विधा (Vidha)
विधा क्या है?
विधा का अर्थ है, किस्म, वर्ग या श्रेणी, अर्थात विविध प्रकार की रचनाओं को उनके गुण, धर्मों के आधार पर अलग करना। हिन्दी साहित्य में विधा शब्द का प्रयोग, एक वर्गकारक के रूप में किया जाता है। विधाएँ अस्पष्ट श्रेणियाँ हैं, इनकी कोई निश्चित सीमा रेखा नहीं होती; इनकी पहचान समय के साथ कुछ मान्यताओं के आधार पर निर्मित की जाती है।
विधाएँ कई तरह की होती हैं ; उदाहरण के लिए- साहित्य की विधाएँ, गद्य की विधाएं, कविता की विधाएँ, काव्य आदि। साहित्य एवं भाषण में विधा शब्द का प्रयोग एक वर्गकारक के रूप में किया जाता है। किन्तु सामान्य रूप से यह किसी भी कला के लिये प्रयुक्त किया जा सकता है।
विधाओं की उपविधाएँ भी होती हैं। उदाहरण के लिये हम कहते हैं कि निबन्ध, गद्य की एक विधा है। विधाएँ अस्पष्ट श्रेणीयाँ हैं और इनकी कोई निश्चित सीमा-रेखा नहीं होती। ये समय के साथ कुछ मान्यताओं के आधार पर इनकी पहचान निर्मित हो जाती है।
हिन्दी साहित्य की विधाएँ (Hindi Sahitya ki vidhaye)
विधाओं में सृजनात्मक तथा विचारात्मक साहित्य दीर्घकाल से निरंतर विद्वानों द्वारा लिखा जा रहा है। प्रमुख हिन्दी की साहित्यिक विधाएँ इस प्रकार हैं-
- नाटक
- एकांकी
- उपन्यास
- कहानी
- आलोचना
- निबन्ध
- संस्मरण
- रेखाचित्र
- आत्मकथा
- जीवनी
- डायरी
- यात्रा व्रत्त
- रिपोर्ताज
- कविता
कुछ अन्य हिन्दी साहित्यिक विधाएँ:
- लघुकथा,
- प्रहसन (कामेडी),
- विज्ञान कथा,
- व्यंग्य,
- पुस्तक-समीक्षा या पर्यालोचन,
- साक्षात्कार।
ललित कला की विधाएँ:
- चित्रकला (पेंटिंग),
- फोटोग्राफी।
कम्प्यूटर, चलचित्र एवं खेल की विधाएँ:
- क्रिया (ऐक्शन),
- सिमुलेशन,
- वॅस्टर्न।
- रणनीति (स्ट्रेटेजी),
- साहसिक यात्रा (ऐडवेंचर),
- क्रत्रिम बुद्धिमता।
Hindi Gadya Sahitya Ki Vidhaye
हिन्दी साहित्य की प्रमुख गद्य विधाएं निम्नलिखित हैं:
- नाटक,
- उपन्यास,
- निबंध,
- कहानी,
- संस्मरण,
- आत्मकथा,
- जीवनी,
- समीक्षा,
- इंटरव्यूव साहित्य (साक्षात्कार),
- यात्रा-साहित्य,
- डायरी-साहित्य,
- रेखाचित्र,
- एकांकी,
- पत्र-साहित्य और
- काव्य आदि।
1. नाटक
हिन्दी साहित्य की विधाओं में नाटक काव्य का एक रूप होता है, अर्थात जो रचना केवल श्रवण द्वारा ही नहीं, अपितु दृष्टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानुभूति कराती है उसे नाटक कहते हैं। हिन्दी गद्य साहित्य का पहला नाटक ‘नहुष’ है जिसका रचनाकाल 1857 ई. है और इसके लेखक “गोपाल चन्द्र गिरधरदास” हैं। हिन्दी साहित्य की इस गद्य विधा की कुछ रचनाएं इस प्रकार हैं-
- उपेन्द्रनाथ अश्क (अंजो दीदी),
- विष्णु प्रभाकर (डॉक्टर),
- जगदीशचंद्र माथुर (कोनार्क),
- लक्ष्मीनारायण लाल (सुन्दर रस, मादा कैक्टस),
- मोहन राकेश (आषाढ़ का एक दिन),
- विनोद रस्तोगी (नया हाथ)।
