानकर लिखा गया प्रतीत होता है।

बिहारी की दोहापद्धति का अनुकरण करते समय रसनिधि कहीं-कहीं ज्यों का त्यों भाव ही अपने दोहे में लिख गए हैं। रतनहजारा के अतिरिक्त विष्णुपदकीर्तन, बारहमासी, रसनिधिसागर, गीतिसंग्रह, अरिल्ल और माँझ, हिंडोला भी इनकी रचनाएँ बताई जाती हैं। इनके दोहों का एक संग्रह छतरपुर के श्री जगन्नाथप्रसाद ने प्रकाशित किया है।

रसनिधि प्रेमी स्वभाव के रसिक कवि थे। इन्होंने रीतिबद्ध काव्य न लिखकर फारसी शायरी की शैली पर प्रेम की विविध दशाओं और चेष्टाओं का वर्णन किया है। फारसी के प्रभाव से इन्होंने प्रेमदशाओं में व्यापकता प्राप्त की किंतु भाषा और अभिव्यंजना की दृष्टि से इनका काव्य अधिक सफल नहीं हो सका। शब्दों का असंतुलित प्रयोग तथा भावों की अभिव्यक्ति में शालीनता का अभाव खटकनेवाला बन गया है। हाँ, प्रेम की सरस उक्तियों में रसनिधि को कहीं कहीं अच्छी सफलता मिली है। वस्तुत: जहाँ इनका प्रेम स्वाभाविक रूप से व्यक्त हुआ है वहाँ इनके दोहे बड़े सुंदर बन पड़े हैं।

रीतिमुक्त कवि

रीति परंपरा से मुक्त कवियों को रीतिमुक्त कवि कहा जाता है। घनानंद, आलम, ठाकुर, बोधा आदि इस वर्ग में आते हैं।

  • आलम -आलम इस धारा के प्रमुख कवि हैं। इनकी रचना “आलम केलि” है।
  • घनानंद– रीतिमुक्त कवियों में सबसे अधिक प्रसिद्द कवि हैं। इनकी रचनाएँ हैं – कृपाकंद निबन्ध, सुजान हित प्रबन्ध, इश्कलता, प्रीती पावस, पदावली।
  • बोधा– विरह बारिश, इश्कनामा।
  • ठाकुर– ठाकुर ठसक, ठाकुर शतक।

घनानंद

इनका जन्मकाल संवत १७३० के आसपास है। इनके जन्मस्थान और जनक के नाम अज्ञात हैं। आरंभिक जीवन दिल्ली तथा उत्तर जीवन वृंदावन में बीता। जाति के कायस्थ थे। साहित्य और संगीत दोनों में इनकी असाधारण गति थी।

ये ‘आनंदघन’ नाम स भी प्रसिद्ध हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रीतिमुक्त घनानन्द का समय सं. १७४६ तक माना है। इस प्रकार आलोच्य घनानन्द वृंदावन के आनन्दघन हैं। शुक्ल जी के विचार में ये नादिरशाह के आक्रमण के समय मारे गए। श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी का मत भी इनसे मिलता है। लगता है, कवि का मूल नाम आनन्दघन ही रहा होगा, परंतु छंदात्मक लय-विधान इत्यादि के कारण ये स्वयं ही आनन्दघन से घनानन्द हो गए। अधिकांश विद्वान घनानन्द का जन्म दिल्ली और उसके आस-पास का होना मानते हैं।

घनानंद द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या ४१ बताई जाती है- सुजानहित, कृपाकंदनिबंध, वियोगबेलि, इश्कलता, यमुनायश, प्रीतिपावस, प्रेमपत्रिका, प्रेमसरोवर, व्रजविलास, रसवसंत, अनुभवचंद्रिका, रंगबधाई, प्रेमपद्धति, वृषभानुपुर सुषमा, गोकुलगीत, नाममाधुरी, गिरिपूजन, विचारसार, दानघटा, भावनाप्रकाश, कृष्णकौमुदी, घामचमत्कार, प्रियाप्रसाद, वृंदावनमुद्रा, व्रजस्वरूप, गोकुलचरित्र, प्रेमपहेली, रसनायश, गोकुलविनोद, मुरलिकामोद, मनोरथमंजरी, व्रजव्यवहार, गिरिगाथा, व्रजवर्णन, छंदाष्टक, त्रिभंगी छंद, कबित्तसंग्रह, स्फुट पदावली और परमहंसवंशावली।

