कबीरदास का दोहा: बड़ा भया तो क्या भया जैसे पेड़ खजूर
बड़ा भया तो क्या भया – प्रस्तुत दोहा कबीरदास द्वारा रचित है। कबीरदास का जन्म 15वीं शताब्दी में काशी में हुआ था। कबीर जी भक्तिकाल की ‘निर्गुण भक्तिकाव्य शाखा‘ की संत काव्य धारा के प्रमुख कवि थे। कबीर की रचनाएं साखी, सबद, और रमैनी में संकलित हैं।
बड़ा भया तो क्या भया जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर॥
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि खजूर का पेड़ बेशक बहुत बड़ा होता है लेकिन ना तो वो किसी को छाया देता है और फल भी बहुत दूरऊँचाई पे लगता है। इसी तरह अगर आप किसी का भला नहीं कर पा रहे तो ऐसे बड़े होने से भी कोई फायदा नहीं है।
व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास जी ने खजूर के पेड़ का उदाहरण देकर बड़े लोगों के अहंकार पर व्यंग्य किया है। वे कहते हैं कि अगर आप बड़े भी बन गए, पर आपका बड़प्पन किसी के काम नहीं आया, तो वह बड़प्पन व्यर्थ है। खजूर का पेड़ बहुत ऊँचा होता है, लेकिन उसकी ऊँचाई का कोई विशेष लाभ नहीं होता। राहगीर (पंथी) को इस पेड़ से छाया नहीं मिलती क्योंकि इसकी शाखाएँ ऊँचाई पर होती हैं और फल भी इतने ऊपर लगते हैं कि उन्हें पाना कठिन होता है। इसका मतलब है कि इस पेड़ का न तो छाया देने में उपयोग है, न ही राहगीर आसानी से इसके फलों का लाभ उठा सकते हैं।
संदेश एवं सार: कबीर का संदेश यह है कि वास्तविक बड़प्पन दूसरों के लिए उपयोगी होने में है, न कि केवल ऊँचा या शक्तिशाली दिखने में। यदि कोई व्यक्ति अपने रुतबे और पद के कारण समाज में ऊँचा है, लेकिन वह दूसरों की मदद करने में असमर्थ है, तो उसका ऊँचा होना बेकार है। वास्तव में बड़ा वही है जो दूसरों के काम आ सके और अपनी उपलब्धियों से दूसरों को लाभ पहुँचा सके।
- ऐसी वाणी बोलिए
- काल करे सो आज कर
- गुरु गोविंद दोऊ खड़े
- चलती चक्की देख के
- जल में बसे कमोदनी
- जाति न पूछो साधू की
- दुःख में सुमिरन सब करे
- नहाये धोये क्या हुआ
- पाहन पूजे हरि मिलें
- बड़ा भया तो क्या भया
- बुरा जो देखन मैं चला
- मलिन आवत देख के
- माटी कहे कुम्हार से
- साधू ऐसा चाहिए
- जग में बैरी कोई नहीं
- अति का भला न बोलना