2. उपन्यास
काव्य और नाटक की अपेक्षा नवीनतम होते हुए भी उपन्यास आधुनिक काल की सर्वाधिक लोकप्रिय और सशक्त हिन्दी साहित्य की विधा है। इसका कारण यह है कि इसमें मनोरंजन का तत्त्व तो अधिक रहता ही है, साथ-साथ जीवन को इसकी बहमुखी छवि के साथ व्यक्त करने की शक्ति और अवकाश भी रहता है। हिन्दी गद्य विधा का प्रथम उपन्यास लाला श्री निवास दास के ‘परीक्षा गुरु‘ (1882) स्वीकार किया जाता है। इस हिन्दी साहित्य की विधा के कुछ उदाहरण हैं-
- भाग्यवती ~ श्रद्धाराम फिल्लौरी
- परीक्षागुरु ~ लाला श्रीनिवासदास
- नूतन ब्रह्मचारी, सौ अजान एक सुजान ~ बालकृष्ण भट्ट
- पूर्ण प्रकाश, चंद्रप्रभा ~ भारतेंदु हरिश्चंद्र
- चंद्रकांता, नरेंद्रमोहिनी, वीरेंद्रवीर अथवा कटोरा भर खून, कुसुमकुमारी, चंद्रकांता संतति, भूतनाथ ~ देवकीनंदन खत्री
- धूर्त रसिकलाल, स्वतंत्र रमा और परतंत्र लक्ष्मी, हिंदू गृहस्थ, आदर्श दम्पति, सुशीला विधवा, आदर्श हिंदू ~ मेहता लज्जाराम शर्मा
- प्रणयिनी-परिणय, त्रिवेणी, लवंगलता, लीलावती, तारा, चपला, मल्लिकादेवी वा बंगसरोजिनी अंगूठी का नगीना, लखनऊ की कब्रा वा शाही महलसरा ~ किशोरीलाल गोस्वामी
- अद्भुत लाश, अद्भुत खून, खूनी कौन ~ गोपालराय गहमरी
3. निबंध
हिन्दी साहित्य में गद्य का प्रारम्भ भारतेन्दु युग से माना जाता है और भारतेन्द्र या लेखकों को सर्वाधिक सफलता प्राप्त हुई निबन्ध लेखन से। इस काल में प्रमुख निबंध लेखकों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रताप नारायण मिश्र (दाँत, भौं, नारी) बाल कृष्ण भट्ट (कृषकों की दुरावस्था) तथा प्रेमघन का नाम लिया जा सकता है। इस हिन्दी साहित्य की विधा की कुछ रचनाएं निम्न हैं-
- राजा भोज का सपना ~ शिवप्रसाद ‘सितारे-हिंद’
- म्युनिसिपैलिटी के कारनामे, जनकस्य दण्ड, रसज्ञ रंजन, कवि और कविता, लेखांजलि, आत्मनिवेदन, सुतापराधे ~ महावीर प्रसाद द्विवेदी
- विक्रमोर्वशी की मूल कथा, अमंगल के स्थान में मंगल शब्द, मारेसि मोहि कुठाँव, कछुवा धर्म ~ चंद्रधर शर्मा गुलेरी
- शिवशंभू के चिट्ठे, चिट्ठे और खत ~ बालमुकुंद गुप्त
- निबंध नवनीत, खुशामद, आप, बात, भौं, प्रताप पीयूष ~ प्रतापनारायण मिश्र
- पद्म पराग, प्रबंध मंजरी में संकलित निबंध ~ पद्मसिंह शर्मा
4. कहानी
कहानी साहित्य की सबसे प्राचीन गद्य विधा है और समय-समय पर इसकी परिभाषा देने का प्रयत्न विद्वानों द्वारा किया जाता रहा है। इस विषय में प्रेमचंद का कथन है कि, कहानी वह रचना है जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उददेश्य रहता है। उसके चरित्र, उसकी शैली, उसका कथा विन्यास उसी एक भाव की पुष्टि करते हैं। वह एक गमला है जिसमें एक पौधे का माधुर्य अपने समुन्नत रूप से दृष्टिगोचर होता है। इस हिन्दी गद्य विधा की कुछ रचनाएं इस प्रकार हैं-
