आदिकाल (वीरगाथा काल) : हिन्दी साहित्य के इतिहास के आरंभिक काल को “आदिकाल” कहा जाता है। आदिकालीन हिंदी साहित्य का इतिहास के विभिन्न कालों के नामांकरण का प्रथम श्रेय जॉर्ज ग्रियर्सन को जाता है। हिंदी भाषा के साहित्य के इतिहास का आरंभिक काल के नामकरण का प्रश्न विवादास्पद है। इस काल को ग्रियर्सन ने “चारण काल“, मिश्र बंधु ने “प्रारंभिक काल“, महावीर प्रसाद द्विवेदी ने “बीज वपन काल“, शुक्ल ने “वीरगाथा काल“, राहुल सांकृत्यायन ने सिद्ध “सामंत काल“, रामकुमार वर्मा ने “संधिकाल व चारण काल” जबकि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने “आदिकाल” की संज्ञा दी है।
आदिकाल (वीरगाथा काल) का इतिहास
हिन्दी साहित्य के इतिहास में लगभग 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के मध्य तक के काल को आदिकाल कहा जाता है। यह नाम (आदिकाल) डॉ॰ हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिला है।
हिन्दी साहित्य के आरंभिक समय की रचनाएँ साहित्य के विकास के अध्ययन के लिए अत्यंत आवश्यक है। परंतु अधिकांश आदिकालीन ग्रंथों का उपलब्ध न होना, प्रमाणिकता में संदिग्धता, कालनिर्धारण में सामंजस्य न बैठना आदि कठिनाईयों के साथ साहित्य के विद्वानों, आचार्यों द्वारा व्यवस्थित धारणा बना लेना बहुत ही कुशलता का कार्य है।
हिन्दी साहित्य का आदिकाल जिसे वीरगाथा काल, चारणकाल, सिद्ध सामन्त युग, बीजवपन काल, वीरकाल आदि अनेक संज्ञाओं से विभुषित किया है, हिन्दी का सबसे विवादग्रस्त काल रहा है।
इस काल में एक तरफ संस्कृत के ऐसे बडे-बडे कवि उत्पन्न हुए जिनकी रचनाएँ संस्कृत काव्य-परम्परा की चरम सीमा पर पहुँच गयी थी तो दूसरी ओर अपभ्रंश के कवि उत्पन्न हुए जो अत्यन्त सरल एवं सहज भाषा में अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों में अपने मार्मिक भाव प्रकट कर रहे थे।
वस्तुतः इस काल में जहाँ एक ओर सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य का निर्माण हुआ जिसे धर्माश्रय प्राप्त होने के कारण वह फूलता-फलता रहा. वहीं दूसरी ओर राजस्थान के चारण कवियों द्वारा चरित काव्य भी रचे गये, जिन्हें राजाश्रय मिलने के कारण वह प्रशंसा का विषय बना।
परन्तु इस काल में इन दोनों काव्य-धाराओं से भिन्न लोक साहित्य की भी रचना हुई, वह लोकाश्रित होने से सुरक्षित न रह सका। अनेक कारणों से यह साहित्य लुप्त सा हो गया। उससे इतना अवश्य ज्ञात होता है कि आदिकाल में लोक साहित्य भी लोक प्रचलित रहा है।
प्रवृतियां: Aadikal ki Pravritiyan
आदिकाल में तीन प्रमुख प्रवृतियां मिलती हैं-
- धार्मिकता: सिद्ध, नाथ एवं जैन साहित्य अधिकांशतः धार्मिक है।
- वीरगाथात्मकता: रासो या चारणी-साहित्य में अधिकांशतः वीर गाथाओं है।
- श्रृंगारिकता: लौकिक या प्रकीर्णक साहित्य अधिकांशतः शृंगार रस से परिपूर्ण अर्थात प्रेम कथाओं से भरा हुआ है।
आदिकालीन साहित्य में ऐतिहासिकता का अभाव है, उस समय का अधिकांश साहित्य राजाश्रित होने के कारण मनगड़ंत रूप से लिख दिया गया है। अतः इस समय का साहित्य कल्पना प्रधान है।
आदिकाल का नामकरण: Aadikaal ka Namkaran
हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रथम काल का नामकरण विद्वानों ने इस प्रकार किया है-
# | विद्वान | नामकरण |
---|---|---|
1. | डॉ॰ ग्रियर्सन | चारणकाल |
2. | मिश्रबंधु | आरम्भिक काल |
3. | आचार्य रामचंद्र शुक्ल | वीरगाथा काल |
4. | राहुल सांकृत्यायन | सिद्ध सामंत युग |
5. | महावीर प्रसाद द्विवेदी | बीजवपन काल |
6. | विश्वनाथ प्रसाद मिश्र | वीरकाल |
7. | हजारी प्रसाद द्विवेदी | आदिकाल |
8. | रामकुमार वर्मा | चारण काल या संधि काल |
आदि काल भाषा की शैली
आदि काल में दो शैलियां मिलती हैं डिंगल व पिंगल। डिंगल शैली में कर्कस शब्दावलीओं का प्रयोग होता है जबकि पिंगल शैली में कर्ण प्रिय शब्दावली ओं का। करकस शब्दावलियों के कारण डिंगल शैली अलोकप्रिय होती चली गई जबकि कर्ण प्रिय शब्दावलीओं के कारण पिंगल सैली लोकप्रिय होती चली गई और आगे चलकर इसका ब्रजभाषा में विगलन हो गया। आदिकालीन साहित्य के 3 सर्व प्रमुख रूप है- सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य और रासो साहित्य।
आदिकाल का साहित्य
इस समय का साहित्य मुख्यतः चार रूपों में मिलता है:
- सिद्ध-साहित्य तथा नाथ-साहित्य (धार्मिक साहित्य) – धार्मिकता
- जैन साहित्य (धार्मिक साहित्य) – धार्मिकता
- चारणी-साहित्य (रासो साहित्य) – वीरगाथात्मकता
- प्रकीर्णक साहित्य (लौकिक साहित्य) – श्रृंगारिकता
सिद्ध-साहित्य
सिद्धों का सम्बन्ध बौद्ध धर्म की वज्रयानी शाखा से है। ये भारत के पूर्वी भाग में सक्रिय थे। इनकी संख्या 84 मानी जाती है, जिनमें सरहप्पा, शबरप्पा, लुइप्पा, डोम्भिप्पा, कुक्कुरिप्पा (कणहपा) आदि मुख्य हैं। सिद्ध कवियों के नाम के अंत में “पा” लगा रहता है।
सरहप्पा प्रथम सिद्ध कवि थे। राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें हिन्दी का प्रथम कवि माना तथा सर्वसम्मती से इन्हें हिन्दी का प्रथम कवि स्वीकार किया गया, इन्होंने जातिवाद और वाह्याचारों पर प्रहार किया। देहवाद का महिमा मण्डन किया और सहज साधना पर बल दिया। ये महासुखवाद द्वारा ईश्वरत्व की प्राप्ति पर बल देते हैं। इन सब में लुइपा का स्थान सबसे उच्च है।
बौद्ध धर्म के वज्रयान शाखा का प्रचार करने के लिए जो साहित्य देश भाषा (जनभाषा) में लिखा गया वही सिद्ध साहित्य कहलाता है। यह साहित्य बिहार से लेकर असम तक फैला था। राहुल संकृत्यायन ने 84 सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है जिनमें सिद्ध “सरहपा” से यह साहित्य आरम्भ होता है।
बिहार के नालन्दा विद्यापीठ इनके मुख्य अड्डे माने जाते हैं। बख्तियार खिलजी ने आक्रमण कर इन्हें भारी नुकसान पहुचाया बाद में यह “भोट” देश चले गए। इनकी रचनाओं का एक संग्रह महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने बांग्ला भाषा में “बौद्धगान-ओ-दोहा” के नाम से निकाला।
