Kabirdas Ke Dohe : “गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय। बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय॥” कबीरदास का जन्म 15वीं शताब्दी 1455 विक्रम संवत को काशी में हुआ था। इस प्रष्ठ में कबीर के सर्वाधिक प्रसिद्ध व लोकप्रिय दोहे सम्मिलित किए गए हैं। हम कबीर के अधिक से अधिक दोहों को संकलित करने हेतु प्रयासरत हैं। तो आइए, इस पोस्ट में Kabir Ke Dohe in Hindi, कबीर के दोहे की लिस्ट और उनके अर्थ के बारे में विस्तार से जानते हैं।
कबीर दास कौन थे?
कबीर दास का जन्म कब हुआ, यह ठीक-ठीक ज्ञात नहीं है। मोटे तौर पर उनका जन्म 14वीं-15वीं शताब्दी में वाराणसी में हुआ था। एक मान्यता के अनुसार उनका अवतरण सन 1398 (संवत 1455), में ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को ब्रह्ममूहर्त के समय लहरतारा तालाब में कमल पर हुआ था। जहां से नीरू नीमा नामक दंपति उठा ले गए थे । उनकी इस लीला को उनके अनुयायी कबीर साहेब प्रकट दिवस के रूप में मनाते हैं। वे जुलाहे का काम करते थे। (विस्तार से पढ़ें: कबीरदास का जीवन परिचय)
उनके गुरु का नाम संत आचार्य रामानंद जी था। कबीरदास की पत्नी का नाम ‘लोई’ था। कबीर दास जी हिंदी साहित्य की निर्गुण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि थे। के पुत्र का नाम कमाल ओर पुत्री का नाम कमाली था। कबीर दास की वाणी को साखी, संबंध, ओर रमैनी तीनों रूपों में लिखा गया है। कबीर ईश्वर को मानते थे और किसी भी प्रकार के कर्मकांड का विरोध करते थे। कबीर दास बेहद यानी थे और स्कूली शिक्षा ना प्राप्त करते हुए भी उनके पास भोजपुरी, हिंदी, अवधी जैसे अलग-अलग भाषाओं में उनकी अच्छी पकड़ थी।
अब पढ़ते हैं कबीर दास के दोहे (Kabir ke Dohe in Hindi with Meaning)
कबीर के प्रसिद्ध दोहे की लिस्ट
कबीर के कुछ लोकप्रिय दोहे की लिस्ट इस प्रकार हैं:
- ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये। औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।
- काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब।
- गुरु गोविंद दोऊ खड़े ,काके लागू पाय। बलिहारी गुरु आपने , गोविंद दियो मिलाय।
- चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये। दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए।
- जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए। यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए।
- जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश। जो है जा को भावना सो ताहि के पास।
- जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान।
- दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय। जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय।
- नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए। मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए।
- पाथर पूजे हरी मिले, तो मै पूजू पहाड़! घर की चक्की कोई न पूजे, जाको पीस खाए संसार।
- बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर। पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।
- बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय।
- मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार। फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार।
- माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे। एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे।
- साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय।
Kabir Das Ke Dohe
आगे कबीर दास के दोहे अर्थ सहित दिए गए हैं:
चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥ 1 ॥
भावार्थ– इस पंक्ति का संदेश है कि जब हमारी इच्छाओं और चिंताओं का अंत होता है, तो हमारा मन शांत और बेपरवाह हो जाता है। व्यक्ति जो कुछ भी चाहने की आवश्यकता नहीं महसूस करता, वह वास्तव में शाहशाह (सर्वश्रेष्ठ शासक) है। इसका सुझाव है कि मानसिक शांति और संतोष अपने इच्छाओं को संभालने में छिपे होते हैं, और जब हम इन इच्छाओं को छोड़ देते हैं, तो हम सच्चे शान्ति का आनंद उठा सकते हैं।
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥ 2 ॥