इनका ‘व्रजवर्णन’ यदि ‘व्रजस्वरूप’ ही है तो इनकी सभी ज्ञात कृतियाँ उपलब्ध हो गई हैं। छंदाष्टक, त्रिभंगी छंद, कबित्तसंग्रह-स्फुट वस्तुत: कोई स्वतंत्र कृतियाँ नहीं हैं, फुटकल रचनाओं के छोटे छोटे संग्रह है। इनके समसामयिक व्रजनाथ ने इनके ५०० कवित्त सवैयों का संग्रह किया था। इनके कबित्त का यह सबसे प्राचीन संग्रह है। इसके आरंभ में दो तथा अंत में छह कुल आठ छंद व्रजनाथ ने इनकी प्रशस्ति में स्वयं लिखे।

पूरी ‘दानघटा’ ‘घनआनंद कबित्त’ में संख्या ४०२ से ४१४ तक संगृहीत है। परमहंसवंशावली में इन्होंने गुरुपरंपरा का उल्लेख किया है। इनकी लिखी एक फारसी मसनवी भी बतलाई जाती है पर वह अभी तक उपलब्ध नहीं है।

घनानंद ग्रंथावली में उनकी १६ रचनाएँ संकलित हैं। घनानंद के नाम से लगभग चार हजार की संख्या में कवित्त और सवैये मिलतें हैं। इनकी सर्वाधिक लोकप्रिय रचना ‘सुजान हित’ है, जिसमें ५०७ पद हैं। इन में सुजान के प्रेम, रूप, विरह आदि का वर्णन हुआ है। सुजान सागर, विरह लीला, कृपाकंड निबंध, रसकेलि वल्ली आदि प्रमुख हैं। उनकी अनेक रचनाओं का अंग्रेज़ी अनुवाद भी हो चुका है।

आलम

आलम रीतिकाल के एक हिन्दी कवि थे जिन्होने रीतिमुक्त काव्य रचा। आचार्य शुक्ल के अनुसार इनका कविता काल 1683 से 1703 ईस्वी तक रहा। इनका प्रारंभिक नाम लालमणि त्रिपाठी था। इनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। एक मुस्लिम महिला शेख नामक रंगरेजिन से विवाह के लिए इन्होंने नाम आलम रखा। ये औरगजेब के दूसरे बेटे मुअज्जम के आश्रय में रहते थे।

आलम की प्रसिद्ध रचनाएं हैं :- माधवानल कामकंदला (प्रेमाख्यानक काव्य), श्यामसनेही (रुक्मिणी के विवाह का वर्णन, प्रबंध काव्य), सुदामाचरित (कृष्ण भक्तिपरक काव्य), आलमकेलि (लौकिक प्रेम की भावनात्मक और परम्परामुक्त अभिव्यक्ति, श्रृंगार और भक्ति इसका मूल विषय है)।

ठाकुर

देलखंडी ठाकुर रीतिकालीन रीतियुक्त भाव-धारा के विशिष्ट और प्रेमी कवि थे जिनका जन्म ओरछे में सं० १८२३ और देहावसान सं० १८८० के लगभग माना गया है। इनका पूरा नाम था ठाकुरदास। ये श्रीवास्तव कायस्थ थे। ठाकुर जैतपुर (बुंदेलखंड) के निवासी और वहीं के स्थानीय राजा केसरीसिंह के दरबारी कवि थे। पिता गुलाबराय महाराजा ओरछा के मुसाहब और पितामह खंगराय काकोरी (लखनऊ) के मनसबदार थे।

