वीर रस की कविताएं (Veer Ras ki Poems in Hindi) रामधारी सिंह दिनकर हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। ‘दिनकर‘ स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद ‘राष्ट्रकवि’ के नाम से जाने गये। उन्होंने सामाजिक और आर्थिक समानता और शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की। उनकी महान रचनाओं में रश्मिरथी और परशुराम की प्रतीक्षा शामिल है। उर्वशी को छोड़कर; दिनकर की अधिकतर रचनाएँ वीर रस से ओतप्रोत है। भूषण के बाद उन्हें वीर रस का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है।
वीर रस की कविताएं | Veer Ras ki Poems in Hindi
किसी रचना या वाक्य से यदि वीरता जैसे भाव का अनुभव होता है, तो उसे वीर रस कहा जाता है। वीर रस, नौ रसों में से एक प्रमुख रस है। इसका स्थाई भाव “उत्साह” है।
निम्न सुभद्रा कुमारी चौहान की वीर रस की कविता (Poem in Hindi) का उदाहरण देखिए-
बुन्देलों हरबोलो के मुह हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
इसी तरह, यह युद्ध का वर्णन भी वीर रस का द्योतक है-
बातन बातन बतबढ़ होइगै, औ बातन माँ बाढ़ी रार,
दुनहू दल मा हल्ला होइगा दुनहू खैंच लई तलवार।
पैदल के संग पैदल भिरिगे औ असवारन ते असवार,
खट-खट खट-खट टेगा बोलै, बोलै छपक-छपक तरवार॥
दिनकर के साथ-साथ अन्य कवियों की प्रसिद्ध वीर रस की कविताएं आगे दीं जा रहीं हैं-
सच है, विपत्ति जब आती है – Veer Ras Ki Kavita by Dinkar
सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।
मुख से न कभी उफ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाने को,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके वीर नर के मग में
खम ठोंक ठेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,
वर्तिका-बीच उजियाली हो।
बत्ती जो नहीं जलाता है
रोशनी नहीं वह पाता है।
पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,
झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहदी जब सहती है प्रहार,
बनती ललनाओं का सिंगार।
जब फूल पिरोये जाते हैं,
हम उनको गले लगाते हैं।
वसुधा का नेता कौन हुआ?
भूखण्ड-विजेता कौन हुआ?
अतुलित यश क्रेता कौन हुआ?
नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?
जिसने न कभी आराम किया,
विघ्नों में रहकर नाम किया।
जब विघ्न सामने आते हैं,
सोते से हमें जगाते हैं,
मन को मरोड़ते हैं पल-पल,
तन को झँझोरते हैं पल-पल।
सत्पथ की ओर लगाकर ही,
जाते हैं हमें जगाकर ही।
वाटिका और वन एक नहीं,
आराम और रण एक नहीं।
वर्षा, अंधड़, आतप अखंड,
पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।
वन में प्रसून तो खिलते हैं,
बागों में शाल न मिलते हैं।
कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर,
छाया देता केवल अम्बर,
विपदाएँ दूध पिलाती हैं,
लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।
जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,
वे ही सूरमा निकलते हैं।
बढ़कर विपत्तियों पर छा जा,
मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे,
तन को पत्थर बन जाने दे।
तू स्वयं तेज भयकारी है,
क्या कर सकती चिनगारी है?