भावार्थ– इस पंक्ति में कवि कबीर दास विचार कर रहे हैं कि माटी (मिट्टी) एक कुम्हार (मिट्टी के बर्तन बनाने वाला कारीगर) से कह रही है कि वह क्यों रौंद रही है. माटी यहां अन्नपूर्णा मां का प्रतीक हो सकती है, जो हर जीवन को अन्न प्रदान करती है। यह उसका संदेश है कि हर व्यक्ति का जीवन एक दिन समाप्त हो जाएगा, जब माटी उसे अपने साथ ले जाएगी, जैसे कि कुम्हार मिट्टी को रौंदकर अपने बर्तन बनाता है।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर॥ 3 ॥
इस पंक्ति के माध्यम से कवि कबीर दास हमें यह बताते हैं कि केवल बाहरी पूजा या धार्मिक आचरण से ही युग का बदलाव नहीं हो सकता। माला फेरने या बाहरी धार्मिक आचरण करने से केवल स्थिति बदलती है, लेकिन असली परिवर्तन मन के अंदर होता है। इसके लिए, कवि कबीर दास हमें मन को परिवर्तित करने और उसे भगवान की ओर मोड़ने की आवश्यकता को जोरदार दिलाते हैं। यदि हम मानसिक रूप से परिवर्तन करते हैं, तो हम सच्चे धार्मिकता की ओर कदम बढ़ा सकते हैं।
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥ 4 ॥
यह पंक्तियाँ मानव दया और समझ के महत्व को बताती हैं। कबीर दास यहां पर बता रहे हैं कि हमें दूसरों की दुर्दशा या दुख की निन्दा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि हम कभी-कभी उनकी स्थिति को समझने और उनके साथ इसमें सहानुभूति दिखाने के बजाय, उनके प्रति क्रूरता और निन्दा करने से उनके पीड़ा में वृद्धि कर सकते हैं।
गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥ 5 ॥
पढ़िए: चेतक की वीरता
हमें आशा है कि आपको ये Kabirdas ke dohe in hindi पसंद आ रहे होंगे
सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 6 ॥
इस दोहे में कबीर दास हमें यह सिखाते हैं कि हमें भगवान की याद उसके आवश्यक नहीं केवल दुख के समय ही करनी चाहिए, बल्कि हमें सुख के समय भी उनके स्मरण में रहना चाहिए। सुख और दुख दोनों के समय में भगवान की याद करना हमारे मानसिक और आत्मिक संतुष्टि के लिए महत्वपूर्ण है।
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 7 ॥
इस दोहे का संदेश है कि हमें अपने संसारिक और आध्यात्मिक दायित्वों का सामंजस्य बनाना चाहिए और सभी को समृद्धि, सुख, और आनंद में भागीदार बनाने के लिए साझा काम करना चाहिए।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 8 ॥
इस दोहे का अर्थ होता है: “मन, धीरे-धीरे काम करो, सब कुछ धीरे होता है। जैसे कि माली सौ घड़े सींचता है, और जब समय आता है, तो फल होता है।”
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें धीरज और संयम की महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में बताते हैं। वे कहते हैं कि हमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए संयमपूर्ण और स्थिर दृष्टिकोण बनाना चाहिए, क्योंकि सफलता का समय आने में समय लग सकता है, जैसे कि माली को सौ घड़े लगते हैं फल की उपज के लिए।
इस दोहे का संदेश है कि धीरज और सब्र से ही हम किसी भी प्रकार की सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥ 9 ॥
इस दोहे का अर्थ होता है: “कबीरा कहते हैं कि वे लोग बड़े अंधे हैं, जो गुरु को कहकर मानते हैं, परंतु भगवान (हरि) को नहीं मानते। यहाँ पर ‘हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर’ का संदेश है कि गुरु हमारे जीवन में भगवान का रूप होते हैं, और हमें उनका सम्मान करना चाहिए। गुरु का समर्थन करने से ही हम भगवान के प्रति सही भावना और समर्पण प्रकट कर सकते हैं।”
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 10 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें यह सिखाते हैं कि माया या मानव जीवन की अनगिनत इच्छाएँ और तृष्णाएँ हमारे शरीर के मर जाने के बाद भी बरकरार रहती हैं। शरीर ही मर जाता है, लेकिन हमारे मन की इच्छाएँ और तृष्णाएँ अबाद रहती हैं, और इन्हीं से हमारा दुख उत्पन्न होता है। कबीर दास का संदेश है कि हमें आशा और तृष्णा को नियंत्रित करना चाहिए ताकि हम आनंदमय और संतुष्ट जीवन जी सकें।
कबीर दास और उनके दोहे का अर्थ (Kabir Das Ke Dohe) बहुत मजेदार हैं…
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 11 ॥
इस दोहे का अर्थ होता है: “कुछ लोग रात को सोते हुए समय की व्यर्थ बिताते हैं, और दिन को खाने-पीने में गवा देते हैं। हीरा (मनि) जन्म से ही अमूल्य होता है, लेकिन कोई कोड़ी के लिए इसे बेकार कर देता है।”