सिद्धों की भाषा में “उलटबासी” शैली का पूर्व रुप देखने को मिलता है। इनकी भाषा को संध्या भाषा कहा गया है, हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सिद्ध साहित्य की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि, “जो जनता तात्कालिक नरेशों की स्वेच्छाचारिता, पराजय त्रस्त होकर निराशा के गर्त में गिरी हुई थी, उनके लिए इन सिद्धों की वाणी ने संजीवनी का कार्य किया। साधना अवस्था से निकली सिद्धों की वाणी “चरिया गीत / चर्यागीत” कहलाती है।
सिद्ध साहित्य को मुख्यतः निम्न तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है:-
- नीति या आचार संबंधित साहित्य
- उपदेश परक साहित्य
- साधना सम्बन्धी या रहस्यवादी साहित्य
सिद्धों की साधना धर्म का विकृत रूप थी, उन्होंने वामाचार फैलाया वह अपनी साधना के लिये स्त्री का प्रयोग आवश्यक मानते थे। उस समय बिहार व बंगाल में सास व ननंद द्वारा नई दुल्हन को सिद्धों के आकर्षण से सावधान रहने की शिक्षा दी जाती थी इनके साहित्य को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सांप्रदायिक शिक्षा मात्र कहा जिनका बाद में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने खंडन किया।
सिद्ध साहित्य का मूल्यांकन करते हुए डॉ. रामकुमार वर्मा लिखते है- “सिद्ध साहित्य का महत्व इस बात में बहुत अधिक है कि उससे हमारे साहित्य के आदिरूप की सामग्री प्रामाणिक ढ़ंग से प्राप्त होती है। चारणकालीन साहित्य तो केवल मात्र तत्कालीन राजनीतिक जीवन की प्रतिच्छाया है। यह सिद्ध साहित्य शताब्दियों से आनेवाली धार्मिक और सांस्कृतिक विचारधारा का स्पष्ट रुप है। संक्षेप में जो जनता नरेशों की स्वेच्छाचारिता पराजय या पतन से त्रस्त होकर निराशावाद के गर्त में गिरी हुई थी, उसके लिए इन सिद्धों की वाणी ने संजीवनी का कार्य किया।”
प्रमुख सिद्ध कवि और उनकी रचनाएं:
- सरहपा – दोहाकोश
- शबरपा – चर्यापद
- डोम्भिपा – डोम्बिगीतिका, योगचर्या, अक्षरद्विकोपदेश
सिद्ध साहित्य की विशेषताएँ
सिद्ध साहित्य अपनी प्रवृत्ति और प्रभाव के कारण हिन्दी साहित्य में विशेष महत्व रखता है। इन सिद्धोंने अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्तो का दिग्दर्शन करनेवाले साधनापरक साहित्य का निर्माण किया। सिद्ध-साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ इस प्रकार है :
1. जीवन की सहजता और स्वाभाविकता मे दृढ विश्वास– सिद्ध कवियों ने जीवन की सहजता और स्वाभाविकता में दृढ़विश्वास व्यक्त किया है। अन्य धर्म के अनुयायियों ने जीवन पर कई प्रतिबन्ध लगाकर जीवन को कृत्रिम बनाया था। विशेषकर कनक कामिनी को साधना मार्ग की बाधाएँ मानी थी। विभिन्न कर्मकाण्ड़ों से साधना मार्ग को भी कृत्रिम बनाया था। सिद्धों ने इन सभी कृत्रिमताओं का विरोध कर जीवन की सहजता और स्वाभाविकता पर बल दिया। उनके मतानुसार सहज सुख से ही महासुख की प्राप्ति होती है। इसलिए सिद्धों ने सहज मार्ग का प्रचार किया। सहज मार्ग के अनुसार प्रत्येक नारी प्रज्ञा और प्रत्येक नर करूणा ( उपाय) का प्रतीक है, इसलिए नर-नारी मिलन प्रज्ञा और करूणा निवृत्ति और प्रवृत्ति का मिलन है, दोनों को अभेदता ही ‘महासुख’ की स्थिति है।
2. गुरू महिमा का प्रतिपादन– सिद्धों ने गुरू-महिमा का पर्याप्त वर्णन किया है। सिद्धों के अनुसार गुरू का स्थान वेद और शास्त्रों से भी ऊँचा है। सरहपा ने कहा है कि गुरु की कृपा से सहजानन्द की प्राप्ति होती है। गुरू के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। जिसने गुरूपदेश का अमृतपान नहीं किया, वह शास्त्रों की मरूभूमि में प्यास से व्याकुल होकर मग जाएगा।
गुरू उवएसि अमिरस धावण पीएड जे ही।
बहु सत्यत्य मरू स्थलहि तिसिय मरियड ते ही।।
3. बाह्याडम्बरों पाखण्ड़ों की कटु आलोचना– सिद्धों ने पुरानी रूढ़ियों परम्पराओं और बाह्य आडम्बरों, पाखण्ड़ों का जमकर विरोध किया है। इसिलिए इन्होंने वेदों, पुराणों, शास्त्रों की खुलकर निंदा की है। वर्ण व्यवस्था, ऊँच-नीच और ब्राह्मण धर्मों के कर्मकाण्डों पर प्रहार करते हुए सरहपा ने कहा है – “ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से तब पैदा हुए थे, अब तो वे भी वैसे ही पैदा होते हैं, जैसे अन्य लोग। तो फिर ब्राह्मणत्व कहाँ रहा? यदि कहा कि संस्कारों से ब्राह्मणत्व होता है तो चाण्डाल को अच्छे संस्कार देकर ब्राह्मण कों नंदी बना देते ? यदि आग में घी डालने से मुक्ति मिलती है तो सबको क्यों नहीं ड़ालने देते? होम करने से मुक्ति मिलती है यह पता नहीं लेकिन धुआँ लगने से आँखों को कष्ट जरूर होता है।”
दिगम्बर साधुओं को लक्ष्य करते हुए सरहपा कहते हैं कि “यदि नंगे रहने से मुक्ति हो जाए तो सियार, कुत्तों को भी मुक्ति अवश्य होनी चाहिए। केश बढ़ाने से यदि मुक्ति हो सके तो मयुर उसके सबसे बड़े अधिकारी है। यदि कंध भोजन से मुक्ति हो तो हाथी, घोड़ों को मुक्ति पहले होनी चाहिए।” इसतरह इन सिद्धों ने वेद, पुराण और पण्ड़ितों की कटु आलोचना की है।
4. तत्कालीन जीवन में आशावादी संचार– सिद्ध साहित्य का मुल्यांकन करते हुए डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदीजी ने लिखा है – ‘“जो जनता नरेशों की स्वैच्छाचारिता, पराजय या पतन से त्रस्त होकर निराशावाद के गर्त में गिरी हुई थी, उसके लिए इन सिद्धों की वाणी ने संजीवनी का कार्य किया । … जीवन की भयानक वास्तविकता की अग्नि से निकालकर मनुष्य को महासुख के शीतल सरोवर में अवगाहन करा का महत्वपूर्ण कार्य इन्होंने किया ।” आगे चलकर सिद्धोंमें स्वैराचार फैल गया, जिसका बुरा असर जन-जीवन पर पड़ गया।
5. रहस्यात्मक अनुभूति– सिद्धों ने प्रज्ञा और उपाय (करुणा) के मिलनोपरान्त प्राप्त महासुख का वर्णन और विवेचन अनेक रुपकों के माध्यम से किया है। नौका, वीणा, चूहा, हिरण आदि रूपकों का प्रयोग इन्होंने रहस्यानुभूति की व्याख्या के लिए किया है। रवि, शशि, कमल, कुलिश, प्राण, अवधूत आदि तांत्रिक शब्दों का प्रयोग भी इसी व्याख्या के लिए हुआ है। डॉ. धर्मवीर भारती ने अपने शोध ग्रन्थ ‘सिद्ध साहित्य’ में सिद्धों की शब्दावली की दार्शनिक व्याख्या कर उसके आध्यात्मिक पक्ष को स्पष्ट किया है।
6. श्रृंगार और शांत रस– सिद्ध कवियों की रचना में श्रृंगार और शांत रस का सुन्दर प्रयोग हुआ है। कहीं कहीं पर उत्थान श्रृंगार चित्रण मिलता है। अलौकिक आनन्द की प्राप्ति का वर्णन करते समय ऐसा हुआ है।
