प्रयोगवाद
प्रयोगवाद (1943 ई० से…) : यों तो प्रयोग हरेक युग में होते आये हैं किन्तु ‘प्रयोगवाद’ नाम कविताओं के लिए रूढ़ हो गया है जो कुछ नये बोधों, संवेदनाओं तथा उन्हें प्रेषित करनेवाले शिल्पगत चमत्कारों को लेकर शुरू-शुरू में ‘तार सप्तक‘ के माध्यम से वर्ष 1943 ई० में प्रकाशन जगत में आई और जो प्रगतिशील कविताओं के साथ विकसित होती गयी तथा जिनका पर्यावसान ‘नयी कविता‘ में हो गया।
काव्य में अनेक प्रकार के नए-नए कलात्मक प्रयोग किये गए इसीलिए इस कविता को प्रयोगवादी कविता कहा गया प्रयोगवादी काव्य में शैलीगत तथा व्यंजनागत नवीन प्रयोगों की प्रधानता होती है।
डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त के शब्दों में – “नयी कविता,नए समाज के नए मानव की नयी वत्तियों की नयी अभिव्यक्ति नयी शब्दावली में हैं,जो नए पाठकों के नए दिमाग पर नए ढंग से नया प्रभाव उत्पन्न करती हैं।”
जन्म
प्रयोगवाद का जन्म ‘छायावाद‘ और ‘प्रगतिवाद‘ की रुढ़ियों की प्रतिक्रिया में हुआ। डॉ. नगेन्द्र प्रयोगवाद के उदय के विषय में लिखते हैं ‘भाव क्षेत्र में छायावाद की अतिन्द्रियता और वायवी सौंदर्य चेतना के विरुद्ध एक वस्तुगत, मूर्त और ऐन्द्रिय चेतना का विकास हुआ और सौंदर्य की परिधि में केवल मसृण और मधुर के अतिरिक्त पुरुष, अनगढ़, भदेश आदि का समावेश हुआ।’
छायावादी कविता में वैयक्तिकता तो थी, किंतु उस वैयक्तिकता में उदात्त भावना थी। इसके विपरीत्त प्रगतिवाद में यथार्थ का चित्रण तो था, किंतु उसका प्रतिपाद्य विषय पूर्णत: सामाजिक समस्याओं पर आधारित था और उसमें राजनीति की बू थी।
“अत: इन दोनों की प्रतिक्रिया स्वरूप प्रयोगवाद का उद्भव हुआ, जो ‘घोर अहंमवादी’, ‘वैयक्तिकता’ एवं ‘नग्न-यथार्थवाद’ को लेकर चला।”
श्री लक्ष्मी कांत वर्मा के शब्दों में, ‘प्रथम तो छायावाद ने अपने शब्दाडम्बर में बहुत से शब्दों और बिम्बों के गतिशील तत्त्वों को नष्ट कर दिया था। दूसरे, प्रगतिवाद ने सामाजिकता के नाम पर विभिन्न भाव-स्तरों एवं शब्द-संस्कार को अभिधात्मक बना दिया था।
ऐसी स्थिति में नए भाव-बोध को व्यक्त करने के लिए न तो शब्दों में सामर्थ्य था और न परम्परा से मिली हुई शैली में। परिणामस्वरूप उन कवियों को जो इनसे पृथक थे,सर्वथा नया स्वर और नये माध्यमों का प्रयोग करना पड़ा। ऐसा इसलिए और भी करना पड़ा,क्योंकि भाव-स्तर की नई अनुभूतियां विषय और संदर्भ में इन दोनों से सर्वथा भिन्न थी।
प्रयोग शब्द का सामान्य अर्थ है, ‘नई दिशा में अन्वेषण का प्रयास’। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रयोग निरंतर चलते रहते हैं। काव्य के क्षेत्र में भी पूर्ववर्ती युग की प्रतिक्रिया स्वरूप या नवीन युग-सापेक्ष चेतना की अभिव्यक्ति हेतु प्रयोग होते रहे हैं। सभी जागरूक कवियों में रूढ़ियों को तोड़कर या सृजित पथ को छोड़ कर नवीन पगडंडियों पर चलने की प्रवृत्ति न्यूनाधिक मात्रा में दिखाई पड़ती है। चाहे यह पगडंडी राजपथ का रूप ग्रहण न कर सके।