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें समय का महत्व बताते हैं और यह सिखाते हैं कि हमें समय का सदुपयोग करना चाहिए। हीरा, जो अमूल्य होता है, कोड़ी के लिए बेकार हो जाता है, इसलिए हमें समय की मूल्य को समझना चाहिए और उसका सही उपयोग करना चाहिए।
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥ 12 ॥
इस दोहे में कबीर दास हमें यह सिखाते हैं कि हमें सुख और दुःख दोनों के समय में ही भगवान का स्मरण करना चाहिए। भगवान की स्मृति से हमारा मानसिक स्थिति स्थिर रहता है और हम सभी परिस्थितियों को प्राप्त करने के लिए तैयार रहते हैं।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥ 13 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें यह सिखाते हैं कि व्यक्ति की महत्वपूर्ण बाहरी स्थिति से ज्यादा उसके आचरण और धर्मिक गुणों में होता है। यदि कोई व्यक्ति धर्मिक गुणों को प्राप्त नहीं करता है, तो उसकी बड़े पद और प्रतिष्ठा का कोई महत्व नहीं रहता।
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥ 14 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें यह सिखाते हैं कि साधु का चयन करते समय हमें ध्यानपूर्वक और विचारशीलता से करना चाहिए। एक साधु का मार्गदर्शन हमारे जीवन को सफलता और धार्मिकता की ओर ले जा सकता है।
तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय॥ 15 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें यह सिखाते हैं कि हमें दूसरों की कमजोरियों और दुखों का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए, क्योंकि कभी-कभी हमारी अपनी कमजोरियाँ भी हमें प्रभावित कर सकती हैं। इसके बजाय, हमें सहानुभूति और समझ के साथ दूसरों की मदद करनी चाहिए।
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥ 16 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें यह सिखाते हैं कि हमें दूसरों के गुणों को मान्यता देना चाहिए और उनके महत्व को समझना चाहिए, चाहे वह किसी की अल्पता को दूर करने का काम हो या किसी बड़े कार्य का। सभी लोगों का महत्व होता है और उनमें से हर किसी का योगदान अद्वितीय होता है।
उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥ 17 ॥
इस दोहे के माध्यम से कबीर दास हमें यह सिखाते हैं कि प्रेम और सामंजस्य के माध्यम से हम समृद्धि प्राप्त कर सकते हैं। प्रेम का अर्थ यहाँ यह है कि एक व्यक्ति दूसरों के साथ साझा करता है और सामंजस्य से सभी चीजें मिल जाती हैं।
सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥ 18 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें यह सिखाते हैं कि भगवान की महिमा और गुण अत्यन्त अद्वितीय और अत्यंत अच्छे होते हैं, जिन्हें किसी भी तरह से कागद पर या शब्दों में प्रकट करना संभव नहीं होता। यह दोहा हमें हर काम में भगवान की अत्यधिक महत्वपूर्णता को समझाता है।
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हमें आशा है कि आपको ये कबीर दास के दोहे (Kabir ke dohe in hindi) पसंद अवश्य आ रहे होंगे
साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥ 19 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें यह सिखाते हैं कि हमें साधुओं का सम्मान करना चाहिए और उनकी सेवा करनी चाहिए। वे हमारे जीवन में आगे बढ़कर हमसे कुछ मांगते हैं, और हमें उन्हें सहायता करनी चाहिए ताकि हम धार्मिकता और सेवा के माध्यम से आत्मा की उन्नति कर सकें।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर॥ 20 ॥
इस दोहे में, संत कबीर दास हमें यह सिखाते हैं कि माला का फेरना या जपना बिना मन के शुद्धता और निश्चलता के कुछ भी नहीं होता। वे कहते हैं कि यदि मन में विचारों की बेहद अनियमितता है और मन अपने विचारों के बाग़ में भटक रहा है, तो फिर माला फेरने का कोई फ़ायदा नहीं होता।
इस दोहे से यह संदेश मिलता है कि आध्यात्मिक अभ्यास में ध्यान और आत्मा की पावनता महत्वपूर्ण है, और यही आसली माला का फेरना है।
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उम्मीद है कि आपको ये Kabirdas ke dohe in hindi पसंद आ रहे होंगे, और आगे पढिए।
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट॥ 21 ॥
कबीर दास इस दोहे में हमें यह समझाते हैं कि मानव जीवन में जब भी कोई मौका मिलता है, तो उसे सही और आदर्श तरीके से प्रयोग करना चाहिए। यहाँ पर “लूट सके तो लूट ले” का तात्पर्य है कि अगर हमें भगवान की भक्ति और आत्मा के साथ जुड़ने का मौका मिलता है, तो हमें वह मौका पूरी श्रद्धा और प्रेम के साथ उपयोग करना चाहिए।