- रानी केतकी की कहानी ~ इंशाअल्ला खाँ
- राजा भोज का सपना ~ राजा शिवप्रसाद ‘सितारे-हिंद’
- अद्भुत अपूर्व सपना ~ भारतेंदु
- दुलाईवाली ~ राजा बाला घोष (बंगमहिला)
- इंदुमती, गुलबहार ~ किशोरीलाल गोस्वामी
- मन की चंचलता ~ माधवप्रसाद मिश्र
- प्लेग की चुडैल ~ भगवानदीन
- ग्यारह वर्ष का समय ~ रामचंद्र शुक्ल
5. संस्मरण
हिन्दी साहित्य की संस्मरण विधा को हम पूर्ण स्मृति भी कह सकते हैं। स्मृति का एक सिरा वर्तमान से जुड़ा होता है, तो दूसरा अतीत से; संस्मरण अतीत और वर्तमान का वह सेतु है, जो दोनों किनारे में संवाद स्थापित करता है।
यह आधुनिक काल में नवविकसित, सर्वाधिक विवादों से घिरी साहित्य-विधा है। हिन्दी की यह विधा कभी तो जीवनी, रेखाचित्र, रिपोर्ताज और कभी निबन्ध के अन्तर्गत परिगणित की गई है। किन्तु उसकी विशाल परम्परा ने आज इस हिन्दी साहित्य रूप को स्वतंत्र अस्तित्व प्रदान किया है। उदाहरण के लिए हिन्दी गद्य की इस विधा की कुछ कृतियाँ-
- प्रकाशचन्द्र गुप्त (पुरानी स्मृतियाँ),
- राधिका रमण प्रसाद सिंह (मौलवी साहब, देवी बाबा),
- कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ (जिन्दगी मुस्कुराई),
- देवेन्द्र सत्यार्थी (रेखाएँ बोल उठीं, क्या गोरी और साँवरी),
- जैनेन्द्र कुमार (ये और वे)
6. आत्मकथा
लेखक जब स्वयं अपने जीवन को लेखाकार अथवा पुस्तकाकार रूप में हमारे सामने रखता है, तब उसे आत्मकथा कहा जाता है। हिन्दी में आत्मकथा गद्य की एक नवीन विधा है। यह उपन्यास, कहानी, जीवनी की भाँति लोकप्रिय है। इसमें लेखक अपनी अन्तरंग जीवन-झाँकी चित्रित करता है। परंतु इस आत्मकथा में वह अपने विवेकानुसार अनावश्यक आवश्यक घटनाओं का चुनाव करता है। हिन्दी साहित्य की इस गद्य विधा की कुछ रचनाएं निम्नलिखित हैं-
- अर्द्धकथानक (1641 ई.) ~ बनारसीदास जैन
- स्वरचित आत्मचरित (1879 ई.) ~ दयानंद सरस्वती
- मुझमें देव जीवन का विकास (1909 ई.) ~ सत्यानंद अग्निहोत्री
- मेरे जीवन के अनुभव (1914 ई.) ~ संत राय
- फिजी द्वीप में मेरे इक्कीस वर्ष (1914 ई.) ~ तोताराम सनाढ्य
7. जीवनी
किसी व्यक्ति के जीवन का चरित्र चित्रण करना अर्थात किसी व्यक्ति विशेष के सम्पूर्ण जीवन वृतांत को जीवनी कहते है। जीवनी का अंग्रेजी अर्थ “बायोग्राफी” है। हिन्दी साहित्य की गद्य विधा जीवनी में व्यक्ति विशेष के जीवन में घटित घटनाओं का कलात्मक और सौन्दर्यता के साथ चित्रण होता है। हिन्दी की इस गद्य विधा की कुछ रचनाएं निम्न हैं-
- भक्तमाल (1585 ई.) ~ नाभा दास
- चौरासी वैष्णवन की वार्ता, दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता (17 वी सदी ई.) ~ गोसाई गोकुलनाथ
- दयानंद दिग्विजय (1881 ई.) ~ गोपाल शर्मा शास्त्री
- नेपोलियन बोनापार्ट का जीवन चरित्र (1883 ई.) ~ रमाशंकर व्यास
