उपन्यास – उपन्यास क्या है?

UPANYAS - LEKHAK, PRAMUKH UPANYAS KAR

उपन्यास

काव्य और नाटक की अपेक्षा नवीनतम होते हुए भी उपन्यास आधुनिक काल की सर्वाधिक लोकप्रिय और सशक्त साहित्य विधा है। इसका कारण यह है कि इसमें मनोरंजन का तत्त्व तो अधिक रहता ही है, साथ-साथ जीवन को इसकी बहमुखी छवि के साथ व्यक्त करने की शक्ति और अवकाश भी रहता है। हिन्दी का प्रथम उपन्यास लाला श्री निवास दास के ‘परीक्षा गुरु‘ (1882) स्वीकार किया जाता है।

ऐलन प्राइसजोन्स ने कहा है, “यह मत समझिये कि आप काल्पनिक चरिस्थितियों से प्रभावित होने के लिए उपन्यास पढ़ते हैं। आप उन्हें पढते हैं, स्वयं अपने आपको अन्वेषण के लिए।

उपन्यास की महत्ता और इसके तत्वों की ओर इंगित करते हुए डॉ. रामदरश मिश्र लिखते हैं, उपन्यास एक हल्की फुल्की विधा नहीं है जो संभव-असंभव घटनाओं और चटकीले-भड़कीले प्रसंगों की अवतारणा करती चलने वाली कथा के माध्यम से पाठकों का मनोरंजन करे, उपन्यास की वास्तविक शक्ति महान है। उसका उद्देश्य बड़ा है। उपन्यासकार के पास जीवन दृष्टि होनी चाहिए। जीवन के यथार्थ का गहरा अनुभव होना चाहिए, सृजनात्मकता, कल्पना की अपार शक्ति होनी चाहिए, विचारों की गहनता होनी चाहिए और जीवन की विवेचना होनी चाहिए। उपन्यास को जो लोग मनोरंजन का साधन मानते हैं वे मानों उपन्यास की मूल शक्ति और अनिवार्यता से परिचित नहीं है।

उपन्यास के तत्त्व

उपन्यास के तत्त्वों में सबसे पहला स्थान है कथानक का। यद्यपि आज कुछ ऐसे उपन्यास लिखे जा रहे हैं, जिनमें कथानक की उपेक्षा भी हुई है, परन्तु फिर भी इसकी सत्ता की पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। उपन्यास का कथानक इतिहास, पुराण, जीवनी, अनुश्रुति, विज्ञान, राजनीति कहीं से भी लिया जा सकता है। परन्तु उसे मानव स्वभाव का सच्चा मित्र होना चाहिए।

उपन्यास में कथानक में मौलिकता, रोचकता और संभाव्यता आदि गुणों का होना भी अनिवार्य है। कथानक के सभी अवयवों में अनुपात भी होना अनिवार्य है। यह कथानक सरल भी हो सकता है और जटिल भी। कथा का गुम्फन सम्बद्ध भी हो सकता है और असम्बद्ध भी (सुरज का सातवाँ घोड़ा-धर्मवीर भारती) परन्तु उसमें कलात्मकता होनी अनिवार्य है।

इसी प्रकार कथावस्तु, वर्णनात्मक (रंगभूमि), आत्मकथात्मक, पत्र शैली (चंद हसीनों के खुत्त) और मिश्रत, किसी भी शैली में हो सकता है, परन्तु उसमें अन्विति होनी अनिवार्य है।

उपन्यास का महत्व

उपन्यास को जीवन का चित्र माना जाता है और इसलिए उसके पात्रों का भी जीवंत होना आवश्यक है। साथ ही पात्रों का सहज और स्वाभाविक अर्थात् मानवीय भी होना अनिवार्य है। उपन्यास में चरित्र-चित्रण प्रधान उपन्यास अधिक लिखे जाने लगे हैं। अज्ञेय का ‘शेखर एक जीवनी‘ एक ऐसा ही उपन्यास है।

पात्रों के व्यक्तित्व के बाह्य और आंतरिक दो पक्ष होते हैं। वाह्य-व्यक्तित्व का विश्लेषण प्राय: प्रत्यक्ष विधि से किया जाता है। परंतु आंतरिक व्यक्तित्व के विश्लेषन के लिए कभी-कभी लेखक अप्रत्यक्ष विधि का भी आश्रय लेता है।

उपन्यास में चरित्रवैविध्य होना भी अनिवार्य है। इसलिए कभी उपन्यासकार व्यक्ति प्रधान चरित्रों (शेखर– शेखर एक जीवनी, अज्ञेय) को अपनाता है और कभी वर्ग प्रधान चरित्रों (होरी– गोदान, प्रेमचंद) को। कभी वह स्थिर चरित्रों (सूरदास– रंगभूमि, प्रेमचंद) का अंकन करता है और कभी गतिशील (मृणाल– त्यागपत्र, जैनेंद्र कुमार) चरित्रों का।

