नवगीत – नए गीत का नामकरण, विकास, प्रवृत्तियां, कवि और उनकी रचनाएं

Navgeet - Naye Geet

नवगीत (Navgeet) : यह आधुनिक युग की काव्य धारा है। हिन्दी साहित्य में गीतिकाव्य की परंपरा आदिकाल से ही रही है। इसकी झलक विद्यापति, अमीर खुसरो की रचनाओं में देखने को मिलती है। भक्तिकाल के कवियों में इसका चरमोत्कर्ष देखने को मिलता है, खासकर कृष्णभक्त कवियों में सूरदास, नंददास, मीराबाई के पद गेय रहे है। रीतिकाल में नृत्य, संगीत जैसे कलाओं का बहुमुखी विकास हुआ। यहाँ से भारतेन्दु काल तक गीत परंपरा की जड़ों से पोषित रहे है। द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता की प्रवृत्ति ने कविता को गद्य रुप में स्वीकारा गेयता का अभाव इस काल में बना रहा किन्तु प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी ने सफल गीतों का लेखन किया। उसके बाद बच्चन, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, नरेद्र शर्मा, भगवतीचरण वर्मा, केदारनाथ मिश्र ‘प्रधान’, गोपालदास सक्सेना ‘नीरज’, देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’, योगेन्द्र दत्त शर्मा, उमाकांत ‘मालवीय’ वर्तमान में भारतेन्दु मिश्र, धनंजय, कुँवर बेचै पाल असीम, विज्ञान आदियों के गीत मर्म स्पर्शी, एवं सामाजिक सरोकार के साथ आशावादी, मानवता के गायक रहे है।

नवगीत का नामकरण

सन 1950 के बाद गीत की चेतना में परिवर्तन आया और यह माना जाने लगा कि गीतों का स्वर नये जीवन और नयी प्रगति के प्रति आस्था और विश्वास का स्वर रहे है। इस नयी चेतना को देखते हुए ही ‘नया गीत’, ‘आज का गीत’, ‘आधुनिक गीत’, ‘नये गीत’ आदि विभिन्न नामों से उसे चिन्हित किया गया।

सन 1975 में वीरेन्द्र मिश्र ने ‘नयी कविता, नये गीत: मूल्यांकन की समस्यायें ‘ विषय पर इलाहाबाद के साहित्यकार सम्मेलन में अपना लेख पढा।

नवगीत‘ नाम सर्व प्रथम श्री. राजेद्र प्रसाद सिंह ने ‘गीतांगिनी‘ के माध्यम से सन 1958 में प्रदान किया। इन्ही की ‘आईना’ पत्रिका ने नवगीत को उर्वर भूमी दिलायी।

सन 1958 में ही ‘लहर’ के संपादक प्रकाश जैन का कवितांक आया। इसी में से गीत के नये तेवर का पता चलता है। संपादक महेन्द्र शंकर की ‘वासंती’ द्वारा आयोजित ‘नये गीत: नये स्वर‘ की श्रृंखला ने भी नवगीत को गति दी।

इसके बाद मात्र स्वतंत्र नवगीतकारों के संकलन तथा समवेत संकलन आये। जिनमें महत्वपूर्ण है, ‘गीतांगिनी’ के अलावा ‘कविता’ (1964), गीत – एक (1966) गीत-दो (1967), सातवें दशक के उभरते नवगीतकार’ (1967) पाँच जोड बाँसुरी (1969), नवगीत दशक – एक (1972), नवगीत दशक – दो (1973), नवगीत दशक-तीन (1974) और यात्रा में साथ-साथ (1984) आदि महत्वपूर्ण है।

नवगीत अपनी सृजन प्रक्रिया में सदैव सजग एवं सक्रीय रहा है। अनेक विद्वानों ने उसे छायावाद और नयी कविता की गीत परंपरा को जोड़नेवाला सेतू माना है। छायावादी गीत परंपरा के लिजलिजे, मांसल, मादक, गुदगुदे, कल्पनाश्रित वैयक्तिकता की जमीन को छोड़कर जीवन के खुरदरेपन को स्वर दे रहा था, तो दुसरी ओर नयी कविता के नीरस नागरीकरण और यांत्रिक परिवेश- जिसमें बेगानापन, विघटन, अजनबीपन, घुटन, अनास्था, संत्रास, खीझ, पराजय, कुंठा का चित्रण था।

ऐसे में नवगीत मात्र इन सारी चीजों को नकार कर, ‘मानव के चेतनात्मक स्तर पर प्राकृतिक स्नेहिल आयामों द्वारा ऐसा समन्वय प्रस्तुत कर रहा था जो मस्तिष्क को उद्बुद्ध करता पैदा और साथ ही हृदय को रसाप्लावित भी।

नवगीत ने छायावाद की रोमानियत का संस्कार तो किया ही नयी कविता को भी अपनी स्नेहित लयान्विति एवं सहज बोधगम्यता से सहारा दिया। नयी कविता के टुटते हुए सामाजिक सरोकार को नवगीत ने अपनी उर्वर एवं सशक्त लोकाभिव्यक्ति के माध्यम से पुन: समाज से जोड़ने का प्रयास किया’ और कविता की दुरुहता की जगह स्नेहिल भाव संवेदन से व्यक्ति मन को झंकृत और झकझोरता रहा है।

नवगीत का विकास

नवगीत का आधुनिक विकास तीन कालखंडों में विभाजित कर देखा जा सकता है-

  1. प्रथम स्तर (1950 से 1960 तक)
  2. द्वित्तीय स्तर (1960 से 1970 तक)
  3. तृतीय स्तर (1970 से अब तक)

प्रथम स्तर स्वतंत्र भारत में ‘नवरोमानियतता’ से भरा आशावादी और ‘यथार्थोन्मुखता’ का रहा है। नेहरु की विकास संभावनाओं से प्रभावित नये लेखकों की पीढ़ी का यह दौर, सामाजिक रूढ़ियो, परंपराओं के प्रति आक्रोश, विद्रोह से भरा रहा है। परिणामत: आधुनिकता का नवरोमानियतता का प्रभाव इस कालखंड में लिखे गये नवगीतों में दिखाई देता है।

द्वित्तीय स्तर बदलती नगरबोध की चेतना से भरा है, जिसमें जीवन में आयी यांत्रिकता, अजनबीपन, विसंगतियाँ, संत्रास, कुंठा के साथ सहज ग्राम्य बोध पाया जाता है। अस्तित्ववाद के प्रभाव का दौर नवगीतों पर भी रहा है।

तृतीय स्तर जीवन यथार्थता, जीवन में बढता सामाजिक-राजनीतिक, अक्रांतता, लोकतंत्र का खोखलापन, परिवर्तन प्रति निराशा, के साथ आपातकाल के आतंक से प्रभावित रहा है। मनुष्य मन आधुनिकता के कारण उभरकर आयी कुण्ठा, संत्रास, अजनबीपन, अनास्था, ऊब, घुटन, पारिवारिक विघटन तेजी से फैला। नई कविता की तरह नवगीत भी अस्तित्ववाद की अनुभूति का वैयक्तिक स्तर पर अनुभव कर रहा था। उसी की अभिव्यक्ति सामाजिक रूप ले चुकी है।

प्रमुख नवगीत कवि और उनकी रचनाएं:

कवि रचना
शंभुनाथ सिंह माध्यम मैं, जहाँ दर्द नीला है
रामदरश मिश्र मेरे प्रिय गीत
कुँवर बेचैन भीतर साँकल-बाहर साँकल
अनुप अशेष वह मेरे गाँव की हँसी थी
मयंक श्रीवास्तव सहसा हुआ घर
देवेद्र शर्मा इंद्र पथरीले शोर में, कुहरे की प्रत्यांचा
विरेद्र मिश्र अविराम चल मधुवंती
योगेद्रदत्त शर्मा खुशबुओं के दंश
जहीर कुरेशी एक टुकडा धूप
महेश्वर तिवारी हरसिंगार कोई तो हो
ठाकुरप्रसाद सिंह वंशी और मादल
उमाकांत मालवीय एक चावल नेह रीधा
बुध्दिनाथ मिश्र जाल फेक रे मछेरे
श्रीराम सिंह शलभ पॉच जोड बाँसूरी
पाल भसीन खुशबुओं की सौगात
नचिकेता आदमकद खबरे
विद्यासागर वर्मा कोहरे का गाँव
रमेश रंजक हरापन नहीं टुटेगा