दरियाव सिंह ‘चातुर’ ठाकुर के पुत्र और पौत्र शंकरप्रसाद भी सुकवि थे। बुंदेलखंड के प्राय: सभी राजदरबारों में ठाकुर का प्रवेश था। बिजावर नरेश ने उन्हें एक गाँव देकर सम्मानित किया था। सिंहासनासीन होने पर राजा केसरीसिंह के पुत्र पारीछत ने ठाकुर को अपनी सभा का एक रत्न बनाया। बाँदा के हिम्मतबहादुर गोसाईं के यहाँ भी, जो पद्माकर के प्रमुख आश्रयदाताओं में थे, ठाकुर का बराबर आना जाना था।

चूँकि ठाकुर पद्माकर के समसामयिक थे इसलिए वहाँ जाने पर दोनों की भेंट होती जिसके फलस्वरूप दोनों में कभी-कभी काव्य-स्पर्धा-प्रेरित जबर्दस्त नोक-झोंक तथा टक्कर भी हो जाया करती थी जिसका पता इस तरह की अनेक लोकप्रचलित जनश्रुतियाँ देती हैं।

बोधा

आचार्य शुक्ल के अनुसार बोधा एक रसिक कवि थे। पन्ना के राजदरबार में बोधा अक्सर जाया करते थे। राजदरबार में सुबहान (सुभान) नामक वेश्या से इन्हें बेहद प्रेम हो गया। महाराज को जब यह बात पता चली तो उन्होंने बोधा को छह महीने के देशनिकाले की सजा दे दी।

वेश्या के वियोग में बोधा ने विरहवारीश नामक पुस्तक लिख डाली। छह महीने बाद राजदरबार में हाजिर हुए तो महाराज ने पूछा – “कहिये कविराज! अकल ठिकाने आयी? इन दिनों कुछ लिखा क्या?” इस पर बोधा ने अपनी पुस्तक विरहवारीश के कुछ कवित्त सुनाये।

महाराज ने कहा – “शृंगार की बातें बहुत हो चुकीं अब कुछ नीति की बात बताइये।” इस पर बोधा ने एक छन्द कहा-

हिलि मिलि जानै तासों मिलि के जनावै हेत, हित को न जानै ताको हितू न विसाहिए।
होय मगरूर तापै दूनी मगरूरी करै, लघु ह्वै के चलै तासों लघुता निवाहिए॥
बोधा कवि नीति को निबेरो यही भाँति अहै, आपको सराहै ताहि आपहू सराहिए।
दाता कहा, सूर कहा, सुन्दरी सुजान कहा, आपको न चाहै ताके बाप को न चाहिए॥

महाराज ने बोधा से प्रसन्न होकर कुछ माँगने को कहा। इस पर बोधा के मुख से निकला – “सुभान अल्लाह!” महाराज उनकी हाजिरजवाबी से बहुत खुश हुए और उन्होंने अपनी बेहद खूबसूरत राजनर्तकी (सुबहान) बोधा को उपहार में दे दी। इस प्रकार बोधा के मन की मुराद पूरी हुई।

बोधा की कृतियाँ- 1. विरहवारीश – वियोग शृंगार रस की कविताएँ, 2.  इश्कनामा – शृंगारपरक कविताएँ।

रीति काव्य (रीतिकाल) की विशेषता

  • हिंदी में रीति-काव्य का आधार संस्कृत के लक्षण-ग्रंथ हैं।
  • संस्कृत में कवि और आचार्य, दो अलग-अलग व्यक्ति होते थे, किंतु हिंदी में यह भेद मिट गया।
  • प्रत्येक कवि आचार्य बनने की कोशिश करने लगा, जिसका परिणाम यह हुआ कि वे सफल आचार्य तो बन नहीं पाए, उनके कवित्व पर भी कहीं-कहीं दाग लग गए।
  • इन रीति-ग्रंथकारों में मौलिकता का सर्वथा अभाव रहा।
  • परिणामस्वरूप उनका शास्त्रीय विवेचन सुचारू रूप से नहीं हो सका।