पढ़िए: चांद या चंदा मामा पर कविता
साजि चतुरंग सैन अंग में उमंग धार – Short Veer Ras ki Kavita in Hindi
साजि चतुरंग सैन अंग में उमंग धरि
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है
भूषण भनत नाद बिहद नगारन के
नदी-नद मद गैबरन के रलत है
ऐल-फैल खैल-भैल खलक में गैल गैल
गजन की ठैल –पैल सैल उसलत है
तारा सो तरनि धूरि-धारा में लगत जिमि
थारा पर पारा पारावार यों हलत है
~ भूषण
पढ़ें:- कबीर दास के दोहे।
प्रयाण गीत- Veer Ras Kavita
हिमाद्रि तुंग़ शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारतीं।
स्वय प्रभा समुज्ज्वला स्वंतंत्रता पुक़ारती॥
अमर्त्यं वीर पुत्र हो, दृढ- प्रतिज्ञ सोंच लो।
प्रशस्त पुण्यं पंथ हैं, बढे चलों, बढे चलो॥
असंख्य कीर्तिं-रश्मियां विकीर्णं दिव्य दाह-सी।
सपूत मातृभूमिं के- रुकों न शूर साहसीं॥
अराति सैंन्य सिधु मे, सुवाड़वाग्नि से ज़लो।
प्रवीर हो ज़यी बनो – बढे चलो, बढे चलो॥
आज हिमालय की चोटी से
आज़ हिमालय क़ी चोटी से फ़िर हम ने ललकारा हैं
दूर हटों ऐ दुनियां वालो हिन्दुस्तां हमारा हैं।
जहां हमारा ताज़-महल हैं और क़ुतब़-मीनारा हैं
जहां हमारें मन्दिर मस्जि़द सिक्ख़ो का गुरुद्वारा हैं
इस धरती पर कदम ब़ढ़ाना अत्याचार तुम्हारा हैं।
शुरू हुआ हैं जंग तुम्हारा जाग़ उठों हिन्दुस्तानीं
तुम न क़िसी के आगे झुक़ना ज़र्मन हो या ज़ापानी
आज़ सभीं के लिए हमारा यहीं कौमी नारा हैं
दूर हटों ऐ दुनियां वालो हिन्दुस्तां हमारा हैं।
~ प्रदीप
पढ़िए: कबीर दास के दोहे
वीर तुम बढ़े चलो- Veer Ras ki Kavita Desh Bhakti
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
हाथ में ध्वजा रहे बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी रुके नहीं
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
प्रात हो कि रात हो संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो चन्द्र से बढ़े चलो
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
एक ध्वज लिये हुए एक प्रण किये हुए
मातृ भूमि के लिये पितृ भूमि के लिये
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
अन्न भूमि में भरा वारि भूमि में भरा
यत्न कर निकाल लो रत्न भर निकाल लो
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
~ द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
पुष्प की अभिलाषा (Pushpa Ki Abhilasha) कविता ‘युगचरण’ से
Famous Poem “Pushpa Ki Abhilasha” on Veer Ras in Hindi by Famous Poet “Makhanlal Chaturvedi”:
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ
मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ पर देना तुम फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक।
प्रताप की तलवार – Famous Veer Ras Poems in Hindi
राणा चढ चेतक़ पर तलवार उठा,
रख़ता था भूतल पानीं को।
राणा प्रताप सर क़ाट क़ाट,
क़रता था सफ़ल ज़वानी को।।
क़लकल ब़हती थी रणगंगा,
अरिदल् को डूब़ नहानें को।
तलवार वीर क़ी नाव बनीं,
चटपट उस पार लगानें को।।
बैरी दल को ललक़ार गिरी,
वह नागिन सी फुफ़कार गिरी।
था शोंर मौंत से बचों बचों,
तलवार गिरीं तलवार गिरीं।।
पैंदल, हयदल, गज़दल मे,
छप छप क़रती वह निकल गयी।
क्षण कहां गयी कुछ पता न फ़िर,
देख़ो चम-चम वह निक़ल गयी।।
क्षण ईधर गई क्षण ऊधर गयी,
क्षण चढी बाढ सी उतर गयी।
था प्रलय चमक़ती जिधर गयी,
क्षण शोर हो ग़या क़िधर गयी।।
लहराती थी सर क़ाट क़ाट,
बलख़ाती थी भू पाट पाट।
