रीतिकाल के कवि और उनकी रचनाएँ – रचना एवं रचनाकार

रीतिकाल की रचनाएं

रीतिकाल का साहित्य अनेक अमूल्य रचनाओं का सागर है, इतना समृद्ध साहित्य किसी भी दूसरी भाषा का नहीं है और न ही किसी अन्य भाषा की परम्परा का साहित्य एवं रचनाएँ अविच्छिन्न प्रवाह के रूप में इतने दीर्घ काल तक रहने पाई है। इसका समयकाल 1650 ई० से 1850 ई० तक माना जाता है। रीतिकाल के कवि और उनकी रचनाएँ, रीतिकाल की रचनाएँ और रचनाकार उनके कालक्रम की द्रष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं। रीतिकाल की मुख्य रचना एवं रचयिता या रचनाकार इस list में नीचे दिये हुए हैं।

REETI KAAL KE KAVI AUR RACHNAYE

रीतिकाल के कवि

रीतिकाल के प्रमुख कवि चिंतामणि, मतिराम, राजा जसवंत सिंह, भिखारी दास, याकूब खाँ, रसिक सुमति, दूलह, देव, कुलपति मिश्र, सुखदेव मिश्र, रसलीन, दलपति राय, माखन, बिहारी, रसनिधि, घनानन्द, आलम, ठाकुर, बोधा, द्विजदेव, लाल कवि, पद्माकर भट्ट, सूदन, खुमान, जोधराज, भूषण, वृन्द, राम सहाय दास, दीन दयाल गिरि, गिरिधर कविराय, गुरु गोविंद सिंह आदि हैं।

रीतिकाल के कवि और उनकी रचनाएँ

क्रम कवि (रचनाकर) रचनाएं (उत्तर-मध्यकालीन/रीतिकालीन रचना)
1. चिंतामणि कविकुल कल्पतरु, रस विलास, काव्य विवेक, शृंगार मंजरी, छंद विचार
2. मतिराम रसराज, ललित ललाम, अलंकार पंचाशिका, वृत्तकौमुदी
3. राजा जसवंत सिंह भाषा भूषण
4. भिखारी दास काव्य निर्णय, श्रृंगार निर्णय
5. याकूब खाँ रस भूषण
6. रसिक सुमति अलंकार चन्द्रोदय
7. दूलह। कवि कुल कण्ठाभरण
8. देव शब्द रसायन, काव्य रसायन, भाव विलास, भवानी विलास, सुजान विनोद, सुख सागर तरंग
9. कुलपति मिश्र रस रहस्य
10. सुखदेव मिश्र रसार्णव
11. रसलीन रस प्रबोध
12. दलपति राय अलंकार लाकर
13. माखन छंद विलास
14. बिहारी बिहारी सतसई
15. रसनिधि रतनहजारा
16. घनानन्द सुजान हित प्रबंध, वियोग बेलि, इश्कलता, प्रीति पावस, पदावली
17. आलम आलम केलि
18. ठाकुर ठाकुर ठसक
19. बोधा विरह वारीश, इश्कनामा
20. द्विजदेव श्रृंगार बत्तीसी, श्रृंगार चालीसी, श्रृंगार लतिका
21. लाल कवि छत्र प्रकाश (प्रबंध)।
22. पद्माकर भट्ट हिम्मत बहादुर विरुदावली (प्रबंध)
23. सूदन सुजान चरित (प्रबंध)
24. खुमान लक्ष्मण शतक
25. जोधराज हमीर रासो
26. भूषण शिवराज भूषण, शिवा बावनी, छत्रसाल दशक
27. वृन्द वृन्द सतसई
28. राम सहाय दास राम सतसई
29. दीन दयाल गिरि अन्योक्ति कल्पद्रुम
30. गिरिधर कविराय स्फुट छन्द
31. गुरु गोविंद सिंह सुनीति प्रकाश, सर्वसोलह प्रकाश, चण्डी चरित्र

रीतिकाल के कवियों को तीन वर्गों में बांटा जाता है – 1. रीतिबद्ध कवि 2 . रीतिसिद्ध कवि 3 . रीतिमुक्त कवि। 

रीतिबद्ध कवि

रीतिबद्ध कवियों ने अपने लक्षण ग्रंथों में प्रत्यक्ष रूप से रीति परंपरा का निर्वाह किया है। जैसे- केशवदास, चिंतामणि, मतिराम, सेनापति, देव, आदि। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने केशवदास को कठिन काव्य का प्रेत कहा है।

केशवदास

आचार्य केशवदास का जन्म 1555 ईस्वी में ओरछा में हुआ था। वे जिझौतिया ब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम काशीनाथ था। ओरछा के राजदरबार में उनके परिवार का बड़ा मान था। केशवदास स्वयं ओरछा नरेश महाराज रामसिंह के भाई इन्द्रजीत सिंह के दरबारी कवि, मन्त्री और गुरु थे। इन्द्रजीत सिंह की ओर से इन्हें इक्कीस गाँव मिले हुए थे। वे आत्मसम्मान के साथ विलासमय जीवन व्यतीत करते थे।

चिंतामणि

ये यमुना के समीपवर्ती गाँव टिकमापुर या भूषण के अनुसार त्रिविक्रमपुर (जिला कानपुर) के निवासी काश्यप गोत्रीय कान्यकुब्ज त्रिपाठी ब्राह्मण थे। इनका जन्मकाल संo १६६६ विo और रचनाकाल संo १७०० विo माना जाता है। ये रतिनाथ अथवा रत्नाकर त्रिपाठी के पुत्र (भूषण के ‘शिवभूषण’ की विभिन्न हस्तलिखित प्रतियों में इनके पिता के उक्त दो नामों का उल्लेख मिलता है) और कविवर भूषण, मतिराम तथा जटाशंकर (नीलकंठ) के ज्येष्ठ भ्राता थे।

चिंतामणि की अब तक कुल छ: कृतियों का पता लगा है – (१) काव्यविवेक, (२) कविकुलकल्पतरु, (३) काव्यप्रकाश, (४) छंदविचारपिंगल, (५) रामायण और (६) रस विलास (7) श्रृंगार मंजरी (8) कृष्ण चरित।

इनकी ‘शृंगारमंजरी’ नामक एक और रचना प्रकाश में आई है, जो तेलुगु लिपि में लिखित संस्कृत के गद्य ग्रंथ का ब्रजभाषा में पद्यबद्ध अनुवाद है। ‘रामायण’ के अतिरिक्त कवि की उक्त सभी रचनाएँ काव्यशास्त्र से संबंधित हैं, जिनमें सर्वोपरि महत्व ‘कविकुलकल्पतरु’ का है। संस्कृत ग्रंथ ‘काव्यप्रकाश’ के आदर्श पर लिखी गई यह रचना अपने रचयिता की कीर्ति का मुख्य कारण है।

मतिराम

मतिराम, हिंदी के प्रसिद्ध ब्रजभाषा कवि थे। इनके द्वारा रचित “रसराज” और “ललित ललाम” नामक दो ग्रंथ हैं; परंतु इधर कुछ अधिक खोजबीन के उपरांत मतिराम के नाम से मिलने वाले आठ ग्रंथ प्राप्त हुए हैं।

मतिराम की प्रथम कृति ‘फूलमंजरी’ है जो इन्होंने संवत् 1678 में जहाँगीर के लिये बनाई और इसी के आधार पर इनका जन्म संवत् 1660 के आसपास स्वीकार किया जाता है क्योंकि “फूल मंजरी” की रचना के समय वे 18 वर्ष के लगभग रहे होंगे।

इनका दूसरा ग्रंथ ‘रसराज’ इनकी प्रसिद्धि का मुख्य आधार है। यह शृंगाररस और नायिकाभेद पर लिखा ग्रंथ है और रीतिकाल में बिहारी सतसई के समान ही लोकप्रिय रहा। इसका रचनाकाल सवंत् 1690 और 1700 के मध्य माना जाता है। इस ग्रंथ में सुकुमार भावों का अत्यंत ललित चित्रण है।

सेनापति

सेनापति ब्रजभाषा काव्य के एक अत्यन्त शक्तिमान कवि माने जाते हैं। इनका समय रीति युग का प्रारंभिक काल है। उनका परिचय देने वाला स्रोत केवल उनके द्वारा रचित और एकमात्र उपलब्ध ग्रंथ ‘कवित्त रत्नाकर’ है।

सेनापति का काव्य विदग्ध काव्य है। इनके द्वारा रचित दो ग्रंथों का उल्लेख मिलता है – एक ‘काव्यकल्पद्रुम’ और दूसरा ‘कवित्त रत्नाकर’। परन्तु, ‘कवित्त रत्नाकर’ परन्तु, ‘काव्यकल्पद्रुम’ अभी तक प्राप्त नहीं हुआ। ‘कवित्तरत्नाकर’ संवत्‌ 1706 में लिखा गया और यह एक प्रौढ़ काव्य है।

यह पाँच तरंगों में विभाजित है। प्रथम तरंग में 97 कवित्त हैं, द्वितीय में 74, तृतीय में 62 और 8 कुंडलिया, चतुर्थ में 76 और पंचम में 88 छंद हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर इस ग्रंथ में 405 छंद हैं। इसमें अधिकांश लालित्य श्लेषयुक्त छंदों का है परन्तु श्रृंगार, षट्ऋतु वर्णन और रामकथा के छंद अत्युुत्कृष्ट हैं।

