भक्ति काल (पूर्व मध्यकाल) – भक्तिकालीन हिंदी साहित्य का इतिहास

भक्ति काल

पूर्व मध्यकाल हिंदी साहित्य या भक्ति काल (1350 ई० – 1650 ई०): Bhaktikalin Hindi Sahitya का समयकाल 1350 ई० से 1650 ई० के मध्य माना जाता है। भक्ति काल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण काल कहा जाता है।

भक्ति काल का उदय

भक्ति काल के उदय के बारे में सबसे पहले जॉर्ज ग्रियर्सन ने मत व्यक्त किया वे इसे “ईसायत की देंन” मानते हैं। ताराचंद के अनुसार– भक्तिकाल का उदय “अरबों की देन” है।

रामचंद्र शुक्ल के मतानुसार– देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में गौरव गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश ना रह गया। उसके सामने ही उनके देव मंदिर गिराए जाते थे। देव मूर्तियां तोड़ी जाती थी और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे।

ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत ना तो वे गा ही सकते थे और ना ही बिना लज्जित हुए सुन सकते थे। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शरणागति में जाने के अलावा दूसरा मार्ग ही क्या था। भक्ति का जो सीता दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पढ़ते हुए जनता के हिरदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला।

Bhakti Kaal - भक्ति काल - Bhaktikal

भक्ति काल के कवि और उनकी रचना

भक्ति काल के प्रमुख कवि

भक्तिकाल के कवियों में सूरदास, संत शिरोमणि रविदास, ध्रुवदास, रसखान, व्यासजी, स्वामी हरिदास, मीराबाई, गदाधरभट्ट, हितहरिवंश, गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास, कुंभनदास, परमानंद, कृष्णदास, श्रीभट्ट, सूरदास, मदनमोहन, नंददास, चैतन्य महाप्रभु आदि कवि आते हैं।

भक्ति काल के कवियों का विभाजन

भक्ति काल के कवि मुख्यतः दो धाराओं में विभाजित हैं –

  1. निर्गुण काव्य धारा
  2. सगुण काव्य धारा

Nirgun Kavya Dhara, Kavi - Bhaktikal

निर्गुण काव्य धारा

निर्गुण काव्य धारा के कवि ईश्वर में निर्गुण अर्थात निराकार रूप की आराधना करते थे। निर्गुण काव्य धारा के कवियों को दो भागों में वर्गीकृत किया गया है। अर्थात इसकी दो धाराएँ थीं-

  1. संत काव्य धारा
  2. सूफी काव्य धारा

संत काव्य धारा के कवि

कबीरदास

कबीर सन्त परम्परा के प्रमुख और प्रतिनिधि कवि है। इनके जन्म के विषय मे प्रामाणित साक्ष्य उपलब्ध नही है। जनश्रुतियों के अनुसार कबीर का जन्म 1398 ई0 मे और मृत्यु 1518 ई0 मे हुई। कबीर नीरु और नीमा नामक जुलाहा दम्पति को तालाब की किनारे मिले थे। इन्होंने बच्चे का लालन – पालन किया। यही बच्चा बाद मे बडा होकर कबीर के नाम से जाना गया। कबीर के गुरु रामानन्द थे।

कबीर अनपढ थे। उनके शिष्यो ने कबीर की वाणीको सजोकर रखा तथा बाद मे पुस्तक का आकार दिया। इनकी रचना ‘बीजक’ नाम से जानी जाती है। कबीर ने जीवन भर धार्मिक तथा सामाजिक अंधविश्वासो का तीखा विरोध किया तथा समाजिक बुराइयों का भी विरोध किया।

रामानन्द

रामानन्द जी के आविर्भाव काल , निधन काल , जीवन चरित आदि के सम्बंध मे कोई प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं है। ये लगभग 15 वीं शती के उत्तार्द्ध मे हुए थे। इनकी शिक्षा-दीक्षा काशी मे हुआ। ये रामानुजाचार्य परम्परा के शिष्य थे।

नामदेव

नामदेव महाराष्ट्र के भक्त के रुप मे प्रसिद्ध है। सतारा जिले के नरसी बैनी गांव मे सन् 1267 ई0 मे इनका जन्म हुआ था। इनके गुरु का नाम सन्त विसोवा खेवर था। नामदेव मराठी और हिंदी दोनो भाषाओ मे भजन गाते थे। उन्होने हिन्दू और मुस्लमान की मिथ्या रूढियों का विरोध किया।