बिख़राती अव्यव बांट बांट,
तनती थीं लहू चाट चाट।।
क्षण भींषण हलचल मचा मचा,
राणा क़र की तलवार बढी।
था शोर रक्त पीनें को यह,
रण-चन्डी जीभ़ पसार बढी।।
~ श्यामनारायण पाण्डेय
पढ़ें:- चेतक की वीरता।
कायर मत बन- Veer Ras ki Kavita in Hindi
कुछ भी बन बस कायर मत बन,
ठोकर मार पटक मत माथा तेरी राह रोकते पाहन।
कुछ भी बन बस कायर मत बन।
युद्ध देही कहे जब पामर,
दे न दुहाई पीठ फेर कर
या तो जीत प्रीति के बल पर
या तेरा पथ चूमे तस्कर
प्रति हिंसा भी दुर्बलता है
पर कायरता अधिक अपावन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।
ले-दे कर जीना क्या जीना
कब तक गम के आँसू पीना
मानवता ने सींचा तुझ को
बहा युगों तक खून-पसीना
कुछ न करेगा किया करेगा
रे मनुष्य बस कातर क्रंदन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।
तेरी रक्षा का ना मोल है
पर तेरा मानव अमोल है
यह मिटता है वह बनता है
यही सत्य कि सही तोल है
अर्पण कर सर्वस्व मनुज को
न कर दुष्ट को आत्मसमर्पण
कुछ भी बन बस कायर मत बन।
~ नरेन्द्र शर्मा
जानिए: Wonders of the World in Hindi
उठो धरा के अमर सपूतो – Poem in Hindi on Veer Ras
उठो धरा के अमर सपूतो
पुनः नया निर्माण करो।
जन-जन के जीवन में फिर से
नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो।
नया प्रात है, नई बात है,
नई किरण है, ज्योति नई।
नई उमंगें, नई तरंगे,
नई आस है, साँस नई।
युग-युग के मुरझे सुमनों में,
नई-नई मुसकान भरो।
डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ
नए स्वरों में गाते हैं।
गुन-गुन-गुन-गुन करते भौंरे
मस्त हुए मँडराते हैं।
नवयुग की नूतन वीणा में
नया राग, नवगान भरो।
कली-कली खिल रही इधर
वह फूल-फूल मुस्काया है।
धरती माँ की आज हो रही
नई सुनहरी काया है।
नूतन मंगलमय ध्वनियों से
गुंजित जग-उद्यान करो।
सरस्वती का पावन मंदिर
यह संपत्ति तुम्हारी है।
तुम में से हर बालक इसका
रक्षक और पुजारी है।
शत-शत दीपक जला ज्ञान के
नवयुग का आह्वान करो।
उठो धरा के अमर सपूतो,
पुनः नया निर्माण करो।
~ द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
मेरे देश के लाल – Veer Ras ki Kavita
Best Veer Ras Poem in Hindi on 15 August:
पराधीनता को जहाँ समझा श्राप महान
कण-कण के खातिर जहाँ हुए कोटि बलिदान
मरना पर झुकना नहीं, मिला जिसे वरदान
सुनो-सुनो उस देश की शूर-वीर संतान
आन-मान अभिमान की धरती पैदा करती दीवाने
मेरे देश के लाल हठीले शीश झुकाना क्या जाने।
दूध-दही की नदियां जिसके आँचल में कलकल करतीं
हीरा, पन्ना, माणिक से है पटी जहां की शुभ धरती
हल की नोंकें जिस धरती की मोती से मांगें भरतीं
उच्च हिमालय के शिखरों पर जिसकी ऊँची ध्वजा फहरती
रखवाले ऐसी धरती के हाथ बढ़ाना क्या जाने
मेरे देश के लाल हठीले शीश झुकाना क्या जाने।
आज़ादी अधिकार सभी का जहाँ बोलते सेनानी
विश्व शांति के गीत सुनाती जहाँ चुनरिया ये धानी
मेघ साँवले बरसाते हैं जहाँ अहिंसा का पानी
अपनी मांगें पोंछ डालती हंसते-हंसते कल्याणी
ऐसी भारत माँ के बेटे मान गँवाना क्या जाने
मेरे देश के लाल हठीले शीश झुकाना क्या जाने।
जहाँ पढाया जाता केवल माँ की ख़ातिर मर जाना
जहाँ सिखाया जाता केवल करके अपना वचन निभाना
जियो शान से मरो शान से जहाँ का है कौमी गाना
बच्चा-बच्चा पहने रहता जहाँ शहीदों का बाना
उस धरती के अमर सिपाही पीठ दिखाना क्या जाने
मेरे देश के लाल हठीले शीश झुकाना क्या जाने।
~ बालकवि बैरागी
कुछ भी बन बस कायर मत बन – A Poem on Veer Ras in Hindi