देव

रीतिकाल के रीतिग्रंथकार कवि हैं। उनका पूरा नाम देवदत्त था। औरंगजेब के पुत्र आलमशाह के संपर्क में आने के बाद देव ने अनेक आश्रयदाता बदले, किन्तु उन्हें सबसे अधिक संतुष्टि भोगीलाल नाम के सहृदय आश्रयदाता के यहाँ प्राप्त हुई, जिसने उनके काव्य से प्रसन्न होकर उन्हें लाखों की संपत्ति दान की।

अनुप्रास और यमक के प्रति देव में प्रबल आकर्षण है। अनुप्रास द्वारा उन्होंने सुंदर ध्वनिचित्र खींचे हैं। ध्वनि-योजना उनके छंदों में पग-पग पर प्राप्त होती है। शृंगार के उदात्त रूप का चित्रण देव ने किया है। देव कृत कुल ग्रंथों की संख्या ५२ से ७२ तक मानी जाती है।

उनमें- रसविलास, भावविलास, भवानीविलास, कुशलविलास, अष्टयाम, सुमिल विनोद, सुजानविनोद, काव्यरसायन, प्रेमदीपिका, प्रेम चन्द्रिका आदि प्रमुख हैं। देव के कवित्त-सवैयों में प्रेम और सौंदर्य के इंद्रधनुषी चित्र मिलते हैं। संकलित सवैयों और कवित्तों में एक ओर जहाँ रूप-सौंदर्य का आलंकारिक चित्रण हुआ है, वहीं रागात्मक भावनाओं की अभिव्यक्ति भी संवेदनशीलता के साथ हुई है।

रीतिसिद्ध कवि

रीतिसिद्ध कवियों की रचना की पृष्ठभूमि में अप्रत्यक्ष रूप से रीति परिपाटी काम कर रही होती है। उनकी रचनाओं को पढ़ने से साफ पता चलता है कि उन्होंने काव्यशास्त्र को पचा रखा है। बिहारी, रसनिधि आदि इस वर्ग में आते हैं।

बिहारी

बिहारीलाल का जन्म (1538) संवत् 1595 ग्वालियर में हुआ। वे जाति के माथुर चौबे (चतुर्वेदी) थे। उनके पिता का नाम केशवराय था। जब बिहारी 8 वर्ष के थे तब इनके पिता इन्हे ओरछा ले आये तथा उनका बचपन बुंदेलखंड में बीता। इनके गुरु नरहरिदास थे और युवावस्था ससुराल मथुरा में व्यतीत हुई।

बिहारी की कविता का मुख्य विषय श्रृंगार है। उन्होंने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का वर्णन किया है। संयोग पक्ष में बिहारी ने हावभाव और अनुभवों का बड़ा ही सूक्ष्म चित्रण किया हैं। संयोग का एक उदाहरण देखिए –

बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।
सोह करे, भौंहनु हंसे दैन कहे, नटि जाय॥

बिहारी का वियोग वर्णन बड़ा अतिशयोक्ति पूर्ण है। यही कारण है कि उसमें स्वाभाविकता नहीं है, विरह में व्याकुल नायिका की दुर्बलता का चित्रण करते हुए उसे घड़ी के पेंडुलम जैसा बना दिया गया है –

इति आवत चली जात उत, चली, छसातक हाथ।
चढी हिंडोरे सी रहे, लगी उसासनु साथ॥

सूफी कवियों की अहात्मक पद्धति का भी बिहारी पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। वियोग की आग से नायिका का शरीर इतना गर्म है कि उस पर डाला गया गुलाब जल बीच में ही सूख जाता है –

औंधाई सीसी सुलखि, बिरह विथा विलसात।
बीचहिं सूखि गुलाब गो, छीटों छुयो न गात॥

बिहारी मूलतः श्रृंगारी कवि हैं। उनकी भक्ति-भावना राधा-कृष्ण के प्रति है और वह जहां तहां ही प्रकट हुई है। सतसई के आरंभ में मंगला-चरण का यह दोहा राधा के प्रति उनके भक्ति-भाव का ही परिचायक है –

मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाई परे, स्याम हरित दुति होय॥

बिहारी ने नीति और ज्ञान के भी दोहे लिखे हैं, किंतु उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। धन-संग्रह के संबंध में एक दोहा देखिए –

मति न नीति गलीत यह, जो धन धरिये जोर।
खाये खर्चे जो बचे तो जोरिये करोर॥

प्रकृति-चित्रण में बिहारी किसी से पीछे नहीं रहे हैं। षट ॠतुओं का उन्होंने बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है। ग्रीष्म ॠतु का चित्र देखिए –

कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ।
जगत तपोतवन सो कियो, दारिग़ दाघ निदाघ॥

बिहारी गाँव वालो कि अरसिक्त का उपहास करते हुए कहते हैं-

कर फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि।
रे गंधी मतिअंध तू इत्र दिखावत काहि॥

बिहारी की भाषा साहित्यिक भाषा ब्रज भाषा है। इसमें सूर की चलती ब्रज भाषा का विकसित रूप मिलता है। पूर्वी हिंदी, बुंदेलखंडी, उर्दू, फ़ारसै आदि के शब्द भी उसमें आए हैं, किंतु वे लटकते नहीं हैं। बिहारी का शब्द चयन बड़ा सुंदर और सार्थक है।

शब्दों का प्रयोग भावों के अनुकूल ही हुआ है और उनमें एक भी शब्द भारती का प्रतीत नहीं होता। बिहारी ने अपनी भाषा में कहीं-कहीं मुहावरों का भी सुंदर प्रयोग किया है। जैसे –

मूड चढाऐऊ रहै फरयौ पीठि कच-भारु,
रहै गिरैं परि, राखिबौ तऊ हियैं पर हारु॥

विषय के अनुसार बिहारी की शैली तीन प्रकार की है

  1. माधुर्य पूर्ण व्यंजना प्रधानशैली – वियोग के दोहों में।
  2. प्रसादगुण से युक्त सरस शैली – भक्ति तथा नीति के दोहों में।
  3. चमत्कार पूर्ण शैली – दर्शन, ज्योतिष, गणित आदि विषयक दोहों में।

रसनिधि

दतिया राज्य के बरौनी क्षेत्र के जमींदार पृथ्वीसिंह, ‘रसनिधि’ नाम से काव्यरचना करते थे। इनका रचनाकाल संवत् १६६० से १७१७ तक माना जाता है। इनका सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ ‘रतनहजारा’ है जो बिहारी सतसई को आदर्श मानकर लिखा गया प्रतीत होता है।

बिहारी की दोहापद्धति का अनुकरण करते समय रसनिधि कहीं-कहीं ज्यों का त्यों भाव ही अपने दोहे में लिख गए हैं। रतनहजारा के अतिरिक्त विष्णुपदकीर्तन, बारहमासी, रसनिधिसागर, गीतिसंग्रह, अरिल्ल और माँझ, हिंडोला भी इनकी रचनाएँ बताई जाती हैं। इनके दोहों का एक संग्रह छतरपुर के श्री जगन्नाथप्रसाद ने प्रकाशित किया है।

रसनिधि प्रेमी स्वभाव के रसिक कवि थे। इन्होंने रीतिबद्ध काव्य न लिखकर फारसी शायरी की शैली पर प्रेम की विविध दशाओं और चेष्टाओं का वर्णन किया है। फारसी के प्रभाव से इन्होंने प्रेमदशाओं में व्यापकता प्राप्त की किंतु भाषा और अभिव्यंजना की दृष्टि से इनका काव्य अधिक सफल नहीं हो सका। शब्दों का असंतुलित प्रयोग तथा भावों की अभिव्यक्ति में शालीनता का अभाव खटकनेवाला बन गया है। हाँ, प्रेम की सरस उक्तियों में रसनिधि को कहीं कहीं अच्छी सफलता मिली है। वस्तुत: जहाँ इनका प्रेम स्वाभाविक रूप से व्यक्त हुआ है वहाँ इनके दोहे बड़े सुंदर बन पड़े हैं।

रीतिमुक्त कवि

रीति परंपरा से मुक्त कवियों को रीतिमुक्त कवि कहा जाता है। घनानंद, आलम, ठाकुर, बोधा आदि इस वर्ग में आते हैं।

  • आलम -आलम इस धारा के प्रमुख कवि हैं। इनकी रचना “आलम केलि” है।
  • घनानंद– रीतिमुक्त कवियों में सबसे अधिक प्रसिद्द कवि हैं। इनकी रचनाएँ हैं – कृपाकंद निबन्ध, सुजान हित प्रबन्ध, इश्कलता, प्रीती पावस, पदावली।
  • बोधा– विरह बारिश, इश्कनामा।
  • ठाकुर– ठाकुर ठसक, ठाकुर शतक।

घनानंद

इनका जन्मकाल संवत १७३० के आसपास है। इनके जन्मस्थान और जनक के नाम अज्ञात हैं। आरंभिक जीवन दिल्ली तथा उत्तर जीवन वृंदावन में बीता। जाति के कायस्थ थे। साहित्य और संगीत दोनों में इनकी असाधारण गति थी।

ये ‘आनंदघन’ नाम स भी प्रसिद्ध हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रीतिमुक्त घनानन्द का समय सं. १७४६ तक माना है। इस प्रकार आलोच्य घनानन्द वृंदावन के आनन्दघन हैं। शुक्ल जी के विचार में ये नादिरशाह के आक्रमण के समय मारे गए। श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी का मत भी इनसे मिलता है। लगता है, कवि का मूल नाम आनन्दघन ही रहा होगा, परंतु छंदात्मक लय-विधान इत्यादि के कारण ये स्वयं ही आनन्दघन से घनानन्द हो गए। अधिकांश विद्वान घनानन्द का जन्म दिल्ली और उसके आस-पास का होना मानते हैं।