उपरोक्त नवगीत कारों को गीत एवं गीत संकलन नवगीत के इतिहास को समृध्द करते नजर आते है। इनमें अपार संभावना को देखा जा सकता है।

नवगीत की प्रवृत्तियां

नवगीतों की विविध प्रवृत्तियाँ रही है किन्तु ग्राम जीवन अर्थात जमीन से जुडी यह विधा सशक्त रही है। इसी में उसका सामर्थ्य रहा है। वह किसी आयातीत विचार भूमी पर खड़ा नहीं है, वरणा अधिकांश कविता, कविता आंदोलन विदेशी वादों, विचारों पर लिखी गयी है।

कुँवर बेचैन ने ‘पिन बहुत सारे’ में कहा है-

जिन्होंने खरीदी है।
दूर से, विदेशों से टूटी बैसाखियाँ
वे सब तो कहलाए
बुध्दिमान, तगड़े, हम पूरे आदमी
अपने ही पाँव खड़े
फिर भी तो घोषित है – लंगड़े ।

नवगीतकारों की यह घोषणा की हम भारतीय दर्शन, ‘हम पूरे आदमी’ अर्थात पूर्णतः है और इसी के माध्यम से वे अपनी बात करता जा रहा है। भारतीय जीवनमूल्यों के प्रती आस्था उनमें रही है।

नवगीत की प्रतिबध्दता आधुनिकीकरण के दौर में बनते-बिगड़ते मनोभाव चेतना के विविध आयामों से गुजरते हुए विराट अनुभवों की अभिव्यक्ति स्वरुप उभरी, पनपी, बढ़ी है। इनका संबंध अधिकतर सामाजिक सरोकारों से रहा है।

1. सामाजिक यथार्थ:

नवगीत यथार्थ के प्रति आग्रही रहा है। वस्तुतः ‘दैहिक रोमान तथा काल्पनिक आख्यान से मुक्त होकर आधुनिक जीवन के विसंगत पक्षों को अभिव्यक्त करने के पीछे यही यथार्थ-बोध काम कर रहा था। दूसरी तरह से कहे तो यह कि, नवगीत अपनी इसी प्रवृत्ती के चलते ’नवगीत’ संज्ञा अर्जित कर सका है। स्पष्ट है कि नवगीत की संपूर्ण सौदर्यमयता इस यथार्थ चित्रण के कारण ही निर्मित हुई तथा नवगीत साहित्य में अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम कर सका।

वीरेंद्र मिश्र ने ‘गीतम’ में इसे ही स्पष्ट किया है-

दूर होती जा रही है कल्पना,
पास आती जा रही है जिंदगी।

इसी तरह नवगीत पुराने भावबोध से निकलकर आधुनिक हो गया और उसने जन जन के साथ अर्थात समाज के साथ अपना रिश्ता कायम किया। इसी जगह वह सामाजिक यथार्थ के प्रति प्रतिबध्द या यों कहें दयाबोध रखता है।

वीरेंद्र मिश्र ‘गीतम’ में ही आगे कहते है-

पीर तेरी कर रही गमगीन मुझको
और उससे भी अधिक
तेरे नयन का नीर रानी
और उससे भी अधिक
हर पाँव की जंजीर रानी।

ठाकुर प्रसाद सिंह ‘वंशी और बादल’ में इसी प्रकार सामाजिक वर्ण विषमता तथा नारी शोषण को एक गीत में बांधते है-

मेरे घर के पीछे चन्दन है
लाल चन्दन है,
तुम उपर टोले की
मैं निचले गाँव की राहें बन जाती हैं रे
कड़ियाँ पाँव की
समझो कितना मेरे प्राणों पर बन्धन है
आ जाना बन्दन है
लाल चन्दन है।

प्राणों पर बन्धन, मन में विषाद भर देता है, करुणा पैदा करता है, तो आ जाना बन्दन है’ विषमतामुलक व्यवस्था को व्यक्त करता है, नारी शोषण को सामने लाता है। ‘लाल’ के प्रती स्नेह और ‘बन्धन’ न मिल पाने का भाव गीत के सौंदर्य को बड़ाता है। कड़ियाँ पाँव की विषम वर्ण व्यवस्था का संकेत करती है।

नवगीतकारों में ’सामाजिक अव्यवस्था’ से यथार्थानुभूती का भाव उभरा है। यह अव्यवस्था, मूल्य, संस्कार, मशीनीकरण, शोषणमुलक व्यवस्था, विषमता, आधुनिकता से उपजी मनोवृत्तीयों के परिणामस्वरुप उभरी है। इसी को अभिव्यक्त करते हुए मानवीय पिड़ा को गीतों में बांधा है। अव्यवस्था के खिलाफ़, नवगीत विकास कालखंड के द्वितीय तथा तृतीय चरण में विद्रोह का यह स्वर और भी तीखा है। वह समर्थ मानव को देखता हुआ भी उनके किंकर्तव्यविमूढ़ता से क्षुब्ध्द है। कभी-कभी वह अत्याधिक क्रुध्द हो जाता है-

“खण्डहर मरुस्थल, बीहड़ जंगल से होकर हम
आये जिस ठौर वियाबान है – अँधेरा है,
बंजर, कुंठा, अकाल, त्रास, भुखमरी, चिन्ता
की धरती को काले क्षितिजों ने घेरा है
अभिशापित देश यहाँ
कभी कुछ नहीं होगा
चाहे कितने दधीचि अस्थि-बीज बो जायें।”

~ओम प्रभाकर, पुष्प-रचित

नवगीत की संवेदना के विविध पक्ष है। यथार्थ चित्रण, आधुनिकता, नगरबोध, ग्रामबोध, औद्योगीकरण, मूल्यों का हनन आदि । आज़ादी के प्रती, साठोत्तरी कविता की तरह मोहभंग की स्थिति नवगीतकारों में भी पायी जाती है।

आज़ादी के पूर्व, सुख के जो सपने लोगों ने संजोये थे, आज़ादी मिलने पर उनकी पूर्ति तो दूर, नैसिखियों की व्यवस्था ने उन पर नये अंकुश लादे तथा भ्रष्टाचार, राजनीति से होती हुई यह दलन एवं दमन प्रवृत्ति सामान्य जन में प्रविष्ट होने लगी। ऐसे में लोगों का व्यवस्था के प्रती क्षुब्ध होना लाजमी था ।’

इसी भाव को देवेद्र शर्मा इन्द्र ने ’पथरीले शोर’ में व्यक्त किया है-

जाने अनजाने में हमने यह भूल की
देखे सुख के सपने छाँव में बबूल की।
झूठे निकले सारे
आश्वासन,
व्यर्थ हुई साधना।
हिला नहीं प्रभूता का सिंहासन,
निष्फल आराधना।
तट पर हम खड़े खड़े यादें बुनते रहे-
टूटे जलयान के खण्डित मस्तूल की।

सामाजिक यथार्थ की भावाभिव्यक्ति नवगीत की महत्वपूर्ण विशेषता रही है। नवगीत वैयक्तिकता से निकलकर समाज, देश की स्थिति का निदर्शक रहा है। यही उसका मूल्यबोध रहा है।

2. ग्राम बोध :

नवगीतकार प्रायः ग्राम जीवन के निकट रहा है। उसके प्रति अनुरक्त, या कहे ‘मोहग्रस्त’ रहा हैं। गाँव इनके लिए ‘सांस्कृतिक धरोहर’ रही है। ग्राम्य जीवन का आत्मीयतापूर्ण, पारिवारिक सन्दर्भों आदि को स्मृति के सहारे नवगीत में वह लाता है। जिस पर शहरीकरण के आक्रमण निरन्तर हो रहे है। इसका मूल कारण आर्थिक दबाब है जिसके नगर में पूरे होने के अवसर अधिक है। इसलिए गांव के लोग शहर की तरफ भाग रहे है। नवगीतकार शहरजीवी है पर गाँव की मधुर स्मृति उसके मन में जिन्दा है। वह लोगों को अगाह करता है-