कुछ भी बन बस कायर मत बन,
ठोकर मार पटक मत माथा तेरी राह रोकते पाहन।
कुछ भी बन बस कायर मत बन।
युद्ध देही कहे जब पामर,
दे न दुहाई पीठ फेर कर
या तो जीत प्रीति के बल पर
या तेरा पथ चूमे तस्कर
प्रति हिंसा भी दुर्बलता है
पर कायरता अधिक अपावन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।
ले-दे कर जीना क्या जीना
कब तक गम के आँसू पीना
मानवता ने सींचा तुझ को
बहा युगों तक खून-पसीना
कुछ न करेगा किया करेगा
रे मनुष्य बस कातर क्रंदन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।
तेरी रक्षा का ना मोल है
पर तेरा मानव अमोल है
यह मिटता है वह बनता है
यही सत्य कि सही तोल है
अर्पण कर सर्वस्व मनुज को
न कर दुष्ट को आत्मसमर्पण
कुछ भी बन बस कायर मत बन।
~ नरेन्द्र शर्मा
विप्लव गायन – वीर रस की कविता
कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ,
जिससे उथल-पुथल मच जाए,
एक हिलोर इधर से आए,
एक हिलोर उधर से आए,
प्राणों के लाले पड़ जाएँ,
त्राहि-त्राहि रव नभ में छाए,
नाश और सत्यानाशों का –
धुँआधार जग में छा जाए,
बरसे आग, जलद जल जाएँ,
भस्मसात भूधर हो जाएँ,
पाप-पुण्य सद्सद भावों की,
धूल उड़ उठे दायें-बायें,
नभ का वक्षस्थल फट जाए-
तारे टूक-टूक हो जाएँ
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ,
जिससे उथल-पुथल मच जाए।
माता की छाती का अमृत-
मय पय काल-कूट हो जाए,
आँखों का पानी सूखे,
वे शोणित की घूँटें हो जाएँ,
एक ओर कायरता काँपे,
गतानुगति विगलित हो जाए,
अंधे मूढ़ विचारों की वह
अचल शिला विचलित हो जाए,
और दूसरी ओर कंपा देने
वाला गर्जन उठ धाए,
अंतरिक्ष में एक उसी नाशक
तर्जन की ध्वनि मंडराए,
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ,
जिससे उथल-पुथल मच जाए,
नियम और उपनियमों के ये
बंधक टूक-टूक हो जाएँ,
विश्वंभर की पोषक वीणा
के सब तार मूक हो जाएँ
शांति-दंड टूटे उस महा-
रुद्र का सिंहासन थर्राए
उसकी श्वासोच्छ्वास-दाहिका,
विश्व के प्रांगण में घहराए,
नाश! नाश!! हा महानाश!!! की
प्रलयंकारी आँख खुल जाए,
कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ
जिससे उथल-पुथल मच जाए।
सावधान! मेरी वीणा में,
चिनगारियाँ आन बैठी हैं,
टूटी हैं मिजराबें, अंगुलियाँ
दोनों मेरी ऐंठी हैं।
कंठ रुका है महानाश का
मारक गीत रुद्ध होता है,
आग लगेगी क्षण में, हृत्तल
में अब क्षुब्ध युद्ध होता है,
झाड़ और झंखाड़ दग्ध हैं –
इस ज्वलंत गायन के स्वर से
रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान है
निकली मेरे अंतरतर से!
कण-कण में है व्याप्त वही स्वर
रोम-रोम गाता है वह ध्वनि,
वही तान गाती रहती है,
कालकूट फणि की चिंतामणि,
जीवन-ज्योति लुप्त है – अहा!
सुप्त है संरक्षण की घड़ियाँ,
लटक रही हैं प्रतिपल में इस
नाशक संभक्षण की लड़ियाँ।
चकनाचूर करो जग को, गूँजे
ब्रह्मांड नाश के स्वर से,
रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान है
निकली मेरे अंतरतर से!
दिल को मसल-मसल मैं मेंहदी
रचता आया हूँ यह देखो,
एक-एक अंगुल परिचालन
में नाशक तांडव को देखो!
विश्वमूर्ति! हट जाओ!! मेरा
भीम प्रहार सहे न सहेगा,
टुकड़े-टुकड़े हो जाओगी,
नाशमात्र अवशेष रहेगा,
आज देख आया हूँ – जीवन
के सब राज़ समझ आया हूँ,
भ्रू-विलास में महानाश के
पोषक सूत्र परख आया हूँ,
जीवन गीत भूला दो – कंठ,
मिला दो मृत्यु गीत के स्वर से
रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान है,
निकली मेरे अंतरतर से!
