अष्टछाप के कवि – अष्टछाप कवि मंडली और उनकी रचनाएँ एवं परिचय

Ashtachhap Kavi

अष्टछाप के कवि

अष्टछाप एक आठ कवियों का समूह था। आठो कवि (Ashtachhap ke kavi) दो समूह में विभाजित थे; चार महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी के एवं चार उनके पुत्र श्री विट्ठलनाथ जी के शिष्य थे, जिन्होंने अपने विभिन्न पद एवं कीर्तनों के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का गुणगान किया। अष्टछाप की स्थापना 1564 ई० में हुई थी।

अष्टछाप के कवियों का काल

भक्ति काल (1350 ई० – 1650 ई०): भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण काल कहा जाता है। भक्ति काल के उदय के बारे में सबसे पहले जॉर्ज ग्रियर्सन ने मत व्यक्त किया वे इसे “ईसायत की देंन” मानते हैं। भक्तिकाल को चार भागों में विभक्ति किया गया है- 1. संत काव्य, 2. सूफी काव्य, 3. कृष्ण भक्ति काव्य, 4. राम भक्ति काव्य। (विस्तार से जानें- Bhakti Kaal; अथवा भक्ति काल के कवि और उनकी रचनाएँ)

अष्टछाप के कवि की सूची

  1. सूरदास
  2. कुंभन दास
  3. परमानंद दास
  4. कृष्ण दास
  5. छीत स्वामी
  6. गोविंद स्वामी
  7. चतुर्भुज दास
  8. नंद दास

अष्टछाप कवि मंडली (Ashtchhap Kavi) दो समूहों में विभाजित थे- महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य के शिष्य और विट्ठलनाथ जी के शिष्य:-

वल्लभाचार्य के शिष्य 1. सूरदास 2. कुंभन दास 3, परमानंद दास 4. कृष्ण दास
विट्ठलनाथ के शिष्य 5. छीत स्वामी 6. गोविंद स्वामी 7. चतुर्भुज दास 8. नंद दास

अष्टछाप कवि मंडली के कवियों का सामान्य परिचय एवं उनके नाम और संख्या आदि के बारे में यहाँ जानकारी दी गई है।

अष्टछाप के कवियों का परिचय एवं उनकी रचनाएँ

1. सूरदास

महाकवि श्री सूरदास का जन्म 1478 ई में रुनकता क्षेत्र में हुआ। यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूरदास का जन्म दिल्ली के पास सीही नामक स्थान पर एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सूरदास के पिता, रामदास बैरागी प्रसिद्ध गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में अनेक भ्रान्तिया है, प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में 1583 ईस्वी में हुई।

सूरदास की रचनाएँ:

  • सूरसागर,
  • सूरसरावली,
  • साहित्य लहरी,
  • नल-दमयन्ती,
  • ब्याहलो
  • दशमस्कंध टीका,
  • नागलीला, भागवत्,
  • गोवर्धन लीला,
  • सूरपचीसी,
  • सूरसागर सार,
  • प्राणप्यारी।

इनमें से सूरदास के तीन ग्रंथ ही महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, सूरसागर, सूरसरावली, साहित्य लहरी।

2. कुंभन दास

कुम्भनदास अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि थे। ये परमानंददास जी के समकालीन थे। कुम्भनदास का चरित “चौरासी वैष्णवन की वार्ता” के अनुसार संकलित किया जाता है। कुम्भनदास जी का जन्म गोवर्धन,मथुरा के सन्निकट ब्रज में जमुनावतौ नामक ग्राम में संवत 1525 विक्रमी (1468 ई.) में चैत्र कृष्ण एकादशी को हुआ था। उनके घर में खेती-बाड़ी होती थी। अपने गाँव से वे पारसोली चन्द्रसरोवर होकर श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तन करने जाते थे। उनका जन्म गौरवा क्षत्रिय कुल में हुआ था। कुम्भनदास के सात पुत्र थे, जिनमें चतुर्भजदास को छोड़कर अन्य सभी कृषि कर्म में लगे रहते थे। उन्होंने १४९२ ई० में महाप्रभु वल्लभाचार्य से दीक्षा ली थी। वे पूरी तरह से विरक्त और धन, मान, मर्यादा की इच्छा से कोसों दूर थे। एक बार अकबर बादशाह के बुलाने पर इन्हें फतेहपुर सीकरी जाना पड़ा जहाँ इनका बड़ा सम्मान हुआ। पर इसका इन्हें बराबर खेद ही रहा, जैसा कि इनके इस पद से व्यंजित होता है-