रीति काल  के काव्य अंगो का विवेचन

काव्यांगों का विवेचन करते हुए हिंदी के आचार्यों ने काव्य के सब अंगों का समान विवेचन नहीं किया। शब्द-शक्ति की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। रस में भी केवल श्रृंगार को ही प्रधानता दी गई।

लक्षण पद्य में देने की परम्परा के कारण इन कवियों के लक्षण अस्पष्ट और कहीं-कहीं अपूर्ण रह गए हैं।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का निष्कर्ष द्रष्टव्य है – “हिंदी में लक्षण-ग्रंथों की परिपाटी पर रचना करने वाले सैकड़ों कवि हुए हैं, वे आचार्य की कोटि में नहीं आ सकते। वे वास्तव में कवि ही थे।”

लक्षण ग्रंथों की दृष्टि से कुछ त्रुटियाँ होते हुए भी इन ग्रंथों का कवित्व की दृष्टि से बहुत महत्त्व है। अलंकारों अथवा रसों के उदाहरण के लिए जो पद्य उपस्थित किए गए हैं, वे अत्यंत सरस और रोचक हैं।
श्रृंगार रस के जितने उदाहरण अकेले रीतिकाल में लिखे गए हैं, उतने सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में भी उपलब्ध नहीं होते।

इनकी कविता में भावों की कोमलता, कल्पना की उड़ान और भाषा की मधुरता का सुंदर समन्वय हुआ है।

अन्य रीतिकवि

भूषण– भूषण वीर रस के कवि थे। इनका जन्म कानपुर में यमुना किनारे ‘तिकवांपुर’ में हुआ था।  भूषणरचित छ: ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। इनमें से ये तीन ग्रन्थ- ‘भूषणहज़ारा’, ‘भूषणउल्लास’, ‘दूषणउल्लास’ यह ग्रंथ अभी तक देखने में नहीं आये हैं। बाकी तीन ग्रंथ “शिवराज भूषण”, “शिवा बावनी” और “छत्रसाल दशक” हैं।

सैय्यद मुबारक़ अली बिलग्रामी– जन्म संवत 1640 में हुआ था, अत: इनका कविता काल संवत 1670 है। इनके सैकड़ों कवित्त और दोहे पुराने काव्यसंग्रहों में मिलते हैं, किंतु अभी तक इनका ‘अलकशतक’ और ‘तिलशतक’ ग्रंथ ही उपलब्ध हो सका है। ‘शिवसिंह सरोज’ में इनकी पाँच कविताएँ संकलित हैं, जिनमें चार कवित्त और एक सवैया है।

बेनी– बेनी रीति काल के कवि थे। बेनी ‘असनी’ के बंदीजन थे। इनका कोई भी ग्रंथ नहीं मिलता, किंतु फुटकर कवित्त बहुत से सुने जाते हैं, जिनसे यह अनुमान होता है कि इन्होंने ‘नख शिख’ और ‘षट्ऋतु’ पर पुस्तकें लिखी होंगी।

मंडन– मंडन रीति काल के कवि थे, जो जेतपुर, बुंदेलखंड के रहने वाले थे। इनके फुटकर कवित्त सवैये बहुत सुने जाते हैं, किंतु अब तक इनका कोई ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुआ है। पुस्तकों की खोज करने पर मंडन के पाँच ग्रंथों का पता चलता है- “रसरत्नावली”, “रसविलास”, “जनक पचीसी”, “जानकी जू को ब्याह”, और “नैन पचासा”।

कुलपति मिश्र– ये आगरा के रहने वाले ‘माथुर चौबे’ थे और महाकवि बिहारी के भानजे के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके मुख्य ग्रंथ ‘रस रहस्य’ और ‘मम्मट’ हैं। बाद में इनके निम्नलिखित ग्रंथ और मिले हैं- द्रोणपर्व (संवत् 1737), युक्तितरंगिणी (1743), नखशिख, संग्रहसार, गुण रसरहस्य (1724)।

