राष्ट्रभाषा का शाब्दिक अर्थ है, “समस्त राष्ट्र में प्रयुक्त भाषा” अर्थात् आम जन की भाषा (जनभाषा)। जो भाषा समस्त राष्ट्र में जन-जन के विचार-विनिमय का माध्यम हो, वह राष्ट्रभाषा कहलाती है। भारत की कोई भी राष्ट्रभाषा नहीं है, परंतु राजभाषा के रूप में ‘हिन्दी‘ और ‘अंग्रेजी‘ को स्वीकार किया गया है।
किसी भी देश की राष्ट्रभाषा उस देश के नागरिकों के लिए गौरव, एकता, अखण्डता और अस्मिता का प्रतीक होती है। महात्मा गांधी जी ने राष्ट्रभाषा को ‘राष्ट्र की आत्मा‘ की संज्ञा दी है।
राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता एवं अतंर्राष्ट्रीय संवाद-सम्पर्क की आवश्यकता की उपज होती है। वैसे तो सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ होती हैं किन्तु राष्ट्र की जनता जब स्थानीय एवं तात्कालिक हितों व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने राष्ट्र की कई भाषाओं में से किसी एक भाषा को चुनकर उसे राष्ट्रीय अस्मिता का एक आवश्यक उपादान समझने लगती है तो उसे ही राष्ट्रभाषा कहा जाता है।
भारतीय संविधान में 22 भाषाएं आधिकारिक भाषाएं है। वर्तमान में 22 आधिकारिक भाषाओं में कश्मीरी, सिन्धी, पंजाबी, हिन्दी, बंगाली, आसामी, उडिया, गुजराती, मराठी, कन्नड़, तेलुगू, तमिल, मलयालम, उर्दू, संस्कृत, नेपाली, मणिपुरी, कोंकणी, बोडो, डोगरी, मैथिली, और संथाली हैं। जिसमें केन्द्र सरकार या राज्य सरकार स्थानानुसार किसी भी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में चुन सकती है।
भारत की केन्द्र सरकार ने अपने आधिकारिक कार्यों के लिए देवनागरी भाषा “हिन्दी” और रोमन भाषा “अंग्रेजी” को आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया है। इसके अलावा अलग अलग राज्यों में स्थानीय भाषा के अनुसार भी अलग अलग आधिकारिक भाषाओं को चुना गया है।
राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्क-भाषा (link-language) होती है। हिन्दी दीर्घकाल से सारे देश में जन-जन के पारस्परिक सम्पर्क की भाषा रही है। यह केवल उत्तर भारत की भाषा नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के आचार्यों-वल्लभाचार्य, रामानुज, आदि ने भी इसी भाषा के माध्यम से अपने मतों का प्रचार किया था। अहिन्दी भाषी राज्यों के भक्त-संत कवियों (जैसे असम के शंकर देव, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर व नामदेव, गुजरात के नरसी मेहता, बंगाल के चैतन्य आदि) ने इसी भाषा को अपने धर्म और साहित्य का माध्यम बनाया था।
यही कारण था कि जब जनता और सरकार के बीच संवाद-स्थापना के क्रम में फारसी या अंग्रेजी के माध्यम से दिक्कतें पेश आईं तो कंपनी सरकार ने फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी विभाग खोलकर अधिकारियों को हिन्दी सिखाने की व्यवस्था की। यहाँ से हिन्दी पढ़े हुए अधिकारियों ने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में उसका प्रत्यक्ष लाभ देखकर मुक्त कंठ से हिन्दी को सराहा।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रभाषा की बहुत आवश्यकता महसूस होती थी। भारत के संदर्भ में इस आवश्यकता की पूर्ति हिन्दी ने किया। यही कारण है कि “हिन्दी” स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान राष्ट्रभाषा (विशेषतः 1900 ई०–1947 ई०) बनी।
- राष्ट्रभाषा शब्द कोई संवैधानिक शब्द नहीं है बल्कि यह प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यताप्राप्त शब्द है।
- राष्ट्रभाषा सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं-परंपराओं के द्वारा सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात् राष्ट्रभाषा की प्राथमिक शर्त देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मकएकता स्थापित करना है।