7. जनभाषा का प्रयोग– सिद्धों की रचनाओं में संस्कृत तथा अपभ्रंश मिश्रित देशी भाषा का प्रयोग मिलता है। डॉ. रामकुमार वर्मा इनकी भाषा को जन समुदाय की भाषा मानते है । जनभाषा को अपनाने के बावजूद जहाँ वे अपनी सहज साधना की व्याख्या करते है, वहाँ उनकी भाषा क्लिष्ट बन जाती है। सिद्धों की भाषा को हरीप्रसाद शास्त्री ने ‘संधा – भाषा’ कहा है। साँझ के समय जिस प्रकार चीजें कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट दिखाई देती है, उसी प्रकार यह भाषा कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट अर्थ-बोध देती है। यही मत अधिक प्रचलित है।
8. छन्द प्रयोग– सिद्धों की अधिकांश रचना चर्या गीतो में हुई है, तथापि इसमें दोहा, चौपाई जैसे लोकप्रिय छन्द भी प्रयुक्त हुए है। सिद्धों के लिए दोहा बहुत ही प्रिय छन्द रहा है। उनकी रचनाओं में कहीं कहीं सोरठा और छप्पय का भी प्रयोग पाया जाता है।
9. साहित्य के आदि रूप की प्रामाणिक सामग्री– सिद्ध साहित्य का महत्व इस बात में बहुत अधिक है कि उससे हमारे साहित्य के आदि रूप की सामग्री प्रामाणिक ढंग से प्राप्त होती है। चारण कालीन साहित्य तो केवल तत्कालीन राजनीतिक जीवन की प्रतिछाया है। लेकिन सिद्ध साहित्य शताब्दियों से आनेवाली धर्मिक और सांस्कृतिक विचारधारा का एक सही दस्तावेज है।
नाथ-साहित्य
सिद्धों के महासुखवाद के विरोध में नाथ पंथ का उदय हुआ। नाथों की संख्या नौ है। इनका क्षेत्र भारत का पश्चिमोत्तर भाग है। इन्होंने सिद्धों द्वारा अपनाये गये पंचमकारों का नकार किया। नारी भोग का विरोध किया। इन्होंने बाह्याडंबरों तथा वर्णाश्रम का विरोध किया और योगमार्ग तथा कृच्छ साधना का अनुसरण किया। ये ईश्वर को घट-घट वासी मानते हैं। ये गुरु को ईश्वर मानते हैं।
नाथ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण गोरखनाथ हैं। इनकी रचना गोरखबाणी नाम से प्रकाशित है। नाथ सम्प्रदाय के प्रमुख कवि निम्न हैं-
- आदिनाथ (स्वयं शिव)
- मत्स्येन्द्रनाथ
- गोरखनाथ
- गहिणीनाथ
- चर्पटनाथ
- चौरंगीनाथ
- जालंधरनाथ
- भर्तृनाथ
- गोपीचन्द नाथ
नाथ सम्प्रदाय का उल्लेख विभिन्न क्षेत्र के ग्रंथों में जैसे- योग (हठयोग), तंत्र (अवधूत मत या सिद्ध मत), आयुर्वेद (रसायन चिकित्सा), बौद्ध अध्ययन (सहजयान तिब्बती परम्परा 84 सिद्धों में), हिन्दी (आदिकाल के कवियों के रूप) में चर्चा मिलती हैं।
यौगिक ग्रंथों में नाथ सिद्ध : हठप्रदीपिका के लेखक स्वात्माराम और इस ग्रंथ के प्रथम टीकाकार ब्रह्मानंद ने हठ प्रदीपिका ज्योत्स्ना के प्रथम उपदेश में 5 से 9 वे श्लोक में 33 सिद्ध नाथ योगियों की चर्चा की है। ये नाथसिद्ध कालजयी होकर ब्रह्माण्ड में विचरण करते है। इन नाथ योगियों में प्रथम नाथ आदिनाथ को माना गया है जो स्वयं शिव हैं जिन्होंने हठयोग की विद्या प्रदान की जो राजयोग की प्राप्ति में सीढ़ी के समान है।
आयुर्वेद ग्रंथों में नाथ सिद्धों की चर्चा : रसायन चिकित्सा के उत्पत्तिकर्ता के रूप प्राप्त होता है जिन्होंने इस शरीर रूपी साधन को जो मोक्ष में माध्यम है इस शरीर को रसायन चिकित्सा पारद और अभ्रक आदि रसायानों की उपयोगिता सिद्ध किया। पारदादि धातु घटित चिकित्सा का विशेष प्रवर्तन किया था तथा विभिन्न रसायन ग्रंथों की रचना की उपरोक्त कथन सुप्रसिद्ध विद्वान और चिकित्सक महामहोपाध्याय गणनाथ सेन ने लिखा है।
तंत्र गंथों में नाथ सम्प्रदाय: नाथ सम्प्रदाय के आदिनाथ शिव है, मूलतः समग्र नाथ सम्प्रदाय शैव है। शाबर तंत्र में कपालिको के 12 आचार्यों की चर्चा है- आदिनाथ, अनादि, काल, वीरनाथ, महाकाल आदि जो नाथ मार्ग के प्रधान आचार्य माने जाते है। नाथों ने ही तंत्र गंथों की रचना की है। षोड्श नित्यातंत्र में शिव ने कहा है कि – नव नाथों- जडभरत मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, , सत्यनाथ, चर्पटनाथ, जालंधरनाथ नागार्जुन आदि ने ही तंत्रों का प्रचार किया है।
बौद्ध अध्ययन में नाथ सिद्ध – 84 सिद्धों में आते है। राहुल सांकृत्यायन ने गंगा के पुरातत्त्वांक में बौद्ध तिब्बती परम्परा के 84 सहजयानी सिद्धों की चर्चा की है जिसमें से अधिकांश सिद्ध नाथसिद्ध योगी हैं जिनमें लुइपाद मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षपा गोरक्षनाथ, चैरंगीपा चैरंगीनाथ, शबरपा शबर आदि की चर्चा है जिन्हें सहजयानीसिद्धों के नाम से जाना जाता है।
हिन्दी में नाथसिद्ध : हिन्दी साहित्य में आदिकाल के कवियों में नाथ सिद्धों की चर्चा मिलती है। अपभ्रंश, अवहट्ट भाषाओं की रचनाऐं मिलती है जो हिन्दी की प्रारंभिक काल की है। इनकी रचनाओं में पाखंड़ों आडंबरो आदि का विरोध है तथा चित्त, मन, आत्मा, योग, धैर्य, मोक्ष आदि का समावेश मिलता है जो साहित्य के जागृति काल की महत्वपूर्ण रचनाऐं मानी जाती है। जो जनमानस को योग की शिक्षा, जनकल्याण तथा जागरूकता प्रदान करने के लिए था।
नाथपंथ साहित्य
भगवान शिव के उपासक नाथों के द्वारा जो साहित्य रचा गया, वही नाथ साहित्य कहलाता है। राहुल संकृत्यायन ने नाथपंथ को सिद्धों की परंपरा का ही विकसित रूप माना है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने नाथपन्थ या नाथ सम्प्रदाय को “सिद्ध मत”, “सिद्ध मार्ग”, “योग मार्ग”, “योग संप्रदाय”, “अवधूत मत” एवं “अवधूत संप्रदाय” के नाम से पुकारा है।
नाथ साहित्य की विशेषताएँ
- इसमें ज्ञान निष्ठा को पर्याप्त महत्व प्रदान किया गया है,
- इसमें मनोविकारों की निंदा की गई है,
- इस साहित्य में नारी निन्दा का सर्वाधिक उल्लेख प्राप्त होता है,
- इसमें सिद्ध साहित्य के भोग-विलास की भर्त्सना की गई है,
- इस साहित्य में गुरु को विशेष महत्व प्रदान किया गया है,
- इस साहित्य में हठयोग का उपदेश प्राप्त होता है,
- इसका रूखापन और गृहस्थ के प्रति अनादर का भाव इस साहित्य की सबसे बड़ी कमजोरी मानी जाती है,
- मन, प्राण, शुक्र, वाक्, और कुण्डलिनी- इन पांचों के संयमन के तरीकों को राजयोग, हठयोग, व ज्रयान, जपयोग या कुंडलीयोग कहा जाता है।इसमे भगवान शिव की उपासना उदात्तता के साथ मिलती है।
जैन साहित्य – जैन पुराण साहित्य