सुखदेव मिश्र– सुखदेव मिश्र दौलतपुर, ज़िला रायबरेली के रहने वाले मुग़ल कालीन कवि थे। इनके सात ग्रंथों हैं – वृत्तविचार (संवत् 1728), छंदविचार, फाजिलअलीप्रकाश, रसार्णव, श्रृंगारलता, अध्यात्मप्रकाश (संवत् 1755), दशरथ राय।

कालिदास त्रिवेदी– कालिदास त्रिवेदी अंतर्वेद के रहने वाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण एवं मुग़ल कालीन कवि थे। संवत 1749 में इन्होंने ‘वार वधू विनोद’ बनाया था। बत्तीस कवित्तों की इनकी एक छोटी सी पुस्तक ‘जँजीराबंद’ भी है। ‘राधा माधव बुधा मिलन विनोद’ नाम का इनका एक और ग्रंथ मिला है। इन रचनाओं के अतिरिक्त इनका बड़ा संग्रह ग्रंथ ‘कालिदास हज़ारा’ प्रसिद्ध है।

राम– ये रीति काल के कवि थे। राम का ‘शिवसिंह सरोज’ में जन्म संवत् 1703 लिखा है और कहा गया है कि इनके कवित्त कालिदास के ‘हज़ारा’ में हैं। इनका नायिका भेद का एक ग्रंथ ‘श्रृंगार सौरभ’ है जिसकी कविता बहुत ही मनोरम है। इनका एक ‘हनुमान नाटक’ भी पाया गया है।

नेवाज– नेवाज अंतर्वेद के रहने वाले ब्राह्मण थे और संवत 1737 के लगभग मुग़ल कालीन कवि थे। इनके ‘शकुंतला नाटक’ का निर्माणकाल संवत 1737 है। इन्होंने ‘शकुंतला नाटक’ का आख्यान दोहा, चौपाई, सवैया आदि छंदों में लिखा।

श्रीधर– श्रीधर ‘रीति काल’ के कवि थे। इनका नाम ‘श्रीधर’ या ‘मुरलीधर’ मिलता है। श्रीधर प्रयाग के रहने वाले ब्राह्मण थे। श्रीधर ने कई पुस्तकें लिखीं और बहुत सी फुटकर कविता बनाई। इनके तीन रीतिग्रंथों का उल्लेख है, नायिकाभेद, चित्रकाव्य, जंगनामा।

सूरति मिश्र– सूरति मिश्र आगरा के रहने वाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इन्होंने ‘अलंकारमाला’ संवत 1766 में और ‘अमरचंद्रिका’ टीका संवत 1794 में लिखी। इन्होंने ‘बिहारी सतसई’, ‘कविप्रिया’ और ‘रसिकप्रिया’ पर विस्तृत टीकाएँ रची हैं। इन्होंने निम्नलिखित रीतिग्रंथ रचे हैं – अलंकारमाला, रसरत्नमाला, रससरस, रसग्राहकचंद्रिका, नखशिख, काव्यसिध्दांत, रसरत्नाकर।

कवींद्र– इनका जन्म- 1680 ई., वास्तविक नाम ‘उदयनाथ’, ये रीति काल के प्रसिद्ध कवि थे। इनके द्वारा रचित तीन – ‘रस-चन्द्रोदय’, ‘विनोद चन्द्रिका’ तथा ‘जोगलीला’ पुस्तकें हैं।

श्रीपति– श्रीपति कालपी के रहने वाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण एवं रीति काल के कवि थे। इन्होंने संवत 1777 में ‘काव्यसरोज’ नामक रीति ग्रंथ बनाया। इसके अतिरिक्त इनके निम्नलिखित ग्रंथ और हैं – कविकल्पद्रुम, रससागर, अनुप्रासविनोद, विक्रमविलास, सरोज कलिका, अलंकारगंगा।

बीर– रीति काल के कवि बीर दिल्ली के रहने वाले ‘श्रीवास्तव कायस्थ’ थे। इन्होंने ‘कृष्णचंद्रिका’ नामक रस और नायिका भेद का एक ग्रंथ संवत 1779 में लिखा।

कृष्ण– रीति काल के कवि कृष्ण माथुर चौबे थे और बिहारी के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनका ‘बिहारी सतसई’ पर टीका प्रसिद्ध है।