घनानंद द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या ४१ बताई जाती है- सुजानहित, कृपाकंदनिबंध, वियोगबेलि, इश्कलता, यमुनायश, प्रीतिपावस, प्रेमपत्रिका, प्रेमसरोवर, व्रजविलास, रसवसंत, अनुभवचंद्रिका, रंगबधाई, प्रेमपद्धति, वृषभानुपुर सुषमा, गोकुलगीत, नाममाधुरी, गिरिपूजन, विचारसार, दानघटा, भावनाप्रकाश, कृष्णकौमुदी, घामचमत्कार, प्रियाप्रसाद, वृंदावनमुद्रा, व्रजस्वरूप, गोकुलचरित्र, प्रेमपहेली, रसनायश, गोकुलविनोद, मुरलिकामोद, मनोरथमंजरी, व्रजव्यवहार, गिरिगाथा, व्रजवर्णन, छंदाष्टक, त्रिभंगी छंद, कबित्तसंग्रह, स्फुट पदावली और परमहंसवंशावली।

इनका ‘व्रजवर्णन’ यदि ‘व्रजस्वरूप’ ही है तो इनकी सभी ज्ञात कृतियाँ उपलब्ध हो गई हैं। छंदाष्टक, त्रिभंगी छंद, कबित्तसंग्रह-स्फुट वस्तुत: कोई स्वतंत्र कृतियाँ नहीं हैं, फुटकल रचनाओं के छोटे छोटे संग्रह है। इनके समसामयिक व्रजनाथ ने इनके ५०० कवित्त सवैयों का संग्रह किया था। इनके कबित्त का यह सबसे प्राचीन संग्रह है। इसके आरंभ में दो तथा अंत में छह कुल आठ छंद व्रजनाथ ने इनकी प्रशस्ति में स्वयं लिखे।

पूरी ‘दानघटा’ ‘घनआनंद कबित्त’ में संख्या ४०२ से ४१४ तक संगृहीत है। परमहंसवंशावली में इन्होंने गुरुपरंपरा का उल्लेख किया है। इनकी लिखी एक फारसी मसनवी भी बतलाई जाती है पर वह अभी तक उपलब्ध नहीं है।

घनानंद ग्रंथावली में उनकी १६ रचनाएँ संकलित हैं। घनानंद के नाम से लगभग चार हजार की संख्या में कवित्त और सवैये मिलतें हैं। इनकी सर्वाधिक लोकप्रिय रचना ‘सुजान हित’ है, जिसमें ५०७ पद हैं। इन में सुजान के प्रेम, रूप, विरह आदि का वर्णन हुआ है। सुजान सागर, विरह लीला, कृपाकंड निबंध, रसकेलि वल्ली आदि प्रमुख हैं। उनकी अनेक रचनाओं का अंग्रेज़ी अनुवाद भी हो चुका है।

आलम

आलम रीतिकाल के एक हिन्दी कवि थे जिन्होने रीतिमुक्त काव्य रचा। आचार्य शुक्ल के अनुसार इनका कविता काल 1683 से 1703 ईस्वी तक रहा। इनका प्रारंभिक नाम लालमणि त्रिपाठी था। इनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। एक मुस्लिम महिला शेख नामक रंगरेजिन से विवाह के लिए इन्होंने नाम आलम रखा। ये औरगजेब के दूसरे बेटे मुअज्जम के आश्रय में रहते थे।

आलम की प्रसिद्ध रचनाएं हैं :- माधवानल कामकंदला (प्रेमाख्यानक काव्य), श्यामसनेही (रुक्मिणी के विवाह का वर्णन, प्रबंध काव्य), सुदामाचरित (कृष्ण भक्तिपरक काव्य), आलमकेलि (लौकिक प्रेम की भावनात्मक और परम्परामुक्त अभिव्यक्ति, श्रृंगार और भक्ति इसका मूल विषय है)।

ठाकुर

देलखंडी ठाकुर रीतिकालीन रीतियुक्त भाव-धारा के विशिष्ट और प्रेमी कवि थे जिनका जन्म ओरछे में सं० १८२३ और देहावसान सं० १८८० के लगभग माना गया है। इनका पूरा नाम था ठाकुरदास। ये श्रीवास्तव कायस्थ थे। ठाकुर जैतपुर (बुंदेलखंड) के निवासी और वहीं के स्थानीय राजा केसरीसिंह के दरबारी कवि थे। पिता गुलाबराय महाराजा ओरछा के मुसाहब और पितामह खंगराय काकोरी (लखनऊ) के मनसबदार थे।

दरियाव सिंह ‘चातुर’ ठाकुर के पुत्र और पौत्र शंकरप्रसाद भी सुकवि थे। बुंदेलखंड के प्राय: सभी राजदरबारों में ठाकुर का प्रवेश था। बिजावर नरेश ने उन्हें एक गाँव देकर सम्मानित किया था। सिंहासनासीन होने पर राजा केसरीसिंह के पुत्र पारीछत ने ठाकुर को अपनी सभा का एक रत्न बनाया। बाँदा के हिम्मतबहादुर गोसाईं के यहाँ भी, जो पद्माकर के प्रमुख आश्रयदाताओं में थे, ठाकुर का बराबर आना जाना था।

चूँकि ठाकुर पद्माकर के समसामयिक थे इसलिए वहाँ जाने पर दोनों की भेंट होती जिसके फलस्वरूप दोनों में कभी-कभी काव्य-स्पर्धा-प्रेरित जबर्दस्त नोक-झोंक तथा टक्कर भी हो जाया करती थी जिसका पता इस तरह की अनेक लोकप्रचलित जनश्रुतियाँ देती हैं।

बोधा

आचार्य शुक्ल के अनुसार बोधा एक रसिक कवि थे। पन्ना के राजदरबार में बोधा अक्सर जाया करते थे। राजदरबार में सुबहान (सुभान) नामक वेश्या से इन्हें बेहद प्रेम हो गया। महाराज को जब यह बात पता चली तो उन्होंने बोधा को छह महीने के देशनिकाले की सजा दे दी।

वेश्या के वियोग में बोधा ने विरहवारीश नामक पुस्तक लिख डाली। छह महीने बाद राजदरबार में हाजिर हुए तो महाराज ने पूछा – “कहिये कविराज! अकल ठिकाने आयी? इन दिनों कुछ लिखा क्या?” इस पर बोधा ने अपनी पुस्तक विरहवारीश के कुछ कवित्त सुनाये।

महाराज ने कहा – “शृंगार की बातें बहुत हो चुकीं अब कुछ नीति की बात बताइये।” इस पर बोधा ने एक छन्द कहा-

हिलि मिलि जानै तासों मिलि के जनावै हेत, हित को न जानै ताको हितू न विसाहिए।
होय मगरूर तापै दूनी मगरूरी करै, लघु ह्वै के चलै तासों लघुता निवाहिए॥
बोधा कवि नीति को निबेरो यही भाँति अहै, आपको सराहै ताहि आपहू सराहिए।
दाता कहा, सूर कहा, सुन्दरी सुजान कहा, आपको न चाहै ताके बाप को न चाहिए॥

महाराज ने बोधा से प्रसन्न होकर कुछ माँगने को कहा। इस पर बोधा के मुख से निकला – “सुभान अल्लाह!” महाराज उनकी हाजिरजवाबी से बहुत खुश हुए और उन्होंने अपनी बेहद खूबसूरत राजनर्तकी (सुबहान) बोधा को उपहार में दे दी। इस प्रकार बोधा के मन की मुराद पूरी हुई।

बोधा की कृतियाँ- 1. विरहवारीश – वियोग शृंगार रस की कविताएँ, 2.  इश्कनामा – शृंगारपरक कविताएँ।

रीतिकाल के अन्य कवि

भूषण– भूषण वीर रस के कवि थे। इनका जन्म कानपुर में यमुना किनारे ‘तिकवांपुर’ में हुआ था।  भूषणरचित छ: ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। इनमें से ये तीन ग्रन्थ- ‘भूषणहज़ारा’, ‘भूषणउल्लास’, ‘दूषणउल्लास’ यह ग्रंथ अभी तक देखने में नहीं आये हैं। बाकी तीन ग्रंथ “शिवराज भूषण”, “शिवा बावनी” और “छत्रसाल दशक” हैं।

सैय्यद मुबारक़ अली बिलग्रामी– जन्म संवत 1640 में हुआ था, अत: इनका कविता काल संवत 1670 है। इनके सैकड़ों कवित्त और दोहे पुराने काव्यसंग्रहों में मिलते हैं, किंतु अभी तक इनका ‘अलकशतक’ और ‘तिलशतक’ ग्रंथ ही उपलब्ध हो सका है। ‘शिवसिंह सरोज’ में इनकी पाँच कविताएँ संकलित हैं, जिनमें चार कवित्त और एक सवैया है।

बेनी– बेनी रीति काल के कवि थे। बेनी ‘असनी’ के बंदीजन थे। इनका कोई भी ग्रंथ नहीं मिलता, किंतु फुटकर कवित्त बहुत से सुने जाते हैं, जिनसे यह अनुमान होता है कि इन्होंने ‘नख शिख’ और ‘षट्ऋतु’ पर पुस्तकें लिखी होंगी।

मंडन– मंडन रीति काल के कवि थे, जो जेतपुर, बुंदेलखंड के रहने वाले थे। इनके फुटकर कवित्त सवैये बहुत सुने जाते हैं, किंतु अब तक इनका कोई ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुआ है। पुस्तकों की खोज करने पर मंडन के पाँच ग्रंथों का पता चलता है- “रसरत्नावली”, “रसविलास”, “जनक पचीसी”, “जानकी जू को ब्याह”, और “नैन पचासा”।