अपभ्रंश साहित्य को जैन साहित्य कहा जाता है, क्योंकि अपभ्रंश साहित्य के रचयिता जैन आचार्य थे। जैन कवियों की रचनाओं में धर्म और साहित्य का मणिकांचन योग दिखाई देता है। जैन कवि जब साहित्य निर्माण में जुट जाता है तो उस समय उसकी रचना सरस काव्य का रूप धारण कर लेती है और जब वह धर्मोपदेश की ओर झुक जाता है तो वह पद्य बद्ध धर्म उपदेशात्मक रचना बन जाती है। इस उपदेश प्रधान साहित्य में भी भारतीय जनजीवन के सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष के दर्शन होते है।
ऐतिहासिक जानकारी हेतु जैन साहित्य भी बौद्ध साहित्य की ही तरह महत्त्वपूर्ण हैं। अब तक उपलब्ध जैन साहित्य प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में मिलतें है। जैन साहित्य के विशेषज्ञ तथा अनुसन्धानपूर्ण लेखक “अगरचन्द नाहटा” थे। जैन साहित्य, जिसे ‘आगम‘ कहा जाता है, इनकी संख्या 12 बतायी जाती है। आगे चलकर इनके “उपांग” भी लिखे गये। इन आगम ग्रंथों की रचना सम्भवतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यो द्वारा महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद की गयी।
भगवान महावीर के उपदेश जैन धर्म के मूल सिद्धान्त हैं, जिन्हें “आगम” कहा जाता है। वे अर्धमागधी प्राकृत भाषा में हैं। उन्हें आचारांगादि बारह “अंगों” में संकलित किया गया, जो “द्वादशंग आगम” कहे जाते हैं। वैदिक संहिताओं की भाँति जैन आगम भी पहले श्रुत रूप में ही थे। महावीर जी के बाद भी कई शताब्दियों तक उन्हें लिपिबद्ध नहीं किया गया था।
आगमों के साथ-साथ जैन ग्रंथों में 10 प्रकीर्ण, 6 छंद सूत्र, 1 नंदि सूत्र, 1 अनुयोगद्वार, एवं 4 मूलसूत्र हैं।
जैन साहित्य के बारह आगम
1. आचरांग सुत्त, 2. सूर्यकडंक, 3. थापंग, 4. समवायांग, 5. भगवतीसूत्र, 6. न्यायधम्मकहाओ, 7. उवासगदसाओं, 8. अन्तगडदसाओ, 9. अणुत्तरोववाइयदसाओं, 10. पण्हावागरणिआई, 11. विवागसुयं, और 12 द्विट्ठिवाय।
इन आगम ग्रंथो के “आचरांगसूत्त” से जैन भिक्षुओं के विधि-निषेधों एवं आचार-विचारों का विवरण एवं “भगवतीसूत्र” से महावीर स्वामी के जीवन-शिक्षाओं आदि के बारे में उपयुक्त जानकारी मिलती है, जो इस प्रकार हैं- 1. औपपातिक, 2. राजप्रश्नीय, 3. जीवाभिगम, 4. प्रज्ञापणा, 5. सूर्यप्रज्ञप्ति, 6. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, 7. चन्दप्रज्ञप्ति, 8. निर्यावलिका, 9. कल्पावंतसिका, 10. पुष्पिका, 11. पुष्पचूलिका और 12. वृष्णिदशा।
जैन साहित्य के 10 प्रकीर्ण
1. चतुःशरण, 2. आतुर प्रत्याख्यान, 3. भक्तिपरीज्ञा, 4. संस्तार, 5. तांदुलवैतालिक, 6. चंद्रवेध्यक, 7. गणितविद्या, 8. देवेन्द्रस्तव, 9. वीरस्तव और 10. महाप्रत्याख्यान।
जैन साहित्य के 6 छेदसूत्र-
1. निशीथ, 2. महानिशीथ, 3. व्यवहार, 4. आचारदशा, 5. कल्प और 6. पंचकल्प।
एक नंदि सूत्र एवं एक अनुयोग द्वारा जैन धर्म अनुयायियों के स्वतंत्र ग्रंथ एवं विश्वकोष हैं।
जैन साहित्य में पुराण
जैन साहित्य में पुराणों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है जिन्हें “चरित” भी कहा जाता है। ये प्राकृत, संस्कृत तथा अपभ्रंश तीनों भाषाओं में लिखें गयें हैं। इनमें पद्म पुराण, हरिवंश पुराण, आदि पुराण, इत्यादि उल्लेखनीय हैं। जैन पुराणों का समय छठी शताब्दी से सोलहवीं-सत्रवहीं शताब्दी तक निर्धारित किया गया है। जैन ग्रंथों में परिशिष्ट पर्व, भद्रबाहुचरित, आवश्यकसूत्र, आचारांगसूत्र, भगवतीसूत्र, कालिकापुराणा आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनसे ऐतिहासिक घटनाओं की सूचना मिलती है।
भारतीय धर्मग्रन्थों में पुराण
भारतीय धर्मग्रन्थों में “पुराण” शब्द का प्रयोग इतिहास के अर्थ में आता है। कितने विद्वानों ने इतिहास और पुराण को पंचम वेद माना है। चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में इतिवृत्त, पुराण, आख्यायिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र तथा अर्थशास्त्र का समावेश किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि इतिहास और पुराण दोनों ही विभिन्न हैं। इतिवृत्त का उल्लेख समान होने पर भी दोनों अपनी अपनी विशेषता रखते हैं।
इतिहास जहाँ घटनाओं का वर्णन कर निर्वृत हो जाता है वहाँ पुराण उनके परिणाम की ओर पाठक का चित्त आकृष्ट करता है-
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।
वंशानुचरितान्येव पुराणं पंचलक्षणम्॥
जिसमें सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंश-परम्पराओं का वर्णन हो, वह पुराण है। सर्ग, प्रतिसर्ग आदि पुराण के पाँच लक्षण हैं। तात्पर्य यह कि इतिवृत्त केवल घटित घटनाओं का उल्लेख करता है परन्तु पुराण महापुरुषों के घटित घटनाओं का उल्लेख करता हुआ उनसे प्राप्त फलाफल पुण्य-पाप का भी वर्णन करता है तथा व्यक्ति के चरित्र निर्माण की अपेक्षा बीच-बीच में नैतिक और धार्मिक शिक्षाओं का प्रदर्शन भी करता है। इतिवृत्त में जहाँ केवल वर्तमान की घटनाओं का उल्लेख रहता है वहाँ पुराण में नायक के अतीत और अनागत भवों का भी उल्लेख रहता है और वह इसलिये कि जनसाधारण समझ सके कि महापुरुष कैसे बना जा सकता है। अवनत से उन्नत बनने के लिये क्या-क्या त्याग, परोपकार और तपस्याएँ करनी पड़ती हैं। मानव के जीवन-निर्माण में पुराण का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। यही कारण है कि उसमें जनसाधारण की श्रद्धा आज भी यथापूर्व अक्षुण्ण है।
जैन आचार-मीमांसा
जैन धर्म के अनुसार आध्यात्मिक विकास की पूर्णता हेतु श्रावक या गृहस्थधर्म (श्रावकाचार) पूर्वार्ध है और श्रमण या मुनिधर्म (श्रमणाचार) उत्तरार्ध। श्रमणधर्म की नींव गृहस्थ धर्म पर मज़बूत होती है। यहाँ गृहस्थ धर्म की महत्त्वपूर्ण भूमिका इसलिए भी है क्योंकि श्रावकाचार की भूमिका में एक सामान्य गृहस्थ त्याग और भोग-इन दोनों को समन्वयात्मक दृष्टि में रखकर आध्यात्मिक विकास में अग्रसर होता है। अत: प्रस्तुत प्रसंग में सर्वप्रथम श्रावकाचार का स्वरूप विवेचन आवश्यक है।
गोम्मट पंजिका
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती (10वीं शती) द्वारा प्राकृत भाषा में लिखित गोम्मटसार पर सर्वप्रथम लिखी गई यह एक संस्कृत पंजिका टीका है-
- इसका उल्लेख उत्तरवर्ती आचार्य अभयचन्द्र ने अपनी मन्दप्रबोधिनी टीका में किया है।