“घर की किल्लत भूख- बिमारी
हँस कर सह जाना
भैया !
शहर नहीं आना।”

~अनूप अशेष, नवगीत दशक

क्योंकि वह मासुमियत, भोलेपन को उड़ा ले जाता है। गांव के प्रति अस्था और नगर प्रति अनास्था का भाव नवगीतकारों में अत्याधिक रहा है। माधवेन्द्रप्रसाद ने ठीक कहा है की, ‘’नवगीतकार जिस सौदर्य का सृजन करता है वह भी शहरीकरण के खोखलेपन तथा ग्राम्य- जीवन के स्मृतिमूलक आत्मपरिवेश से अनुप्रणित है। बोध के स्तर पर नवगीतकार यहाँ पक्षधरता का शिकार हो गया है।

एक ओर जहाँ उससे ग्राम्य- जीवन की बदहाली, मूल्यहीनता, आचार भ्रष्टता छूट गयी है वहीं दूसरी तरफ शहरों की अच्छादयों को भी नजर अंदाज कर देता है। बोध का यह परिवर्तन सौंदर्य का वह दृश्य उपस्थित करता है जिसमें गाँव सम्बधों की मिठास का पर्याय है- मीठापन जो लाया था गाँव से / कुछ दिन शहर रहा / अब कड़वी ककडी’ इतना ही नहीं शहर परिवार बिखराव के कारण बन गये है, उसकी चर्चा भर से दीवारें दरकने लगती है ’दीवारें हिलती जब घर की/चर्चाएँ जन्मती/शहर की। ”

बुढ़ापे में माता-पिता अपने बच्चों से बड़ी आशाएँ रखते है किन्तु वे शहर जाकर सबको भूल जाते है।

गाँव कैसे हो चुके है इसके अनूप अशेष ने ‘वह मेरे गाँव की हँसी थी’ में व्यक्त किया है-

बूढ़े दिन है, गाँव अकेले
लड़के शहर
खेतों में कच्चे उजियारे
उनको बोये कौन
थकी पुरानी देह
धूप को बेचे आधे-पौन
नीम तले लेटे सन्नाटे फिर दोपहर – गये ।

गाँव में अब केवल बुढ़े रहे है या जिन्हें शहर जाना आसान नहीं लगता वह। नगरों, महानगरों की आर्थिक, सुविधा, चमक-दमक का आकर्षण, रोजी-रोटी के सवाल को सुलझाने भर का रहा है फिर भी गांव उनको छुटता नहीं। उसके प्रती आत्मीयता, भावूकता अकारण नहीं, सकारण है। शहरी जीवन-मूल्यों से तालमेल बिठाते-बिठाते वह बार-बार गाँव की ओर लौटता है। इसमें वह कभी टुटन, छुटन, त्रासदी, विसंगती, खट्टा मिठापन पाता है ।

शिवबहादूर सिंह भदौरिया ‘नवगीत दशक’ का एक गीत गाँव के महत्व को रेखांकित करता है-

गाँव से भागा लेकिन
यहाँ भी नहीं सँवरा,
चलते क्षण नाई जो दिखा गया आरसी
व्यर्थ रही, अक्षत सब
झूठा था ज्योतिषी,
शनि प्रकोप पहले-सा ही
ज्यों का त्यों ठहरा।

एक दुसरे गीत में योगेंद्रदत्त शर्मा ‘खुशबुओं के देश’ में कहते है-

बस्तियों में काँच-सामन
टूट जाना है,
गाँव जब पीछे शहर से
छूट जाता है।

मयंक श्रीवास्तव ‘सहमा हुआ घर’ में कहते है-

गाँव नंगा कर दिया है
कारखानों ने
और खुशियाँ छीन कर
रख ली सयानों ने।

इन उदाहरणों में ग्राम-बोध की अनुभूति होती है। नवगीतकारों के लिए, “गाँव संस्कृति का संरक्षक है। वहाँ आत्मीयता है, संबंधों का निर्वाह है परन्तु इन सबके बावजूद गाँव में (वह) संतुष्ट नहीं है और शहर की तरफ भागता है इसे नवगीतकारों की विसंगति भी कहा जाए या सुविधा परस्ती।

यह नवगीत का आधुनिक जीवन के प्रति आग्रह है । वह अपने जीवन में बदलाव चाहता है, अपनी सहभागिता की सही समझ पाना चाहता है। परंतू साथ ही वह अपने मूल्यों में बदलाव का इच्छुक कतई नहीं है, अपनी संस्कृति को लेकर वह गर्वित भी है और शहरों की मूल्यहीनता को हकारत की दृष्टि से देखता है।

3. नगर बोध :

नवगीत में शहर तमाम नकारात्मक मूल्यों के प्रतीक रूप में उभरकर आया है। सांस्कृतिक ह्रास, विघटन, पारिवारिक टूटन, नकलीपन, उदासी, बिखराव, सम्बंधों का खात्मा, उपभोक्ता संस्कृति के जन्म, आर्थिकीकरण, शोषण, यन्त्रणा, ऊब, घुटन, तनाव, अजनबीयत, अनैतिकता, इत्यादि का कारण शहरीकरण को मानते हुए नवगीतकार ने अपने बोध को इसके खिलाफ़ खड़ा कर दिया है और सौन्दर्य के उस नये मानक का शोध किया है जो सिर्फ मानव के उल्लासित तथा मधूर सन्दर्भों से ही निर्मित नहीं होता वरन् जीवन के दुःखात्मक पहलुओं को भी संस्पर्श करता है। वस्तुतः नवगीत में शहर जीवन की संवेदनसिक्तता का भरपूर चित्रण आया है। ग्राम की तुलना करते हुए नवगीतकारों ने नगर बोध की अभिव्यक्ति की है।

इनकी इन सारी संवेदनाओं को राजेद्र गौतम के शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है- “ध्वंसक अणु-अस्त्रों के आतंक के साये में, यांत्रिक युग के भयावह तनाव में, भौतिकता के विस्फोट से मानवीय संबंधों की खंडितता के बीच, आदर्शो के टूट-बिखर जाने वाले खोखलेपन के दौरान, अनिश्चय की अंधेरो, सुरंगों से गुजरते हुए, मुखौटाधारी राजनीति के परिहास – नाटक के बीच तथा मूल्यों की भित्ति को भरभराकर गिरते देखते हुए भी जीवन में सौंदर्य की एक नवीन सौंदर्य की खोज ही मानवीय विश्वास की उपलब्धि की एक मात्र राह हो सकती थी और यह खोज जिस प्रकार के सौंदर्य तक इस पीढ़ी को ले गयी, उसकी मूल सरंचना का सौंदर्य की ’कैमिस्ट्री’ से भिन्न होना भी अपरिहार्य था, सम्भवत: इसीलिए नवगीतकार ने मशीनी कोलाहल के बीच लयों का संधान किया है, तनावों के बीच संवेगों को अभिव्यक्ति दी है, एक- रस भौतिकता के बीच प्राणवान बिम्बों का सर्जन किया है, बिखराव और टूटन के बीच शिल्प को संश्लिष्टीकृत रुप दिया है।”

शहरी जीवन की आपा-धापी, व्यस्तता के कारण यांत्रिक जीवन जीने के लिए व्यक्ति विवश है, मजबूर है। इसी कारण उनका जीवन रस सुख गया है। मध्यवर्गीय नोकरी पेशा वर्ग के लिए शहर कैसा हो गया है इसे माहेश्वर तिवारी ने अपने गीत ‘हरसिंगार कोई तो हो’ में व्यक्त किया है-