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप॥ 22 ॥
इस दोहे से हमें यह सिखने को मिलता है कि दया, करुणा, क्षमा, और आपसी समझ के मूल्य को समझना हमारे जीवन के मार्ग को बेहतर बना सकता है और हमें धर्मिकता की दिशा में आगे बढ़ने में मदद कर सकता है।
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान॥ 23 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें यह सिखाते हैं कि हमें अपने जीवन में भगवान की भक्ति का समय निकालना चाहिए, क्योंकि मृत्यु के बाद हमारे कर्मों का मूल्यांकन होगा और हमें उनका जवाब देना होगा।
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥ 24 ॥
कबीर दास इस दोहे में हमें यह सिखाते हैं कि एक साधु या आत्मज्ञानी की पहचान उनकी जाति या जन्म के साथ नहीं होनी चाहिए। उनकी पहचान उनके ज्ञान, शिक्षा, और आदर्शों से होनी चाहिए। यह दोहा हमें जातिवाद और समाज में जाति के आधार पर भेदभाव के खिलाफ उत्कृष्ट उपदेश देता है।
ये Kabir das ke dohe बड़े ही रोचक हैं, आपको अवश्य ही पसंद आ रहे होंगे
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय।
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय॥ 25 ॥
कबीर दास इस दोहे में हमें यह सिखाते हैं कि जीवन के विभिन्न पहरों में हमारे कार्य और ध्यान की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच।
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच॥ 26 ॥
इस दोहे से हमें यह सिखने को मिलता है कि जीवन के संघर्षों और कठिनाइयों का सामना करने में हार नहीं मानना चाहिए, बल्कि हमें उन संघर्षों को पार करने के लिए साहसी और सही मार्ग पर स्थिर रहने की कठिनाइयों का सामना करना चाहिए।
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर॥ 27 ॥
इस दोहे के माध्यम से कबीर दास हमें गुरु के महत्व को समझाते हैं और यह बताते हैं कि भगवान के प्रति हमारा भक्ति और समर्पण गुरु के माध्यम से होता है।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥ 28 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें संयम, स्थिरता, और धैर्य की महत्वपूर्णता को समझाते हैं। वे यहाँ बता रहे हैं कि सफलता हासिल करने के लिए हमें समय और प्रयास के साथ धीरे-धीरे काम करना चाहिए, जिससे हमारे प्रयासों का फल हो सके।
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय॥ 29 ॥
यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमें गर्व और अहंकार में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि हम सबकुछ नष्ट हो सकता है। यह भी दिखाता है कि हम सब माटी हैं और आखिरकार हम सब माटी में ही लिपट जाएंगे। इसलिए, हमें विनम्र और समग्रहीण रहना चाहिए।
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार॥ 30 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें मानव जीवन की मूल्यवानता और अनमोलता को समझाते हैं। हमारे पास मानव जीवन का यह अवसर है, जो अत्यधिक मूल्यवान है और हमें इसका सदुपयोग करना चाहिए।
कबीर दास ke dohe in hindi अर्थ सहित समझने में बड़ा रोचक लगता है
आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर॥ 31 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें यह याद दिलाते हैं कि हम सभी भौतिक संविदान से परे आत्मा हैं और फिर भी मरने के बाद सभी एक ही दिशा में जाते हैं। इसलिए, हमें अपने कर्मों को और आचरण को सदय उच्च मानकर जीना चाहिए।
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर॥ 32 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें यह सिखाते हैं कि आत्मा अमर है और यह देह के मरने के बाद भी बरकरार रहता है। वे हमें यह भी सिखाते हैं कि माया, आशा, और तृष्णा जैसे भौतिक आसक्तियों को त्याग करने से ही हम आत्मा की सच्ची उत्थान कर सकते हैं।
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन॥ 33 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें यह सिखाते हैं कि नैतिकता और आदर्श व्यक्ति की महत्वपूर्ण गुण होते हैं। यह हमें याद दिलाता है कि सफलता केवल भौतिक धन और संपत्ति में नहीं है, बल्कि नैतिक मूल्यों में भी होती है। श्रेष्ठ व्यक्ति वह होता है जो शीलवान होता है और नैतिकता का पालन करता है।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब॥ 34 ॥