- इस पंजिका की एकामात्र उपलब्ध प्रति (सं0 1560) पं. परमानन्द जी शास्त्री के पास रही।
- इस टीका का प्रमाण पाँच हज़ार श्लोक है।
- इस प्रति में कुल पत्र 98 हैं।
गोम्मटसार जीवतत्त्व प्रदीपिका
- यह टीका केशववर्णी द्वारा रचित है।
- उन्होंने इसे संस्कृत और कन्नड़ दोनों भाषाओं में लिखा है।
जैसे वीरसेन स्वामी ने अपनी संस्कृत प्राकृत मिश्रित धवला टीका द्वारा षट्खंडागम के रहस्यों का उद्घाटन किया है उसी प्रकार केशववर्णी ने भी अपनी इस जीवतत्त्व प्रदीपिका द्वारा जीवकाण्ड के रहस्यों का उद्घाटन कन्नड़ मिश्रित संस्कृत में किया है।
जयधवल टीका
आचार्य वीरसेन स्वामी ने धवला की पूर्णता के पश्चात् शौरसेनी प्राकृत भाषा में निबद्ध आचार्य गुणधर द्वारा विरचित कसायपाहुड की टीका जयधवला का कार्य आरंभ किया और जीवन के अंतिम सात वर्षों में उन्होंने उसका एक तिहाई भाग लिखा। तत्पश्चात् शक सं0 745 में उनके दिवंगत होने पर शेष दो तिहाई भाग उनके योग्यतम शिष्य जिनसेनाचार्य (शक सं0 700 से 760) ने पूरा किया। 21 वर्षों की सुदीर्घ ज्ञानसाधना की अवधि में यह लिखी जाकर शक सं0 759 में पूरी हुई।
आचार्य जिनसेन स्वामी ने सर्वप्रथम संस्कृत महाकाव्य पार्श्वाभ्युदय की रचना में की थी। इनकी दूसरी प्रसिद्ध कृति “महापुराण” है। उसके पूर्वभाग-“आदिपुराण” के 42 सर्ग ही वे बना पाए थे और दिवंगत हो गए। शेष की पूर्ति उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने की।
जीवतत्त्व प्रदीपिका
यह नेमिचन्द्रकृत चतुर्थ टीका है। तीसरी टीका की तरह इसका नाम भी जीवतत्त्व प्रदीपिका है। यह केशववर्णी की कर्नाटकवृत्ति में लिखी गई संस्कृत मिश्रित जीवतत्त्व प्रदीपिका का ही संस्कृत रूपान्तर है। इसके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती से भिन्न और उत्तरवर्ती नेमिचन्द्र हैं। ये नेमिचन्द्र ज्ञानभूषण के शिष्य थे।
गोम्मटसार के अच्छे ज्ञाता थे। इनका कन्नड़ तथा संस्कृत दोनों पर समान अधिकार है। यदि इन्होंने केशववर्णी की टीका को संस्कृत रूप नहीं दिया होता तो पं. टोडरमल जी हिन्दी में लिखी गई अपनी सम्यग्ज्ञानचंद्रिका नहीं लिख पाते, ये नेमिचन्द्र गणित के भी विशेषज्ञ थे।
जैन साहित्य के क्षेत्र में जैन साध्वी पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने बीसवीं सदी में एक कीर्तिमान उपस्थित किया है। उन्होंने न्याय- व्याकरण- छंद -अलंकार- सिद्धान्त- अध्यात्म- काव्य- पूजन आदि सभी प्रकार का साहित्य रचा है। उनकी 250 से अधिक पुस्तकें जम्बूद्वीप – हस्तिनापुर से प्रकाशित हुई हैं।
षट्खण्डागम ग्रंथों पर उन्होंने 16 पुस्तकों की सिद्धांतचिन्तामणि नामक संस्कृत टीका लिखकर आचार्य श्री वीरसेनस्वामी की याद को ताज़ा कर दिया है। वर्तमान युग में संस्कृत टीका लिखने वाली मात्र एक ही साध्वी हैं। इन ग्रंथों की हिन्दी टीका उनकी शिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी ने किया है, जिनकी 10 पुस्तकें छप चुकी हैं। उन्हें मँगाकर आप स्वाध्याय कर सकते हैं। संस्कृत की सोलहों पुस्तकें छप चुकी हैं।
जैन सम्प्रदाय के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएं:
- शालिभद्र सूरि – भरतेश्वर बाहुबली रास, बुद्धि रास, पंच पाण्डव चरित रास
- स्थूलिभद्र सूरि – स्थूलिभद्र रास
- विजयसेन सूरि – रेवन्तगिरि रास
- सुमति गणि – नेमिनाथ रास
- आसगु – जीव दया रास, चन्दनबाला रास
- सारमूर्ति – जिनि पद्म सूरि रास
- उदयवन्त – गौतम स्वामी रास
- देवसेन – श्रावकाचार
जैन साहित्य की सामान्य विशेषताएँ
इस साहित्य की सामान्य विशेषताएँ इसप्रकार है :
1. उपदेश मूलकता: उपदेशात्मकता जैन साहित्य की मुख्य प्रवृत्ति है, जिसके मूल में जैन धर्म के प्रति दृढ़ आस्था और उसका प्रचार है। इसके लिए जैन कवियों ने दैनिक जीवन की प्रभावोत्पादक घटनाएँ, आध्यात्म के पोषक तत्व, चरित नायकों, शलाका पुरूषों, आदर्श, श्रावकों, तपस्वियों तथा पात्रों के जीवन का वर्णन किया है। इसीलिए इस साहित्य में उपदेशात्मकता का स्वर मुख्य बन गया है।
2. विषय की विविधता: जैन साहित्य धार्मिक साहित्य होने के बावजूद सामाजिक, धार्मिक, ऐतिहासिक विषयों के साथ ही लोक-आख्यान की कई कथाओं को अपनाता है। रामायण, महाभारत सम्बन्धी कथाओं को भी जैन कवियों ने अत्याधिक दक्षता के साथ अपनाया है। जहाँ तक सामाजिक विषयों का सम्बन्ध है, जैन रचनाओं में लगभग सभी प्रकार के विषयों का समावेश हो गया है।
3. तत्कालीन स्थितियों का यथार्थ चित्रण: जैन कवि राजाश्रित नहीं थे, अतः राजाश्रय का दबाव और दरबारी अतिरंजना से इनकी रचनाएँ मुक्त है। यही कारण है कि इनकी रचनाओं में तत्कालीन स्थितियों का यथार्थ अंकन हुआ है। आदिकालीन आचार-विचार, समाज, धर्म, राजनीति आदि की सही स्थितियों को जानने के लिए यह रचनाएँ पर्याप्त रूप में सहाय्यक सिद्ध होती है।
4. कर्मकाण्ड रूढ़ियों तथा परम्पराओं का विरोध: जैन अपभ्रंश कवियों ने बाह्य उपासना, पूजा-पाठ, शास्त्रीय ज्ञान, रूढ़ियों और परम्पराओं का घोर विरोध किया है, किन्तु इनके स्वर में कटुता या परखड़ता नही मिलती। मंदिर, तीर्थ शास्त्रीय ज्ञान, मूर्ति, वेष, जाति, वर्ण, मंत्र, तंत्र, योग आदि किसी भी संस्था को यह नही मानते । चारित्रिक अथवा मन की शुद्धता को ये हर व्यक्ति के लिए एक आवश्यक वस्तु मानते है। धन-सम्पत्ति की क्षणिकता, विषयों की निन्दा, मानव देह की नश्वरता, संसार के सम्बन्धों का मिथ्यापन आदि का वर्णन करते हुए इन कवियों ने शुद्ध आत्मा पर बल दिया है।
5. आत्मानुभूति पर विश्वास: आत्मानुभव को जैन कवियों ने चरम प्राप्तव्य कहा है और यह शरीर में रहता है। आत्मा को जानने के लिए शुभाशुभ कर्मों का क्षय करना आवश्यक है। आत्मा परमात्मा एक ही है। आत्मा को जान लेने के पश्चात् कुछ जानने के लिए नहीं रहता। आत्मानन्द ही सरसीभाव या सहजानन्द है । अपने साधन – पथ की व्याख्या करने के लिए इन्होंने जहाँ-तहाँ प्रेम-भावना के द्योतक प्रिय-प्रियतम की कल्पना का आश्रय लिया है। इसप्रकार इन जैन कवियों ने भोग से त्याग की, शास्त्रज्ञान से आत्मज्ञान की और कर्मकाण्ड़ से आत्मानुभूति की श्रेष्ठता सिद्ध की है।