शहर हो गये,
सारे गुलमोहर, अमलतास
भीड़ महानगर हो गये ।
सुबहें जगीं,
जली अँगीठियाँ
धुआँ पहनने लगे मकान चीखों से
भर गई दिशायें
शोर पहन
सुन्न हुए कान
सोय कमरे
उठकर सफर हो गये ।

शहरी व्यवस्था से नवगीतकारों को चिढ़ है । वे उससे परेशान भी है पर उससे दूर भी नहीं रह पाते, उसकी रफ्तार में वे शामील हो जाते है खुद को उसमें जोड़ना चाहते है। पर जब कभी ऊब जाते है निराश हो जाते है तो कहते है –

अंडे प्याज मुँग फलियों
केलों के छिलकों
व्यक्त निरोधों
और रद्दी कागज के टुकडों
सिगरेट के खाली डिब्बों से
अटी- पटी ये लम्बी सडकें
ये साक्षी है वैज्ञानिक विकास की ।

~ देवेद्र शर्मा इंद्र, कुहरे की प्रत्यांचा

सफेदपोश लोगों का एक चित्र श्रीकृष्ण तिवारी का गीत ‘सन्नाटे की झील’ में आया है।  शहरी जिन्दगी के जिस आचरण ने नवगीतकार को खूब मथा है वह है उसकी मुखौराधारी प्रवृत्ति ऊपर से देखने में सभी शरीफ परंतू वास्तविकता में निहायत गन्दे और क्रूर। नवगीतकारों को धोखा इन्ही वर्ग से मिला शायद यही कारण है की इस वर्ग के प्रती उनमें अधिक आक्रोश दिखता है –

बाहर से हँसते है लोग
अन्दर से रोते है लोग
जाने यह कैसी आबोहवा
जाने यह कैसे लोग,
आँखों में बर्फीली झील,
ओठों पर बारूदी फास,
कानों में जंगल का शोर,
बहरा है मन का आकाश।

खत्म होती मानवीयता और उसपर की आस्था के संकटबोध के दौर से नवगीतकार गुजर रहा है। यह संकट पहचान का है, हमारी सभ्यता, मुल्यों की रक्षा का है । ‘आनेवाली पीढ़ी के सामने का युग कैसा होगा’ की चिंता इनमें है। बढ़ते खोखलेपन, समाप्त होती जीवन्तता की तलाश इनके गीतों में है।

शांती सुमन का गीत ‘ओ प्रतीक्षित’ में यही भाव व्यक्त हुआ है-

यह शहर पत्थरों का शहर
टूटी हुई सुबह यहाँ
झुकी हुई शाम
जेलों से दफ्तर तक
शापित आराम
गाठों सी गालियों में भरी-भरी बदबू
साफ हवा की जगह पियें सभी जहर
पत्थरों का शहर ।
घुटते सम्बधों की
चर्चा बदनाम,
धुएँ के छल्लों-सा
जीना नाकाम
मकड़ी के जालों-सी बिछी हुई उलझनें
सतही शर्तो से सब दबे हुए पहर
पत्थरों का शहर ।

संबंधों की टूटन, संवेदनहीनता, यांत्रिकता, प्रदुषण, गंदगी, निरर्थकता का यथार्थ नवगीतकारों ने प्रस्तुत किया है। संबंधों के टूटने तथा औपचारिकता के कारण शहरी व्यक्ति पत्थर बनता जा रहा है।

4. प्रकृति प्रेम:

गाँव प्रकृति का सम्मोहन नवगीतकारों में रहा है। जिस ग्रामीण जीवन से वह जुड़ा है उसी को गीत का विषय न बनाया जाए, ऐसा होता नहीं। गाँव प्रती निष्ठा, सांस्कृतिक निष्ठा, परंपरा बोध के साथ प्रकृति प्रेम कई नवगीतकारों में है।

प्रकृति को स्वतंत्र विषय बनाकर उसका वर्णन रामदरश मिश्र, रवीन्द्र भ्रमर, रामनरेश पाठक, शम्भुनाथ सिंह, ठाकुरप्रसाद सिंह आदियों में पाया जाता है। उनके प्रकृति चित्रण में ‘मन के उल्लास, संयोग-वियोग, हर्ष-उन्माद और रोमान्टिकता अधिक मिलती है।

शम्भुनाथ सिंह का गीत ‘माध्यम मैं’ में ‘कातिक की धरती’ का वर्णन आया है-

रोम रोम में छबि है छाँई,
त्रिवली सी है खींची हराई,
सोही सी रूप लुनाई,
अंग अंग से झरती
कातिक की धरती।

प्रकृती के विभिन्न रूपों का चित्रण इनमें पाया जाता है। आलम्बन, उद्दीपन, अलंकरण, मानवीकरण, प्रतीक आदि। फिर भी इस प्रकार के वर्णन में ” आत्मीयता तथा ग्राम्य परिवेश का समन्वय” रहा है-

छौने आकाश के धरती पर झुके – झुके
क्षिप्रा तट, मेघदूत रूके – रूके ।

अथवा ‘लोक-जीवन’ का चित्रण प्रकृति चित्रण के साथ-साथ होता रहा है। रमेश रंजक का ‘गीत विहग उतरा’ में इसे देखा जा सकता है-

बिखर गई पुरवा की अलकें
सारे घट में
फैल गई एक लहर गर्भ गर्भ
अन्तर में
अकुलाये यादों के फूल ।

अधिकांश नवगीतों में प्रकृति प्रति प्रेम का वर्णन हुआ है।

5. प्रणयबोध

प्रकृति को माध्यम बनाकर प्रणय का चित्रण छायावाद की खास विशेषता है। निराला की ‘जुही की कली’ इसका उत्तम उदाहरण है। फिर भी निराला के गीत परंपरा का या कहे इसी प्रवृत्ति का प्रयोग नवगीतकारों ने किया है किन्तु ध्यान रहे इनका चित्रण छायावाद से नितांत भिन्न है। प्रणय चित्रण में नवीनता, ताजगी, उत्फुल्लता, सहजता, स्वाभाविकता की ललक है।

नवगीत में प्रणय को एक नया बोध मिला जिसमें नारी भोग्या नहीं, सहधार्मिणी है, समस्याओं की मिल-बाँटकर हल करती है। काम करती है, निराश मानव को जीवन की नव-प्रेरणा प्रदान करती है। वह भार नही है, पुरूष पर आश्रित भी नहीं है। सहज सौंदर्य से उत्फुल्ल आदमी की कोमल चेतना की संरक्षिका होने के साथ पारस्पारिक मानव मूल्यों की संवाहिका है नारी है। आस्था, विश्वास, वात्सल्य, करुणा, दया जैसी उदात्त चेतना की अधिष्ठात्री होने के साथ शक्ति का अजस्त्र स्त्रोत भी वह है।

नवगीत में जो नारी आती है वह सिर्फ ‘देव’ मात्र न होकर मानवीय भावनाओं का आधार भी है।  राजेद्र गौतम ने ‘गीत पर्व आया है’ में लिखा है-

देह कंचन की नहीं,
वासना भींगी,
तुम भावनाओं का,
मधुर आधार भी तो हो।

आधुनिकता के दौर में बढ़ते शहरीकरण में प्रणय संबंधों पर संशय खड़े हो गये । उस पर ‘आर्थिक दबाव तथा भोगवादी आकर्षण ने आत्मीयता के क्षण को सीमित कर दिया है ।

जहीर कुरेशी ‘एक टुकडा धूप’ की रचना ‘एक नदी सागर से मिल कर, गाना भूल गयी’ इसी दरार को दर्शाती है-

’पत्नी निकली सुबह
शाम को दफ्तर से लौटी,
पति का नाइट शिफ्ट सात दिन में फिर से लौटी।

ऐसी परिस्थिति मे प्रणय बांध टूटना स्वाभाविक ही है तब बुध्दिनाथ मिश्र “जाल फेंक रे मछेरे” में कहते है-

ये तुम्हारी कोंपलों-सी नर्म बाँहे
और मेरे गुलमुहर के दिन
आज कुछ अनहोनिया करके रहेंगे
प्यार के ये मनचले पल-छिन