कुलपति मिश्र– ये आगरा के रहने वाले ‘माथुर चौबे’ थे और महाकवि बिहारी के भानजे के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके मुख्य ग्रंथ ‘रस रहस्य’ और ‘मम्मट’ हैं। बाद में इनके निम्नलिखित ग्रंथ और मिले हैं- द्रोणपर्व (संवत् 1737), युक्तितरंगिणी (1743), नखशिख, संग्रहसार, गुण रसरहस्य (1724)।

सुखदेव मिश्र– सुखदेव मिश्र दौलतपुर, ज़िला रायबरेली के रहने वाले मुग़ल कालीन कवि थे। इनके सात ग्रंथों हैं – वृत्तविचार (संवत् 1728), छंदविचार, फाजिलअलीप्रकाश, रसार्णव, श्रृंगारलता, अध्यात्मप्रकाश (संवत् 1755), दशरथ राय।

कालिदास त्रिवेदी– कालिदास त्रिवेदी अंतर्वेद के रहने वाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण एवं मुग़ल कालीन कवि थे। संवत 1749 में इन्होंने ‘वार वधू विनोद’ बनाया था। बत्तीस कवित्तों की इनकी एक छोटी सी पुस्तक ‘जँजीराबंद’ भी है। ‘राधा माधव बुधा मिलन विनोद’ नाम का इनका एक और ग्रंथ मिला है। इन रचनाओं के अतिरिक्त इनका बड़ा संग्रह ग्रंथ ‘कालिदास हज़ारा’ प्रसिद्ध है।

राम– ये रीति काल के कवि थे। राम का ‘शिवसिंह सरोज’ में जन्म संवत् 1703 लिखा है और कहा गया है कि इनके कवित्त कालिदास के ‘हज़ारा’ में हैं। इनका नायिका भेद का एक ग्रंथ ‘श्रृंगार सौरभ’ है जिसकी कविता बहुत ही मनोरम है। इनका एक ‘हनुमान नाटक’ भी पाया गया है।

नेवाज– नेवाज अंतर्वेद के रहने वाले ब्राह्मण थे और संवत 1737 के लगभग मुग़ल कालीन कवि थे। इनके ‘शकुंतला नाटक’ का निर्माणकाल संवत 1737 है। इन्होंने ‘शकुंतला नाटक’ का आख्यान दोहा, चौपाई, सवैया आदि छंदों में लिखा।

श्रीधर– श्रीधर ‘रीति काल’ के कवि थे। इनका नाम ‘श्रीधर’ या ‘मुरलीधर’ मिलता है। श्रीधर प्रयाग के रहने वाले ब्राह्मण थे। श्रीधर ने कई पुस्तकें लिखीं और बहुत सी फुटकर कविता बनाई। इनके तीन रीतिग्रंथों का उल्लेख है, नायिकाभेद, चित्रकाव्य, जंगनामा।

सूरति मिश्र– सूरति मिश्र आगरा के रहने वाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इन्होंने ‘अलंकारमाला’ संवत 1766 में और ‘अमरचंद्रिका’ टीका संवत 1794 में लिखी। इन्होंने ‘बिहारी सतसई’, ‘कविप्रिया’ और ‘रसिकप्रिया’ पर विस्तृत टीकाएँ रची हैं। इन्होंने निम्नलिखित रीतिग्रंथ रचे हैं – अलंकारमाला, रसरत्नमाला, रससरस, रसग्राहकचंद्रिका, नखशिख, काव्यसिध्दांत, रसरत्नाकर।

कवींद्र– इनका जन्म- 1680 ई., वास्तविक नाम ‘उदयनाथ’, ये रीति काल के प्रसिद्ध कवि थे। इनके द्वारा रचित तीन – ‘रस-चन्द्रोदय’, ‘विनोद चन्द्रिका’ तथा ‘जोगलीला’ पुस्तकें हैं।

श्रीपति– श्रीपति कालपी के रहने वाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण एवं रीति काल के कवि थे। इन्होंने संवत 1777 में ‘काव्यसरोज’ नामक रीति ग्रंथ बनाया। इसके अतिरिक्त इनके निम्नलिखित ग्रंथ और हैं – कविकल्पद्रुम, रससागर, अनुप्रासविनोद, विक्रमविलास, सरोज कलिका, अलंकारगंगा।

बीर– रीति काल के कवि बीर दिल्ली के रहने वाले ‘श्रीवास्तव कायस्थ’ थे। इन्होंने ‘कृष्णचंद्रिका’ नामक रस और नायिका भेद का एक ग्रंथ संवत 1779 में लिखा।

कृष्ण– रीति काल के कवि कृष्ण माथुर चौबे थे और बिहारी के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनका ‘बिहारी सतसई’ पर टीका प्रसिद्ध है।

पराग (कवि)– पराग नामक कवि का नाम संवत् 1883 में काशी के महाराज उदित नारायण सिंह के आश्रितों में आता है। इन्होंने तीन खण्डों में ‘अमरकोश’ की भाषा सृजित की थी।

गजराज उपाध्याय– गजराज उपाध्याय की उपस्थिति शिव सिंह सरोज ने संवत् 1874 में मानी है। इनके द्वारा रचित पिंगल भाषा का ग्रंथ ‘वृहत्तर तथा रामायण’ कहा जाता है।

रसिक सुमति– रसिक सुमति रीति काल के कवि और ईश्वरदास के पुत्र थे। इन्होंने ‘अलंकार चंद्रोदय’ नामक एक अलंकार ग्रंथ कुवलया नंद के आधार पर दोहों में बनाया।

गंजन– रीति काल के कवि गंजन काशी के रहने वाले गुजराती ब्राह्मण थे। इन्होंने संवत 1786 में ‘कमरुद्दीन खाँ हुलास’ नामक श्रृंगार रस का एक ग्रंथ बनाया।

अली मुहीब ख़ाँ– आगरा के रहने वाले रीति काल के कवि थे। इनका उपनाम ‘प्रीतम’ था। इन्होंने संवत 1787 में ‘खटमल बाईसी’ नाम की हास्य रस की एक पुस्तक लिखी।

भिखारी दास– भिखारी दास रीति काल के कवि थे जो प्रतापगढ़, अवध के पास टयोंगा गाँव के रहने वाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इनके निम्न ग्रंथों का पता लगा है – रससारांश संवत, छंदार्णव पिंगल, काव्यनिर्णय, श्रृंगार निर्णय, नामप्रकाश कोश, विष्णुपुराण भाषा, छंद प्रकाश, शतरंजशतिका, अमरप्रकाश।

भूपति– भूपति राजा गुरुदत्त सिंह अमेठी के राजा थे। ये रीति काल के प्रसिद्ध कवियों में गिने जाते थे। भूपति ने संवत 1791 में श्रृंगार के दोहों की एक ‘सतसई’ बनाई थी। इसके अतिरिक्त ‘कंठाभरण’, ‘सुरसरत्नाकर’, ‘रसदीप’, ‘रसरत्नावली’ नामक ग्रंथ भी इनके रचे हुए बतलाए जाते हैं।

तोषनिधि– तोषनिधि रीति काल के एक प्रसिद्ध कवि हुए हैं। तोषनिधि शृंगवेरपुर, सिंगरौर, ज़िला इलाहाबाद) के रहने वाले थे। तोषनिधि ने संवत 1791 में ‘सुधानिधि’ नामक ग्रंथ लिखा। दो पुस्तकें हैं – विनयशतक और नखशिख।

बंसीधर– रीति काल के कवि बंसीधर ब्राह्मण थे और अहमदाबाद, गुजरात के रहने वाले थे। बंसीधर ने दलपति राय के साथ मिलकर संवत 1792 में उदयपुर के महाराणा जगतसिंह के नाम पर ‘अलंकार रत्नाकर’ नामक ग्रंथ बनाया।

दलपति राय– रीति काल के कवि दलपति राय महाजन थे और अहमदाबाद गुजरात के रहने वाले थे। दलपति राय ने बंसीधर के साथ मिलकर संवत 1792 में उदयपुर के महाराणा जगतसिंह के नाम पर ‘अलंकार रत्नाकर’ नामक ग्रंथ बनाया।

सोमनाथ माथुर– सोमनाथ माथुर ब्राह्मण थे और भरतपुर के महाराज बदनसिंह के कनिष्ठ पुत्र प्रतापसिंह के यहाँ रहते थे। सोमनाथ ने संवत 1794 में ‘रसपीयूषनिधि’ नामक ग्रंथ लिखा। इनके तीन ग्रंथ और हैं, कृष्ण लीलावती पंचाध्यायी, सुजानविलास, माधवविनोद नाटक।

रसलीन– रसलीन रीति काल के प्रसिद्ध कवियों में से एक हैं। उनका मूल नाम ‘सैयद ग़ुलाम नबी’ था। रसलीन प्रसिद्ध बिलग्राम, ज़िला हरदोई के रहने वाले थे, जहाँ अच्छे-अच्छे विद्वान् मुसलमान होते आए हैं। यहाँ के लोग अपने नाम के आगे ‘बिलग्रामी’ लगाना एक बड़े सम्मान की बात समझते थे।

रघुनाथ– रघुनाथ ‘रीति काल’ के एक प्रसिद्ध कवि थे, जो काशी के महाराजा बरिबंडसिंह की सभा को सुशोभित करते थे। “काव्य कलाधार 1802, रसिक मोहन 1796, जगत मोहन 1807, इश्कमहोत्सव” आदि इनके प्रमुख ग्रंथ हैं।