6. रहस्यवादी विचारधारा का समावेश: जैन कवियों की कुछ रचनाएँ रहस्यवादी विचार भावना से ओत प्रोत है। योगिन्द्र मुनि रामसिंह, सुत्रभाचार्य, महानन्दि महचय आदि इस कोटि के कवि है। इनको रहस्यवादी रचनाओं में बाह्य आचार, कर्मकाण्ड, तीर्थव्रत, मूर्ति का बहिष्कार, देहरूपी देवालय में ही ईश्वर की स्थिति बताना, तथा अपने शरीर में स्थित परमात्मा की अनुभूति पाकर परम समाधि रुपी आनन्द प्राप्त करना आदि इनकी साधना का मुख्य स्वर है। यह आनन्द शरीर में स्थित परमात्मा गुरू (जिन गुरू) की कृपा से प्राप्त होता है, यह इनकी धारणा है।
7. काव्य रूपों में विविधता: काव्य रूपों के क्षेत्र में जैन साहित्य विविध रूपों से सम्पन्न है। इसमें रास, फागु, छप्पय, चतुष्पदिका, प्रबन्ध, गाथा, जम्नरी, गुर्वावली, गीत, स्तुति, माहात्म्य, उत्साह आदि प्रकार पाये जाते है। अपभ्रंश के कई काव्य- रुपों का प्रयोग जैन कवियों ने किया है लेकिन अधिकांश काव्य रुप ऐसे भी है, जिनके निर्माण का श्रेय जैन साहित्य को जाता है।
8. शांत या निर्वेद रस का प्राधान्य: जैन साहित्य में करुण, वीर, श्रृंगार, शान्त आदि सभी रसों का सफल निर्वाह हुआ है। ‘नेमिचन्द चउपई’ में करुण, ‘भरतेश्वर बाहुबली रास’ में वीर तथा ‘श्रीस्थूलिभद्र फागु में श्रृन्गार इस की सफल निष्पत्ति पायी जाती है, किन्तु इन सभी कृतियों के अन्त में शान्त या निर्वेद सभी रसों पर हावी हो जाता है। इसीलिए यह कहना असंगत नहीं होगा कि जैन साहित्य में रसराज शान्त या निर्वेद है।
9. प्रेम के विविध रूपों का चित्रण: जैन अपभ्रंश साहित्य में प्रेम के पाँच रूप मिलते हैं- विवाह के लिए प्रेम, विवाह के बाद प्रेम, असामाजिक प्रेम, रोमाण्टिक प्रेम और विषम प्रेम। प्रथम प्रकार के प्रेम का चित्रण ‘करकंडुचरिउ’ में हुआ है। दूसरे प्रकार के प्रेम का उदाहरण ‘पउमासिरिचरिउ ́ में समुद्र और पद्मश्री के प्रेमपूर्वक विवाह में मिलता है। ‘जहसरचरिउ’ में रानी अमृतमयी का कुबड़े से जो प्रेम था, वह असामाजिक की कोटि में आता है। प्रेम की विषमता का ज्वलन्त उदाहरण ‘पउमचरिउ’ में रावण का प्रेम है, किंतु रोमाण्टिक प्रेम का ही इस साहित्य में अधिक प्रस्फुटत हुआ है। इसके दो कारण हैं- प्रथम, सामंतवादी इस युग में बहुपत्नी प्रथा थी, दूसरा, धर्म की महिमा बताने के लिए।
10. गीत तत्व की प्रधानता: जैन कवियों की रचनाएँ शैली, स्वरूप और लक्ष्य की दृष्टि से गीत काव्य के अधिक निकट है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि गेयता इस युग की प्रमुख विशेषता थी। जैन कवियों द्वारा प्रयुक्त छन्दों में लय और गेयता का ध्यान रखा गया है। मंगलाचरण के अतिरिक्त स्तुति और वंदना इस काव्य का आवश्यक अंग है । छन्दों में संगीत का पुट पुष्पदन्त और स्वयंभू ने दिया है। कड़वक के छन्दो की गति क्रमश: संगीत के स्वर और वाद्यों के लय पर ही चलती है।
11. अलंकार-योजना: जैन साहित्य में अलन्कार और शब्दालन्कार दोनों प्रयुक्त हुए है, परंतु प्रमुखता अर्थान्कारों की ही है। अर्थालन्कारों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, व्यक्तिरेक, उल्लेख, अनन्वय, निदर्शना, विरोधाभास, स्वभावोक्ति, भ्रान्ति, सन्देह आदि का प्रयोग सफलतापूर्वक हुआ है। अधिकांश जैन कवि उपमान के चुनाव में विशेष परिचय देते है। शब्दालन्कारों में श्लेष, यमक, और अनुप्रास की बहुलता है।
12. छन्द-विधान : जैन काव्य छन्द की दृष्टि से समृद्ध है। स्वयंभू कृत ‘स्वयंभूछन्द’ और हेमचन्द्र विरचित ‘छन्दोऽनुशासन’ ग्रन्थों में पर्याप्त संख्या में छन्दो की विशिष्ट विवेचना की गई है। जैन काव्य में कड़वक, पट्पदी, चतुष्पदी, धत्ता बदतक, अहिल्य, बिलसिनी, स्कन्दक, दुबई, रासा, दोहा, उल्लाला, सोरठा, चउपद्य आदि छन्दो का प्रयोग मिलता है।
13. लोकभाषा की प्रतिष्ठा: जैन साधु ग्राम, नगर-नगर घूमकर धर्म-प्रचार करते थे, इसीलिए उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के लिए लोकभाषा का प्रयोग किया और उसे प्रतिष्ठा प्रदान की।
चारणी-साहित्य (रासो साहित्य) – वीरगाथात्मकता
चारणी या रासो साहित्य मूलत: सामन्ती व्यवस्था, प्रकृति और संस्कार से उपजा हुआ साहित्य है जिसका मुख्य स्वर वीरत्व का रहा है। इस साहित्य के रचनाकार हिन्दू राजपूत राजाश्रय में रहने वाले चारण या भाट थे। समाज में उनका स्थान सम्मान का था, क्योंकि उनका जुडाव सीधे राजा से होता था। ये चारण या भाट कलापारखी और कला – रचना में निपुण हो थे। ये युध्द कला भी जानते थे, जो युध्द होने पर अपनी सेना की अगुवाई विरुदावली गा-गाकर किया करते थे। ये राजाओं, आश्रयदाताओं, वीर पुरुषों तथा सैनिकों के वीरोचित युध्द घटनाओं को केवल बढा-चढाकर ही नहीं, उसकी यथार्थपरक स्थितिओं एवं सन्दर्भों को भी बारीकी के साथ चित्रित करते थे। वीरोचित भावनाओं के वर्णन के लिए इन्होंने “रासक या रासो’” छन्द का प्रयोग किया था, क्योंकि यह छन्द इस भावना को सम्प्रेषित करने के लिए अनुकूल था।
आल्हा छंद – परमाल रासो
हिंदी साहित्य के आदिकाल में “आल्हा छंद” बहुत प्रचलित था यह वीर रस का बड़ा ही लोकप्रिय छंद था। दोहा, रासा, तोमर, नाराच , पद्धति, अरिल्ल, आदि छंदों का प्रयोग आदिकाल में मिलता है। परमाल रासो (आल्ह-खण्ड) की रचना “जगनिक” ने की थी, इसमें महान वीरों की 52 लड़ाइयों की गाथा वर्णित है।
आल्हा मध्यभारत में स्थित ऐतिहासिक बुंदेलखण्ड के सेनापति थे और अपनी वीरता के लिए विख्यात थे। आल्हा के छोटे भाई का नाम ऊदल था और वह भी वीरता में अपने भाई से बढ़कर ही था।
ऊदल ने अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु पृथ्वीराज चौहान से किया युद्ध: ऊदल ने अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु पृथ्वीराज चौहान से युद्ध करते हुए ऊदल वीरगति प्राप्त हुवे आल्हा को अपने छोटे भाई की वीरगति की खबर सुनकर अपना अपना आपा खो बैठे और पृथ्वीराज चौहान की सेना पर मौत बनकर टूट पणे आल्हा के सामने जो आया मारा गया 1 घंटे के घनघोर युद्ध की के बाद पृथ्वीराज और आल्हा आमने-सामने थे दोनों में भीषण युद्ध हुआ पृथ्वीराज चौहान बुरी तरह घायल हुए आल्हा के गुरु गोरखनाथ के कहने पर आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दिया और बुंदेलखंड के महा योद्धा आल्हा ने नाथ पंथ स्वीकार कर लिया।