नवगीतकारों का प्रणय बोध अपनी अभिव्यक्ति में स्मृतिमुलक है वह आज का स नहीं है, बल्कि पिछली जिन्दगी के रसयुक्त क्षणों को स्मृति के माध्यम से अपने जहन में उतार कर नवगीतकार सन्तुष्ट हो लेता है क्योंकि आज की परिस्थितियाँ इतनी विषम है कि आत्मीयता का क्षण भी बामुश्किल ही मिल पाता है। ” जहिर कुरेशी, बुद्धिनाथ मिश्र के गीत उसी की अभिव्यक्ति है। इसपर शहरीकरण की यांत्रिकता और निरसता का प्रभाव है। बाजारवादी संस्कृति का भोगवादी दृष्टिकोन रिश्तों में यांत्रिकता लाता है। रिश्तों मे भी उपयोगितावाद ला है। ऐसे में भावना, संवेदना का कोई महत्व नहीं रह जाता।

जहीर कुरेशी ‘नवगीत दशक’ में कहते है-

रिश्तों की सडकें
अब जाती नहीं भावना तक
आज आदमी पर होता है
कम्प्यूटर का शक
गाते फिरते है ‘रिकार्ड’ से
अपने दुखड़े लोग।

नवगीत में फ्रायड़ का देहवादी रूप भी पाया जाता हैं। ‘देह’ से प्रेम तक पहुँचने की प्रवृत्ति शान्ति सुमन के गीत ‘परछाई टुटती‘ में पाया जाता है-

घंटो इस तरह दिखती हुई
अजन्ता याद आती
आँख मुँदे प्रशंसा पिये
उँगलियाँ थिरकाती
अलग-क्षण के अलग ये किस्से
नींद ही खो गई ।

कभी अनुभूत एकांतिक क्षणों की स्मृति – आवेग प्रस्तुत पंक्तियों में है। ‘अजन्ता— की स्मृति हो जाना ’नंगापन’ ही है जो रचनाकार के अचेतन में सुरक्षित पड़ा है। क्योंकि यह अनुभूति ‘अलग-क्षण.. अलग किस्से’ की है। आज उन किस्सों को याद किया जा रहा है। जीवन के उन सुखद क्षण प्रती आकर्षण एक आशावाद ही है तो निराशाबोध की छटपटाहट भी। नवगीतकार का यह नव रोमांस है, दुःख नहीं।

योगेद्रदत्त शर्मा ने ‘खुशबुओं के दंश’ में यही भाव व्यक्त किया है-

अब न लौटेगे कभी
उन्माद के वे पल सुहाने !
खो गये वे मेध उन्मन।
ध्वस्त- क्षत अमराइयाँ हैं।
मौन पेड़ो की शिखा पर
डूबती परछाइयाँ हैं।
झील थक कर सो गई हैं
सो गई उन्मन मुहाने ।

प्रणय की कल्पनिकता, नवता, नव उन्मादता, आकर्षण, थोथी नैतिकता का विरोध आदि विशेषता नवगीतों की है।

नारी को ऊर्जास्विनी बनकर वह उसे भोगना चाहता है उसका ठंड़ापन उसे कचौटता है क्योंकि यह पुरातनता है, उसका विरोध भी वह करता है, मधुर कमल ‘महुआ और महावर’ कहते है-

कब तलक तुम
बर्फ सी लेटी रहेगी,
रुबरु हो।
आज थोड़ी
आँच तो सुलगे।

यह नवगीतकार की अश्लीलता नहीं, आधुनिक विसंगति की देन है कि पत्नी बर्फ सी ठंडी हो लेटी है इसलिए क्योंकि जीवन की समस्याओं ने उसके प्रणय की आग को ठंडा कर दिया है।

6. जिजीविषा का नया सौदर्य-बोध

माधवेंद्रप्रसाद ने कहा है, “नवगीत नये सौंदर्य-बोध का काव्य है जिसे शिल्प और कथ्य दोनों स्तरों पर नवता प्राप्त हुई है। जिजीविषा का सौंदर्य भाव – प्रवणता का निदर्शक है… नवगीत में वर्तमान जीवन का विसंगतिबोध है। ऊपर से सब ठीक लग रहा है, लेकिन भीतर गड़बड़ है। शीशे की दीवार की तरह… नवगीतकार इसे तोड़ना चाहता है क्योंकि मूल्यहीनता का प्रारंभ जिसकी परिणति निराशा में होती हैं, यही से होता है।”

इसलिये माहेश्वर तिवारी ‘हरसिंगार कोई तो हो’ में कहते हैं-

कोई तो हाथों में
पत्थर ले
तोड़े शीशे की दीवार को ।

यह नवगीतकारों की ‘कसमसाहट’ या ‘विद्रोह’ है। जहाँ निराशा भी है तो आशा भी। वह ‘टुटा’ है, ‘परायापन’ उसे ‘सालता’ है परंतु ‘ मृत- गीत’ वह कभी नहीं गाता। वह जहाँ ‘न्यूट्रल’ हो गया है वहाँ ‘कोई फर्क नहीं पड़ता’ जैसा मुहावरा उसके लिए भी आग हो गया है।

डॉ. सुरेश ‘नवगीत दशक’ की कुछ पक्तियाँ देखिए-

कन्धे कुली
बोझ शहजादे
कोई फर्क नहीं,
राजे कभी
कभी महाराजे
कोई फर्क नही
अखबारों की रँगी सुर्खियाँ
बड़बोलों की बात
सूरज सोया गोदाम में
ठहरी काली रात
झूठी कसमें
झूठे वादे कोई फर्क नहीं

इस अन्यायपूर्ण स्थिति प्रति वह बेचैन हो उठता है। उसके विरोध में वह ‘तन कर खड़ा होना चाहता है। अब उसे, पार जंगल के नये कुछ सूर्य अब दिखने लगे है। यह संभावना ही है जो उसे निराशा के गर्ते से बाहर निकालती है क्योंकि वस्तुतः अराजक तंत्र ने लोगों की आत्मीयता, उसकी सहजता, उल्लास, आकांक्षा, उमंग, उत्साह, प्रेरणा, सभी कुछ को संदिग्ध कर दिया हैं। आदमी के पास अपनी समस्याओं से जुझते जीवन को घिसटने के सिवा कुछ नहीं बचा है नवगीतकार ने इन्ही समस्याओं को भोगा है। यही इनका सच्चा एहसास है।

तभी तो कुमार रवींद्र नवगीतकार ‘आहत है वन’ में लिखते हैं-

पुष्पोंकी / नयी कथा
सुनते आकाश।
टेसू को साथ लिये
घूमते फलाश
मन में फिर जगा रहे धूप के सवाल।

जिजीविषा के चलते ही वह परिवर्तन की पुकार करता है। प्रगतशिलता ने जनवादि चेतना को जगाया जिसका प्रभाव बाद में प्रयोगवाद, नई कविता, साठोत्तरी कविता में आया परंतु नवगीत में यह चेतना पूँजीपति तथा सर्वहरा वर्ग की चेतना के रूप में नहीं आयी, वरना जो सत्ता पर काबिज थे और जिनके हाथ में व्यवस्था थी, भले ही वे जनता के प्रतिनिधि क्यों न हो नवगीतकार के लिये शोषक थे।

इसके विपरीत पूरी जनता, चाहे वह मध्यमवर्ग हो, ग्राम-शहर के संक्रमित लोग हो, अथवा जीवन की नवता के पक्षधर हो, सभी नवगीत में पीड़ित मानव के रूप में गृहीत हुए। इसमें आर्थिक कारण उतना प्रबल नहीं दिखता है, जितना मूल्यगत त्रास एवं सांस्कृतिक विघटन की प्रक्रिया थी। क्योंकि नवगीत पारम्पारिक मानव मूल्यों एवं सांस्कृतिक धरोहर की चेतना के रूप में उभरा।

इसलिए जब इनपर आघात हुआ तो नवगीतकार क्रुध्द हो उठा नचिकेता की यह हडबडाहट “आदमकद खबरें” में देखिए –