संतन को कहा सीकरी सों काम ?
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम।।
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम।।
कुभंनदास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम।।

कुंभन दास की रचनाएँ:

  • कुम्भनदास के पदों की कुल संख्या जो ‘राग-कल्पद्रुम ‘ ‘राग-रत्नाकर’ तथा सम्प्रदाय के कीर्तन-संग्रहों में मिलते हैं, 500 के लगभग हैं। इन पदों की संख्या अधिक है।
  • जन्माष्टमी, राधा की बधाई, पालना, धनतेरस, गोवर्द्धनपूजा, इन्हद्रमानभंग, संक्रान्ति, मल्हार, रथयात्रा, हिंडोला, पवित्रा, राखी वसन्त, धमार आदि के पद इसी प्रकार के है।
  • कृष्णलीला से सम्बद्ध प्रसंगों में कुम्भनदास ने गोचार, छाप, भोज, बीरी, राजभोग, शयन आदि के पद रचे हैं जो नित्यसेवा से सम्बद्ध हैं।
  • इनके अतिरिक्त प्रभुरूप वर्णन, स्वामिनी रूप वर्णन, दान, मान, आसक्ति, सुरति, सुरतान्त, खण्डिता, विरह, मुरली रुक्मिणीहरण आदि विषयों से सम्बद्ध श्रृंगार के पद भी है।
  • कुम्भनदास ने गुरुभक्ति और गुरु के परिजनों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए भी अनेक पदों की रचना की। आचार्य जी की बधाई, गुसाईं जी की बधाई, गुसाईं जी के पालना आदि विषयों से सम्बद्ध पर इसी प्रकार के हैं। कुम्भनदास के पदों के उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि इनका दृष्टिकोण सूर और परमानन्द की अपेक्षा अधिक साम्प्रदायिक था। कवित्त की दृष्टि से इनकी रचना में कोई मौलिक विशेषताएँ नहीं हैं। उसे हम सूर का अनुकरण मात्र मान सकते हैं
  • कुम्भनदास के पदों का एक संग्रह ‘कुम्भनदास’ शीर्षक से श्रीविद्या विभाग, कांकरोली द्वारा प्रकाशित हुआ है।

3. परमानंद दास

परमानन्ददास (जन्म संवत् १६०६) वल्लभ संप्रदाय (पुष्टिमार्ग) के आठ कवियों (अष्टछाप कवि) में एक कवि जिन्होने भगवान श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का अपने पदों में वर्णन किया। इनका जन्म काल संवत १६०६ के आसपास है। अष्टछाप के कवियों में प्रमुख स्थान रखने वाले परमानन्ददास का जन्म कन्नौज (उत्तर प्रदेश) में एक निर्धन कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके ८३५ पद “परमानन्दसागर” में हैं। अष्टछाप में महाकवि सूरदास के बाद आपका ही स्थान आता है। इनके दो ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। ‘ध्रुव चरित्र’ और ‘दानलीला’। इनके अतिरिक्त ‘परमानन्द सागर’ में इनके ८३५ पद संग्रहीत हैं। इनके पद बड़े ही मधुर, सरस और गेय हैं।

परमानंद दास की रचनाएँ:

  • परमानंद सागर
  • परमानंद के पद
  • वल्लभ संप्रदायी कीर्तन दर्प संग्रह
  • उद्धव लीला
  • संस्कृत रत्नमाला।

4. कृष्ण दास

कृष्णदास हिन्दी के भक्तिकाल के अष्टछाप के कवि थे। उनकी असाधारण बुद्धिमत्ता, व्यवहार कुशलता और संघटन योयता से प्रभावित होकर वल्लभाचार्य ने उन्हें भेटिया (भेंट संग्रह करने वाला) के पद पर नियुक्त किया और फिर शीघ्र उन्हें श्रीनाथ जी के मंदिर का अधिकारी बना दिया। उन्होंने अपने इस उत्तरदायित्व का बड़ी योग्यता से निभाया। कृष्ण दास जन्म लगभग 1495 को गुजरात में चिलोतरा गाँव के एक कुनबी पाटिल परिवार में हुआ था। बचपन से ही प्रकृत्ति बड़ी सात्विक थी। जब वे 12-13 साल के थे, तो उन्होंने अपने पिता को चोरी करते देखा और उन्हें गिरफ्तार करा दिया परिणामस्वरूप वे पाटिल पद से हटा दिए गए। इस कारण पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया।