दूलह– दूलह ‘रीति काल’ के प्रमुख कवियों में से थे। इनका लिखा एक ही ग्रंथ ‘कविकुल कंठाभरण’ मिला है।

कुमार मणिभट्ट– इन्होंने संवत 1803 के लगभग ‘रसिकरसाल’ नामक एक बहुत अच्छा रीतिग्रंथ लिखा था।

शंभुनाथ मिश्र– यह ‘असोथर, ज़िला फतेहपुर के राजा ‘भगवंतराय खीची’ के यहाँ रहते थे। जिन्होंने ‘रसकल्लोल’, ‘रसतरंगिणी’ और ‘अलंकारदीप’ नामक तीन रीति ग्रंथ बनाए हैं।

उजियारे कवि– उजियारे कवि उत्तर प्रदेश राज्य के मथुरा ज़िले में प्रसिद्ध धार्मिक नगरी वृन्दावन के निवासी थे। जुगल-रस-प्रकाश, रसचंद्रिका, इनके दो प्रमुख ग्रंथ हैं।

शिवसहाय दास– रीति काल के कवि शिवसहाय दास जयपुर के रहने वाले थे। संवत 1809 में ‘शिव चौपाई’ और ‘लोकोक्ति रस कौमुदी’ दो ग्रंथ बनाए।

गोपालचन्द्र ‘गिरिधरदास’– गोपालचन्द्र गिरिधरदास श्री काले हर्षचन्द्र के पुत्र तथा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के पिता थे। हिन्दी साहित्य का प्रथम नाटक ‘नहुष’ लिखने का श्रेय इन्हें प्राप्त है।

चरनदास– चरनदास प्रसिद्ध संत और योगध्यान साधक थे। इन्होंने एक सम्प्रदाय की स्थापना की थी, जिसे ‘चरनदासी सम्प्रदाय’ कहा जाता है। चरनदास की कुल 21 रचनाएँ बतायी जाती हैं- ‘ब्रज चरित’, ‘अमरलोक अखण्ड धाम वर्णन’, ‘धर्म जहाज वर्णन’, ‘अष्टांग योग वर्णन’, ‘योग संदेह सागर’, ‘ज्ञान स्वरोदय’, ‘पंचोपनिषद्’, ‘भक्ति पदार्थ वर्णन’, ‘मनविकृत करन गुटकासार’, ‘ब्रह्मज्ञान सागर’, ‘शब्द और भक्ति सागर’, इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ है। इनके अतिरिक्त ‘जागरण माहात्म्य’, ‘दानलीला’ ‘मटकी लीला’, ‘कालीनाथ-लीला’ ‘श्रीधर ब्राह्मण लीला’, ‘माखन चोरी लीला’, ‘कुरूक्षेत्र लीला’, ‘नासकेत लीला’ और ‘कवित्त’ अन्य रचनाएँ हैं, जो इन्हीं की कृतियाँ मानी जाती हैं।

रूपसाहि– इन्होंने संवत 1813 में ‘रूपविलास’ नामक ग्रंथ लिखा जिसमें दोहे में ही कुछ पिंगल, कुछ अलंकार, नायिका भेद आदि हैं। रीति काल के कवि रूपसाहि पन्ना के रहने वाले श्रीवास्तव कायस्थ थे।

बैरीसाल– रीति काल के कवि बैरीसाल असनी, फ़तेहपुर ज़िले के रहने वाले ब्राह्मण वंश में उत्पन्न हुए थे। इन्होंने ‘भाषा भरण’ नामक ग्रंथ लिखा था।

ऋषिनाथ– ऋषिनाथ रीति काल के कवियों में गिने जाते थे। इन्होनें 483 छंदों में ‘अलंकार मणि मंजरी’ की रचना की थी।

रतन– रतन कवि का जीवन वृत्त कुछ ज्ञात नहीं है। ‘फतेह भूषण’ नामक एक अच्छा अलंकार का ग्रंथ इन्होंने बनाया।

दत्त– दत्त नाम के कई कवि हुए हैं। एक प्राचीन माढ़ि (कानपुर) वाले ‘दत्त’, दूसरे मऊरानीपुर के निवासी जनगोपाल ‘दत्त’, तीसरे गुलज़ार ग्रामवासी दत्तलाल ‘दत्त’ और चौथे हैं, ‘लालित्य लता’ के रचयिता कवि दत्त। इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और प्रसिद्ध हैं ‘लालित्यलता’ सृजक उत्कृष्ट रीति ग्रंथ के रचियता दत्त। इनकी कुल पाँच रचनाएँ कही जाती हैं – लालित्य लता, सज्जन विलास, वीर विलास, ब्रजराज पंचाशिका, स्वरोदय।

नाथ– हरिनाथ काशी के रहने वाले गुजराती ब्राह्मण थे। ‘अलंकार दर्पण’ नामक एक छोटा सा ग्रंथ बनाया.

चंदन– चंदन पुवायाँ, ज़िला शाहजहाँपुर के रहने वाले थे। चंदन ने ‘श्रृंगार सागर’, ‘काव्याभरण’, ‘कल्लोल तरंगिणी’ ये तीन रीति ग्रंथ लिखे। चंदन के इन ग्रंथों के अतिरिक्त निम्नलिखित ग्रंथ और हैं – केसरी प्रकाश, चंदन सतसई, पथिकबोध, नखशिख, नाम माला (कोश), पत्रिकाबोध, तत्वसंग्रह, सीतबसंत (कहानी), कृष्ण काव्य, प्राज्ञविलास।

देवकीनन्दन– देवकीनंदन रीतिकालीन प्रसिद्ध कवि तथा ग्रंथकार थे। अब तक उनकी कुल पाँच रचनाओं का पता लग पाया है- श्रृंगार चरित्र, सरफराज चंद्रिका, अवधूत भूषण, ससुरारि पचीसी, नखशिख।

महाराज रामसिंह– महाराज रामसिंह मिर्ज़ा राजा जयसिंह के पुत्र थे। महाराज रामसिंह ने रस और अलंकार पर तीन ग्रंथ लिखे थे- अलंकार दर्पण, रसनिवास और रसविनोद।

भान– भान कवि रीति काल के प्रमुख कवियों में गिने जाते थे। ‘नरेंद्र भूषण’ नामक एक अलंकार ग्रंथ लिखा था।

ठाकुर बद्रीजन– ठाकुर बद्रीजन ऋषिनाथ के पुत्र और देवकीनन्दन के आश्रित कवि थे। इन्होंने ‘सतसई वर्णनार्थ देवकीनन्दन टीका’ लिखी थी।

घनश्याम शुक्ल– धनश्याम शुक्ल असनी, उत्तर प्रदेश के निवासी थे। इन्होंने ‘कवत्त-हजारा’ नामक काव्य ग्रंथ की रचना की थी।

थान– इनका पूरा नाम ‘थानराय’ था। थान कवि चंदन बंदीजन के भानजे थे और डौंड़ियाखेरे, ज़िला रायबरेली में रहते थे। ‘दलेल प्रकाश’ नामक एक रीति ग्रंथ।

कृपानिवास– कृपानिवास रसिक रामोपासना के एक प्रमुख आचार्य थे। ‘युगलप्रिया’ के अनुसार उन्होंने लगभग एक लाख छंदों की रचना की थी।

बेनी बंदीजन– बेनी बंदीजन बैंती, ज़िला रायबरेली के रहने वाले थे और अवध के प्रसिद्ध वज़ीर ‘महाराज टिकैत राय’ के आश्रय में रहते थे। उन्हीं के नाम पर इन्होंने ‘टिकैतराय प्रकाश’ नामक अलंकार ग्रंथ, संवत 1849 में लिखा था। अपने दूसरे ग्रंथ ‘रसविलास’ में इन्होंने रस निरूपण किया है।

बेनी प्रवीन– बेनी प्रवीन लखनऊ के वाजपेयी थे। इन्होंने ‘नवरसतरंग’ नामक ग्रंथ बनाया। इसके पहले ‘श्रृंगार भूषण’ नामक एक ग्रंथ यह बना चुके थे। ये कुछ दिन के लिए महाराज नानाराव के पास बिठूर भी गए थे और उनके नाम पर ‘नानारावप्रकाश’ नामक अलंकार का एक बड़ा ग्रंथ लिखा था।

जसवंत सिंह– जसवंत सिंह द्वितीय बघेल क्षत्रिय और तेरवाँ, कन्नौज के पास, के राजा थे और बहुत अधिक विद्याप्रेमी थे। इन्होंने दो ग्रंथ लिखे एक ‘शालिहोत्रा’ और दूसरा ‘श्रृंगारशिरोमणि’।

यशोदानंदन– यशोदानंदन का कुछ भी विवरण ज्ञात नहीं है। इनका एक छोटा सा ग्रंथ ‘बरवै नायिका भेद’ ही मिलता है।

करन– करन कवि षट्कुल कान्यकुब्ज पाण्डे थे, करन कवि ने ‘साहित्यरस’ और ‘रसकल्लोल’ नामक दो रीति ग्रंथ लिखे हैं।

गुरदीन पांडे– इन्होंने संवत 1860 में ‘बागमनोहर’ नामक एक बहुत ही बड़ा रीति ग्रंथ कवि प्रिया की शैली पर बनाया।

ब्रह्मदत्त– ब्रह्मदत्त ब्राह्मण थे और काशी नरेश ‘महाराज उदितनारायण’ सिंह के छोटे भाई ‘बाबू दीपनारायण सिंह’ के आश्रित थे। ‘दीपप्रकाश’ नामक एक अच्छा अलंकार का ग्रंथ बनाया।

धनीराम– धनीराम काशी के प्रसिद्ध कवियों में से थे। इन्होंने ‘मुक्ति रामायण’ की टीका लिखी थी।

