कबीरदास का दोहा: जल में बसे कमोदनी चंदा बसे आकाश
जल में बसे कमोदनी – प्रस्तुत दोहा कबीरदास द्वारा रचित है। कबीरदास का जन्म 15वीं शताब्दी में काशी में हुआ था। कबीर जी भक्तिकाल की ‘निर्गुण भक्तिकाव्य शाखा‘ की संत काव्य धारा के प्रमुख कवि थे। कबीर की रचनाएं साखी, सबद, और रमैनी में संकलित हैं।
जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश।
जो हैं जाको भावना, सो ताहि के पास॥
अर्थ: जिस प्रकार जल में कमलिनी दूर आकाश के चंद्रमा के प्रतिबिंब को अपने समीप पाकर खिल उठती है, ठीक उसी तरह जिसकी जैसी भावना होती है वही वस्तु और विचार उसके पास होते हैं।
व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास जी इस बात को समझाते हैं कि हमारे मन की भावना और इच्छाएं ही यह तय करती हैं कि हम किसके करीब महसूस करते हैं। कबीर कहते हैं कि कमल का फूल पानी में रहता है, लेकिन उसका सच्चा आकर्षण चंद्रमा की ओर होता है। दूसरी ओर, चंद्रमा आकाश में रहता है, फिर भी उसकी छवि पानी में प्रतिबिंबित होती है। इस प्रकार, भले ही दोनों के बीच दूरी हो, उनके बीच का संबंध भावनात्मक है। यह भावनाएं ही हैं जो किसी को किसी के निकट ले आती हैं।
संदेश एवं सार: कबीरदास का यह संदेश है कि सच्चा संबंध शारीरिक निकटता से नहीं बल्कि मन की भावना से होता है। जैसे कमल और चंद्रमा दूर होने के बावजूद भावनात्मक रूप से एक-दूसरे से जुड़े हैं, वैसे ही व्यक्ति अपने मन की भावना के अनुसार किसी के प्रति आकर्षित हो सकता है। इसका अर्थ यह है कि जो हमारे दिल में बसा होता है, जो हमारी भावना में होता है, वही हमें करीब महसूस होता है, भले ही वह वास्तव में हमारे पास न हो।
- ऐसी वाणी बोलिए
- काल करे सो आज कर
- गुरु गोविंद दोऊ खड़े
- चलती चक्की देख के
- जल में बसे कमोदनी
- जाति न पूछो साधू की
- दुःख में सुमिरन सब करे
- नहाये धोये क्या हुआ
- पाहन पूजे हरि मिलें
- बड़ा भया तो क्या भया
- बुरा जो देखन मैं चला
- मलिन आवत देख के
- माटी कहे कुम्हार से
- साधू ऐसा चाहिए
- जग में बैरी कोई नहीं
- अति का भला न बोलना