कबीरदास का दोहा: पत्थर पूजें हरि मिलें, तो मैं पूजूँ पहाड़
पाथर पूजे हरी मिले – प्रस्तुत दोहा कबीरदास द्वारा रचित है। कबीरदास का जन्म 15वीं शताब्दी में काशी में हुआ था। कबीर जी भक्तिकाल की ‘निर्गुण भक्तिकाव्य शाखा‘ की संत काव्य धारा के प्रमुख कवि थे। कबीर की रचनाएं साखी, सबद, और रमैनी में संकलित हैं।
पाहन पूजें हरि मिलें, तो मैं पूजूँ पहार।
याते तो चक्की भली, पीस खाय संसार॥
अर्थ: इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि यदि पत्थर पूजने से ईश्वर मिले तो मैं पहाड़ की पूजा करूँ, इससे तो अपने घर की चक्की ही अच्छी है जिससे सारा संसार आटा पीस कर खाता है।
व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास जी ने मूर्तिपूजा पर व्यंग्य करते हुए सच्ची भक्ति का संदेश दिया है। वे कहते हैं कि अगर पत्थर की मूर्ति की पूजा करने से ईश्वर मिलते हैं, तो मैं पूरे पहाड़ की पूजा क्यों न करूं, क्योंकि पहाड़ तो एक विशाल पत्थर का ढेर है। इस तरह से तो पहाड़ में सबसे ज्यादा शक्ति होनी चाहिए।
फिर वे कहते हैं कि पत्थर की मूर्ति की पूजा करने से बेहतर है कि मैं चक्की (अनाज पीसने वाली चक्की) को पूजूं, क्योंकि वह तो कम से कम अन्न पीसकर लोगों का पेट भरने का काम करती है, जिससे पूरी दुनिया लाभ उठाती है।
संदेश एवं सार: कबीर का यह दोहा हमें बताता है कि सच्ची भक्ति या ईश्वर-प्राप्ति बाहरी आडंबरों से नहीं होती, बल्कि उसका आधार सच्चे कर्म और सच्ची भावना है। वे समझाना चाहते हैं कि सिर्फ पत्थर की मूर्तियों को पूजने से कुछ हासिल नहीं होगा। असली पूजा तो वही है जो लोगों के लिए उपयोगी हो, और हमारे कर्म से दूसरों का भला हो।
- ऐसी वाणी बोलिए
- काल करे सो आज कर
- गुरु गोविंद दोऊ खड़े
- चलती चक्की देख के
- जल में बसे कमोदनी
- जाति न पूछो साधू की
- दुःख में सुमिरन सब करे
- नहाये धोये क्या हुआ
- पाहन पूजे हरि मिलें
- बड़ा भया तो क्या भया
- बुरा जो देखन मैं चला
- मलिन आवत देख के
- माटी कहे कुम्हार से
- साधू ऐसा चाहिए
- जग में बैरी कोई नहीं
- अति का भला न बोलना