कबीरदास का दोहा: नहाये धोये क्या हुआ जो मन मैल न जाए
नहाये धोये क्या हुआ – प्रस्तुत दोहा कबीरदास द्वारा रचित है। कबीरदास का जन्म 15वीं शताब्दी में काशी में हुआ था। कबीर जी भक्तिकाल की ‘निर्गुण भक्तिकाव्य शाखा‘ की संत काव्य धारा के प्रमुख कवि थे। कबीर की रचनाएं साखी, सबद, और रमैनी में संकलित हैं।
नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए।
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि आप कितना भी नहा धो लीजिए, लेकिन अगर मन साफ़ नहीं हुआ तो उसे नहाने का क्या फायदा, जैसे मछली हमेशा पानी में रहती है लेकिन फिर भी वो साफ़ नहीं होती।
व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास जी ने सच्ची शुद्धता और पवित्रता का अर्थ समझाया है। वे कहते हैं कि केवल बाहरी सफाई का कोई मूल्य नहीं है अगर मन के भीतर की अशुद्धता नहीं हटती। चाहे कोई कितना भी स्नान कर ले, बाहर से कितना भी स्वच्छ हो जाए, अगर उसके मन में बुरे विचार, अहंकार, ईर्ष्या, और लालच जैसी अशुद्धियाँ भरी हैं, तो यह बाहरी सफाई व्यर्थ है।
इसके लिए कबीर मछली (मीन) का उदाहरण देते हैं। मछली हमेशा जल में रहती है, लेकिन फिर भी उसकी गंध नहीं जाती। उसी तरह, जो व्यक्ति बाहरी रूप से तो साफ-सुथरा दिखता है, पर भीतर से अपने विचारों और भावनाओं को शुद्ध नहीं करता, उसका बाहरी स्वच्छता का कोई मतलब नहीं है।
संदेश एवं सार: इस दोहे का सार यह है कि सच्ची पवित्रता और शुद्धता मन की होती है, न कि केवल शरीर की। इसलिए, व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने मन को साफ और निर्मल बनाए, क्योंकि केवल बाहरी सफाई से असली पवित्रता नहीं आती।
- ऐसी वाणी बोलिए
- काल करे सो आज कर
- गुरु गोविंद दोऊ खड़े
- चलती चक्की देख के
- जल में बसे कमोदनी
- जाति न पूछो साधू की
- दुःख में सुमिरन सब करे
- नहाये धोये क्या हुआ
- पाहन पूजे हरि मिलें
- बड़ा भया तो क्या भया
- बुरा जो देखन मैं चला
- मलिन आवत देख के
- माटी कहे कुम्हार से
- साधू ऐसा चाहिए
- जग में बैरी कोई नहीं
- अति का भला न बोलना