~ बाल कृष्ण शर्मा “नवीन”
आज़ादी के परवानो की – Best Hindi Poem on Veer Ras
हमको क़ब बाधाए रोक सकी हैं
हम आजादी के परवानों की
न तूफां भी रोक सका
हम लड कर जीनें वालों को
हम गिरेगे, फ़िर उठ कर लड़ेगे
जख्मो को खाये सीने पर
क़ब दीवारें भी रोक सकीं हैं
शमा मे ज़लने वाले परवानों को
गौर जरा से सुन लें दुश्मन
परिवर्तंन एक दिन हम लाएगे
ये हमलें, थप्पड जूतो से
हमको पथ सें न भटक़ा पायेगे
ये ओछीं, छोटी हरक़त करके
हमारी हिम्मत तुम और बढाते हो
विनाश कालें विपरीत बुद्धि
कहावत तुम चरितार्थं कर ज़ाते हो
ज़ब लहर उठेंगी जनता मे
तुम लोग कभीं न बच पाओंगे
देख रूप रौंद्र तुम ज़नता का
तुम भ्रष्ट सब़ नतमस्तक़ हो जाओंगे।।
~ रवि भद्र ‘रवि’
चेतना- Veer Ras Kavita
अरे भारत! उठ, आँखें खोल,
उड़कर यंत्रों से, खगोल में घूम रहा भूगोल!
अवसर तेरे लिए खड़ा है,
फिर भी तू चुपचाप पड़ा है।
तेरा कर्मक्षेत्र बड़ा है,
पल पल है अनमोल।
अरे भारत! उठ, आँखें खोल॥
बहुत हुआ अब क्या होना है,
रहा सहा भी क्या खोना है?
तेरी मिट्टी में सोना है,
तू अपने को तोल।
अरे भारत! उठ, आँखें खोल॥
दिखला कर भी अपनी माया,
अब तक जो न जगत ने पाया;
देकर वही भाव मन भाया,
जीवन की जय बोल।
अरे भारत! उठ, आँखें खोल॥
तेरी ऐसी वसुन्धरा है-
जिस पर स्वयं स्वर्ग उतरा है।
अब भी भावुक भाव भरा है,
उठे कर्म-कल्लोल।
अरे भारत! उठ, आँखें खोल॥
~ मैथिली शरण गुप्त
अर्जुन की प्रतिज्ञा- Veer Ras ki Kavita in Hindi
उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उसका लगा,
मानों हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा ।
मुख-बाल-रवि-सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ,
प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ ?
युग-नेत्र उनके जो अभी थे पूर्ण जल की धार-से,
अब रोश के मारे हुए, वे दहकते अंगार-से ।
निश्चय अरुणिमा-मिस अनल की जल उठी वह ज्वाल ही,
तब तो दृगों का जल गया शोकाश्रु जल तत्काल ही ।
साक्षी रहे संसार करता हूँ प्रतिज्ञा पार्थ मैं,
पूरा करूँगा कार्य सब कथानुसार यथार्थ मैं ।
जो एक बालक को कपट से मार हँसते हैँ अभी,
वे शत्रु सत्वर शोक-सागर-मग्न दीखेंगे सभी ।
अभिमन्यु-धन के निधन से कारण हुआ जो मूल है,
इससे हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है,
उस खल जयद्रथ को जगत में मृत्यु ही अब सार है,
उन्मुक्त बस उसके लिये रौख नरक का द्वार है ।
उपयुक्त उस खल को न यद्यपि मृत्यु का भी दंड है,
पर मृत्यु से बढ़कर न जग में दण्ड और प्रचंड है ।
अतएव कल उस नीच को रण-मघ्य जो मारूँ न मैं,
तो सत्य कहता हूँ कभी शस्त्रास्त्र फिर धारूँ न मैं ।
अथवा अधिक कहना वृथा है, पार्थ का प्रण है यही,
साक्षी रहे सुन ये बचन रवि, शशि, अनल, अंबर, मही ।
सूर्यास्त से पहले न जो मैं कल जयद्रथ-वधकरूँ,
तो शपथ करता हूँ स्वयं मैं ही अनल में जल मरूँ ।
~ मैथिली शरण गुप्त
मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं – Best Poem on Veer Ras in Hindi
मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूँ
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो
हैं फूल रोकते, काटें मुझे चलाते
मरुस्थल, पहाड़ चलने की चाह बढ़ाते
सच कहता हूँ जब मुश्किलें ना होती हैं
मेरे पग तब चलने में भी शर्माते
मेरे संग चलने लगें हवायें जिससे
तुम पथ के कण-कण को तूफ़ान करो
मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूँ
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो
अंगार अधर पे धर मैं मुस्काया हूँ
मैं मरघट से ज़िन्दगी बुला के लाया हूँ
हूँ आँख-मिचौनी खेल चला किस्मत से
सौ बार मृत्यु के गले चूम आया हूँ
है नहीं स्वीकार दया अपनी भी..