- राष्ट्रभाषा का प्रयोग क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की संपर्क-भाषा होती है। इसका व्यापक जनाधार होता है।
- राष्ट्रभाषा हमेशा स्वभाषा ही हो सकती है क्योंकि उसी के साथ जनता का भावनात्मक लगाव होता है।
- राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी भी रूप में ढाला जा सकता है।
1885 ई० में कांग्रेस की स्थापना हुई। जैसे-जैसे कांग्रेस का राष्ट्रीय आंदोलन जोर पकड़ता गया, वैसे-वैसे राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय झंडा एवं राष्ट्रभाषा के प्रति आग्रह बढ़ता गया।
1917 ई० में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कहा, ‘यद्यपि में उन लोगों में से हूँ जो चाहते हैं और जिनका विचार है कि हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है। तिलक ने भारतवासियों से आग्रह किया कि हिन्दी सीखें।
महात्मा गाँधी राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा को नितांत आवश्यक मानते थे। उनका कहना था, ‘राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गंगा है‘। गाँधीजी हिन्दी के प्रश्न को स्वराज का प्रश्न मानते थे, “हिन्दी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है।” उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में सामने रखकर भाषा-समस्या पर गंभीरता से विचार किया।
1917 ई० भड़ौच में आयोजित गुजरात शिक्षा परिषद के अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधीजी ने कहा, “राष्ट्रभाषा के लिए 5 लक्षण या शर्ते होनी चाहिए।” जो निम्न हैं-
- अमलदारों (राजकीय अधिकारियों के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए।
- यह जरूरी है कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों।
- उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का अपनी धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवहार हो सकना चाहिए।
- राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए।
- उस भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अल्पस्थायी स्थिति पर जोर नहीं देना चाहिए।
वर्ष 1918 ई० में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधीजी ने राष्ट्रभाषा हिन्दी का समर्थन किया, ‘मेरा यह मत है कि हिन्दी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।‘
इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिन्दी सीखने को प्रयाग भेजे जाएं और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिणी भाषाएं सीखने तथा हिन्दी का प्रचार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाए। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिन्दी के कार्य को राष्ट्रीय व्रत बना दिया।
दक्षिण में प्रथम हिन्दी प्रचारक के रूप में गाँधीजी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गाँधी को दक्षिण में मद्रास भेजा। गाँधीजी की प्रेरणा से मद्रास (1927 ई०) एवं वर्धा (1936 ई०) में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएं स्थापित की गई।
वर्ष 1925 ई० में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में गाँधीजी की प्रेरणा से यह प्रस्ताव पारित हुआ कि ‘कांग्रेस का, कांग्रेस की महासमिति का और कार्यकारिणी समिति का काम-काज आमतौर पर हिन्दी में चलाया जाएगा। इस प्रस्ताव से हिन्दी-आंदोलन को बड़ा बल मिला।