अंधे अंधियारे का,
गला हम दबोच लें।

इसी क्रोध का परिणाम है। देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ को लगने लगा कि यह ‘वंशी’ बजाने के दिन नहीं, संघर्ष के दिन हैं। परिवर्तन की प्रक्रिया को संपन्न करने के दिन है, उन्होंने “कुहरे की प्रत्यांचा” में लिखा है –

वंशी को गिरवी रख
ले आये शंख।

यह ‘शंख’ युध्द का प्रतीक है। ‘लोकतांत्रिक व्यवस्था में पनपे शोषकों के विरुध्द नवगीतकार की यह अगाज है। संघर्ष के लिये वह तैयार है। उनके सामने शत्रू या विपक्ष स्पष्ट नहीं है फिर भी उसके खिलाफ़, उसपर आघात वह करना चाहता है क्योंकि व्यवस्था अमूर्त हुई है। उसके लोग भी। फिर भी वह जन को चेतता है। जनशक्ति द्वारा अव्यवस्था में परिवर्तन लाना नवगीतकार की जिजीविषा ही है । ‘परिवर्तन की प्रतिक्षा’ अब उससे और नहीं होती इसलिये वह जनता को ‘अपने अधिकारों प्रति’ सजग करता है।

सत्यनारायण “तुम ना नहीं कर सकते” में लिखते हैं-

जुल्म का चक्कर और तवाही कितने दिन
कितने दिन?
हम पर तुम पर सर्द सिपाही कितने दिन
कितने दिन?
बदलेगा अब तो यह आल्बम बदलेगा,
फिर हौवा बदलेगा, आदम बदलेगा
यह गोली, बन्दूक, सिपाही कितने दिन ?
कितने दिन?

जिजीविषा ही होती है जो जड़, पुरातन को उखड़ फेंकने का माघा रखती है। बाधाओं को खत्म करती है।

इसलिए शंभूनाथ कहते है –

ये उगी जंगली झाड़ियाँ काट दें।
आँख की चार जलती मशाले लिये।
सूर्य की भूमिका है निभाती कहो।

कुँवर बेचैन “पिन बहुत सारे” में कहते है-

आज तक इतिहास में
जो भी पली हो
दासता के वृक्ष की जड़ खोखली हो
लीक मरघट के
मिटानी है हमें वे
आग की लपटें
बुझानी है हमें
अस्थियाँ जीवित जहाँ अपनी जली हों
आस्था की
उस कड़ी को तोड़ना है।
रुख हमें / उन रास्तों का मोड़ना है
पीढ़िया जिनपर बिना समझे चली हों।

नवगीतकार की जिजीविषा सभी मनुष्य की चेतना है। जीने के प्रती ललक है। जीवन के प्रती आस्था है। संघर्ष में विश्वास है। यही उनके गीत का सौंदर्य है।

7. नवगीत की वैचारिक प्रतिबध्दता :

नवगीत वस्तुतः भारतीय लोकजीवन तथा उसके शहरी संक्रमण से निर्मित विसंगति-बोध का काव्य है। एक ओर परंपरा तथा संस्कृति का पालन वह करता है तो दुसरी ओर आधुनिक शहरी संक्रमण और उससे जुड़ी समस्याओं की अभिव्यक्ति। नवगीतकारों में ग्रामीण संस्कृती प्रती आत्मीयता, लगाव है तो शहरी जीवन संस्कृती प्रती ऊब, घुटन, यांत्रिकता प्रती, असंतोष है।

नवगीतकारों ने किसी वैचारिक प्रतिबध्दता के तहत गीत नहीं लिखे और लिखा भी न जाए क्योंकि जीवन का सौंदर्य उसकी आत्मा में विहित होती है। वैचारिकता उसे सीमित कटघरे में लाकर रखती है।

विविध मतवादों के बावजूद भी, नवगीतकार यह निश्चय नहीं कर पाया कि उसे किस विचार का एकान्तिक अनुसरण करना है।

अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग

इसीलिए अत्यन्त सशक्त काव्यान्दोलन होते हुए भी, लोकप्रियता के बावजूद नवगीत अपने अंतिम दौर से गुजरता प्रतीत हो रहा है।’ फिर भी उसके विचार प्रतिबध्दता को तीन शीर्षकों में विभाजित कर देखा जा सकता है-

  1. सामाजिक विचार
  2. राजनीतिक विचार
  3. दार्शनिक प्रतिबद्धता

सामाजिक विचार

गीतों की व्यापक जनचेतना सामाजिक प्रतिबध्दता से जुड़ी है। समाज में रहते नवगीतकारों ने जो चिंता आकुलाहट, प्रश्नाकुलता, परेशानी, यांत्रिकता, अजनबीपन आदि को पाया उसी की अभिव्यक्ति नवगीत में आयी है। अनेक समकालीन समय-समाज मे एक निर्जीवता, किंकर्तव्यविमुढता व्याप्त है।

इसे देवेद्र शर्मा ‘इन्द्र’ ने व्यक्त किया है-

खदबदाते
क्रोध की असहायता में
कसाई के ठिये पर लटके
हम जिम्मेदार है
इस व्यवस्था के
शैल से गिर झाड़ पर अटके।

नवगीतकार बनी व्यवस्था के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते है, यह उनका वास्तविक विचार नही वरन् प्रतिक्रियात्मक अभिव्यक्ति है। फिर भी इस व्यवस्था में बदलाव आयेगा का आशावाद उनमें निहित है मूल्यगत परिवर्तन को वे देख रहे है। इसलिये देवेद्र शर्मा को पुरानी मूल्य की ‘मीनारे’ ढ़हता हुआ और नये मूल्यों की ‘दीवारे’ बढ़ता हुआ देख रहा है, वे ‘महुआ और महावर’ में कहते हैं-

ढ़ह रही परम्परा की
ऊंची मीनारें
नये नये मूल्यों की
उठती दीवारें ।

यही उनकी सामाजिक सोच है। नये मूल्यों में पनपती अनिश्चय की मुद्रा का भाव भी उनमें आया है। जिसके प्रति वे संदिग्ध है, वह उन्हें वास्तविक प्रतीत नहीं हो रही है, देवेद्र शर्मा ‘सहभा दुआ घर’ में आगे लिखते हैं-

मेरे घर में खड़ी व्यवस्था
इतनी घटिया है
पता नहीं चलता
इसकी सही दिशा क्या है।

सामाजिक समस्याओं में नवगीतकार अपनी भूमिका को समझ नहीं पाता यही उसका संकट है। वह सामाजिक समस्याओं की अभिव्यक्ति करता है। व्यवस्था कैसी होनी चाहिए, वर्तमान संकट को दूर करने के क्या उपाय है, इस बारे में कोई ठोस मन्तव्य वह स्पष्ट नहीं करता।

भविष्य का सामाजिक स्वरूप क्या होगा, इस बारे में भी नवगीतकार का भाव स्पष्ट नहीं है। इसलिए सामाजिक विचार का सौंदर्य भी वह महत्ता नहीं प्राप्त कर पाया है जिसकी उम्मीद हम किसी साहित्यिक विधा से करते है।

नवगीत में विचार नही भाव प्रधान है। इसलिए उनमें वैचारिक प्रतिबध्दता देखने के बजाय भाव सौंदर्य को देखना होगा। नवगीतकार के अनुसार निर्बल-सबल होने का समय आ चुका है वह व्यवस्था में परिवर्तन चाहने लगे है। यह सामाजिक चेतना उनमें जाग उठी है, दर्पन के बिंब में लिखा है-

आज जो छोटा है,
निर्बल है,
कल बढ़कर मजबूत होगा,
अपने चौड़े पत्तों से
धूप-थके लोगों को छाँह देगा।

यह कहकर नवगीतकार अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता को ही व्यक्त कर रहा है। मनुष्य सभ्यता संकट के दौर से गुजर रही है। शहरी यांत्रिकता, मूल्यों का विघटन, अर्थ लालसा, स्वार्थपरायता आदि का संकट उसपर मंडरा रहा है। युध्द का संकट-बोध भी नवगीतकार को हो चुका है –