तुम मत मुझ पर कोई एहसान करो
मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूँ
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो
श्रम के जल से राह सदा सिंचती है
गति की मशाल आंधी मैं ही हँसती है
शोलों से ही शृंगार पथिक का होता है
मंज़िल की मांग लहू से ही सजती है
पग में गति आती है, छाले छिलने से
तुम पग-पग पर जलती चट्टान धरो
मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूँ
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो
फूलों से जग आसान नहीं होता है
रुकने से पग गतिवान नहीं होता है
अवरोध नहीं तो संभव नहीं प्रगति भी
है नाश जहाँ निर्माण वहीं होता है
मैं बसा सकूं नव-स्वर्ग धरा पर जिससे
तुम मेरी हर बस्ती वीरान करो
मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूँ
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो
मैं पंथी तूफ़ानों में राह बनाता
मेरा दुनिया से केवल इतना नाता
वह मुझे रोकती है अवरोध बिछाकर
मैं ठोकर उसे लगा कर बढ़ता जाता
मैं ठुकरा सकूँ तुम्हें भी हँसकर जिससे
तुम मेरा मन-मानस पाषाण करो
मैं तूफ़ानों में चलने का आदी हूँ
तुम मत मेरी मंज़िल आसान करो
~ गोपालदास ‘नीरज
कृष्ण की चेतावनी – Famous Veer Ras Poem
वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।
मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।
‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!
दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।
‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।
‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?
‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।
‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!
~ रामधारी सिंह “दिनकर”
लो आज बज उठी रणभेरी – Best Veer Ras Poem in Hindi
माँ कब़ से ख़डी पुकार रहीं
पुत्रों निज़ कर मे शस्त्र गहों
सेनापति की आवाज हुई
तैंयार रहो, तैंयार रहो
आओं तुम भी दो आज़ विदा
अब क्या अडचन क्या देंरी
लो आज़ बज उठीं रणभेरी।
पैतीस क़ोटि लड़के बच्चें
ज़िसके बल पर ललक़ार रहे
वह पराधीन बिन निज़ गृह मे
परदेशी की दुत्कार सहें
कह दो अब हमक़ो सहन नही
मेरी माँ कहलाए चेरी।
लो आज़ बज उठीं रणभेरी।
ज़ो दूध-दूध कह तडप गए
दानें दानें को तरस मरे
लाठियां-गोलियां जो खायी
वे घाव अभीं तक बनें हरे
उन सबक़ा बदला लेनें को
अब बाहे फडक रही मेरी
लो आज़ बज़ उठी रणभेरी।
अब बढे चलों, अब बढे चलो
निर्भंय हो ज़ग के गान क़रो
सदियो में अवसर आया हैं
बलिदानी, अब बलिदान करों
फिर माँ का दूध उमड आया
बहने देती मंगल-फ़ेरी।
लो आज़ बज उठी रणभेरी।
ज़लने दो जौंहर की ज्वाला
अब पहनों केसरिया बाना
आपस का क़लह-डाह छोडो
तुमक़ो शहीद बनने ज़ाना
जो बिना विज़य वापस आए
माँ आज़ शपथ उसक़ो तेरी।
लो आज़ बज उठीं रणभेरी।
~ शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
विजयी के सदृश- veer ras kavita
वैंंराग्य छोड बाँहो की विभा सम्भालो
चट्टानो की छाती से दूध निक़ालो
हैं रुकी जहां भी धार शिलाये तोडो
पियूष चन्द्रमाओ का पकड निचोडो
चढ तुंग शैंल शिखरो पर सोम पियों रे
योगियो नही विज़यी के सदृश जियों रे!