सूफी काव्य धारा के प्रमुख कवि

मलिक मुहम्मद जायसी

जायसी का जन्म 1492 ई0 के लगभग हुआ था। रायबरेली जिले के जायस नामक स्थान पर जन्म लेने वाले मलिक मुहम्मद जायसी के बचपन का नाम मलिक शेख मुंसफी था। जायस के निवासी होने कारण वे जायसी कहलाते थे। मलिक मुहम्मद जायसी सूफी काव्य धारा (प्रेममार्गी शाखा) के प्रतिनिधि कवि है। इन्होंने पद्मावत, अखरावट, आखिरी कलाम, चित्ररेखा आदि रचनाएं लिखीं।

मुल्ला दाउद

सूफी कवि मुल्ला दाउद की रचना ‘चन्दायन’ है। इस ग्रंथ की रचना 1379 ई0 मे हुई थी। यह प्रेमाख्यानक परम्परा का दूसरा काव्य है।

कुतुबन

कुतुबन की रचना ‘मृगावती’ है। जिसका रचना काल 1503 ई0 है। ये चिश्ती वंश के शेख बुरहान के शिष्य थे, तथा जौनपुर के बादशाह हुसैनशाह के आश्रित थे। यह ग्रन्थ अवधी भाषा मे लिखा गया है।

निर्गुण काव्य की विशेषता

जैसा कि आप सभी जानते हैं भक्तिकाल में काव्य की दो प्रधान धाराएँ प्रचलित हुई – निर्गुण काव्यधारा और सगुण काव्यधारा, निर्गुण काव्यधारा की भी दो शाखाएं बनी – ज्ञानाश्रयी शाखा (संत) और प्रेमाश्रयी शाखा (सूफी)

ज्ञानाश्रयी शाखा को संतों ने पोषित किया और नतीजा यह हुआ कि काव्य की यह धारा जन-जन में जीवन को पवित्र बनाने वाली सिद्ध हुई। डॉ.श्यामसुंदर दास का मत है– संत कवियों में अपनी निर्गुण भक्ति द्वारा जनता के ह्रदय में अपूर्व आशा उत्पन्न की। उसे कुछ अधिक समय तक विप्पति की अथाह जलराशि के ऊपर बने रहने की उत्तेजना दी। संत कवियों ने समाज में फैले हुए विभिन्न आडम्बरों, रुढियों, अंध विश्वासों आदि का पर्दाफाश किया और जनता के सच्चे एवं अच्छे मार्ग की ओर अग्रसर किया।

ज्ञानाश्रयी शाखा या संत काव्यधारा में हम निम्नलिखित विशेषताएँ या प्रवृत्तियों को देख सकते हैं –

निजी धार्मिक सिद्धांतों का अभाव-

संत साहित्य में निजी सिद्धांतों का अभाव है। ब्रह्म, जीव, माया, संसार आदि के सम्बन्ध में इन कवियों ने जिन बातों का वर्णन किया है, वे पूर्ववर्ती आचार्यो और कवियों की देन है।

आचार पक्ष की प्रधानता-

संत कवियों ने अपने काव्यों में असंयम, अनाचार और आडम्बर का विरोध किया है। इनमे खानपान, अचार-विचार, शुद्धता और सदाचार को विशेष महत्व दिया गया है। इनकी सहज साधना और सहज आचारों को पालन करने की साधना है। इन्ही आचारों के आधार पर अनेक पंथ बने हैं। आज भारत में नानक, कवीर पंथ, दादू पंथ आदि बने हैं। इनमें मौलिक एकता है।

गुरु के प्रति श्रद्धा-

संत कवियों ने अपनी रचनाओं में गुरु को सबसे ऊँचा स्थान दिया है। इन्होने ईश्वर प्राप्ति हेतु सद्गुरु को आवश्यक बताया है .सद्गुरु अनंत प्रकार से शिष्य का उपकार करता है। वह अपनी अध्यात्मिक शक्ति के सहारे जीव को ब्रह्म का अलौकिक दर्शन कराता हगे।

निम्न जाति के कवि-

निर्गुण काव्यधारा के अधिकांश कवि निम्न जाति में उत्पन्न हुए। समाज के निचले स्तर की गिरी जातियों में जन्म लेने के कारण इन्हें उंच नीच सम्बन्धी कटु अनुभव था। इन कवियों में कबीर जुलाहा, रैदास चमार, सेन नाई, दादू धुनिया, सदन कसाई, नाभा दास डोम के घर में जन्मे थे।