खुमान रासो
रासो काव्य परम्परा की प्रारम्भिक रचनाओं में ‘खुमाणरासो’ का स्थान भी सर्वोपरि है। इसका सर्वप्रथम उल्लेख शिवसिंह सेंगर की कृति ‘शिवसिंह सरोज’ में मिलता है। इसके रचयिता “दलपति विजय” हैं।
हम्मीर रासो
‘हम्मीर रासो’ अभी तक एक स्वतंत्र कृति के रुप में उपलब्ध नहीं हो सका है। अपभ्रंश के ‘प्राकृत पैंगलम्’ नामक एक संग्रह ग्रन्थ में संग्रहीत हम्मीर विषयक 8 छन्दों को देखा गया है। शुक्लजी ने इसे एक स्वतंत्र ग्रन्थ मान लिया था। प्रचलित धारणा के अनुसार इस कृति के रचयिता शार्डग:धर माने जाते है। परन्तु कुछ पदों में ‘जज्जल भणह’ वाक्यांश देखे गए हैं। पं. राहुल सांकृत्यायन ने इसमें जज्जल नामक किसी कवि की रचना माना है। आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का कहना है कि ‘प्राकृत पैंगलम्’ की टीका में भी इन्हें जज्जल की ही उक्ति माना गया है; अतः इसके रचयिता शार्डग:धर न होकर जज्जल है।
विजयपाल रासो
मिश्रबन्धुओं ने अपने ग्रन्थ ‘मिश्रबन्धु विनोद’ में इस परम्परा की एक रचना ‘विजयपाल रासो’ का उल्लेख किया है। इसके रचयिता नल्हसिंह भाट माने जाते है। इसका रचनाकाल सन् 1298 ई. माना जाता है।
बीसलदेव रासो
हिन्दी के आदिकाल की इस श्रेष्ठ रचना रचनाकार नरपति नाल्ह है। इसकी रचना- “बारह से बरोत्तरा मंझारि, जेठ बदी नवमी बुधिवारी” के अनुसार जेष्ठ वदी नवमी, दिन बुधवार सन् 1155 ई. (संवत 1212 ) में हुई थी। इसके रचयिता नरपति नाल्ह, अजमेर के चौहान राजा बीसलदेव (विग्रहराज चतुर्थ) के समकालीन थे। यह एक प्रेम काव्य है, जिसमें संयोग-वियोग के गीत गाये गए है। इस कृति में अजमेर के चौहान राजा विग्रहराज (बीसलदेव) तथा भोज परमार की पुत्री राजमती के विवाह, वियोग एवं पुनर्मिलन की कथा सरल एवं सरस शैली में प्रस्तुत की गई है।
पृथ्वीराज रासो
रासो काव्य परम्परा का सर्वश्रेष्ठ एवं प्रतिनिधि ग्रन्थ पृथ्वीराज रासो है । आ. शुक्लजी ने इसे हिन्दी का प्रथम महाकाव्य और इसके रचयिता “चंदवरदाई” को हिन्दी का प्रथम कवि माना है। चंदवरदाई दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान के प्रमुख सामंत सलाहकार, मित्र और राज कवि थे। इनके विषय में प्रसिध्द है कि पृथ्वीराज और चंदवरदाई दोनों का जन्म एक ही दिन और मृत्यु भी एक ही दिन हुई थी।
चारणी या रासो साहित्य की विशेषताएँ
रासो साहित्य या रासो काव्य या चारणी साहित्य या वीर काव्य या देशीभाषा काव्य की सामान्य विशेषताएँ इस प्रकार है:-
1. संदिग्ध रचनाएँ : इस काल में उपलब्ध होनेवाली प्रायः सभी रासो रचनाएँ ऐतिहासिकता की दृष्टि से संदिग्ध मानी जाती है। इस काल में रचित चार काव्य ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं – ‘खुमान रासो’, ‘बिसलदेव रासो ‘पृथ्वीराज रासो’ तथा ‘परमाल रासो’।
2. ऐतिहासिकता का अभाव : आदिकालीन रासो रचनाओं में इतिहास प्रसिध्द चरित्र नायकों को लिया गया है किन्तु उनका वर्णन युध्द इतिहास की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। इन कवियों द्वारा दिये गए संवत् और तिथियाँ इतिहास से मेल नहीं रखती।
3. युध्दों का सजीव वर्णन : युध्दों का सजीव वर्णन इन ग्रन्थों का प्रमुख विषय है और यह वर्णन इतना सजीव बन पड़ा है कि कदाचित संस्कृत साहित्य भी इस दिशा में इन काव्यों की होड़ नहीं कर सकता।
4. युध्दों का मूल कनक, कामिनी और भूमि : वीरगाथा काल का अध्ययन करने के पश्चात् यह बात स्पष्ट रूप से दिखाई देती है कि इस युग में युध्द निरन्तर हुआ करने थे। युध्द के मूल में कनक, कामिनी अथवा भूमि में से कोई एक मुख्य कारण के रूप में कार्य करते हुए दिखाई देती है।
5. संकुचित राष्ट्रीयता : आदिकालीन राजा स्वयम् शुरवीर पौरुष से परिपूर्ण थे लेकिन उनमें संकुचित राष्ट्रीयता थी। उस समय के राजाओं ने अपने पचास सौ गाँवों को ही राष्ट्र समझ रख था, उनमें व्यापक राष्ट्रीयता की भावना का अभाव था।
6. वीर और श्रृन्गार रस : इन रासो ग्रन्थों में वीर तथा श्रृगार रस का अद्भूत सम्मिश्रण है। उस समय युध्द का बाजार चारों ओर गर्म था। वीर रस का जितना सुन्दर परिपाक इस काव्य में मिलता है, उतना हिन्दी साहित्य के किसी भी काल में नही मिलता।
7. नारी के वीर रुप का वर्णन : वीरगाथाकालीन कवियों ने नारी के वीर रुप का चित्रण किया है। उस जमाने में नारियाँ वीर पुरुष को पति अथवा पुत्र के रुप में पाना अपना सौभाग्य समझती थी। अपने धर्म और कर्तव्य का पालन करते हुए वीरगति को प्राप्त करने वाले अपने पति का समाचार प्राप्त करके (पाकर) राजपूत रमणियाँ प्रसन्नता का अनुभव करती थी।
8. आश्रयदाताओं की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा : वीरगाथाकालीन चारण या भाट कवियों ने अपने अपने आश्रयदाताओं की मुक्तकंठ से झूठी प्रशंसा की है। इन कवियों ने अपने राजाओं को ब्रह्म, इन्द्र आदि देवताओं भी बढकर शूर तथा वीर बताया है।
9. जन-जीवन से सम्पर्क नहीं: चारण कवि अपने आश्रयदाताओं की स्तुति में लगे हुए थे, अतः इनकी रचनाओं में राजाओं तथा सामन्तों का जीवन ही उभर कर सामने आया है। इन कवियों ने ‘स्वामिन सुखाय’ काव्य की रचना की है, ‘सामान्य जन सुखाय’ की नहीं। अतः इनकी रचनाओं में सामान्य जन जीवन के घात-प्रतिघातों का अभाव है।
10. प्रकृति-चित्रण : इस साहित्य में प्रकृति का आलम्बन और उद्दीपन दोनों रूपों में चित्रण किया है। नगर, नदी, पर्वत आदि का वस्तुवर्णन भी सुन्दर बन पड़ा है। अधिकतर इन कवियों ने प्रकृति का चित्रण उद्दीपन रुप में ही किया हैं।
11. काव्य के दो रूप : आदिकालीन रासो रचनाएँ मुक्तक और प्रबन्ध दोनों रूपों में मिलती हैं। मुक्तक काव्य का प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थ ‘बीसलदेव रासो’ है तथा प्रबन्ध काव्य का प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थ जिसे महाकाव्य कहा जाता है ‘पृथ्वीराज रासो ‘ है।
12. रासो ग्रन्थ : आदिकालीन साहित्यिक ग्रन्थों के साथ ‘रासो’ शब्द जुडा हुआ है। जो कि काव्य शब्द का पर्यायवाची है । ‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति विभिन्न विद्वान अपने-अपने ढंग से अलग अलग मानते हैं।