पराग (कवि)– पराग नामक कवि का नाम संवत् 1883 में काशी के महाराज उदित नारायण सिंह के आश्रितों में आता है। इन्होंने तीन खण्डों में ‘अमरकोश’ की भाषा सृजित की थी।

गजराज उपाध्याय– गजराज उपाध्याय की उपस्थिति शिव सिंह सरोज ने संवत् 1874 में मानी है। इनके द्वारा रचित पिंगल भाषा का ग्रंथ ‘वृहत्तर तथा रामायण’ कहा जाता है।

रसिक सुमति– रसिक सुमति रीति काल के कवि और ईश्वरदास के पुत्र थे। इन्होंने ‘अलंकार चंद्रोदय’ नामक एक अलंकार ग्रंथ कुवलया नंद के आधार पर दोहों में बनाया।

गंजन– रीति काल के कवि गंजन काशी के रहने वाले गुजराती ब्राह्मण थे। इन्होंने संवत 1786 में ‘कमरुद्दीन खाँ हुलास’ नामक श्रृंगार रस का एक ग्रंथ बनाया।

अली मुहीब ख़ाँ– आगरा के रहने वाले रीति काल के कवि थे। इनका उपनाम ‘प्रीतम’ था। इन्होंने संवत 1787 में ‘खटमल बाईसी’ नाम की हास्य रस की एक पुस्तक लिखी।

भिखारी दास– भिखारी दास रीति काल के कवि थे जो प्रतापगढ़, अवध के पास टयोंगा गाँव के रहने वाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इनके निम्न ग्रंथों का पता लगा है – रससारांश संवत, छंदार्णव पिंगल, काव्यनिर्णय, श्रृंगार निर्णय, नामप्रकाश कोश, विष्णुपुराण भाषा, छंद प्रकाश, शतरंजशतिका, अमरप्रकाश।

भूपति– भूपति राजा गुरुदत्त सिंह अमेठी के राजा थे। ये रीति काल के प्रसिद्ध कवियों में गिने जाते थे। भूपति ने संवत 1791 में श्रृंगार के दोहों की एक ‘सतसई’ बनाई थी। इसके अतिरिक्त ‘कंठाभरण’, ‘सुरसरत्नाकर’, ‘रसदीप’, ‘रसरत्नावली’ नामक ग्रंथ भी इनके रचे हुए बतलाए जाते हैं।

तोषनिधि– तोषनिधि रीति काल के एक प्रसिद्ध कवि हुए हैं। तोषनिधि शृंगवेरपुर, सिंगरौर, ज़िला इलाहाबाद) के रहने वाले थे। तोषनिधि ने संवत 1791 में ‘सुधानिधि’ नामक ग्रंथ लिखा। दो पुस्तकें हैं – विनयशतक और नखशिख।

बंसीधर– रीति काल के कवि बंसीधर ब्राह्मण थे और अहमदाबाद, गुजरात के रहने वाले थे। बंसीधर ने दलपति राय के साथ मिलकर संवत 1792 में उदयपुर के महाराणा जगतसिंह के नाम पर ‘अलंकार रत्नाकर’ नामक ग्रंथ बनाया।

दलपति राय– रीति काल के कवि दलपति राय महाजन थे और अहमदाबाद गुजरात के रहने वाले थे। दलपति राय ने बंसीधर के साथ मिलकर संवत 1792 में उदयपुर के महाराणा जगतसिंह के नाम पर ‘अलंकार रत्नाकर’ नामक ग्रंथ बनाया।

सोमनाथ माथुर– सोमनाथ माथुर ब्राह्मण थे और भरतपुर के महाराज बदनसिंह के कनिष्ठ पुत्र प्रतापसिंह के यहाँ रहते थे। सोमनाथ ने संवत 1794 में ‘रसपीयूषनिधि’ नामक ग्रंथ लिखा। इनके तीन ग्रंथ और हैं, कृष्ण लीलावती पंचाध्यायी, सुजानविलास, माधवविनोद नाटक।