कबीरदास का दोहा: माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय
माटी कहे कुमार से – प्रस्तुत दोहा कबीरदास द्वारा रचित है। कबीरदास का जन्म 15वीं शताब्दी में काशी में हुआ था। कबीर जी भक्तिकाल की ‘निर्गुण भक्तिकाव्य शाखा‘ की संत काव्य धारा के प्रमुख कवि थे। कबीर की रचनाएं साखी, सबद, और रमैनी में संकलित हैं।
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥
अर्थ: इन पंक्तियों में कवि कबीर दास विचार कर रहे हैं कि कुम्हार जो बर्तन बनाता है तब मिट्टी को रोदता है उस समय मिट्टी सोचती है कि ये अभी मुझे रौंद रहे हैं, एक दिन ऐसा आएगा जब आप इसी मिट्टी में विलीन हो जाओगे और मैं आपको रौदूंगी।
व्याख्या: कबीर कहते हैं कि मिट्टी कुम्हार से कहती है, “तू आज मुझे रौंद रहा है, मुझे आकार दे रहा है, लेकिन एक दिन ऐसा भी आएगा जब मैं तुझे रौंदूंगी।” इस संवाद में मिट्टी प्रतीक है प्रकृति और समय का, जबकि कुम्हार इंसान के अहंकार और शक्ति का प्रतीक है।
इसका अर्थ यह है कि मनुष्य चाहे जितना शक्तिशाली हो या किसी भी प्रकार से खुद को महान समझे, परंतु एक दिन उसे भी मृत्यु का सामना करना पड़ेगा और वह भी मिट्टी में मिल जाएगा।
संदेश एवं सार: इस दोहे में कबीरदास जी जीवन के क्षणभंगुर स्वभाव और समय के चक्र को बहुत ही सरल और गहन तरीके से समझाते हैं। यहाँ मिट्टी और कुम्हार के संवाद के माध्यम से वे यह बताना चाहते हैं कि जो आज शक्तिशाली है, कल वह भी उसी समय के चक्र में पिस जाएगा।
जीवन में कभी भी अहंकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि समय के साथ हर चीज़ का अंत निश्चित है। यह दोहा हमें विनम्रता और सादगी का संदेश देता है और याद दिलाता है कि हम सभी का अंत एक ही है — सभी को एक दिन मिट्टी में मिलना है।
- ऐसी वाणी बोलिए
- काल करे सो आज कर
- गुरु गोविंद दोऊ खड़े
- चलती चक्की देख के
- जल में बसे कमोदनी
- जाति न पूछो साधू की
- दुःख में सुमिरन सब करे
- नहाये धोये क्या हुआ
- पाहन पूजे हरि मिलें
- बड़ा भया तो क्या भया
- बुरा जो देखन मैं चला
- मलिन आवत देख के
- माटी कहे कुम्हार से
- साधू ऐसा चाहिए
- जग में बैरी कोई नहीं
- अति का भला न बोलना