कबीरदास का दोहा: दुख में सुमिरन सब करैं सुख में करै न कोय
दुःख में सुमिरन सब करे – प्रस्तुत दोहा कबीरदास द्वारा रचित है। कबीरदास का जन्म 15वीं शताब्दी में काशी में हुआ था। कबीर जी भक्तिकाल की ‘निर्गुण भक्तिकाव्य शाखा‘ की संत काव्य धारा के प्रमुख कवि थे। कबीर की रचनाएं साखी, सबद, और रमैनी में संकलित हैं।
दुःख में सुमिरन सब करैं, सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करैं, दुःख काहे को होय॥
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं की दु :ख में तो परमात्मा को सभी याद करते हैं लेकिन सुख में कोई याद नहीं करता। जो इसे सुख में याद करे तो फिर दुख हीं क्यों हो।
व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास जी समझा रहे हैं कि इंसान ज्यादातर दुख के समय ही भगवान को याद करता है, लेकिन सुख के समय में उसे भूल जाता है। कबीर कहते हैं कि जब व्यक्ति को दुख होता है, तब वह भगवान का स्मरण करता है, प्रार्थना करता है और उनसे सहायता की गुहार लगाता है। परंतु जब उसका समय अच्छा होता है, सब कुछ ठीक चल रहा होता है, तो भगवान को याद नहीं करता।
कबीरदास का कहना है कि जो व्यक्ति सुख के समय भी भगवान का स्मरण करता है और ईश्वर के प्रति अपनी भक्ति बनाए रखता है, उसके जीवन में कभी अधिक दुख नहीं आता। इसका कारण यह है कि ईश्वर पर उसकी आस्था और भक्ति हमेशा स्थिर रहती है, चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों। यह निरंतर भक्ति और विश्वास उसे हर परिस्थिति में संबल देते हैं।
संदेश एवं सार: इस दोहे में कबीर दास हमें यह सिखाते हैं कि हमें सुख और दुःख दोनों के समय में ही भगवान का स्मरण करना चाहिए। भगवान की स्मृति से हमारा मानसिक स्थिति स्थिर रहता है और हम सभी परिस्थितियों को प्राप्त करने के लिए तैयार रहते हैं।
इसका सार यह है कि हमें केवल दुख के समय ही नहीं, बल्कि सुख के समय भी भगवान को याद करना चाहिए। ऐसा करने से हम हर परिस्थिति का सामना धैर्य और शांति से कर पाते हैं और दुख हमारे जीवन में कम होते हैं।
- ऐसी वाणी बोलिए
- काल करे सो आज कर
- गुरु गोविंद दोऊ खड़े
- चलती चक्की देख के
- जल में बसे कमोदनी
- जाति न पूछो साधू की
- दुःख में सुमिरन सब करे
- नहाये धोये क्या हुआ
- पाहन पूजे हरि मिलें
- बड़ा भया तो क्या भया
- बुरा जो देखन मैं चला
- मलिन आवत देख के
- माटी कहे कुम्हार से
- साधू ऐसा चाहिए
- जग में बैरी कोई नहीं
- अति का भला न बोलना