कबीर का दोहा : ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय
ऐसी वाणी बोलिए – प्रस्तुत दोहा कबीरदास द्वारा रचित है। कबीरदास का जन्म 15वीं शताब्दी में काशी में हुआ था। कबीर जी भक्तिकाल की ‘निर्गुण भक्तिकाव्य शाखा‘ की संत काव्य धारा के प्रमुख कवि थे। कबीर की रचनाएं साखी, सबद, और रमैनी में संकलित हैं।
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए॥
अर्थ: कबीर दास जी हमें यह समझाते हैं कि इंसान को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जो सुनने वाले के मन को बहुत अच्छी लगे। ऐसी भाषा दूसरे लोगों को तो सुख पहुँचाती ही है, इसके साथ खुद को भी बड़े आनंद का अनुभव होता है।
व्याख्या: कबीर दास जी इस दोहे के माध्यम से हमें शालीन और मधुर भाषा का महत्व समझाते हैं। उनका कहना है कि हमें ऐसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए जो दूसरों के दिल को छू ले और सुनने वालों को प्रसन्नता प्रदान करे। जब हम मीठी और विनम्र भाषा बोलते हैं, तो यह केवल दूसरों को ही खुशी नहीं देती, बल्कि हमें भी संतोष और आनंद का अनुभव होता है।
संदेश एवं सार: इसका अर्थ यह है कि हमारे शब्दों का प्रभाव केवल सामने वाले व्यक्ति पर नहीं, बल्कि हम पर भी पड़ता है, और अच्छी भाषा का प्रयोग हमारे संबंधों को मधुर बनाता है।
अवश्य पढ़ें : कबीर के दोहे
- ऐसी वाणी बोलिए
- काल करे सो आज कर
- गुरु गोविंद दोऊ खड़े
- चलती चक्की देख के
- जल में बसे कमोदनी
- जाति न पूछो साधू की
- दुःख में सुमिरन सब करे
- नहाये धोये क्या हुआ
- पाहन पूजे हरि मिलें
- बड़ा भया तो क्या भया
- बुरा जो देखन मैं चला
- मलिन आवत देख के
- माटी कहे कुम्हार से
- साधू ऐसा चाहिए
- जग में बैरी कोई नहीं
- अति का भला न बोलना