पद्माकर– पद्माकर भट्ट रीति काल के कवियों में इन्हें बहुत श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। पद्माकर ‘तैलंग’ ब्राह्मण थे। इनके पिता ‘मोहनलाल भट्ट’ का जन्म बाँदा में हुआ था। ‘हिम्मतबहादुर विरुदावली’ नाम की एक वीर रस की पुस्तक लिखी। प्रसिद्ध ग्रंथ ‘जगद्विनोद’ बनाया।

ग्वाल– ग्वाल कवि मथुरा, उत्तर प्रदेश के रहने वाले बंदीजन सेवाराम के पुत्र थे। इन्होंने पहला ग्रंथ ‘यमुना लहरी’ संवत 1879 में और अंतिम ग्रंथ ‘भक्तभावना’ संवत 1919 में लिखा। चार ‘रीति ग्रंथ’ लिखे हैं- रसिकानंद, रसरंग, कृष्ण जू को नखशिख और दूषणदर्पण। इनके दो ग्रंथ मिले हैं – हम्मीर हठ और गोपीपच्चीसी।
‘राधामाधव मिलन’, ‘राधा अष्टक’, और ‘कवि हृदय विनोद’ इनकी बहुत सी कविताओं का संग्रह है।

प्रतापसाहि– प्रतापसाहि ‘रतनसेन बंदीजन’ के पुत्र थे और चरखारी, बुंदेलखंड के महाराज ‘विक्रमसाहि’ के यहाँ रहते थे। संवत 1882 में ‘व्यंग्यार्थ कौमुदी’ और संवत 1886 में ‘काव्य विलास’ की रचना की। इनकी लिखी हुई पुस्तकें हैं- जयसिंह प्रकाश, श्रृंगारमंजरी, श्रृंगार शिरोमणि, अलंकार चिंतामणि, काव्य विनोद, रसराज की टीका, रत्नचंद्रिका, जुगल नखशिख, बलभद्र नखशिख की टीका।

चंद्रशेखर वाजपेयी– चंद्रशेखर वाजपेयी 19वीं शताब्दी के कवि थे। इनके पिता मनीराम वाजपेयी एक अच्छे कवि थे। इनके गुरु असनी के करनेश महापात्र थे। चंद्रशेखर वाजपेयी की रचनाएँ निम्नलिखित हैं- हम्मीरहठ, नखशिख, रसिकविनोद, वृंदावन शतक, गुरुपंचाशिंका, ज्योतिष का ताजक, माधुरीवसंत, हरि-भक्ति-विलास, विवेकविलास, राजनीति का एक वृहत्‌ ग्रंथ।

केशवदास– केशव या केशवदास हिन्दी साहित्य के रीति काल की कवि-त्रयी के एक प्रमुख स्तंभ हैं। केशवदास रचित प्रामाणिक ग्रंथ नौ हैं- रसिकप्रिया, कविप्रिया, नखशिख, छंदमाला, रामचंद्रिका, वीरसिंहदेव चरित, रतनबावनी, विज्ञानगीता और जहाँगीर जसचंद्रिका।

दूलनदास– दूलनदास रीति काल के प्रसिद्ध कवि और सतनामी सम्प्रदाय के संत-महात्मा थे। इन्होंने साखी और पद आदि की भी रचनाएँ की हैं।

भीषनजी– संत भीषनजी लखनऊ के पास काकोरी नामक ग्राम के निवासी थे। भीषन साहब के दो पद गुरु अर्जुन सिंह द्वारा सम्पादित ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में संग्रहीत हैं।

रसिक गोविंद– रीति काल के कवि रसिक गोविंद निंबार्क संप्रदाय के एक महात्मा हरिव्यास की गद्दी के शिष्य थे और वृंदावन में रहते थे। अब तक इनके 9 ग्रंथों का पता चला है – रामायण सूचनिका, रसिक गोविंदानंद घन, लछिमन चंद्रिका, अष्टदेशभाषा, पिंगल, समयप्रबंध, कलियुगरासो, रसिक गोविंद, युगलरस माधुरी।

सूर्यमल्ल मिश्रण– जन्म- 1815 ई., बूँदी, राजस्थान; मृत्यु- 1863 ई., सूर्यमल्ल राजस्थान के हाड़ा शासक महाराव रामसिंह के प्रसिद्ध दरबारी कवि थे। प्रसिद्ध रचना ‘वंश भास्कर’ है। इनकी ‘वीरसतसई’ भी रचना है।

कुवरि– कुवरि राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द की परम्परा में आने वाले कवि थे। इनका ग्रन्थ ‘प्रेमरत्न’ है।

अखा भगत– अखा भगत का गुजराती भाषा के प्राचीन कवियों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने निम्नलिखित रचनाएँ कीं- पंचीकरण, गुरु शिष्य संवाद, अनुभव बिंदु, चित्त विचार संवाद।

कवीन्द्राचार्य सरस्वती– कवीन्द्राचार्य सरस्वती काशी के उन प्रमुख रचनाकारों में से थे, जिनका रीतिकाल में किसी राज दरबार से कोई सम्बन्ध नहीं था। इनके द्वारा रचे- ‘कवीन्द्र कल्पद्रुम’, ‘पद चन्द्रिका’, ‘दशकुमार टीका’, ‘योगभाष्कर योग’, ‘शतपथ ब्राह्मण भाष्य’ आदि ग्रंथ प्रमुख हैं।

मनीराम मिश्र– मनीराम मिश्र कन्नौज निवासी ‘इच्छाराम मिश्र’ के पुत्र थे। इन्होंने ‘छंद छप्पनी’ और ‘आनंद मंगल’ नाम की दो पुस्तकें लिखीं।

उजियारे लाल– उजियारे लाल भारत के जाने-माने कवियों में से एक थे। ‘गंगालहरी’ नामक एक काव्य ग्रंथ का प्रणयन किया है।

बनवारी– बनवारी संवत् 1690 और 1700 के बीच वर्तमान थे। शाहजहाँ के दरबार में थे। इनके फुटकल पद्ध वीर रस में मिलते हैं ।

तुलसी साहिब– तुलसी साहिब ‘साहिब पंथ’ के प्रवर्तक थे। ‘घटरामायन’, ‘शब्दावली’, ‘रत्नासागर’ और ‘पद्यसागर’ (अपूर्ण) इनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।

सबलसिंह चौहान– सबलसिंह चौहान के निवासस्थान का ठीक निश्चय नहीं है। ये इटावा के किसी गाँव के ज़मींदार थे। इन्होंने सारे “महाभारत” की कथा दोहों चौपाइयों में लिखी है।

वृंद– वृंद मेड़ता, जोधपुर के रहने वाले थे और ‘कृष्णगढ़’ नरेश ‘महाराज राजसिंह’ के गुरु थे। इनकी ‘वृंदसतसई’, जिसमें नीति के सात सौ दोहे हैं, बहुत प्रसिद्ध हैं। खोज में ‘श्रृंगारशिक्षा’, और ‘भावपंचाशिका’ नाम की दो रस संबंधी पुस्तकें और मिली हैं।

छत्रसिंह– छत्रसिंह बटेश्वर क्षेत्र के अटेर नामक गाँव के रहनेवाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इन्होंने ‘विजयमुक्तावली’ नाम की पुस्तक संवत् 1757 में लिखी।

बैताल– बैताल जाति के बंदीजन थे और राजा विक्रमसाहि की सभा में रहते थे। जिन्होंने ‘विक्रम सतसई’ आदि कई ग्रंथ लिखे हैं।

आलम– आलम जाति के ब्राह्मण थे, पर ‘शेख’ नाम की ‘रँगरेजिन’ के प्रेम में फँसकर पीछे से मुसलमान हो गए और उसके साथ विवाह करके रहने लगे। इनकी कविताओं का एक संग्रह ‘आलमकेलि’ के नाम से निकला है।

गुरु गोविंदसिंह– जन्म- 22 दिसंबर, 1666 ई. पटना, बिहार; मृत्यु- 7 अक्तूबर, 1708 ई. नांदेड़, महाराष्ट्र, सिक्खों के दसवें व अंतिम गुरु माने जाते हैं। वे 11 नवंबर, 1675 को सिक्खों के गुरु नियुक्त हुए थे और 1708 ई. तक इस पद पर रहे। इनकी मुख्य रचनाएँ हैं- “चण्डी चरित्र”- माँ चण्डी (शिवा) की स्तुति, “दशमग्रन्थ”- गुरु जी की कृतियों का संकलन, “कृष्णावतार”- भागवत पुराण के दशमस्कन्ध पर आधारित, गोबिन्द गीत, प्रेम प्रबोध, जाप साहब, अकाल उस्तुता, चौबीस अवतार, “नाममाला”- विभिन्न गुरुओं, भक्तों एवं सन्तों की वाणियों का गुरु ग्रन्थ साहिब में संकलन।

लाल कवि– लाल कवि का नाम ‘गोरे लाल पुरोहित’ था और ये ‘मऊ’, बुंदेलखंड के रहने वाले थे। महाराज छत्रसाल की आज्ञा से उनका जीवनचरित ‘छत्रप्रकाश’ में दोहों चौपाइयों में बड़े ब्योरे के साथ वर्णन किया है। लाल कवि का एक और ग्रंथ ‘विष्णुविलास’ है जिसमें बरवै छंद में नायिकाभेद कहा गया है।