जब क़ुपित काल धीरता त्याग ज़लता हैं
चिनगी बन फूलो का पराग ज़लता हैं
सौन्दर्यं बोध बन नई आग ज़लता हैं
ऊंचा उठक़र कामार्त्त राग ज़लता हैं
अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध क़रो रे
गरज़े कृशानु तब कंचन शुद्ध क़रो रे!
ज़िनकी बाँहे बलमई ललाट अरुण हैं
भामिनी वहीं तरुणी नर वहीं तरुण हैं
हैं वही प्रेम ज़िसकी तरंग उच्छल हैं
वारुणी धार मे मिश्रित जहां गरल हैं
उद्दाम प्रीति ब़लिदान बीज़ बोती हैं
तलवार प्रेम से और तेज़ होती हैं!
छोडो मत अपनी आन, शीस क़ट जाए
मत झुक़ो अनय पर भलें व्योम फ़ट जाए
दो बार नही यमराज़ कण्ठ धरता हैं
मरता हैं जो एक़ ही बार मरता हैं
तुम स्वयं मृत्यु के मुख़ पर चरण धरों रे
ज़ीना हो तो मरनें से नही डरो रे!
स्वातत्र्य ज़ाति की लग्न व्यक्ति की धून हैं
बाहरी वस्तु यह नही भीतरी गुण हैं
वीरत्व छोड पर क़ा मत चरण गहों रे
जो पडे आन ख़ुद ही सब आग सहों रे!
ज़ब कभीं अहम पर नियति चोट देती हैं
कुछ चीज अहम से बडी ज़न्म लेती हैं
नर पर ज़ब भी भीषण विपत्ति आती हैं
वह उसे और दुर्धुंर्ष बना ज़ाती हैं
चोटे ख़ाकर बिफ़रो, कुछ अधिक तनों रे
धधको स्फ़ुलिंग मे बढ अंगार बनों रे!
उद्देश्य ज़न्म का नही कीर्ति या धन हैं
सुख़ नही धर्मं भी नही, न तो दर्शन हैं
विज्ञान ज्ञान बल नही, न तो चिन्तन हैं
जीवन का अन्तिम ध्येय स्वय ज़ीवन हैं
सबसे स्वतन्त्र रस जो भी अनघ पीएगा
पूरा ज़ीवन क़ेवल वह वीर जीएगा!
~ दिनकर
कलम, आज उनकी जय बोल
ज़ो अगणित लघु दीप हमारें,
तूफानो में एक़ किनारे,
ज़ल-जलाकर बुझ़ गये किसी दिन,
मागा नही स्नेह मुह ख़ोल।
कलम, आज़ उनकी ज़य बोल।
पीक़र ज़िनकी लाल शिख़ाएं,
उगल रहीं सौ लपट दिशाये,
ज़िनके सिंहनाद से सहमीं,
धरती रहीं अभी तक डोल।
क़लम, आज़ उनकी ज़य बोल।
अन्धा चकाचौध का मारा,
क्या ज़ाने इतिहास बेचारा,
साख़ी है उनक़ी महिमा के,
सूर्यं, चन्द्र, भूगोल, ख़गोल।
कलम, आज़ उनकी ज़य बोल।
~ रामधारी सिंह ‘दिनकर’
समर शेष है- वीर रस की कविता
ढ़ीली करो धनुष़ की डोरी,
तरक़स का कस ख़ोलो ,
किसनें कहा, युद्ध की बेला चली गई,
शान्ति से बोलों?
किसनें कहा, और मत बेधों
हृदय वह्रि के शर सें,
भरो भुवन का अंग कुंकु़म से,
कुसुम सें, केसर सेंं?
कुंकुम? लेपू किसें? सुनाऊ
किसकों कोमल गान?
तडप रहा आँखो के आगे भूख़ा हिन्दुस्तां।
फ़ूलों के रंगीं लहर पर
ओं उतरनेवालें!