- महाराजा मान सिंह का जीवन चरित्र (1883 ई.), राजा मालदेव (1889 ई.), उदय सिंह महाराजा (1893 ई.), जसवंत सिंह (1896 ई.), प्रताप सिंह महाराणा (1903ई.), संग्राम सिंह राणा (1904 ई.) ~ देवी प्रसाद मुंसिफ
- अहिल्याबाई का जीवन चरित्र (1887 ई.), छत्रपति शिवाजी का जीवन चरित्र (1890 ई.), मीराबाई का जीवन चरित्र (1893 ई.) ~ कार्तिक प्रसाद खत्री
8. यात्रा-साहित्य
एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की क्रिया यात्रा कहलाती है और जिस साहित्य में इस यात्रा का वर्णन किया जाता है उसे यात्रा वृत्त कहते हैं। इस गद्य विधा का पहला यात्रा-वृत्त “सरयू पार की यात्रा” है, जिसका का रचनाकाल 1871 ई. है और इसके लेखक “भारतेन्दु हरिश्चन्द्र” हैं। इस हिन्दी साहित्य की गद्य विधा की कुछ कृतियाँ उदाहरणस्वरूप दी गईं हैं-
- सरयू पार की यात्रा, मेंहदावल की यात्रा, लखनऊ की यात्रा, हरिद्वार की यात्रा (1871 ई. से 1879 ई. के बीच) ~ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
- लंदन यात्रा (1883 ई.) ~ श्रीमती हरदेवी
- लंदन का यात्री (1884 ई.) ~ भगवान दास वर्मा
- मेरी पूर्व दिग्यात्रा (1885 ई.), मेरी दक्षिण दिग्यात्रा (1886 ई.) ~ दामोदर शास्त्री
- ब्रजविनोद (1888 ई.) ~ तोताराम वर्मा
- रामेश्वरम यात्रा (1893 ई.), बद्रिकाश्रम यात्रा (1902 ई.) ~ देवी प्रसाद खत्री
- गया यात्रा (1894 ई.) ~ बाल कृष्ण भट्ट
9. डायरी-साहित्य
डायरी लेखन व्यक्ति के द्वारा अपने अभुभवों, सोच और भावनाओं को लिखित रूप में अंकित करके बनाया गया एक संग्रह है। विश्व में हुए महान व्यक्ति डायरी लेखन का कार्य करते थे और उनके अनुभवों से उनके निधन के बाद भी कई लोगों को प्रेरणा मिलती थी।
हिन्दी में इस गद्य विधा के डायरी लेखकों में महात्मा गाँधी, जमनालाल बजाज, बच्चन, मोहन राकेश, धीरेन्द्र वर्मा, मुक्ति बोध (एक साहित्यिक की डायरी), दिनकर, जय प्रकाश के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
10. रेखाचित्र
हिन्दी साहित्य की इस विधा में रेखाचित्र के पर्याय रूप में व्यक्ति चित्र, शब्द चित्र, शब्दांकन आदि शब्दों का प्रयोग भी होता है, परन्तु प्रायः विद्वान् इस विधा को रेखाचित्र नाम से अभिहित करते हैं। उदाहरणस्वरूप कुछ रचनाएं इस हिन्दी विधा की निम्न हैं-
- पद्म पराग (1929 ई.) ~ पद्म सिंह शर्मा
- बोलती प्रतिमा (1937 ई.) ~ श्रीराम शर्मा
- शब्द-चित्र एवं रेखा-चित्र (1940 ई.), पुरानी स्मृतियाँ और नये स्केच (1947 ई.) ~ प्रकाशचंद्र गुप्त
- अतीत के चलचित्र (1941 ई.), स्मृति की रेखाएँ (1947 ई.) ~ महादेवी वर्मा
- जो न भूल सका (1945 ई.) ~ भदन्त आनंद कौसल्यायन
- माटी की मूरतें (1946 ई.), गेहूँ और गुलाब (1950 ई.) ~ रामवृक्ष बेनीपुरी
11. एकांकी