कृष्ण दास की रचनाएँ:

  • जुगलमान चरित
  • भ्रमरगीत
  • प्रेमतत्त्व निरूपण

5. छीत स्वामी

छीत स्वामी हिन्दी के भक्तिकाल के अष्टछाप के कवि थे। इनका जन्म 1515 ईस्वी में मथुरा में हुआ था । ये मथुरा के चौबे ब्राह्मण थे। ये प्रारंभ में छेड़छाड़ और गुंडागिरी का कार्य करते थे। बाद में उन्होंने विठ्ठलाचार्य से शिक्षा ली। ये बीरबल के पुरोहित थे। गोवर्धन के निकट 1585 ईस्वी में पुंछरी नामक स्थान पर इनका देहांत हुआ। इनका एक पद चर्चित है-

हे विधना तो सो अचरा पसारी कै मांगों।
जनम-जनम दीजौ मोहे याही ब्रज बसिबो।।

छीत स्वामी की रचनाएँ:

  • आठ पहर की सेवा
  • कृष्ण लीला के विविध प्रसंग
  • गोसाईं जी की बधाई

इनके पदों का एक संकलन विद्या-विभाग, कांकरौली से ‘छीतस्वामी’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। इनके पदों में श्रृंगार के अतिरिक्त ब्रजभूमि के प्रति प्रेमव्यंजना भी अच्छी पाई जाती है।

6. गोविंद स्वामी

गोविंद स्वामी हिन्दी के भक्तिकाल के अष्टछाप के सनाढय ब्राह्मण कवि थे। जिनका जन्म 1505 ई. में राजस्थान में भरतपुर के निकट आतरी नामक गांव में हुआ। इन्होंने गृहस्थ जीवन त्याग कर विठ्ठलाचार्य से शिक्षा ली थी। गोविंद स्वामी अष्टछाप के अंतिम कवि थे। संसार से विरक्त होकर ये गोवर्धन चले गए। वहाँ गिरिराज की कदमखाडी पर ही ये निवास करने लगे। राग सागरोद्भव, राग कल्पद्रुम, राग रत्नाकर तथा अन्य संग्रहों में कुल मिलाकर इनके 257 पद मिलते हैं। इनमें भाव की गहनता एवं अभिव्यक्ति का अनूठापन है। ये कुशल गायक भी थे।

भूत सी भयावनी भुजँग सी पयावनी औ:

भूत सी भयावनी भुजँग सी पयावनी औ ,
चूल्हे की सी लावनी ज्योँ नील मे रँगाई है ।
हाथी कैसे खाल बूढ़े भालू कैसे बाल ,
मनो बिधि ते बिधाता आबनूस की बनाई है ।
चौदस अमावस सी अधिक लसति स्याम ,
कहै कवि गोविँद ज्योँ हबसी की जाई है ।
तबा तिमिराबली मसी तैँ महा कालिमा तू ,
ऎसो रूप सुँदर कहाँ ते लूटि लाई है ।

गोविंद स्वामी की रचनाएँ:

  • भूत सी भयावनी भुजँग सी पयावनी औ
  • मो मन बसौ श्यामा-श्याम
  • देखो माई इत घन उत नँद लाल

7. चतुर्भुज दास

चतुर्भुजदास की वल्लभ सम्प्रदाय के भक्त कवियों में गणना की जाती है। ये कुम्भनदास के पुत्र और गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्य थे। डा ० दीन दयाल गुप्त के अनुसार इनका जन्म वि ० सं ० 1520 और मृत्यु वि ० सं ० 1624 में हुई थी। इनका जन्म जमुनावती गांव में गौरवा क्षत्रिय कुल में हुआ था। ये स्वभाव से साधु और प्रकृति से सरल थे। इनकी रूचि भक्ति में आरम्भ से ही थी। अतः भक्ति भावना की इस तीव्रता के कारण श्रीनाथ जी के अन्तरंग सखा बनने का सम्मान प्राप्त कर सके। चतुर्भुजदास के आराध्य नन्दनन्दन श्रीकृष्ण हैं। रूप, गुण और प्रेम सभी दृष्टियों से ये भक्त का मनोरंजन करने वाले हैं। इनकी रमणीयता भी विचित्र है ,नित्यप्रति उसे देखिये तो उसमें नित्य नवीनता दिखाई देगी:

माई री आज और काल्ह और ,
दिन प्रति और,देखिये रसिक गिरिराजबरन।
दिन प्रति नई छवि बरणै सो कौन कवि,
नित ही शृंगार बागे बरत बरन।।
शोभासिन्धु श्याम अंग छवि के उठत तरंग,
लाजत कौटिक अनंग विश्व को मनहरन।
चतुर्भुज प्रभु श्री गिरधारी को स्वरुप,
सुधा पान कीजिये जीजिए रहिये सदा ही सरन।।

चतुर्भुजदास की रचनाएँ:

चतुर्भुजदास के बारह ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जो ‘द्वादश यश’ नाम से विख्यात हैं। सेठ मणिलाल जमुनादास शाह ने अहमदाबाद से इसका प्रकाशन कराया था। ये बारह रचनाएँ पृथक-पृथक नाम से भी मिलती हैं। ‘हितजू को मंगल’ , ‘मंगलसार यश’ और ‘शिक्षासार यश’ इनकी उत्कृष्ट रचनाएँ हैं। इनकी भाषा चलती और सुव्यवस्थित है। इनके बनाए निम्न ग्रंथ मिले हैं-

  • द्वादशयश
  • भक्तिप्रताप
  • हितजू को मंगल
  • मंगलसार यश और
  • शिक्षासार यश

8. नंद दास

नन्ददास ब्रजभाषा के एक सन्त कवि थे। वे वल्लभ संप्रदाय (पुष्टिमार्ग) के आठ कवियों (अष्टछाप कवि) में से एक प्रमुख कवि थे। ये गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्य थे। नन्ददास का जन्म सनाढ्य ब्राह्मण कुल में वि ० सं ० 1420 में अन्तर्वेदी रामपुर (वर्तमान श्यामपुर) में हुआ जो वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले में है। ये संस्कृत और बृजभाषा के अच्छे विद्वान थे। भागवत की रासपंचाध्यायी का भाषानुवाद इस बात की पुष्टि करता है। वैषणवों की वार्ता से पता चलता है कि ये रसिक किन्तु दृढ़ संकल्प से युक्त थे। एक बार ये द्वारका की यात्रा पर गए और वहाँ से लौटते समय ये एक क्षत्राणी के रूप पर मोहित हो गये। लोक निन्दा की तनिक भी परवाह न करके ये नित्य उसके दर्शनों के लिए जाते थे। एक दिन उसी क्षत्राणी के पीछे-पीछे आप गोकुल पहुँचे। इसी बीच वि० सं० १६१६ में आपने गोस्वामी विट्ठलनाथ दीक्षा ग्रहण की और तदुपरान्त वहीं रहने लगे। डा० दीनदयाल गुप्त के अनुसार इनका मृत्यु-संवत १६३९ है। चौरासी वैष्णवन की वार्ता के अनुसार नन्ददास, गोस्वामी तुलसीदास के छोटे भाई थे। विद्वानों के अनुसार वार्ताएं बहुत बाद में लिखी गई हैं। अतः इनके आधार पर सर्वसम्मत निर्णय नहीं हो सकता। पर इतना निश्चित है कि जिस समय वार्ताएं लिखी गई होंगी उस समय यह जनश्रुति रही होगी कि नन्ददास तुलसीदास भाई हैं, चाहे चचेरे हों या गुरुभाई बहुत प्रचलित रही होगी।

नंददास की रचनाएँ:

  • छोटो सो कन्हैया एक मुरली मधुर छोटी
  • आज वृंदाविपिन कुंज अद्भुत नई
  • तपन लाग्यौ घाम, परत अति धूप भैया
  • रुचिर चित्रसारी सघन कुंज में मध्य कुसुम-रावटी राजै
  • ऊधव के उपदेश सुनो ब्रज नागरी
  • सूर आयौ माथे पर, छाया आई पाँइन तर
  • जुरि चली हें बधावन नंद महर घर
  • झूलत राधामोहन
  • माई फूल को हिंडोरो बन्यो, फूल रही यमुना
  • श्री लक्ष्मण घर बाजत आज बधाई
  • फल फलित होय फलरूप जाने
  • भाग्य सौभाग्य श्री यमुने जु देई
  • ताते श्री यमुने यमुने जु गावो
  • नेह कारन श्री यमुने प्रथम आई
  • भक्त पर करि कृपा श्री यमुने जु ऐसी
  • अरी चल दूल्हे देखन जाय
  • माई आज तो गोकुल ग्राम
  • प्रात समय श्री वल्ल्लभ सुत को
  • नंद भवन को भूषण माई

अष्टछाप के कवियों की विशेषता

अष्टछाप के कवि में सूरदास सबसे प्रमुख थे। सूरदास ने अपनी निश्चल भक्ति के कारण भगवान कृष्ण के सखा भी माने जाते थे। अष्टछाप के कवि परम भागवत होने के कारण यह लोग भगवदीय भी कहे जाते थे।

अष्टछाप के कवि विभिन्न वर्णों के थे-

  • परमानन्द कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे।
  • कृष्णदास शूद्रवर्ण के थे।
  • कुम्भनदास राजपूत थे, लेकिन खेती का काम करते थे।
  • सूरदासजी किसी के मत से सारस्वत ब्राह्मण थे और किसी किसी के मत से ब्रह्मभट्ट थे।
  • गोविन्ददास सनाढ्य ब्राह्मण थे।
  • छीत स्वामी माथुर चौबे थे।
  • नंददास जी सोरों सूकरक्षेत्र के सनाढ्य ब्राह्मण थे, जो महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी के चचेरे भाई थे।

अष्टछाप के कवि के भक्त

अष्टछाप के कवि के भक्तों में बहुत ही उदारता पायी जाती है। “चौरासी वैष्णव की वार्ता” तथा “दो सौ वैष्ण्वन की वार्ता” में इनका जीवनवृत विस्तार से पाया जाता है।

  • ये आठों भक्त कवि श्रीनाथजी के मन्दिर की नित्य लीला में भगवान श्रीकृष्ण के सखा के रूप में सदैव उनके साथ रहते थे, इस रूप में इन्हे ‘अष्टसखा’ की संज्ञा से जाना जाता है।
  • अष्टछाप के भक्त कवियों में सबसे ज्येष्ठ कुम्भनदास थे और सबसे कनिष्ठ नंददास थे।
  • काव्यसौष्ठव की दृष्टि से सर्वप्रथम स्थान सूरदास का है तथा द्वितीय स्थान नंददास का है।
  • सूरदास पुष्टिमार्ग के नायक कहे जाते है। ये वात्सल्य रस एवं शृंगार रस के अप्रतिम चितेरे माने जाते है। इनकी महत्त्वपूर्ण रचना ‘सूरसागर’ मानी जाती है।
  • नंददास काव्य सौष्ठव एवं भाषा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इनकी महत्त्वपूर्ण रचनाओ में ‘रासपंचाध्यायी’,’भवरगीत’ एवं ‘सिन्धांतपंचाध्यायी’ है।
  • परमानंद दास के पदों का संग्रह ‘परमानन्द-सागर’ है। कृष्णदास की रचनायें ‘भ्रमरगीत’ एवं ‘प्रेमतत्त्व निरूपण’ है।
  • कुम्भनदास के केवल फुटकर पद पाये जाते हैं। इनका कोई ग्रन्थ नही है।
  • छीतस्वामी एवं गोविंदस्वामी का कोई ग्रन्थ नही मिलता।
  • चतुर्भुजदास की भाषा प्रांजलता महत्त्वपूर्ण है। इनकी रचना द्वादश-यश, भक्ति-प्रताप आदि है।
  • सम्पूर्ण भक्तिकाल में किसी आचार्य द्वारा कवियों, गायकों तथा कीर्तनकारों के संगठित मंडल का उल्लेख नही मिलता। अष्टछाप जैसा मंडल आधुनिक काल में भारतेंदु मंडल, रसिकमंडल, मतवाला मंडल, परिमल तथा प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ के रूप में उभर कर आए।
  • अष्टछाप के आठों भक्त-कवि समकालीन थे। इनका प्रभाव लगभग 84 वर्ष तक रहा। ये सभी श्रेष्ठ कलाकार,संगीतज्ञ एवं कीर्तनकार थे।
  • गोस्वामी बिट्ठलनाथ ने इन अष्ट भक्त कवियों पर अपने आशीर्वाद की छाप लगायी, अतः इनका नाम ‘अष्टछाप’ पड़ा।