महाराज विश्वनाथ सिंह– महाराज विश्वनाथ सिंह ‘रीवाँ’ के बड़े ही विद्यारसिक और भक्त नरेश तथा प्रसिद्ध कवि ‘महाराज रघुराजसिंह’ के पिता थे। पुस्तकों के नाम – 1. अष्टयाम आह्निक, 2. आनंदरघुनंदन ‘नाटक’, 3. उत्तमकाव्यप्रकाश, 4. गीतारघुनंदन शतिका, 5. रामायण, 6. गीता रघुनंदन प्रामाणिक, 7. सर्वसंग्रह, 8. कबीर बीजक की टीका, 9. विनयपत्रिका की टीका, 10. रामचंद्र की सवारी, 11. भजन, 12. पदार्थ, 13. धानुर्विद्या, 14. आनंद रामायण, 15. परधर्म निर्णय, 16. शांतिशतक, 17. वेदांत पंचकशतिका, 18. गीतावली पूर्वार्ध्द, 19. धा्रुवाष्टक, 20. उत्तम नीतिचंद्रिका, 21. अबोधनीति, 22. पाखंड खंडिका, 23. आदिमंगल, 24. बसंत चौंतीसी, 25. चौरासी रमैनी, 26. ककहरा, 27. शब्द, 28. विश्वभोजनप्रसाद, 29. ध्यान मंजरी, 30. विश्वनाथ प्रकाश, 31. परमतत्व, 32. संगीत रघुनंदन इत्यादि।

नागरीदास– नागरीदास नाम से कई भक्त कवि ब्रज में हो गए, पर उनमें सबसे प्रसिद्ध ‘कृष्णगढ़ नरेश महाराज सावंतसिंह’ जी हैं जिनका जन्म पौष कृष्ण 12 संवत् 1756 में हुआ था। कृष्णगढ़ में इनकी लिखी छोटी बड़ी सब मिलाकर 73 पुस्तकें संग्रहीत हैं।

जोधाराज– जोधाराज गौड़ ब्राह्मण ‘बालकृष्ण’ के पुत्र थे। ‘हम्मीर रासो’ नामक एक बड़ा प्रबंध काव्य संवत् 1875 में लिखा।

बख्शी हंसराज– बख्शी हंसराज श्रीवास्तव कायस्थ थे। इनका जन्म संवत् 1799 में पन्ना में हुआ था।  ‘सखी भाव’ के उपासक होने कारण इनका सांप्रदायिक नाम ‘प्रेमसखी’ था। इनके चार ग्रंथ पाए जाते हैं – सनेहसागर, विरहविलास, रामचंद्रिका, बारहमासा।

जनकराज किशोरीशरण– जनकराज किशोरीशरण अयोध्या के एक वैरागी थे और संवत् 1797 में वर्तमान थे। इनकी पुस्तकों के नाम ये हैं – आंदोलनरहस्य दीपिका, तुलसीदासचरित्र, विवेकसार चंद्रिका, सिध्दांत चौंतीसी, बारहखड़ी, ललित श्रृंगार दीपक, कवितावली, जानकीशरणाभरण, सीताराम सिध्दांतमुक्तावली, अनन्यतरंगिणी, रामरसतरंगिणी, आत्मसंबंधदर्पण, होलिकाविनोददीपिका, वेदांतसार, श्रुतिदीपिका, रसदीपिका, दोहावली, रघुवर करुणाभरण।

अलबेली अलि– अलबेली अलि रीतिकालीन कवि थे। इनका लिखा ‘श्रीस्त्रोत’ है। इन्होंने ब्रजभाषा में ‘समय प्रबन्ध पदावली’ की रचना की।

भीखा साहब– भीखा साहब (भीखानन्द चौबे) बावरी पंथ की भुरकुडा, गाजीपुर शाखा के प्रसिद्ध संत गुलाम साहब के शिष्य थे। भीखा साहब की छ: कृतियाँ प्रसिद्ध है- ‘राम कुण्डलिया’, ‘राम सहस्रनाम’, ‘रामसबद’, ‘रामराग’, ‘राम कवित्त’ और ‘भगतवच्छावली’।

हितवृंदावन दास– हितवृंदावन दास पुष्कर क्षेत्र के रहने वाले गौड़ ब्राह्मण थे और संवत् 1765 में उत्पन्न हुए थे। सूरदास के सवा लाख पद बनाने की जनश्रुति है, वैसे ही इनके भी एक लाख पद और छंद बनाने की बात प्रसिद्ध है।

गिरधर कविराय– इनकी नीति की कुंडलियाँ ग्राम ग्राम में प्रसिद्ध हैं। ये कोरे ‘पद्यकार’ ही कहे जा सकते हैं; सूक्तिकार भी नहीं।

भगवत रसिक– भगवत रसिक ‘टट्टी संप्रदाय’ के महात्मा ‘स्वामी ललित मोहनी दास’ के शिष्य थे। प्रेमरसपूर्ण बहुत से पद, कवित्त, कुंडलियाँ, छप्पय आदि रचे हैं।

श्री हठी– श्री हठी श्री हितहरिवंश जी की शिष्य परंपरा में बड़े ही साहित्य मर्मज्ञ और कला कुशल कवि हो गए हैं। ‘राधासुधाशतक’ बनाया, जिसमें 11 दोहे और 103 कवित्त सवैया हैं।

गुमान मिश्र– गुमान मिश्र महोबा के रहनेवाले ‘गोपालमणि’ के पुत्र थे। संवत् 1800 में श्रीहर्ष कृत ‘नैषधकाव्य’ का पद्यानुवाद नाना छंदों में किया। इनके दो ग्रंथ और मिले हैं – ‘कृष्णचंद्रिका’ और ‘छंदाटवी’ (पिंगल)।

सरजूराम पंडित– सरजूराम पंडित ने ‘जैमिनीपुराण भाषा’ नामक एक कथात्मक ग्रंथ संवत् 1805 में बनाकर तैयार किया। इसमें बहुत सी कथाएँ आई हैं; जैसे – युधिष्ठर का राजसूय यज्ञ, संक्षिप्त रामायण, सीतात्याग, लवकुश युद्ध , मयूरधवज, चंद्रहास आदि राजाओं की कथाएँ।

सूदन– सूदन मथुरा के रहने वाले माथुर चौबे थे। इन्होंने ‘सुजानचरित’ नामक प्रबंध काव्य में किया है। इसके अध्यायों का नाम ‘जंग’ रखा गया है। सात जंगों में ग्रंथ समाप्त हुआ है।

हरनारायण– हरनारायण ने ‘माधवानल कामकंदला’ और ‘बैताल पचीसी’ नामक दो कथात्मक काव्य लिखे हैं।

ब्रजवासी दास– ब्रजवासी दास वृंदावन के रहने वाले और बल्लभ संप्रदाय के अनुयायी थे। ‘ब्रजविलास’ नामक एक प्रबंध काव्य दोहा चौपाइयों में बनाया।

घासीराम– घासीराम का नाम ‘राति काल’ के प्रसिद्ध कृष्ण भक्त कवियों में लिया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण से सम्बंधित कई भक्ति पदों की रचनाएँ इन्होंने की हैं।

गोकुलनाथ– गोकुलनाथ काशी के दरबारी कवि थे। रचनाओं में- ‘चेतसिंह चन्द्रिका’, ‘राधाकृष्ण विलास’, ‘राधानखशिख’, ‘महाभारत दर्पण’ आदि प्रमुख है।

गोपीनाथ– गोपीनाथ काशी के महाराज चेतसिंह के दरबारी कवि गोकुलनाथ के पुत्र तथा रघुनाथ बंदीजन के पौत्र थे। ‘महाभारत दर्पण’ के ‘भीष्मपर्व’, ‘द्रोणपर्व’, ‘स्वर्गारोहणपर्व’, ‘शांतिपर्व’ तथा ‘हरिवंशपुराण’ का अनुवाद किया था।

मणिदेव– मणिदेव बंदीजन भरतपुर राज्य के ‘जहानपुर’ नामक गाँव के रहनेवाले थे। इन्होंने समग्र महाभारत और हरिवंश का अनुवाद अत्यंत मनोहर विविध छंदों में पूर्ण कवित्त के साथ किया है।

रामचंद्र– इनकी एक पुस्तक ‘चरणचंद्रिका’ ज्ञात है।

मंचित– मंचित मऊ (बुंदेलखंड) के रहने वाले ब्राह्मण थे। इन्होंने कृष्णचरित संबंधी दो पुस्तकें लिखी हैं, ‘सुरभी दानलीला’ और ‘कृष्णायन’।

मधुसूदन दास– मधुसूदन दास माथुर चौबे थे।संवत् 1839 में ‘रामाश्वमेधा’ नामक एक बड़ा और मनोहर प्रबंध काव्य बनाया।

मनियार सिंह– मनियार सिंह काशी के रहने वाले क्षत्रिय थे। इन्होंने पुष्पदत्त के ‘शिव महिमा स्तोत्र’ का 35 कवित्तों में संवत 1849 में अनुवाद किया। ‘हनुमान छब्बीसी’, ‘सुन्दरकाण्ड’ (63 छंद), ‘हनुमान विजय’, ‘सौन्दर्य लहरी’ (103 कवित्त) की रचना इन्होंने की है।

कृष्णदास– कृष्णदास (रीतिकाल) मिरज़ापुर के रहने वाले कोई कृष्ण भक्त जान पड़ते हैं। ‘माधुर्य लहरी’ नाम की एक बड़ी पुस्तक बनाई जिसमें विविध छंदों में ‘कृष्णचरित’ का वर्णन किया गया है।

भरमी– भरमी भारत के रीतिकालीन कवि थे। ‘कालिदास हजारा’ में भरमी के छन्द संकलित हैं।

