कबीरदास का दोहा: चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोये
चलती चक्की देख के – प्रस्तुत दोहा कबीरदास द्वारा रचित है। कबीरदास का जन्म 15वीं शताब्दी में काशी में हुआ था। कबीर जी भक्तिकाल की ‘निर्गुण भक्तिकाव्य शाखा‘ की संत काव्य धारा के प्रमुख कवि थे। कबीर की रचनाएं साखी, सबद, और रमैनी में संकलित हैं।
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए॥
अर्थ: चलती चक्की को देखकर कबीर दास जी के आँसू निकल आते हैं और वो कहते हैं कि जीवन रूपी चक्की के पाटों के बीच में कुछ साबुत नहीं बचता।
व्याख्या: इस दोहे में कबीरदास जी ने चक्की के माध्यम से जीवन का एक गहरा सत्य समझाने की कोशिश की है। कबीर जी कहते हैं कि चक्की को चलते देखकर वे रो उठते हैं। चक्की के दो पाट (पत्थर) लगातार घूमते रहते हैं, और इनके बीच जो भी अनाज आता है, वह पिस जाता है; साबुत कुछ भी नहीं बचता। यह दृश्य कबीर को जीवन की कठोर सच्चाई का प्रतीक लगता है।
यह दोहा जीवन के संघर्षों और कठिनाइयों को दर्शाता है। जीवन में इंसान दो पाटों, यानी दो विरोधी परिस्थितियों, जैसे सुख-दुःख, लाभ-हानि, सफलता-असफलता के बीच में फंसा रहता है। इन विपरीत परिस्थितियों के बीच इंसान का जीवन संघर्षों में पिसता रहता है, और उसकी मासूमियत या सादगी धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है।
कबीर जी का यह दोहा हमें यह भी सिखाता है कि जीवन में विपरीत परिस्थितियों के बीच फँसकर अपनी असली पहचान खोना नहीं चाहिए। यह जीवन का स्वभाव है कि संघर्ष और कठिनाइयाँ आएँगी, लेकिन हमें इनसे लड़ते हुए अपनी सच्चाई और आत्मा को बचाए रखना चाहिए।
संदेश एवं सार: इस दोहे का संदेश यह है कि हमें कठिनाइयों से विचलित हुए बिना, अपने असली रूप को बचाते हुए जीवन के संघर्षों का सामना करना चाहिए।
- ऐसी वाणी बोलिए
- काल करे सो आज कर
- गुरु गोविंद दोऊ खड़े
- चलती चक्की देख के
- जल में बसे कमोदनी
- जाति न पूछो साधू की
- दुःख में सुमिरन सब करे
- नहाये धोये क्या हुआ
- पाहन पूजे हरि मिलें
- बड़ा भया तो क्या भया
- बुरा जो देखन मैं चला
- मलिन आवत देख के
- माटी कहे कुम्हार से
- साधू ऐसा चाहिए
- जग में बैरी कोई नहीं
- अति का भला न बोलना