उपन्यास में प्रयुक्त होने वाले कथानक

उपन्यास में प्रयुक्त होने वाले कथानकों में रोचकता, स्वाभाविकता, सहजता और पात्र तथा परिस्थिति अनुकूलता का गुण होना अनिवार्य है। लम्बे, नीरस और असामाजिक कथोपकथन कृत्रिम पुस्तकीय और अविश्वसनीय प्रतीत होने के कारण उपन्यास को शिथिल ही करते हैं।

उपन्यास में प्राकृतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के निर्माण के दायित्व का निर्वाह भी उपन्यासकार को करना पड़ता है। उसका दायित्व है कि वह अपने पात्र की वेशभूषा, आचरण, विचारधारा आदि को ही उसके सामाजिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत न करे। प्रकृति को उपन्यासकार कभी पृष्ठभूमि के रूप में चित्रित करता है तो कभी सक्रिय पात्र के रूप में।

उपन्यास में एक निश्चित उद्देश्य होना अनिवार्य है, परन्तु इस उद्देश्य अथवा उपदेश को लेखक प्रत्यक्ष रूप में नहीं ला सकता, क्योंकि एक तो इससे कलात्मकता को आघात पहुँचता है और दूसरे पाठक पर उसका अपेक्षित प्रभाव भी नहीं पड़ता है। उपन्यास की भाषा-शैली का भी सहज, सरल तथा मात्रानुकूल होना अनिवार्य है।

प्रमुख उपन्यासकार

हिन्दी में उपन्यास साहित्य का प्रारम्भ लाला श्री निवास दास के ‘परीक्षा गुरु’ (1882) से स्वीकार किया जाता है। इनमें साथ ही अन्य लोगों ने उपन्यास लिखे, उनमें किशोरी लाल गोस्वामी, बाल कृष्ण भट्ट (नूतन ब्रह्मचारी) ठाकुर जगनमोहन सिंह, राधाकृष्ण दास और गोपाल राम गहमरी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। द्विवेदी युग के उपन्यास लेखकों में भी प्राय: यही लोग अग्रणी रहे हैं।

हाँ, द्विवेदी युग के अन्त में मुंशी प्रेमचंद का प्रादुर्भाव अवश्य हो गया जिन्हें आगे चलकर “उपन्यास सम्राट” की उपाधि जनसामान्य से मिली। इनके उपन्यासों में गोदान, रंगभूमि, निर्मला आदि को विशेष ख्याति मिली। विशम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिश’, चतुरसेन शास्त्री, शिवपूजन सहाय, जयशंकर प्रसाद (कंकाल, तितली) और जैनेन्द्र (सुनीता, त्याग पत्र) प्रेमचंद युग के अन्य उपन्यासकार है।

प्रमचंदोत्तर उपन्यासकारों में ख्याति प्राप्त करने वाले हैं- जैनेन्द्र (सुखदा), अज्ञेय (शेखर-एक जीवनी), यशपाल (झूठा सच), भगवतीचरण वर्मा (सीधी सच्ची बातें), इलाचंद्र जोशी (जहाज का पंछी), फणीश्वर नाथ रेणु (मैला आँचल), अमृत लाल नागर (बूंद और समुद्र), वृन्दावन लाल वर्मा (मृगनयनी), हजारी प्रसाद द्विवेदी, नागार्जुन, कमलेश्वर और शिवानी आदि।

उदाहरण

क्रमउपन्यासउपन्यासकार
1.भाग्यवतीश्रद्धाराम फिल्लौरी
2.परीक्षागुरुलाला श्रीनिवासदास
3.नूतन ब्रह्मचारी, सौ अजान एक सुजानबालकृष्ण भट्ट
4.पूर्ण प्रकाश, चंद्रप्रभाभारतेंदु हरिश्चंद्र
5.चंद्रकांता, नरेंद्रमोहिनी, वीरेंद्रवीर अथवा कटोरा भर खून, कुसुमकुमारी, चंद्रकांता संतति, भूतनाथदेवकीनंदन खत्री
6.धूर्त रसिकलाल, स्वतंत्र रमा और परतंत्र लक्ष्मी, हिंदू गृहस्थ, आदर्श दम्पति, सुशीला विधवा, आदर्श हिंदूमेहता लज्जाराम शर्मा
7.प्रणयिनी-परिणय, त्रिवेणी, लवंगलता, लीलावती, तारा, चपला, मल्लिकादेवी वा बंगसरोजिनी अंगूठी का नगीना, लखनऊ की कब्रा वा शाही महलसराकिशोरीलाल गोस्वामी
8.अद्भुत लाश, अद्भुत खून, खूनी कौनगोपालराय गहमरी
9.ठेठ हिंदी का ठाठ, अधखिला फूल‘हरिऔध’
10.श्यामा स्वप्नजगमोहन सिंह

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