गणेश बन्दीजन– गणेश बन्दीजन लाल कवि के पौत्र गुलाब कवि के पुत्र थे। इन्होंने ने तीन ग्रंथ लिखे थे- ‘वाल्मीकि रामायण श्लोकार्थ प्रकाश’, ‘प्रद्युम्न विजय नाटक’, ‘हनुमत पच्चीसी’। ‘साहित्य सागर’ नाम से साहित्य शास्त्र का भी ग्रन्थ इन्होंने रचा था।

सम्मन– सम्मन मल्लावाँ, ज़िला हरदोई के रहने वाले ब्राह्मण थे और संवत् 1834 में हुए थे। ‘पिंगल काव्यभूषण’ नामक एक रीतिग्रंथ बनाया।

ठाकुर असनी– ठाकुर असनी रीतिकाल के आरंभ में संवत् 1700 में हुए थे। इनका कुछ वृत्त नहीं मिलता; केवल फुटकल कविताएँ इधर उधर पाई जाती हैं।

ठाकुर असनी दूसरे– ठाकुर असनी दूसरे ऋषिनाथ कवि के पुत्र और ‘सेवक कवि’ के पितामह थे। ‘सतसई बरनार्थ’ नाम की ‘बिहारी सतसई’ की एक टीका “देवकीनंदन टीका” बनाई।

ठाकुर बुंदेलखंडी– ठाकुर बुंदेलखंडी का पूरा नाम ‘लाला ठाकुरदास’ था।

ललकदास– बेनी कवि के भँड़ौवा से ललकदास लखनऊ के कोई कंठीधारी महंत जान पड़ते हैं जो अपनी शिष्यमंडली के साथ इधर उधर फिरा करते थे। इन्होंने ‘सत्योपाख्यान’ नामक एक बड़ा वर्णनात्मक ग्रंथ लिखा है।

खुमान– खुमान बंदीजन थे और चरखारी, बुंदेलखंड के ‘महाराज विक्रमसाहि’ के यहाँ रहते थे। इनके ग्रंथ- अमरप्रकाश (संवत् 1836), अष्टयाम (संवत् 1852), लक्ष्मणशतक (संवत् 1855), हनुमान नखशिख, हनुमान पंचक, हनुमान पचीसी, नीतिविधान, समरसार, नृसिंह चरित्र (संवत् 1879), नृसिंह पचीसी।

नवलसिंह– नवलसिंह जाति से कायस्थ थे और ये झाँसी के रहने वाले थे और ‘समथर’ नरेश ‘राजा हिंदूपति’ की सेवा में रहते थे। इनके ग्रंथ हैं- रासपंचाध्यायी, रामचंद्रविलास, शंकामोचन (संवत् 1873), जौहरिनतरंग (1875), रसिकरंजनी (1877), विज्ञान भास्कर (1878), ब्रजदीपिका (1883), शुकरंभासंवाद (1888), नामचिंतामणि (1903), मूलभारत (1911), भारतसावित्री (1912), भारत कवितावली (1913), भाषा सप्तशती (1917), कवि जीवन (1918), आल्हा रामायण (1922), रुक्मिणीमंगल (1925), मूल ढोला (1925), रहस लावनी (1926), अध्यात्मरामायण, रूपक रामायण, नारी प्रकरण, सीतास्वयंबर, रामविवाहखंड, भारत वार्तिक, रामायण सुमिरनी, पूर्व श्रृंगारखंड, मिथिलाखंड, दानलोभसंवाद, जन्म खंड।

रामसहाय दास– रामसहाय दास चौबेपुर ज़िला, बनारस के रहने वाले लाला भवानीदास कायस्थ के पुत्र थे। ‘रामसतसई’, ‘श्रृंगार सतसई’, ‘ककहरा रामसहायदास’, ‘बानी भूषण’, ‘राम सप्त शतिका’ नामक चमत्कृत काव्य ग्रंथ रचे थे।

चंद्रशेखर कवि– चंद्रशेखर कवि ‘वाजपेयी’ थे। इनका जन्म संवत् 1855 में मुअज्जमाबाद, ज़िला, फतेहपुर में हुआ था। प्रसिद्ध ‘वीरकाव्य’ ‘हम्मीरहठ’ बनाया। रचे ग्रंथ  हैं – विवेकविलास, रसिकविनोद, हरिभक्तिविलास, नखशिख, वृंदावनशतक, गृहपंचाशिका, ताजकज्योतिष, माधावी वसंत।

दीनदयाल गिरि– बाबा दीनदयाल गिरि गोसाईं थे। इनका जन्म शुक्रवार बसंतपंचमी, संवत् 1859 में काशी के गायघाट मुहल्ले में एक ‘पाठक कुल’ में हुआ था। इनकी लिखी पुस्तक है-  अन्योक्तिकल्पद्रुम (संवत् 1912), अनुरागबाग़ (संवत् 1888), वैराग्य दिनेश (संवत् 1906), विश्वनाथ नवरत्न और दृष्टांत तरंगिणी (संवत् 1879)।

पजनेस– पजनेस पन्ना के रहने वाले थे। इनकी बहुत सी फुटकल कविता संग्रह ग्रंथों में मिलती और लोगों के मुँह से सुनी जाती है। ‘ठाकुर शिवसिंहजी’ ने ‘मधुरप्रिया’ और ‘नखशिख’ नाम की इनकी दो पुस्तकों का उल्लेख किया है।

गिरिधरदास– गिरिधरदास भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के पिता थे और ब्रजभाषा के बहुत ही प्रौढ़ कवि थे। भारतेंदु जी ने इनके लिखे 40 ग्रंथों का उल्लेख किया है जिनमें बहुतों का पता नहीं। कुछ पुस्तकों के नाम इस प्रकार हैं – जरासंधवध महाकाव्य,भारतीभूषण, भाषा व्याकरण, रसरत्नाकर, ग्रीष्म वर्णन, मत्स्यकथामृत, वराहकथामृत, नृसिंहकथामृत, वामनकथामृत, परशुरामकथामृत, रामकथामृत, बलराम कथामृत, कृष्णचरित, बुद्ध कथामृत, कल्किकथामृत, नहुष नाटक, गर्गसंहिता, एकादशी माहात्म्य।

द्विजदेव– द्विजदेव (महाराज मानसिंह) अयोध्या के महाराज थे और बड़ी ही सरस कविता करते थे। दो पुस्तकें हैं- ‘श्रृंगारबत्तीसी’ और ‘श्रृंगारलतिका’।’

चंद्रशेखर– जन्म- 1855 संवत, निधन- 1932 संवत, चंद्रशेखर वाजपेयी 19वीं शताब्दी के कवि थे। रचनाएँ हैं- हम्मीरहठ, नखशिख, रसिकविनोद, वृंदावन शतक, गुरुपंचाशिंका, ज्योतिष का ताजक, माधुरीवसंत, हरि-भक्ति-विलास, विवेकविलास, राजनीति का एक वृहत्‌ ग्रंथ।

अहमद– अहमद जहाँगीर बादशाह के समकालीन आगरा निवासी कवि थे। इनका पूरा नाम ताहिर अहमद है। इन्होंने ‘कोकसार’ नामक ग्रंथ की रचना की। अन्य रचनाओं में ‘अहमद बारामासी’, ‘रतिविनोद’, ‘रसविनोद’ और ‘सामुद्रिक’ है।

चंडीदास– चंडीदास एक कवि, जिनके रामी धोबिन को संबोधित प्रेमगीत मध्य काल में बेहद लोकप्रिय थे।

पृथ्वीराज– पृथ्वीराज वीर रस के अच्छे कवि थे। ये बादशाह अकबर के दरबार में रहते थे। महाराणा प्रताप के अनन्य समर्थक और प्रशंसक थे।

बुल्ले शाह– बाबा बुल्ले शाह का जन्म- 1680 ई., गिलानियाँ उच्च, वर्तमान पाकिस्तान; व  मृत्यु- 1758 ई. में हुई। कविताओं में काफ़ियां, दोहड़े, बारांमाह, अठवारा, गंढां और सीहरफ़ियां शामिल हैं । उनका मूल नाम अब्दुल्ला शाह था।

श्रीनाथ– श्रीनाथ का जन्म- 1380 से 1460 के बीच हुआ था। तेलुगु भाषा के प्रसिद्ध कवि थे। इनके काव्य ग्रंथ इस प्रकार हैं- श्रीहर्ष कृत ‘नैषध’ काव्य का रूपांतर,  शालिवाहन, सप्तशती, भीमखंड, काशीखंड, हरविलास, वीचिनाटक, शिवरात्रि महात्म्य आदि हैं।

गंगाधर मेहरे– गंगाधर मेहरे उड़िया भाषा के प्रसिद्ध कवि थे। इनके अनेक काव्य ग्रंथों में ‘प्रणय वल्लरी’ और ‘तपस्विनी’ सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं।

कविराज श्यामलदास– कविराज श्यामलदास का जन्म- 1836; मृत्यु- 1893 में हुई। जिन्हें लोकप्रिय रूप से कविराज “कवियों का राजा” के रूप में जाना जाता है। श्यामलदास को ‘महामहोपाध्याय’ की उपाधि से सम्मानित किया गया और ब्रिटिश सरकार द्वारा ‘केसर-ए-हिंद’ (भारत का शेर) से सम्मानित किया गया। ‘दीपंग कुल प्रकाश’ नामक विस्तृत कविता की रचना की थी। ‘वीर विनोद’ नामक पुस्तक मेवाड़ का लिखित प्रथम विस्तृत इतिहास है। दो और पुस्तकों की रचना की थी- ‘पृथ्वीराज रासो की नवीनता’ तथा ‘अकबर के जन्मदिन में सन्देह’।


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