सामाजिक कुरीतियों के विरोधी-

इन कवियों ने एक स्वर से जाति पाति उंच नीच आदि कुरूतियों का व्यापक पैमाने पर विरोध किया है। समाज के निचले स्तर से आने के कारण इन कवियों के लिए ज्ञान प्राप्ति के दरवाजे बंद थे। ज्ञान की प्यास बुझाने हेतु इन कवियों ने अनेक दरवाजे खटखटाया किन्तु कोई भी पंडित या महात्मा इन्हें शिक्षा देने के लिए तैयार न था।

शिक्षा की कमी-

संत कवि अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे। कबीर के सम्बन्ध में उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है –

मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।
चारिक जुग को महातम, मुखहिं जनाई बात।

इसका परिणाम यह हुआ है कि इन कवियों के ज्ञान का भण्डार पंडितों, महात्माओं, संतों तथा स्थान भ्रमण की देन है। इनके काव्य में मन की गुनी, कान की सुनी और आँख की देखि बातों की चर्चा है।

निर्गुण धारा का काव्य रूप

निर्गुण धारा का समस्त साहित्य मुक्तक रूप में लिखा गया है। इनमें प्रबंध का अभाव है। अधिकाँश रचनाएँ दोहे और पद में लिखी गयी है। इन कवियों में अक्कह्द पन और मस्तमौला स्वभाव के अनुकूल पद और दोहे स्वछंद होते थे।

संत काव्य धारा की भाषा

संत कवियों की भाषा खिचड़ी या सधुक्कड़ी है .ये एक स्थान से दूसरे स्थान तक भटक-भटक कर स्थान-स्थान की भाषा ग्रहण करते थे, कारण इनका भाषा भंडार विविधता से भरा था। इन सधुक्कड़ी भाषा अनगढ़ और अपरिमार्जित है। कहीं-कहीं गूढ़ ज्ञान के कारण भाषा क्लिष्ट हो गयी है। किन्तु यह सत्य है कि इन कवियों का भाषा पर जबरदस्त अधिकार है।

Sagun Kavya Dhara, Kavi - Bhaktikal

सगुण काव्य धारा

सगुण काव्य धारा के कवि ईश्वर के सगुण अर्थात साकार रूप की आराधना करते थे। सगुण काव्य धारा के कवियों को मुख्यतः दो भागों में वर्गीकृत किया गया है। अर्थात इसकी भी दो प्रमुख शाखाएँ थीं-

  1. राम भक्ति काव्य धारा
  2. कृष्ण भक्ति काव्य धारा

राम काव्य धारा के प्रमुख कवि

तुलसीदास

तुलसीदास को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। इन्होंने रामकथा को अवधी रूप दे कर घर घर मे प्रसारित कर दिया।इनका जन्म काल विवादित रहा है।

तुलसीदास के कुल 13 ग्रंथ मिलते हैं:- 1. दोहावली, 2. कवितावली, 3. गीतावली, 4.कृष्ण गीतावली, 5. विनय पत्रिका, 6. राम लला नहछू, 7. वैराग्य-संदीपनी, 8. बरवै रामायण, 9. पार्वती मंगल, 10. जानकी मंगल, 11.हनुमान बाहुक, 12. रामाज्ञा प्रश्न, 13. रामचरितमानस।

नाभादास

अग्रदास जी के शिष्य, बड़े भक्त और साधुसेवी थे। संवत् 1657 के लगभग वर्तमान थे और गोस्वामी तुलसीदास जी की मृत्यु के बहुत पीछे तक जीवित रहे।

नाभादास की 3 रचनाए उपलब्ध हैं:– 1. रामाष्टयाम, 2. भक्तमाल, 3. रामचरित संग्रह।

स्वामी अग्रदास

अग्रदास जी कृष्णदास पयहारी के शिष्य थे जो रामानंद की परंपरा के थे। सन् १५५६ के लगभग वर्तमान थे। इनकी बनाई चार पुस्तकों का पता है।

स्वामी अग्रदास की प्रमुख कृतियां है– 1. हितोपदेश उपखाणाँ बावनी, 2. ध्यानमंजरी, 3. रामध्यानमंजरी, 4. राम-अष्ट्याम।

कृष्ण काव्यधारा के प्रमुख कवि

सूरदास

सूरदास कृष्णभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं। सूरदास नेत्रहीन थे। इनका जन्म 1478 में हुआ था तथा मृत्यु 1573 में हुई थी। इनके पद गेय हैं। इनकी रचनाएं 3 पुस्तकों में संकलित हैं।

