अति का भला न बोलना अति की भली न चूप – कबीरदास का दोहा

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप। अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप॥ - जानिए अर्थ एवं भावार्थ, व्याख्या और सार, संदेश एवं शिक्षा।

Ati Ka Bhala Na Bolna Ati Ki Bhali Na Chup - Kabir Ke Dohe

कबीरदास का दोहा: अति का भला न बोलना अति की भली न चूप

अति का भला न बोलना – प्रस्तुत दोहा कबीरदास द्वारा रचित है। कबीरदास का जन्म 15वीं शताब्दी में काशी में हुआ था। कबीर जी भक्तिकाल की ‘निर्गुण भक्तिकाव्य शाखा‘ की संत काव्य धारा के प्रमुख कवि थे। कबीर की रचनाएं साखी, सबद, और रमैनी में संकलित हैं।

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप॥

अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि ज्यादा बोलना अच्छा नहीं है और ना ही ज्यादा चुप रहना भी अच्छा है जैसे ज्यादा बारिश अच्छी नहीं होती लेकिन बहुत ज्यादा धूप भी अच्छी नहीं है।

व्याख्या: कबीरदास जी इस दोहे में संतुलन की महत्ता पर जोर देते हैं। वे समझाते हैं कि इंसान को न तो बहुत अधिक बोलना चाहिए और न ही पूरी तरह चुप रहना चाहिए। बहुत ज्यादा बोलना व्यक्ति को नकारात्मक बना सकता है, क्योंकि लगातार बोलने से बातों का असर कम हो जाता है और लोगों पर इसका गलत प्रभाव भी पड़ सकता है। दूसरी ओर, बहुत अधिक चुप रहना भी उचित नहीं है, क्योंकि इससे लोगों के साथ संवाद और समझ का अभाव हो सकता है।

संदेश एवं सार: कबीर जी इस विचार को प्राकृतिक उदाहरणों के साथ समझाते हैं। वे कहते हैं कि जैसे बहुत ज्यादा बारिश से फसलें बर्बाद हो जाती हैं, वैसे ही बहुत ज्यादा बोलना नुकसानदायक हो सकता है। इसी तरह, अत्यधिक धूप भी अच्छी नहीं होती, क्योंकि इससे पौधों को नुकसान पहुँचता है। कबीर जी का यह संदेश है कि हर चीज में संतुलन बनाए रखना जरूरी है, चाहे वह बोलना हो, रहन-सहन हो, या व्यवहार।

कबीर के दोहे:

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