आती है मृत्यु गंध
देशों के पार से

चारों और फैलती दहशतजदा जिंदगी को उन्होंने व्यक्त किया है। भारतीय मन कभी भौतिकता में लगाव महसूस नहीं कर पाया। और नवगीतकार भी नहीं। उन्होनें जीवन की वास्तविकता के बीच प्रेम, सहानुभूति, करुणा, दया” को अपनी संपत्ति माना है। कुँवर बेचैन ने ‘पिन बहुत सारे’ में लिखा है-

जिसके मन में प्यार वही तो
सबसे बड़ा अमीर है,
माना उसकी मुट्ठी में
दुख-दर्दों की जागीर है
बाँटे प्रीत-बसन सदैव से
मन की फटी-कमीज ने।

नवगीतकार का मन ‘स्व’ सीमित नहीं वह समाज से जुड़ा है। प्रेम, स्नेह, करुणा, दया, सहानुभूति के भाव से वह सबसे जुड़ा है। अतः किसी वाद का न होते हुए भी वह सामाजिक हो जाता है।

राजनीतिक विचार

आज़ादी के बाद की राजनीति का भानचित्र नवगीतों में आया है। साठोत्तरी कवियों की तरह मात्र आजादी के बाद आये स्वशासन प्रति उनका भी मोहभंग हो चुका है। स्वतंत्र भारत का सुखद भविष्य का सपना टूट चुका है, “सत्ता पर पूँजीवादी मानसिकता वालों के अधिपत्य ने शोषण और अत्याचार का जो तांडव किया कि सभी के सपने बिखर कर रह गये।

लोकतंत्रीय व्यवस्था में पूरे समाज के प्रतिनिधित्व की आड़ में चुनावी हथकंड़ों को अपना कर जनता के साधनों का मनमाना दुरुपयोग सत्ताधारियों द्वारा किसी तानाशाह शासक की तरह किया जाने लगा। जनता बेचैन हो उठी।

जिस आज़ादी को इतनी कठिनाई और त्याग के बाद उसने हासिल किया, वह कुछ एक प्रभावशाली हाथों में कैद हो गयी । भ्रष्टाचार, चरित्र हत्या, धन द्वारा वोटों की खरीददारी, अनैतिक साधनों के प्रयोग से जनता अपने को ठगा हुआ महसूस करने लगी तथा उसका असंतोष बढ़ता ही गया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत-पाक विभाजन और उससे उत्पन्न साम्प्रदायिक विद्वेष, भारत-चीन युध्द, कॉंग्रेस का तानाशाही शासन, जनता पार्टी का गठन, पंजाब समस्या, इंदिरा गांधी की हत्या, असम छात्र आंदोलन, कश्मीर की समस्या, राजीव गांधी की हत्या इत्यादि प्रमुख राजनीतिक घटनाएँ हुई जिससे पूरा देश थ उठा।

अत: राजनीति के प्रति नकारात्मक रुख का निर्माण स्वाभाविक ही था। ऐसे में आज़ादी अनैतिक धंधों का माध्यम बन कर सामने आयी और नवगीतकार उसे यदि ‘आज़ादी की काली कमली’ कहे तो आश्चर्य नहीं।

यथाशीघ्र “स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद स्थापित ‘लोकतंत्र’ की परिणति ’तनाव’ में होती है। यह तनाव वैयक्तिक, आर्थिक, सामाजिक, और राजनीतिक क्षेत्रों का तनाव है। एक अरसे के बाद अंग्रेजी हुकुमत का खात्मा हुआ और नयी आशा के रुप में कई पीढ़ियों की प्रतीक्षित स्वतंत्रता भारतीय जन को मिली जो सद्य: ही शोषण और उत्पीड़न के शिकंजे में जा फँसी।

तमाम कोशीशों के बावजूद आदमी अपनी जरुरतों के लिए मोहताज रहने लगा। राजनेताओं को सत्ता सुंदरी पर कब्जा पाने के लिए लोगों की जरुरत नही बल्की ‘भीड़’ की आवश्यकता रही वह भी ऐसी भीड़ जो ‘गूँगी हो, बहरी हो’।

उमाकांत मालवीय ‘सुबह रक्त पलाश की’ में लिखते हैं-

भीड़ की जरुरत है-
भीड़ जो अंधी हो
गूँगी हो, बहरी हो
भीड़-
जो बंधे हुए पानी सी ठहरी हो
भीड़-
जो मिट्टी के माधों की मूरत है।

नवगीतकार ने राजनीति का सटीक वर्णन किया है। सन 19970 के दशक की आपातकालीन राजनीति के विभिन्न पहलुओं को उन्होंने सामने लाया है। ‘तानाशाही शासन, जे. पी. आन्दोलन, चुनावी हथकंडे, लोकतंत्र का खोखलापन, शोषण, जन-प्रतिनिधित्व का अपमान इत्यादि विभिन्न मुद्दों पर नवगीतकार ने …. अनुभूति की सघनता के साथ राजनीतिक विचारों की पुष्टता अपना महत्वपूर्ण ‘रोल’ निभाती है।”

आपातकाल की अलोचना कईयों ने की अनुप अशेष ने भी ‘लौट आयेंगे सगुन पक्षी’ में कहा है-

बैठी है बस्ती एडी पर
जूते फटे उतार
दहशत पनप रही कोखों में
कुरसी पर तलवार ।

देवेद्र शर्मा ‘इंद्र’ को जे. पी आंदोलन निरर्थक लगता है। युवा आंदोलन व्यर्थ महसूस होता है। इसलिए वे ‘कुहरे की प्रत्यांचा’ में कहते है-

बंद करो गर्जन तर्जन
चुप भी बैठो
कौन सुनेगा, ओ
अब बुढ़े शेर तुम्हें।

जनता सरकार बन तो गई परंतू उसके स्थायित्व का सवाल उभरकर आया। यही सवाल कुँवर बेचैन की चिंता का कारण बना-

‘यह सर्दियों’ की भोर है
कैसे चढेगी सीढियाँ
सब कह रहे है यह सुबह
दिल की बहुत
कमजोर है।

~ कुँवर बेचैन, भीतर साँकल-बाहर साँकल

दार्शनिक प्रतिबद्धता

नवगीतकार ने राजनीतिक संवेदनाओं की अभिव्यक्ति भाव रूप में ही की है परंतु भारतीय लोकतंत्र, लोक, मूल्य, आदि के प्रति की चिंता उनमें रही है। एक तरह से देश पर छाया यह दूसरे प्रकार का राजनीतिक संकट ही है।

नवगीत किसी वाद के खुंटे से भले ही न बंधा हो परंतू वह आधुनिकता की क्रोड में पला बढ़ा है, इसलिए आधुनिक विचारधाराओं का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। फिर भी उनकी मूल चिंतन धारा भारतीय मतवाद ही है। हाँ उसके टूटने के आक्रोश में विदेशी विचारधाराओं प्रति प्रतिक्रियात्मक अभिव्यक्ति नवगीतकार में पायी जाती है।

हिन्दी साहित्य पर मार्क्सवाद का गहरा प्रभाव है। जिसने सामान्य वर्ग, मेहनतकश, मजलूम लोगों प्रति आस्था के स्वर प्रकट किये है। उसके बाद मनोविश्लेषणवाद, अस्तित्ववाद प्रमुख है।

फ्रायड ने कुंठित काम चेतना को उभारा – तथा उसके ‘पशुत्व’ को सबसे अधिक महत्व दिया। विकृत काम भावना की आड़ में भारतीय रचनाकारों ने अपनी नितांत निजी अनुभूतियों को व्यापक जन-सरोकार का जामा पहना कर इतना अधिक प्रचारित किया कि पूरा साहित्य उस दुर्गन्ध से बच गया।

बाद में आस्तित्ववाद ने… ऊब, घुटन, अनास्था, विसंगति- बोध, पीड़ा, अजनबीपन, आत्मपरायापन, कुंठा, संत्रास, विघटन, अस्वीकृति, उदासी, मृत्यूबोध इत्यादी साहित्यिक अभिव्यक्तियों में इस तरह छा गए कि मानव की जिजीविषा उसकी मूल आत्मशक्ति संदिग्ध प्रतीत होने लगी। साहित्य के समाज से खारिज हो जाने तथा लोगों द्वारा उसको नकार देने के पीछे इन्हीं प्रवृत्तियों का हाथ रहा है। ”