  1. सूर सारावली– इसमें 1103 पद हैं।
  2. साहित्य लहरी
  3. सूरसागर– इसमें 12 स्कंध हैं और सवा लाख पद थे किंतु अब 45000 पद ही मिलते हैं। इसका आधार श्रीमद भागवत पुराण है।

कुंभनदास

कुंभनदास अष्टछाप के प्रमुख कवि हैं। जिनका जन्म 1468 में गोवर्धन, मथुरा में हुआ था तथा मृत्यु 1582 में हुई थी। इनके फुटकल पद ही मिलते हैं।

नंददास

नंददास 16वी शती के अंतिम चरण के कवि थे। इनका जन्म 1513 में रामपुर हुआ था तथा मृत्यु 1583 में हुई थी। इनकी भाषा ब्रज थी। नंददास की 13 रचनाएं प्राप्त हैं।

नंददास की प्रमुख रचनाएँ हैं- 1. रासपंचाध्यायी, 2. सिद्धांत पंचाध्यायी, 3. अनेकार्थ मंजरी, 4. मानमंजरी, 5. रूपमंजरी, 6. विरहमंजरी, 7. भँवरगीत, 8. गोवर्धनलीला, 9. श्यामसगाई, 10. रुक्मिणीमंगल, 11. सुदामाचरित, 12. भाषादशम-स्कंध, 13. पदावली।

रसखान

इनका असली नाम सैय्यद इब्राहिम था। इनका जन्म हरदोई में 1533 से 1558 के बीच हुआ था। इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन कृष्णभक्ति को समर्पित कर दिया था। इन्हें प्रेम रस की खान कहा जाता है।

रसखान की प्रमुख रचनाएँ हैं- 1. सुजान रसखान, 2. प्रेमवाटिका।

मीरा

मीराबाई स्वयं ही एक लोकनायिका हैं।इनका जन्म1498 में हुआ था तथा मृत्यु 1547 में। इन्होंने मध्य काल में स्त्रियों की पराधीन बेड़ियों को तोड़ कर स्वतंत्र हो कर कृष्णप्रेम का प्रदर्शन करने का साहस किया। इन्होंने सामाजिक और पारिवारिक दस्तूरों का बहादुरी से मुकाबला किया और कृष्ण को अपना पति मानकर उनकी भक्ति में लीन हो गयीं। उनके ससुराल पक्ष ने उनकी कृष्ण भक्ति को राजघराने के अनुकूल नहीं माना और समय-समय पर उनपर अत्याचार किये।

मीरा स्वयं को कृष्ण की प्रेयसी मानती हैं, तथा अपने सभी पदों में उसी तरह व्यवहार करती हैं। इनके मृत्यु को ले कर कई किवंदतियां प्रसिद्ध हैं। इनके सभी पद गेय हैं। इनकी रचनाएँ मीराबाई पदावली में संग्रहित हैं।

सगुण भक्ति काव्य की विशेषता

भक्तिकाल अथवा पूर्व मध्यकाल हिंदी साहित्य का महत्वपूर्ण काल है जिसे ‘स्वर्णयुग’ विशेषण से विभूषित किया जाता है। इस काल की समय सीमा विद्वानों द्वारा संवत 1375 से 1700 तक मान्य है। राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अंतर्विरोधों से परिपूर्ण होते हुए भी इस काल में भक्ति की ऐसी धारा प्रवाहित हुयी कि विद्वानों ने एकमत से इसे भक्ति काल कहा।

भक्ति

‘भज’ धातु में ‘क्तिन’ प्रत्यय के साथ निर्मित शब्द ‘भक्ति’ अत्यंत व्यापक एवं गहन है। शांडिल्य और नारद भक्ति सूत्र में ‘भक्ति’ को ‘सा परानुरक्तिरीश्वरे’ एवं ‘सा त्वस्मिन परम प्रेम रूपा’ कहकर पारिभाषित किया है। वस्तुतः भक्ति और प्रेम मनुष्य की सहजात भाव स्थितियां हैं जिनके आधार पर भक्ति दो रूपों में प्रस्फुटित हुई – निर्गुण और सगुण।

अर्थ

सगुण भक्ति का अर्थ है- आराध्य के रूप, गुण, आकर की कल्पना अपने भावानुरूप कर उसे अपने बीच व्याप्त देखना। सगुण भक्ति में ब्रह्म के अवतार रूप की प्रतिष्ठा है और अवतारवाद पुराणों के साथ प्रचार में आया. इसी से विष्णु अथवा ब्रह्म के दो अवतार राम और कृष्ण के उपासक जन-जन के ह्रदय में बसने लगे। राम और कृष्ण के उपासक उन्हें विष्णु का अवतार मानने की अपेक्षा परब्रह्म ही मानते हैं, इसकी चर्चा यथास्थान की जाएगी।