हिन्दी में ‘एकांकी‘ जो अंग्रेजी ‘वन एक्ट प्ले’ के लिए हिन्दी नाम है। यह हिन्दी साहित्य की विधा आधुनिक काल में हिन्दी भाषा के अंग्रेजी से संपर्क का परिणाम है, पर भारत के लिए यह साहित्य रूप नया बिल्कुल नहीं है। इसीलिए प्रो. अमरनाथ के इस कथन- एकांकी नाटक हिन्दी में सर्वथा नवीनतम कृति है, “इसका जन्म हिन्दी साहित्य में अंग्रेजी के प्रभाव के कुछ वर्ष पूर्व ही हुआ है।” इस वाक्य के विरोध में डॉ. सरनाम सिंह का कथन है कि यह मानना कितना भ्रामक होगा कि हिन्दी एकांकी के सामने कोई भारतीय आदर्श ही न था। हिन्दी साहित्य की इस विधा की कुछ कृतियाँ निम्न हैं-
- तन-मन-धन गुसाँई जी के अर्पण (राधाचरण गोस्वामी)
- शिक्षादान (बालकृष्ण भट्ट)
- जनेऊ का खेल (देवकीनंदन खत्री)
- चार वेचारे, अफजल बध, भाई मियाँ (पांडे बेचन शर्मा ‘उग्र’)
- आनरेरी मजिस्ट्रेट, राजपूत की हार, प्रताप प्रतिज्ञा (सुदर्शन)
12. समीक्षा
समीक्षा व्यावहारिक आलोचना की बुनियादी जमीन है। जो बढ़िया पुस्तक समीक्षा नहीं लिख सकता, वह बढ़िया आलोचना भी नहीं लिख सकता। साहित्यिक आलोचना के लिए जरूरी है- रचना के मर्म की पहचान। रचना की संवेदना, भाषा-शिल्प, अंतर्वस्तु आदि को पहचानने वाली सक्षम और निर्भीक दृष्टि से व्यावहारिक आलोचना बनती है। निश्चय ही, साहित्य-सैद्धांतिकी आलोचना में सहायक है, लेकिन वह व्यावहारिक आलोचना का विकल्प नहीं हो सकती। हिंदी और अन्य भाषाओं के जितने मान्य आलोचक हुए हैं, वे प्राय: समर्थ पुस्तक समीक्षक भी थे। ऐसे आलोचकों में रामचंद्र शुक्ल, नंददुलारे वाजपेयी, रामविलास शर्मा, नलिन विलोचन शर्मा, विजयदेव नारायण साही, नामवर सिंह या टीएस एलियट, एफआर लिविस आदि को याद किया जा सकता है।
13. इंटरव्यूव साहित्य (साक्षात्कार)
हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार’ विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है।
आश्चर्यजनक इसलिए है कि हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है।
14. पत्र-साहित्य
पत्र-साहित्य हिन्दी की वैयक्तिक विधा है। पत्र न तो प्रकाशन के लिए लिखे जाते हैं, न उनमें सर्वजनीनता होती है। हिंदी-साहित्य के इतिहास और समीक्षा-ग्रंथ इस विधा के विकास या महत्त्व के सम्बंध में प्रायः मौन हैं। इसका एक कारण है व्यवस्थित रूप से छपे हुए पत्र-संग्रहों की विरलता और दूसरा हमारा उपेक्षा-भाव।
समयान्तर में पत्र-पत्रिकाओं की भरमार के साथ जैसे-जैसे साहित्यकारों में आत्मचेतना आयी, पत्र-लेखन और प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। धीरे-धीरे दिवंगत साहित्यकारों के पत्र स्मृति-ग्रंथों में छपने लगे।
लेकिन, इस विधा की ओर सर्वप्रथम ध्यान पं. बनारसीदास चतुर्वेदी का गया। उन्होंने तो पत्र-लेखन को एक व्यसन के रूप में ही स्वीकार कर लिया और कुछ लेखकों को लेकर पत्रलेखन-मण्डल की स्थापना की. उसके सक्रिय सदस्य आचार्य शिवपूजन सहाय भी थे। पत्र-साहित्य नामक हिन्दी विधा की प्रमुख रचनाएं निम्न हैं-