ASHTACHHAP KE KAVI

Frequently Asked Questions (FAQ)

1. अष्टछाप के 8 कवि कौन कौन से हैं?

आठ भक्त कवियों में चार वल्लभाचार्य के शिष्य थे- सूरदास, कुम्भनदास, सूरदास, परमानंद दास, कृष्णदास। वहीं, अन्य चार गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्य थे – गोविंदस्वामी, नंददास, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास।

2. अष्टछाप में कुल कितने कवि थे?

अष्टछाप, महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी एवं उनके पुत्र श्री विट्ठलनाथ जी द्वारा संस्थापित 8 भक्तिकालीन कवियों का एक समूह था, जिन्होंने अपने विभिन्न पद एवं कीर्तनों के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का गुणगान किया। अष्टछाप की स्थापना 1565 ई० में हुई थी।

3. अष्टछाप के प्रथम कवि कौन है?

कुंभन दास, कुंभनदास का जन्म 1468 ई. में गोवर्धन के निकट जमुनावटी गांव में हुआ था । यह प्रथम अष्टछाप कवि कहलाते हैं।

4. अष्टछाप के कवियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध कौन थे?

अष्टछाप के कवियों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सूरदास हैं जिन्होंने अपनी महान रचना सूरसागर में कृष्ण के बाल-रूप, सखा-रूप तथा प्रेमी रूप का अत्यंत विस्तृत, सूक्ष्म व मनोग्राही अंकन किया है।

5. असम के सबसे प्रसिद्ध कवि कौन है?

सबसे प्रसिद्ध असमिया कवि शंकरदेव (1449-1568) थे, जिनकी कविता और भक्ति की कई रचनाएँ आज भी पढ़ी जाती हैं और जिन्होंने माधवदेव (1489-1596) जैसे कवियों को महान सौंदर्य के गीत लिखने के लिए प्रेरित किया।

6. कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि कौन है?

भक्तिकाल में कृष्णभक्ति शाखा के अंतर्गत आने वाले प्रमुख कवि हैं – कबीरदास, संत शिरोमणि रविदास,तुलसीदास, सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंद दास, कुंभनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, हितहरिवंश, गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास, सूरदास-मदनमोहन, श्रीभट्ट, व्यास जी, रसखान, ध्रुवदास तथा चैतन्य महाप्रभु।

7. किसको राजाओं ने आठ कवियों का दरबार कहा?

अष्टदिग्गज, सम्राट कृष्णदेवराय के दरबार में आठ तेलुगु विद्वानों और कवियों को दी गई सामूहिक उपाधि है, जिन्होंने 1509 से 1529 में अपनी मृत्यु तक विजयनगर साम्राज्य पर शासन किया था।

8. अष्टदिग्गज किस राजा के दरबार में कवियों को दिया जाने वाला सामूहिक उपाधि है?

सम्राट कृष्णदेवराय के दरबार में आठ विद्वान और कवियों रहते थे जिन्हें अन्य विद्वानों और राजाओं ने ‘अष्टदिग्गज‘ कहा।, कृष्णदेव राय ने 1509 से 1529 में अपनी मृत्यु तक विजयनगर साम्राज्य पर शासन किया था।

9. अष्टदिग्गज में कितने कवि होते हैं?

अष्ट दिगगज में आठ तेलुगु कवि होते थे। जिनके नाम निम्न हैं- अल्लासानी पेद्दाना, नंदी थिमना, मदायागरी मल्लाना, धूरजति, अय्यल रज्जु रामा भद्रुडु, पिंगली सूराना, रामराजभूषण और तेनाली राम कृष्ण।

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