सन् 1943 या इससे भी पांच-छ: वर्ष पूर्व हिंदी कविता में प्रयोगवादी कही जाने वाली कविता की पग-ध्वनि सुनाई देने लगी थी। कुछ लोगों का मानना है कि 1939 में नरोत्तम नागर के संपादकत्व में निकलने वाली पत्रिका ‘उच्छृंखल’ में इस प्रकार की कविताएं छपने लगी थी जिसमें ‘अस्वीकार’,’आत्यंतिक विच्छेद’ और व्यापक ‘मूर्ति-भंजन’ का स्वर मुखर था तो कुछ लोग निराला की ‘नये पत्ते’, ‘बेला’ और ‘कुकुरमुत्ता’ में इस नवीन काव्य-धारा के लक्षण देखते हैं।
लेकिन 1943 में अज्ञेय के संपादन में ‘तार-सप्तक’ के प्रकाशन से प्रयोगवादी कविता का आकार स्पष्ट होने लगा और दूसरे तार-सप्तक के प्रकाशन वर्ष 1951 तक यह स्पष्ट हो गया।
मुख्य तथ्य
इस तरह की कविताओं को सबसे पहले नंद दुलारे बाजपेयी ने ‘प्रयोगवादी कविता’ कहा।
प्रगतिवाद की प्रतिक्रिया में उभरे और 1943 ई० के बाद की अज्ञेय, गिरिजा कुमार माथुर, मुक्तिबोध, नेमिचंद जैन, भारत भूषण अग्रवाल, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती आदि तथा नकेनवादियों नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार व नरेश की कविताएँ प्रयोगवादी कविताएँ हैं। प्रयोगवाद के अगुआ कवि अज्ञेय को ‘प्रयोगवाद का प्रवर्तक’ कहा जाता है।
चूँकि नकेनवादियों ने अपने काव्य को ‘प्रयोग पद्य’ यानी ‘प्रपद्य’ कहा है, इसलिए नकेनवाद को ‘प्रपद्यवाद’ भी कहा जाता है।
चूंकि प्रयोगवाद का उदय प्रगतिवाद की प्रतिक्रिया में हुआ इसलिए यह स्वाभाविक था कि प्रयोगवाद समाज की तुलना में व्यक्ति को, विचार धारा की तुलना में अनुभव को, विषय वस्तु की तुलना में कलात्मकता को महत्व देता। मतलब कि प्रयोगवाद भाव में व्यक्ति-सत्य तथा शिल्प में रूपवाद का पक्षधर है।
प्रयोगवाद की विशेषताएँ
- अनुभूति व यथार्थ का संश्लेषण बौद्धिकता का आग्रह
- वाद या विचार धारा का विरोध
- निरंतर प्रयोगशीलता
- नई राहों का अन्वेषण
- साहस और जोखिम
- व्यक्तिवाद
- काम संवेदना की अभिव्यक्ति
- शिल्पगत प्रयोग
- भाषा-शैलीगत प्रयोग।
शिल्प के प्रति आगह देखकर ही इन्हें आलोचकों ने रूपवादी (Formist) तथा इनकी कविताओं को ‘रूपाकाराग्रही कविता कहा।
प्रगतिवाद ने जहाँ शोषित वर्ग/निम्न वर्ग के जीवन को अपनी कविता के केन्द्र में रखा था जो उनके लिए अनजीया, जनभागा था वहाँ मध्यवर्गीय प्रयोगवादी कवियों ने उस यथार्थ का चित्रण किया जो स्वयं उनका जीया हुआ डेजा था। इसी कारण उनकी कविता में विस्तार कम है लेकिन गहराई अधिक।
छायावादोत्तर युग की नवीन काव्यधारा
- प्रगतिवादी काव्यधारा – केदारनाथ अग्रवाल, राम विलास शर्मा, नागार्जुन, रांगेय राघव, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, त्रिलोचन आदि।
- प्रयोगवादी काव्य धारा – अज्ञेय, गिरिजा कुमार माथुर, मुक्तिबोध, भवानी प्रसाद मिश्र, शमशेर बहादुर
- नयी कविता काव्य धारा – सिंह, धर्मवीर भारती आदि।
- नवगीत– शंभुनाथ सिंह, रामदरश मिश्र, कुँवर बेचैन, अनुप अशेष, देवेद्र शर्मा ‘इंद्र’ आदि।