कृष्ण

भक्तिकाल की सगुण काव्य धरा के अंतर्गत आराध्य देवताओं में श्रीकृष्ण का स्थान सर्वोपरि है। वेदों में श्रीकृष्ण का उल्लेख हुआ है, ऋगवेद में कृष्ण (आंगिरस) का उल्लेख है। पुराणों तक आते-आते राम और कृष्ण अवतार रूप में प्रतिष्ठित हो गए। श्रीमद्भाग्वद्पुराण में उन्हें पूर्ण ब्रह्म के रूप में चित्रित किया गया है।

सत, चित, आनंद स्वरुप श्री कृष्ण नन्द और यशोदा के आँगन में विभिन्न बाल लीलाओं के माध्यम से समस्त गोकुलवासियों को आनंद प्रदान करते है। बाल रूप में ही राक्षस-राक्षसियों का विनाश कर अपने दिव्य रूप को सहज ग्राह्य बना देते हैं। वे ही सर्वव्यापक, अविनाशी, अजर, अमर, अगम आदि विशेषणों से युक्त होते हुए भी ब्रज के प्रत्येक प्राणी को उसके भावानुरूप आनंद प्रदान करते है।

सम्प्रदाय

भक्तिकाल में कृष्ण भक्ति का प्रचार कृष्ण की जन्म एवं लीलाभूमि में व्यापक रूप में हुआ। वैष्णव भक्ति सम्प्रदायों में वल्लभाचार्य “पुष्टिमार्ग“, निम्बार्काचार्य “निम्बार्क“, श्री हितहरिवंश “राधावल्लभ“, स्वामी हरिदास “हरिदासी“, चैतन्य महाप्रभु “गौडीय संप्रदाय” सभी सम्प्रदायों में पूर्ण ब्रह्म श्री कृष्ण तथा श्री राधा उनकी आह्लादिनी शक्ति की उपासना की गयी।

काव्य

हिंदी साहित्य में कृष्ण भक्ति पर आधारित काव्यों की लम्बी परंपरा है (आदिकालीन कृष्ण काव्य में चंदवरदाई और विद्यापति उल्लेखनीय है) भक्तिकालीन कृष्ण भक्त कवियों पर महाप्रभु वल्लभाचार्य का विशेष प्रभाव है। उन्होंने श्रीकृष्ण के बाल एवं किशोर रूप की लीलाओं का गायन किया तथा गोवर्धन पर श्रीनाथ जी को प्रतिष्ठित कर एक मंदिर बनवाया। उन्होंने भगवान के अनुग्रह की महत्ता पर बल दिया।

कवि

दर्शन के क्षेत्र में विष्णुस्वामी के शुद्धाद्वैत का प्रभाव इन पर दिखाई देता है। अपने इस भक्ति मार्ग को उन्होंने पुष्टिमार्ग कहा और अनेक शिष्यों को कृष्ण भक्ति का मन्त्र देकर दीक्षित भी किया। जिन्हें अष्टछाप के कवि अथवा अष्ट सखा कहा गया। इनमें “सूरदास, कुम्भनदास, परमानंददास, कृष्णदास” ये चार श्री बल्लभाचार्य के शिष्य और “गोविन्दस्वामी, नन्ददास, छीतस्वामी और चतुर्भुजदास” ये चार बल्लभाचार्य के पुत्र श्री विट्ठलनाथ के शिष्य थे। आठ की संख्या होने से इन्हें अष्ट छाप कहा गया।

इन सभी भक्त कवियों ने श्रीमदभागवत के आधार पर ही कृष्ण लीला गान किया है। इसके लिए अपने आराध्य श्रीकृष्ण की कृपा से प्राप्त भगवत प्रेम ही महत्वपूर्ण है। पुष्टिमार्ग का अनुयायी भक्त आत्मसमर्पण युक्त रसात्मक प्रेम द्वारा भगवान की लीला में तल्लीन हो आनन्दावस्था को प्राप्त होता है।

सभी कृष्ण भक्त कवियों की रचनाएँ भक्ति, संगीत और कवित्व का समन्वित रूप है। लीलामय श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति के आवेश में इन अष्टछाप कवियों के ह्रदय से गीतिकाव्य की जो निर्झरिणी प्रस्फुटित हुई उसने भगवदभक्तों को आकंठ निमग्न कर दिया।