इस दोहे के माध्यम से, कबीर दास हमें समय की महत्वपूर्णता को समझाते हैं। वे कहते हैं कि कामों को टालने का समय नहीं होता, और हमें अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए आज ही काम करना चाहिए।
पढ़िए: चांद या चंदा मामा पर कविता
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय॥ 35 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें समय का महत्व और समय का सार्थक उपयोग करने की महत्वपूर्णता को समझाते हैं। वे यहाँ बता रहे हैं कि हमें समय का महत्व समझना चाहिए और उसे सदय यथासम्भाव उपयोग में लाना चाहिए।
नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग।
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग॥ 36 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें आत्मा के महत्व को समझाते हैं और हमें यह याद दिलाते हैं कि हमें अपने आत्मा के पास वापस जाने के लिए नींद की नींद से जागना होगा। वे यह भी सिखाते हैं कि आत्मा को शुद्ध और पवित्र बनाने के लिए साधना और ध्यान की आवश्यकता होती है।
जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग;
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग॥ 37 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें यह सिखाते हैं कि आपदाएँ और दुख आत्मा के अहंकार और संदेह से ही उत्पन्न होते हैं, और इन्हें दूर करने के लिए हमें धैर्य और धीरज बनाने की आवश्यकता होती है।
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख॥ 38 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें यह सिखाते हैं कि हमें दूसरों से भिख मांगने की बजाय अपने योग्यता और मेहनत से अपने लिए काम करना चाहिए। वे यह भी बताते हैं कि सतगुरु का उपदेश हमें स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनने की दिशा में हमारे लिए महत्वपूर्ण है।
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय।
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय॥ 39 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें माया के मोह से बचने की महत्वपूर्णता को समझाते हैं। वे कहते हैं कि भक्ति में लग जाने से ही हम असली सत्य को जान सकते हैं, जबकि दुसरे लोग माया की ओर बढ़ते हैं और वहाँ के भ्रांतियों में फंस जाते हैं।
आया था किस काम को, तु सोया चादर तान।
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान॥ 40 ॥
कबीर दास इस दोहे के माध्यम से हमें यह सिखाते हैं कि हमें अपने असली आत्मा को पहचानने की कोशिश करनी चाहिए, और माया की भ्रांतियों का सामना करना चाहिए। वे कहते हैं कि हमें अपने असली ध्येय को समझने और पहचाने की आवश्यकता है, और हमें मोहमाया की भ्रांतियों से बाहर आने का प्रयास करना चाहिए।
अद्भुत आपने Kabir ke dohe in hindi 40 पढ़ लिए हैं जो पसंद आए होंगे, और कबीर दास के दोहे आगे हैं
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय॥ 41 ॥
कबीर दास जी इस दोहे में हमें समझाते हैं अगर उनके सामने गुरु और भगवान को साथ में खड़े करते हैं तो आप किस के चरण स्पर्श करेंगे? वो कहते हैं गुरु ने अपने ज्ञान से उन्हें भगवान से मिलने का रास्ता बताया है तो उनके अनुसार गुरु की महिमा भगवान से भी ऊपर है इसलिए वह गुरु के चरण स्पर्श करना चाहेंगे।
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि॥ 42 ॥
कबीर दास इस दोहे में हमें यह सिखाते हैं कि गुरु का चयन बहुत ध्यानपूर्वक और समझदारी से करना चाहिए। वे तबादला की तरह गुरु का चयन करने की सलाह देते हैं, जिससे आपके आत्मा के लिए सही मार्ग का चयन हो सके।
कबीर दास उदाहरण के रूप में यह कहते हैं कि जब हम पानी पीने के लिए छलना करते हैं, तो हम उसे आच्छादन करके ध्यान से छानते हैं ताकि कोई अजीब चीज न पानी में मिले। इसी तरह, हमें गुरु का चयन करते समय भी ध्यान से सोचना चाहिए, ताकि हम एक सांत्वना और आत्मा के विकास के लिए सही मार्ग पर चल सकें।
सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार॥ 43 ॥
कबीर दास इस दोहे में सतगुरु की महिमा (महत्व) की महत्वपूर्णता को बताते हैं और उनके उपकार को अनंत (अविशेष) मानते हैं। सतगुरु वह गुरु होता है जिसने आपको सच्चे ज्ञान की ओर प्रेरित किया है और आपके आत्मिक विकास का मार्ग दिखाया है।