- भगवद्दत्त – ऋषि दयानन्द का पत्र व्यवहार (1909)
- सतीश चन्द्र – पत्रांजलि (1922)
- सुभाषचन्द्र बोस – पत्रावलि
- भदन्त आनन्द कौसल्यायन – भिक्षु के पत्र (1940)
- डॉ० धीरेन्द्र वर्मा – यूरोप के पत्र (1944)
- सत्यभक्त स्वामी – अनमोल पत्र (1950)
- सूर्यबाला सिंह – मनोहर पत्र (1952)
- ब्रजमोहनलाल वर्मा – लन्दन के पत्र (1954)
- बैजनाथ सिंह ‘विनोद’ – द्विवेदी पत्रावली (1954)
- बनारसीदास चतुर्वेदी व हरिशंकर शर्मा – पद्म सिंह शर्मा के पत्र (1956)
- धीरेन्द्र वर्मा व लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय – प्राचीन हिन्दी पत्र संग्रह (1959)
15. काव्य
हिन्दी साहित्य की पद्यात्मक एवं छन्द-बद्ध रचना काव्य कहलाती है। चिन्तन की अपेक्षा, उसमें भावनाओं की प्रधानता होती है। उसका साहित्य आनन्द सृजन करता है। इसका उद्देश्य सौन्दर्य की अनुभूति द्वारा आनन्द की प्राप्ति है। आनुषंगिक रूप से काव्य द्वारा भाषा की भी समृद्धि होती है, परन्तु मूलतः वह आनन्द का साधन है। तर्क, युक्ति एवं चमत्कार आदि का आश्रय न लेकर कवि रसानुभूति का समवेत प्रभाव उत्पन्न करता है। काव्यों की कुछ कृतियाँ उदाहरणस्वरूप दी गईं हैं-
- रामायण ~ बाल्मीकि।
- महाभारत ~ व्यास।
- पद्मावत ~ मलिक मोहम्मद जायसी।
- रामचरितमानस ~ तुलसीदास।
- कामायनी ~ जयशंकर प्रसाद।
- साकेत ~ मैथिली शरण गुप्त।
16. कविता
हिन्दी साहित्य की कविता विधा में यथार्थ का यथारूप चित्रण नहीं मिलता वरन् यथार्थ को कवि जिस रूप में देखता है तथा जिस रूप में उससे प्रभावित होता है, उसी का चित्रण करता है। कवि का सत्य सामान्य सत्य से भिन्न प्रतीत होता है। वह इसी प्रभाव को दिखाने के लिए अतिशयोक्ति का सहारा भी लेता है; अत: काव्य में अतिशयोक्ति भी दोष न होकर अलंकार बन जाती है। देखें – कविता की विधाएं।
विधाएं और उनका अनुवाद
केवल हिन्दी साहित्य ही नहीं समाज, संस्कृति, साहित्य, भाषा, व्यवसाय एवं अनुवाद से जुडे अधिकतर विधाओं के विकास में अनुवाद का ही योगदान महत्वपूर्ण रहा हैं। आज भी आधुनिकता और प्रौद्योगिकी के युग में भी ‘अनुवाद’ यह भूमिका बखूबि निभा रहा हैं।
हिंदी में नई साहित्यिक विधाओं के विकास में हिंदी अनुवाद की भूमिका किस प्रकार महत्व पूर्ण रही इसे हम केवल अनुवाद की भूमिका को ध्यान में रखते हुए निम्न रुप से देख सकते है:
पाश्चात्य सहित्य के विकास के साथ ही हिंदी साहित्य की विधाओं का विकास भी होता गया। इसका एक कारण यह था की इस दौरान अधिकतर जगह अनुवाद की स्त्रोत भाषा अंग्रेजी थी। विश्व के किसी भी साहित्य का अनुवाद पहले अंग्रेजी में होता फिर अंग्रेजी के माध्यम से अन्य भाषा जैसे हिंदी अनुवाद होता था।