ओ रेशमी नगर कें वासी!
ओ छवि के मतवालें!
सकल देश मे हलाहल हैं,
दिल्ली मे हाला हैं,
दिल्ली मे रोशनी,
शेष भारत मे अन्धियाला हैं।
मख़मल के पर्दो के बाहर,
फूलो के उस पार,
ज्यो का त्यो हैं खडा,
आज़ भी मरघट-सा संसार।
वह संसार ज़हाँ तक पहुंची
अब तक नही किरण हैं
ज़हाँ क्षितिज हैं शून्य,
अभी तक अम्बर तिमिर वरण हैं
देख ज़हाँ का दृश्य आज़ भी
अन्त:स्थल हिलता हैं
माँ को लज्ज़ा
वसन और शीशु को न क्षींर मिलता हैं
पूज़ रहा हैं जहाँ चकित हो
ज़न-ज़न देख़ अकाज
सात वर्षं हो गए राह मे,
अटका कहा स्वराज़?
अटका कहां स्वराज?
बोल दिल्लीं! तू क्या कहती हैं?
तू रानी बन गई वेदना ज़नता क्यो सहती हैं?
सबकें भाग्य दबा रख़े है किसनें अपने कर मे?
उतरी थी ज़ो विभा, हुईं बन्दिनी बता क़िस घर मे
समर शेष हैं, यह प्रकाश बन्दीगृह से छूटेंगा
और नही तो तुझ़ पर पापिनी! महावज्र टूटेंगा
समर शेष हैं, उस स्वराज़ को सत्य ब़नाना होगा
ज़िसका हैं ये न्यास उसें संत्वर पहुचाना होगा
धारा के मग मे अनेक़ जो पर्वंत ख़डे हुए है
गंगा का पथ रोक़ इन्द्र के गज़ जो अडे हुए है
कह दों उनसे झ़ुके अग़र तो ज़ग मे यश पायेगे
अडे रहे गर तो एरावत पत्तो से बह जाएगे
समर शेंष हैं, ज़नगंगा को ख़ुल कर लहरानें दो
शिख़रो को डूबनें और मुकुटों को बह ज़ाने दो
पथरीली ऊंची ज़मीं हैं? तो उसको तोड़ेगे
समतल पीटें बिना समर की भूमि नही छोड़ेगे
समर शेष हैं, चलों ज्योतियो के बरसातें तीर
खंड-खंड हो गिरें विषमता की काली ज़ंजीर
समर शेष हैं, अभी मनुज़ भक्षी हुंक़ार रहे है
गांधी का पी रुधिर ज़वाहर पर फ़ुकार रहे है
समर शेष हैं, अहंकार इनक़ा हरना बाकी हैं
वृक को दन्तहीन, अहि को निर्विंष करना बाक़ी हैं
समर शेष हैं, शपथ धर्मं की लाना हैं वह काल
विचरे अभय देश मे गांधी और ज़वाहर लाल
तिमिर पुत्र ये दस्युं कही कोई दुष्क़ाण्ड रचे ना
सावधान! हो खडी देश भर मे गांधी की सेना
ब़लि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधों रे
मन्दिर औं’ मस्जि़द दोनो पर एक तार बाधो रे
समर शेष हैं, नही पाप का भाग़ी केवल व्याध
ज़ो तटस्थ है, समय लिख़ेगा उनके भी अपराध
~ रामधारी सिंह ‘दिनकर’
इस प्रकार, हमने “वीर रस की कविताएं | Veer Ras Poems in Hindi” के रूप में वे कविताएं जुटाई हैं, जिनमें “वीर रस” का भाव प्रकट होता है। “वीर रस” हमारे अंदर नई ऊर्जा और उत्साह को जगाता है, जिससे हम अपने देश के प्रति अपना प्यार प्रकट कर सकते हैं। आने वाले समय में भी हम “वीर रस” को समझ सकते हैं और उसकी सराहना कर सकते हैं। हिंदी साहित्य में, “वीर रस” को विशेष महत्व दिया गया है, जहां इसके माध्यम से भावनाओं को व्यक्त किया जाता है और देश के निवासियों के भीतर देशभक्ति का भाव जागरूक किया जाता है।
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