अंत में, कबीर दास कहते हैं कि सतगुरु वो हैं जो हमारी आंखों को खोलकर हमें अनंत दिखाते हैं, जिससे हम आत्मा की अनंतता को अनुभव कर सकते हैं। वे हमें आत्मा की असीम गहराईयों को समझाने में मदद करते हैं।
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि॥ 44 ॥
कबीर दास इस दोहे में गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका को बताते हैं। वे कहते हैं कि गुरु देह (शरीर) का होता है, लेकिन सतगुरु (आदर्श गुरु) केवल शरीर को नहीं चीनते। अर्थात्, गुरु केवल बाहरी शरीर की पहचान नहीं करते, बल्कि वे आत्मा की पहचान करते हैं।
कबीर दास का संदेश यह है कि सतगुरु ही वह गुरु है जो व्यक्तियों को इस भवसागर के जाल से मुक्ति प्राप्त करने का मार्ग दिखा सकते हैं। वे आत्मा के अंतर्निहितता को समझने में मदद करते हैं और लोगों को मोहों से मुक्त होने के लिए उनके आत्मा को पहचानने की दिशा में मार्गदर्शन करते हैं।
शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय॥ 45 ॥
कबीर दास इस दोहे में वक्ता के माध्यम से गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका को बताते हैं। वे कहते हैं कि “शब्द” (शब्द गुरु) भी एक प्रकार का गुरु होता है, और इसका मतलब है कि शब्दों और मंत्रों के माध्यम से हम आत्मिक ज्ञान और आत्मा के साथ संबंध स्थापित कर सकते हैं।
बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाडी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार॥ 46 ॥
इस दोहे से हमें यह सिखने को मिलता है कि गुरु की सेवा और उनका आदर महत्वपूर्ण हैं, और गुरु को आपके आदर्श और मार्गदर्शक के रूप में महत्वपूर्णता से स्वीकार किया जाना चाहिए।
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर॥ 47 ॥
इस दोहे से हमें यह सिखने को मिलता है कि गुरु का महत्व अत्यधिक है, लेकिन गुरु को केवल भौतिक रूप में देखना गलत है। गुरु का सच्चा महत्व उनके शिक्षा के माध्यम से होता है और वे हमें भगवान के प्रति भक्ति और सेवा के मार्ग पर ले जाते हैं।
जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय॥ 48 ॥
इस दोहे से हमें यह सिखने को मिलता है कि गुरु का महत्व तब होता है जब वह हमारे भ्रमों और भ्रांतियों को दूर करने में सक्षम होते हैं, और यदि वे इस मार्ग में सक्षम नहीं हैं, तो हमें उन्हें त्याग देना चाहिए।
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥ 49 ॥
कबीर दास इस दोहे में बताते हैं कि यह तन (शरीर) विषयों की बेलरी (जीवन का मूल्य) है, जिसका मतलब है कि शरीर और संवादना केवल भौतिक और इंद्रियों के संबंध में समझा नहीं जा सकता है। उनका कहना है कि गुरु की सिख मिलना अमृत (अनमोल) होता है, और इसका मतलब है कि गुरु के उपदेश से ही हम आत्मिक ज्ञान और आनंद प्राप्त कर सकते हैं।
गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव।
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव॥ 50 ॥
कबीर दास इसके बाद कहते हैं कि गुरु और शिष्य दोनों ही बूढ़े बापुरे होते हैं, अर्थात्, उनकी आत्मा बृद्धि कर जाती है, और वे एक साथ पाथर की नाव (संसारिक जीवन) पर चढ़ते हैं।
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समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय ।
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए॥ 51 ॥
कबीर दास इस दोहे में गुरु और शिष्य के संबंध की महत्वपूर्ण बात करते हैं। वे कहते हैं कि गुरु शिष्य को बार-बार समझाते हैं, लेकिन शिष्य कई बार गुरु के उपदेश को समझने में सक्षम नहीं होता। फिर भी, गुरु और शिष्य दोनों एक साथ रहते हैं और जीवन का साझा अनुभव करते हैं।
इस दोहे से हमें यह सिखने को मिलता है कि गुरु और शिष्य के संबंध अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं, और शिष्य को गुरु के मार्ग पर चलने का निर्णय लेने के लिए खींचने की आवश्यकता होती है।
हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय।
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय॥ 52 ॥
कबीर दास इस दोहे में एक महत्वपूर्ण संदेश प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि हंसा (संजीवनी हंस) मोती को चुगकर उसके पास लाता है, और कुंचन (कोयल की आवाज) थार (प्रियंक) के कानों में भरता है। इसका मतलब है कि जो व्यक्ति गुरु के उपदेश का मान्य करता है और उनका अनुसरण करता है, वह आत्मिक धन (मोती) को प्राप्त करता है और आत्मा के प्रति प्रेम और समर्पण का प्रतीक (कोयल की आवाज) बन जाता है।
कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय॥ 53 ॥
कबीर दास कहते हैं कि वह ने अपने आत्मा के अनुभव को शब्दों में व्यक्त कर दिया है – “कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय”। यानी कबीर ने अपने आत्मा के अनुभव को जानकारों के साथ साझा कर दिया है और अब और कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है।
कुछ कबीर के दोहे बिना अर्थ के दिए जा रहे हैं, जिन्हे पढ़कर आप समझ सकते हैं
वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल ।
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल॥ 54 ॥
कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय।
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय॥ 55 ॥
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय।
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय॥ 56 ॥
जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय।
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय॥ 57 ॥
साधु ऐसा चहिए ,जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय॥ 58 ॥
लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय॥ 59 ॥
भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय।
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय॥ 60 ॥
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार॥ 61 ॥
अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥
मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार ।
तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥ 63 ॥
प्रेम न बड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय॥ 65 ॥
सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग॥ 66 ॥
सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल।
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल॥ 67 ॥
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार॥ 68 ॥
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग॥ 69 ॥
जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं॥ 70 ॥
जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश।
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास॥ 71 ॥
नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय।
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय॥ 72 ॥
आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद।
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद॥ 73 ॥
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय।
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय॥ 74 ॥
जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम॥ 75 ॥
दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी।
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी॥ 76 ॥
बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात॥ 77 ॥
जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव।
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव॥ 78 ॥
फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त॥ 79 ॥
दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद।
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द॥ 80 ॥
ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये ।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए॥ 81 ॥
इसका अर्थ है कि, कबीर दास जी हमें यह समझाते हैं कि हमेशा ऐसी भाषा बोलने चाहिए जो सामने वाले को सुनने से अच्छा लगे और उन्हें सुख की अनुभूति हो और साथ ही खुद को भी आनंद का अनुभव हो।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय॥ 82 ॥
इसका अर्थ है कि, कबीर दास जी यह कहते हैं की वह सारा जीवन दूसरों की बुराइयां देखने में लगे रहे थे लेकिन जब उन्होंने अपने खुद में जाकर देखा तो उन्हें लगा कि उनसे बुरा इंसान कोई भी नहीं है। वह सबसे स्वार्थी और बुरे हैं , ठीक उसी तरह दूसरे लोग भी दूसरे के अंदर बुराइयां देखते हैं परंतु खुद के अंदर कभी जाकर नहीं देखते अगर वह खुद के अंदर झांक कर देखे तो उन्हें भी पता चलेगा कि उनसे बुरा इंसान कोई भी नहीं है।
कबीर के चेतावनी दोहे
चेतावनी पर Kabir Ke Dohe in Hindi इस प्रकार हैं:
जिनके नौबति बाजती, मैंगल बंधते बारि।
एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि॥ 83 ॥
मैं-मैं बड़ी बलाइ है, सकै तो निकसो भाजि।
कब लग राखौ हे सखी, रूई लपेटी आगि॥ 84 ॥
उजला कपड़ा पहरि करि, पान सुपारी खाहिं।
एकै हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं॥ 85 ॥
कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ।
इत के भये न उत के, चाले मूल गंवाइ॥ 86 ॥
कबीर नौबत आपणी, दिन दस लेहु बजाइ।
ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ॥ 87 ॥
पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार।
याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार॥ 88 ॥
पाखंड पर कबीर के दोहे
पाखंड पर कबीर के दोहे नीचे दिए गए हैं-
लाडू लावन लापसी, पूजा चढ़े अपार।
पूजी पुजारी ले गया,मूरत के मुह छार॥ 89 ॥
पाथर पूजे हरी मिले, तो मै पूजू पहाड़।
घर की चक्की कोई न पूजे, जाको पीस खाए संसार॥ 90 ॥
जो तूं ब्राह्मण , ब्राह्मणी का जाया।
आन बाट काहे नहीं आया॥ 91 ॥
माटी का एक नाग बनाके, पुजे लोग लुगाया।
जिंदा नाग जब घर मे निकले, ले लाठी धमकाया॥ 92 ॥
कबीर की उलटवासियाँ
कबीर की उलटबांसी रचनाओं से तात्पर्य कबीर की उन रचनाओं से है, जिनके माध्यम से कबीर ने अपनी बात को घुमा-फिरा कर और प्रचलित अर्थ से एकदम विपरीत अर्थ में अपनी बात कही है। कबीर की उलटबांसी को समझ हर किसी के लिये आसान नही होता क्योंकि इन रचनाओं के माध्यम से कबीर ने अपनी बात को काफी घुमा-फिरा कर कहा है, जिससे पाठक इसके प्रचलित अर्थ में ही उलझा रह जाता है, जबकि कबीर का कहने का तात्पर्य इसका विपरीट यानि उलटा कहने का रहा है। इसलिए इन रचनाओं को ‘उलटबांसी’ कहा जाता है। जैसे-
देखि-देखि जिय अचरज होई
यह पद बूझें बिरला कोई
धरती उलटि अकासै जाय,
चिउंटी के मुख हस्ति समाय
बिना पवन सो पर्वत उड़े,
जीव जन्तु सब वृक्षा चढ़े
सूखे-सरवर उठे हिलोरा,
बिनु-जल चकवा करत किलोरा॥ 93 ॥
कबीर का कहने का तात्पर्य ये है कि इस भौतिक जगत के जो कर्म-व्यवहार है, वो आध्यात्मिक जीवन में एकदम उलटे हो जाते हैं। यानि धरती आकाश बन जाती है, हाथी के मुँह में चींटी की जगह चींटी के मुँह में हाथी चला जाता है, जो पहाड़ हवा से उड़ता है वो बिन हवा के ही उड़ने लगता है, जीव-जन्तु जो भूमि पर विचरण करते हैं, वो वृक्षों पर चढने लगते हैं, पानी से भले सरोवर में ही हिलोरे उठती है, लेकिन यहाँ सूखे सरोवर में उठने लगती हैं और चकवा जो जल को देखकर कलोल करता है, वो बिना जल के ही कलोल करने लगता है, यानि सब काम उल्टे होने लगते हैं।
FAQs
कबीर दास का जीवन का संक्षिप्त इतिहास क्या है?
कबीर दास 15वीं और 16वीं सदी के भारतीय संत, कवि, और संतपुरुष थे। वे वाराणसी के निकट काशी नगर में पैदा हुए थे और उनकी जन्म तिथि का स्थायी निर्धारण नहीं हो सकता है। कबीर दास ने भगवान के प्रति अपने अद्वितीय भक्ति और सामाजिक सुधार के संदेश के लिए प्रसिद्ध होते हैं।
कबीर दास के दोहे क्या हैं और उनके महत्व क्या है?
कबीर दास के दोहे उनके लोकप्रिय भक्तिगीत थे, जिनमें वे आत्मा के महत्व, जीवन का उद्देश्य, और भगवान के प्रति अपने भक्ति और समर्पण के मार्ग को व्यक्त करते थे। उनके दोहे आज भी मानवता के लिए महत्वपूर्ण संदेश लेकर आए हैं।
कबीर दास की भक्ति धार्मिक सम्प्रदायों से अलग थी, इसके बारे में और जानकारी दें।
कबीर दास की भक्ति अलग-अलग धर्मिक सम्प्रदायों से अलग थी और उन्होंने सामाजिक विषयों पर खुलकर विचार किए। वे वैष्णव, सूफी, और निर्गुणपंथ के तत्त्वों का संमिलन करते थे और भगवान के रूप के स्वरूप को अद्वितीयता में मानते थे।
कबीर दास के द्वारा प्रस्तुत किए गए मुख्य संदेश क्या थे?
कबीर दास के मुख्य संदेश में आत्मा के महत्व, सच्चे भक्ति का मार्ग, समाजिक न्याय, और धार्मिक अंतरात्मा की महत्वपूर्णता शामिल थी। उन्होंने ब्राह्मणों और मुल्लों के धार्मिक प्रथाओं के खिलाफ उठाव किया और व्यक्तिगत आत्मा के साथ भगवान का दृष्टिकोण बढ़ाया।
कबीर दास के काव्य का क्या महत्व है और उनका साहित्य किस प्रकार का है?
कबीर दास के काव्य का महत्व भाषा, संगीत, और धार्मिक सन्देश के संगम में है। उनके काव्य अद्वितीय रूप से भक्ति और आत्मिकता के मार्ग को व्यक्त करते हैं और वे भारतीय साहित्य के महत्वपूर्ण हिस्से में शामिल हैं।
kuchh Kabir das ke dohe vahut hi achhe the
Mujhe ye kabir das ki kavita padakar achha laga
सबसे बेहतरीन दोहे , पढ़कर अच्छा लगा धन्यवाद।