वर्ष 1927 ई० में गाँधीजी ने लिखा, ‘वास्तव में ये अंग्रेजी में बोलनेवाले नेता है जो आम जनता में हमारा काम जल्दी आगे बढ़ने नहीं देते। वे हिन्दी सीखने से इंकार करते हैं। जबकि हिन्दी द्रविड़ प्रदेश में भी तीन महीने के अंदर सीखी जा सकती है।‘
वर्ष 1931 ई० में गाँधीजी ने पुनः लिखा, ‘यदि स्वराज्य अंग्रजी-पढ़े भारतवासियों का है और केवल उनके लिए है तो संपर्क भाषा अवश्य अंग्रेजी होगी। यदि वह करोड़ों भूखे लोगों, करोड़ों निरक्षर लोगों, निरक्षर स्त्रियों, सताये हुए अछूतों के लिए है तो संपर्क भाषा केवल हिन्दी हो सकती है। गांधीजी जनता की बात जनता की भाषा में करने के पक्षधर थे।
वर्ष 1936 ई० में गाँधीजी ने कहा, ‘अगर हिन्दुस्तान को सचमुच आगे बढ़ना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा तो हिन्दी ही बन सकती है क्योंकि जो स्थान हिन्दी को प्राप्त है वह किसी और भाषा को नहीं मिल सकता’।
वर्ष 1937 ई० में देश के कुछ राज्यों में कांग्रेस मंत्रिमंडल गठित हुआ। इन राज्यों में हिन्दी की पढ़ाई को प्रोत्साहित करने का संकल्प लिया गया। जैसे-जैसे स्वतंत्रता-संग्राम तीव्रतर होता गया वैसे-वैसे हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आंदोलन जोर पकड़ता गया।
20वीं सदी के चौथे दशक तक हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में आम सहमति प्राप्त कर चुकी थी। वर्ष 1942 से 1945 का समय ऐसा था जब देश में स्वतंत्रता की लहर सबसे अधिक तीव्र थी, तब राष्ट्रभाषा से ओत-प्रोत जितनी रचनाएं हिन्दी में लिखी गईं उतनी शायद किसी और भाषा में इतने व्यापक रूप से कभी नहीं लिखी गईं। राष्ट्रभाषा हिन्दी पर निबंध।
राष्ट्रभाषा के प्रचार के साथ राष्ट्रीयता के प्रबल हो जाने पर अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा।
राष्ट्रभाषा से संबंधित धार्मिक सामाजिक संस्थाएँ–
नाम | मुख्यालय | स्थापना | संस्थापक |
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ब्रह्म समाज | कलकत्ता | 1828 ई. | राजा राम मोहन राय |
प्रार्थना समाज | बंबई | 1867 ई. | आत्मारंग पाण्डुरंग |
आर्य समाज | बंबई | 1875 ई. | दयानंद सरस्वती |
थियोसोफिकल सोसायटी | अडयार, मद्रास | 1882 ई. | कर्नल एच. एस.आलकाट एवं मैडम बलावत्सकी |
सनातन धर्म सभा (भारत धर्म महामंडल 1902 में नाम परिवर्तन) | वाराणसी | 1895 ई. | पं० दीन दयाल शर्मा। |
रामकृष्ण मिशन | बेलुर | 1897 ई. | विवेकानंद |
राष्ट्रभाषा से संबंधित साहित्यिक संस्थाएं–
नाम | मुख्यालय | स्थापना |
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नागरी प्रचारिणी सभा | काशी/वाराणसी | 1893 ई० संस्थापक त्रयी: श्याम सुंदर दास, राम नारायण मिश्र व शिव कुमार सिंह |
हिन्दी साहित्य सम्मेलन | प्रयाग | 1910 ई० (प्रथम सभापति मदन मोहन मालवीय) |
गुजरात विद्यापीठ | अहमदाबाद | 1920 ई० |
बिहार विद्यापीठ | पटना | 1921 ई० |
हिन्दुस्तानी एकेडमी | इलाहाबाद | 1927 ई० |
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा (पूर्व नाम ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’) | मद्रास | 1927 ई० |
हिन्दी विद्यापीठ | देवघर | 1929 ई० |
राष्ट्रभाषा प्रचार समिति | वर्धा | 1936 ई० |
महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा | पुणे | 1937 ई० |
बंबई हिन्दी विद्यपीठ | बंबई | 1938 ई० |
असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति | गुवाहटी | 1938 ई० |
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् | पटना | 1951 ई० |
अखिल भारतीय हिन्दी संस्था संघ | नई दिल्ली | 1964 ई० |
नागरी लिपि परिषद् | नई दिल्ली | 1975 ई० |