हिंदी साहित्य में न केवल पाश्चात्य साहित्य में विकसित साहित्यिक विधाओं का ही विकास हुवा बल्कि भारतीय भाषाओं के साहित्यक विधाओं का भी विकास अनुवाद के माध्यम से हिंदी की साहित्यिक विधाओं में दिखाई दिया। विशेष कर हम उन्हीं विधाओं पर अधिक विचार करेंगे जिसमें अनुवाद का महत्व अधिक रहा। जिसमें मुख्य रुप से निम्न विधाओं को प्रमुख रुप से लिखा जाता हैं।
१. नाटक, २. उपन्यास, ३. निबंध, ४. कहानी, ५. संस्मरण, ६. आत्मकथा, ७. जीवनी, ८. समीक्षा, ९. इंटरव्यूव साहित्य (साक्षात्कार), १०. यात्रा-साहित्य, ११. डायरी-साहित्य, १२. रेखाचित्र, १३. एकांकी, १४. पत्र-साहित्य और १५. काव्य आदि।
साहित्यिक विधाओं के विकास पर बारिकी से अनुसंधान कीया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा की हिंदी साहित्य में इन नई साहित्यिक विधाओं के विकास में अनुवाद ने सबसे महत्व पूर्ण भूमिका निभाई हैं। परंतू आज भी अनुवाद को उसके कार्य के अनुसार हिंदी साहित्य में महत्व नहीं दिया जाता फिर भी अनुवाद अपना कार्य निरंतर रुप करता रहेगा।
नाटक बाबू रामकृष्ण वर्मा द्वारा ’वीरनार’,’कृष्णाकुमा’ और ’पद्मावत’ इन नाटकों का अनुवाद हुवा। बाबू गोपालराम ने ’ववी’, ’वभ्रुवाह’, ’देशदशा’, ’विद्या विनोद’ और रवींद्र बाबू के ’चित्रांगदा’ का अनुवाद किया, रुपनारायण पांण्डे ने गिरिश बाबू के ’पतिव्रता’ क्षीरोदप्रसाद विद्यावियोद के ’खानजहाँ’ दुर्गादास ताराबाई, इन नाटकों के अनुवाद प्रस्तुत किए।
अंग्रेजी नाटकों के अनुवाद भी इसी कालखंड मे निरंतर रुप से चल रहे थे। जिन में ’रोमियो जूलियट’ का ’प्रेमलिला’ नाम से अनुवाद हुवा। ’ऎज यू लाईक इट’ और ’वेनिस का बैक्पारी’, उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी के भाई मथुरा प्रसाद चौधरी ’ए मौकबेथ’ का ’साहसेंद्र साहस’ के नाम के अनुवाद किया। हैमलेट का अनुवाद ’जयंत’ के नाम से निकला जो वास्तव में मराठी अनुवाद से हिंदी मे अनूदित किया गया था.
भारतेंदु हरिश्चंद्र के कालखंड में नाटकों का अधिक अनुवाद हिंदी में दिखाई देता है। विद्यासुंदर (संस्कृत “चौरपंचाशिका” के बंगला-संस्करण का अनुवाद), रत्नाअवली, धनंजय विजय (कांचन कवि कृत संस्कृत नाटक का), कर्पूरमंजरी (सट्टक, के संचन कवि-कृत नाटक का अनुवाद) अगर हिंदी नाटक में भारतेंदु हरिश्चंद्र के कालखंड में किन अनूदित नाटकों ने महत्व पूर्ण कार्य किया तो उसे हम निम्न रुप से देख सकते है। कुछ नाटकों के अनुवाद दो अनुवादकों ने भी किए है।
भारतेन्दु हरिश्चंद के अनूदित नाटकों में रत्नावली (1868), धनंजय विजय (1873), पाखण्ड विडम्बन (1872), मुद्राराक्षस (1875), कर्पूरमंजरी (1876), दुर्लभबंधु (1880), विद्यासुन्दर आदि अनूदित नाटक हैं जो संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी से अनूदित हैं। ‘विद्यासुन्दर’ रूपान्तरित नाटक है।