नवगीत की वैचारिक प्रतिबध्दता के बारे में कुँवर बेचैन ने ‘पिन बहुत सारे’ में कहा है-

जिन्होंने खरीदी है
दूर से, विदेशों से
टूटी बैसाखियाँ
वे सब तो कहलाए
बुद्धिमान, तगड़े,
हम पूरे आदमी
अपने ही पाँव खड़े
फिर भी तो घोषित है -लंगड़े।

जिन्होंने विदेशी वादों को ग्रहण करते हुए आधुनिकता को साहित्य में प्रतिष्ठित किया। जिसे नवगीतकार विदेशी विचार कहते हुए स्वंय को मात्र ‘हम पूरे आदमी’ है यह कहकर भारतीय चिंतन प्रति अपनी प्रतिबद्धता को जाहीर करते है। इसी ‘जीवन क्षणभंगुरता’ को कुँवर बेचैन ने ‘पिन बहुत सारे’ में ही व्यक्त किया है-

साँसों का तो: इस दुनिया में
आने जाने का काम है
और जिन्दगी भी
ज्ञानी की भाषा में
मोहन भ्रम है।

अस्तित्ववादी अनुभूतियों को भी नवगीतों में पाया जाता है। जिसे नवगीतकारों ने अभिव्यक्त किया है-

ऊब (नवगीत-दशक):

मन न लगे मेले में
और अकेले जी ऊबे
वहाँ निहारू अधिक
किरन लिए अनगिन

अकेलापन (हरसिंगार कोई तो ही):

ताना जाले सा अकेलापन
कहाँ तक झेले अकेलापन

टूटन (हरापन नहीं टूटेगा):

मुझे हर तीसरे दिन
नीतियों का मुल बुलाता है
शाम कहती है कहो क्या बात है
एक शीशा टूट जाता है।

बेगानापन (नवगीत अर्धशती):

कितने बेगाने लगते है थे अपने ही साये
सपने हमें यहाँ तक लाये।

यांत्रिकता (नवगीत दशक):

बाबा आदम से गुम हुए सभी
तोड़ते जमीन कुछ तलाशते
रूढ़ हो गयी सारी मुद्राएँ
अर्थ जरा जर जर से काँपते
कितना यांत्रिक आदत सा लगता
डूब रहा सूरज या हो विहान ।

अजनबीपन (जहाँ दर्द नीला है):

कोई हम सफर नहीं है
कोई हम जुबां नहीं है
न पता है मंजिलों का
कोई रास्ता नहीं है
जो पकड़ के बाँह मेरी
लिये जा रही कहीं पर
परछाई है किसी की
मेरी संगीनी नहीं है। 

अकेलापन (सन्नाटे की झील):

एक जंगल की नदी सा
लाल-पीली रोशनी में
यह भटकता मन किसे सौंपूँ
हर तरफ आकाश सा फैला
अकेलापन कहाँ बाँहूँ।

यह सारे उध्दरण अस्तित्ववाद की विभिन्न अनुभूतियों, संवेदनाओ के है। हमने पहले ही कहा है की नवगीत में विचार प्रमुख नहीं है। उसके प्रति – प्रतिबध्दता उन्हें महत्वपूर्ण नहीं लगती। उनकी प्रतिबध्दता जीवन के प्रति है, समाज के प्रति है । उसी का संवेदन रुप नवगीत में आया है।

8. शिल्प :

नवगीतकार की भाषिक सरंचना ग्राम बोध से जुड़ी है। ठाकुर प्रसाद सिंह का काव्यसंग्रह ‘वंशी और मादल’ संथाल परगना के लोक जीवन को आधार बनाकर लिया गया है गाँव की सहजता को भाव के स्तर पर ही स्वीकार नहीं किया, वरन् शैल्पिक परिगठन एवं छंदविधान में भी उसका उचित प्रयोग किया । उनकी भाषा संवेदनशील, समर्थ शिल्प उपकरणों से सुलज्जित है।

उनकी अनुभूतियाँ लोकजीवन की परंपरा, संस्कृती, का बोध कराती है। भाषा-संस्कृती अपने अडौस-पडौस की लगती है। कई शब्द लोकजीवन के ही प्रयुक्त हुए है। जैसे-उपले पाथना, कसम खाना, लबादे, चौरा, कागा, आस, असर, कोल्हू, ओसार, हिपरा, सुन्नर, बाँझिन, कुलच्छित, भात, भेडियाधसान, गर्दखोर, सिवान, डाभर, आदि ग्राम शब्द प्रयुक्त हुए है।

संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग भी हुआ हैं- स्त्राष्टा, नाराशंसी, ऋत्विक, निमिष, प्रज्ञा, स्वास्तिक, चक्रावर्तित, वैश्वानर, ऋतुमती, पुष्पधन्वा, पद्मगंधा, धूम्रवलयांकित, आदी।
भाषा की सहजता, लोकाधर्मिता, ताजगी आदि ने नवगीत को प्रभावशील बना दिया है।

अभिव्यंजना कौशल्य में अप्रस्तुत योजना, मिथकीय संरचना प्रतीकात्मकता, बिम्बात्मकता, अलंकारिकता का प्रयोग किया गया है। रामदरश मिश्र का अप्रस्तुत योजना प्रयोग का ‘मेरे प्रिय गीत’ से एक उदा. देखा जा सकता है-

अंधी है धूप यहाँ, प्यासा है पानी
चूस रही फूलों को बर्रे रानी
सारे मौसम चुप है किसके डर से।

लोकधुनों पर भी गीत रचनाएँ की गई है। शंभुनाथ सिंह ने पूर्वी उत्तर प्रदेश की कौव्वाली शैली का प्रयोग किया है। तो कुछ नवगीतकार ने अमवा, पछुआँ, कोइलिया, परदेशी, पियवा, टिकोरा, नवनवा, चिरइया, सजनवाँ जैसे क्षेत्रीय शब्द-रूपों का प्रयोग कर गीत लिखे है, ‘जाल फेंक दे मछेरे’ में बुद्धिनाथ मिश्र ने लिखा है-

बौरायी कि अमवा की डार
पिया नहीं आये।
एक तो बैरिन मेरी
सनकी उमरिया
दूजी बसन्ती बयार
पिया नहीं आये।

गीतकार ने नवगीत को सशक्त रुप दिया। भाव एवं भावनिक सरंचना की दृष्टि से वे महत्वपूर्ण है। अपनी अनुभूति को पचाकर ग्राम एवं नगर संवेदना के परिप्रेक्ष्य में गीत रचना सुंदर बनी है। नगर उन्हें प्रिय है, वहाँ वे बसना, चाहते है परंतू मूल्यहीनता के कारण वह बेचैन हो जाते है। उन्हें लगता है-

शील शरम सब
यहाँ बिकाऊ
बम्बईया बाना।

अथवा-

लाजो दिल्ली में बस कर
शरमाना भूल गयी है।

जैसे गीत नगर सभ्यता, संस्कृति, संवेदना को हमारे सामने लाते है। शहरी जीवन की आधुनिकता बोध से भरे विसंगती को सहज- प्रभावात्मक रुप में प्रस्तुत किया है।

प्रमुख नवगीतकार

नवगीतकार जिनमें प्रमुख है.. शंभुनाथ सिंह, कुँवर बेचैन, देवेंद्र कुमार, ‘इंद्र’ जहीर कुरैशी, राजेद्र गौतम, लोलार्क दिवेदी, उमाकान्त तिवारी, पाल भसीन, गुलाब सिंह, हरीश निगम, श्रीकृष्ण तिवारी, वीरेन्द्र मिश्र, रमेश रंजक आदी, यह सूच बड़ी लम्बी होगी। नवगीतकार नवगीत का विकास कर रहे है।

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