स्वतंत्रता के पूर्व जो छोटे बड़े राष्ट्रनेता राष्ट्रभाषा और राजभाषा के रूप में हिन्दी को अपनाने के मुद्दे पर सहमत थे, उनमें से अधिकांश गैर-हिन्दी भाषी नेता स्वतंत्रता मिलने के बाद हिन्दी के नाम पर बिदकने लगे।
यही वजह थी कि संविधान सभा में केवल हिन्दी पर विचार नहीं हुआ- राष्ट्रभाषा और राजभाषा के नाम पर जो बहस वहाँ 11 सितम्बर 1949 ई० से 14 सितम्बर, 1949 ई० तक हुई, उसमें हिन्दी अंग्रेजी, संस्कृत एवं हिन्दुस्तानी के दावे पर विचार किया गया।
किन्तु संघर्ष की स्थिति सिर्फ हिन्दी एवं अंग्रेजी के समर्थकों के बीच ही देखने को मिली। हिन्दी समर्थक वर्ग में भी दो गुट थे-
- एक गुट देवनागरी लिपि वाली हिन्दी का समर्थक था;
- दूसरा गुट (महात्मा गाँधी, जे. एल. नेहरू, अबुल कलाम आजाद आदि)
दूसरा गुट दो लिपियों वाली हिन्दुस्तानी के पक्ष में था आजाद भारत में एक विदेशी भाषा, जिसे देश का बहुत थोड़ा-सा अंश (अधिक-से-अधिक 1 या 2%) ही पढ़-लिख और समझ सकता था, देश की राजभाषा नहीं बन सकती थी।
लेकिन यकायक अंग्रेजी को छोड़ने में भी दिक्कतें थीं। प्रायः 150 वर्षों से अंग्रेजी प्रशासन और उच्च शिक्षा की भाषा रही थी। हिन्दी देश की 46% जनता की भाषा थी। राजभाषा बनने के लिए हिन्दी का दावा न्याययुक्त था। साथ ही, प्रादेशिक भाषाओं की भी सर्वथा उपेक्षा नहीं की जा सकती थी।
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए संविधान निर्माताओं ने राजभाषा की समस्या को हल करने की कोशिश की। संविधान सभा के भीतर और बाहर हिन्दी के विपुल समर्थन को देखकर संविधान सभा ने हिन्दी के पक्ष में अपना फैसला दिया। यह फैसला हिन्दी विरोधी एवं हिन्दी समर्थकों के बीच ‘मुंशी-आयंगार फॉर्मूले‘ के द्वारा समझौते के परिणामस्वरूप सामने आया, जिसकी प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार थीं-
- हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि राजभाषा है।
- संविधान के लागू होने के दिन से 15 वर्षों की अवधि तक अंग्रेजी बनी रहेगी।
- एक अस्पष्ट निर्देश (अनु० 351) के आधार पर हिन्दी एवं हिन्दुस्तानी के विवाद को दूर कर लिया गया।
संविधान में भाषा विषयक उपबंध अनु० 120, अनु० 210 एवं भाषा विषयक एक पृथक् भाग–भाग 17 (राजभाषा) के अनु० 343 से 351 तक एवं 8वीं अनुसूची में दिए गए हैं। संविधान के ये भाषा-विषयक उपबंध हिन्दी, अंग्रेजी एवं प्रादेशिक भाषाओं के परस्पर विरोधी दावों के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करते हैं।
एक भाषा कई देशों की राष्ट्रभाषा भी हो सकती है; जैसे अंग्रेजी आज अमेरिका, इंग्लैण्ड तथा कनाडा इत्यादि कई देशों की राष्ट्रभाषा है। संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा तो नहीं दिया गया है किन्तु इसकी व्यापकता को देखते हुए इसे राष्ट्रभाषा कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में राजभाषा के रूप में हिन्दी, अंग्रेजी की तरह न केवल प्रशासनिक प्रयोजनों की भाषा है, बल्कि उसकी भूमिका राष्ट्रभाषा के रूप में भी है। वह हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता की भाषा है।
महात्मा गांधी जी के अनुसार, “किसी देश की राष्ट्रभाषा वही हो सकती है जो सरकारी कर्मचारियों के लिए सहज और सुगम हो; जिसको बोलने वाले बहुसंख्यक हों और जो पूरे देश के लिए सहज रूप में उपलब्ध हो। उनके अनुसार भारत जैसे बहुभाषी देश में हिन्दी ही राष्ट्रभाषा के निर्धारित अभिलक्षणों से युक्त है। उपर्युक्त सभी भाषाएँ एक-दूसरे की पूरक हैं। इसलिए यह प्रश्न निरर्थक है कि राजभाषा, राष्ट्रभाषा, सम्पर्क भाषा आदि में से कौन सर्वाधिक महत्त्व का है, आवश्यकता है हिन्दी को अधिक व्यवहार में लाने की।”