13. छन्दों का विविध मुखी प्रयोग : वीरगाथाकालीन रासो साहित्य में छन्द के क्षेत्र में तो मानों एक क्रान्ति ही हो गयी है। छन्दों का जितना विविधमुखी प्रयोग उस साहित्य में हुआ है उतना उसके पूर्ववर्ती साहित्य में नहीं हुआ। दोहा, त्रोटक, सोरठा, छप्पय, गाथा, सटक, रोला, उल्लाला और कुण्डलियाँ आदि छन्दों का प्रयोग बडी कलात्मकता के साथ किया गया है।
14. अलन्कार : वीरगाथाकालीन चारण कवियों ने अलन्कारों पर विशेष ध्यान नहीं दिया, फिर भी उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलन्कारों का स्थान-स्थान पर सुन्दर प्रयोग देखा जा सकता है। पृथ्वीराज रासो में बहुत सारे अलन्कारों का चित्रण न होते हुए भी कुछ अलन्कारों का प्रयोग सुन्दर रूप में हुआ है, जो सजीव एवं सुन्दर हैं।
15. डिंगल और पिंगल भाषा : वीरगाथाकालीन रासो काव्य की एक अन्य उल्लेखनिय विशेषता है डिंगल और पिंगल भाषा का प्रयोग। उस समय की साहित्यिक राजस्थानी भाषा को आज के विद्वान डिंगल नाम से जानते हैं। यह भाषा वीरत्व के स्वर के लिये बहुत उपयुक्त भाषा है। पिंगल भाषा का प्रयोग प्रायः विवाह और प्रेम के प्रसंगों के वर्णन के लिए किया जाता था।
प्रकीर्णक साहित्य (लौकिक साहित्य) – श्रृंगारिकता
आदिकालीन साहित्य में रासो साहित्य तथा धार्मिक साहित्य के साथ-साथ साहित्य की एक अन्य धारा भी प्रवाहित होती दिखाई देती है, जिसे लौकिक साहित्य के नाम से जाना जाता है। राजाश्रय और धर्माश्रय से सर्वथा विमुख यह साहित्य लोकाश्रय में पुष्मित एवं पल्लवित हुआ है।
ढोला मारू रा दूहा
राजस्थान में जन-जन का कष्ठहार “ढोला मारू रा दूहा” है जिसमें कछवाहा वंश के राजा नल के पुत्र ढोला और पूगल के राजा पिंगल की रूपवती कन्या मारवाड़ी की प्रेमकथा है। यद्यपि मूल कथा का सम्बन्ध ऐतिहासिक व्यक्तियों से है, किन्तु राजस्थान के लोक जीवन से जुड़ने के कारण यह काव्य कृति पश्चिमी राजस्थान में अति लोकप्रिय है।
बसन्त विलास
डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने विभिन्न प्रमाण देकर ‘बसन्त विलास’ का रचना -काल 13वीं 14वीं सदी के मध्य का माना है। इस कृति के रचयिता का पता नहीं चल पाया है। यह एक अत्यधिक सरस साहित्यिक कृति है और आधुनिक भारतीय आर्य-भाषा-साहित्य के आदिकाल के इतिहास में बेजोड़ है।
राउलवेल
वह गद्य-पद्य मिश्रित चम्पू-काव्य की प्राचीनतम हिन्दी कृति है। इसका रचयिता “रोढ़ा” नामक कवि माना जाता है। विद्वानों ने इसका रचना काल दसवीं शताब्दी माना है। इसकी रचना “राउल” नायिका के नखशिख वर्णन के प्रसंग में हुई है।
उक्ति-व्यक्ति प्रकरण
इस ग्रन्थ की रचना दामोदर शर्मा ने की है। 12वीं शताब्दी का यह एक महत्वपूर्ण ‘व्याकरण ग्रन्थ’ माना जाता है, इसमें बनारस और आसपास के प्रदेशों की तत्कालीन संस्कृति और भाषा आदि पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इसकी भाषा के अध्ययन से तत्कालीन गद्य और पद्य दोनों शैलियों की हिन्दी भाषा में तत्सम पदावली के प्रयोग की बढ़ती हुई प्रवृत्ति का पता चलता है। अतः हिन्दी भाषा के ऐतिहासिक अध्ययन में यह ग्रन्थ अत्यन्त सहायक सिद्ध हुआ है।
वर्णरत्नाकर
मैथिली हिन्दी में रचित गद्य का यह एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसका लेखक “ज्योतिशेखर ठाकुर” नामक मैथिल कवि था। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के मतानुसार इसकी रचना चौदहवी शताब्दी में हुई होगी। यह एक शब्दकोशनुमा ग्रन्थ है, परन्तु सौन्दर्य ग्राहिणी प्रतिभा भी उसमें निहित है। उसकी भाषा में कवित्व, अलंकारिकता, तथा शब्दों की तत्समता की प्रवृत्तियाँ मिलती है। हिन्दी गद्य के विकास में ‘राडलवेल’ के पश्चात “वर्णरत्नाकर” का योगदान भी कम नहीं कहा जा सकता।
अमीर खुसरो की रचनाएँ
आदिकाल में शिष्ट हास्य तथा विनोद मूलक रचानाएँ खड़ी बोली में ! प्रस्तुत करने का श्रेय अमीर खुसरो को है । इनका वास्तविक नाम अबुल हसन था। आदिकाल में खड़ीबोली को काव्य की भाषा बनाने वाले अमीर खुसरो प्रथम कवि है। इन्होंने हिन्दू-मुस्लिमों के बीच एकता स्थापित करने का सर्वप्रथम प्रयास किया था।
खुसरो द्वारा रचित सौ के लगभग रचनाएँ मानी जाती हैं, किन्तु उपलब्ध रचनाओं की संख्या बीस-बाईस से अधिक नहीं है। जिनमें फूटकर पहेलियाँ, मुकरियाँ, दो सुखने ढ़कोसला आदि प्रसिद्ध है। इनके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं –
पहेलियाँ –
- “एक धाल मोलियों से भरा, सबके उपर औंधा धरा।
चारों तरफ वह थाल फिरै, एक भी मोती नीचे न गिरे।।” (आकाश) - “एक कहानी मैं बहूँ, सुन ले तू मेरे पुत।
बिना परों के वह उड़ गया, बाँध गले में सूत।।” (पतंग)
मुखरियाँ –
- वह आवे तब शादी होय, उस बिन दूजा और न कोय।
मीठे लागे बाके बोल, क्यों सखि साजन न सखि ढोल ।। - जब मेरे मन्दिर में आवे, सोते मुझको आन जगावे।
पढ़त फिरत वह विरह के अच्छर सखि साजन ना सखि मच्छर ।।
दो सुखने –
- पान सड़ा क्यों ? घोड़ा अड़ा क्यों ? (फेरा न था )
- ब्राह्मण प्यासा क्यों? गधा उदासा क्यों ? (लोटा न था)
ढकोसला –
- खीर पकाई जतन से, चर्खा दिया चलाय ।
आया कुत्ता खा गया तु बैठी ढोल बजाय।।
विद्यापति की पदावली
बिहार के दरभंगा जिले में विसपी गाँव में जन्मे विद्यापति हिन्दी के आदि-गीतिकार माने जाते हैं। मधुर गीतों के रचयिता होने के कारण इन्हें अभिनव जयदेव के नाम से भी जाना जाता है। विद्यापति महान पण्डित थे। उन्होंने अपनी रचनाएँ संस्कृत, अवहट्ट और मैथिली भाषा में लिखी।
प्रकीर्णक साहित्य (लौकिक साहित्य) की विशेषताएँ
इस साहित्य की सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित है:
1. स्वान्तः सुखाय सृजन : आदिकाल का लौकिक साहित्य न तो रासो साहित्य के समान राजाओं, सामन्तों की वीरता का वर्णन करने के लिए लिखा गया है, न धार्मिक साहित्य के समान किसी विशिष्ट धर्म-मत के प्रचार के लिए लिखा गया है।
2. लोकमानस से आप्लवित साहित्य : लोकतत्व के संस्पर्श से खान्तः सुखाय लौकिक साहित्य अत्याधिक सरस और प्रभावकारी बन गया है । रासो साहित्य में जहाँ राजाओं-सामन्तों के मन के हास-उल्लास का चित्रण है, वहीं इस काव्य में लोक-मानस में उठने वाली हास-उल्लास की तरंगे है।
3. संयोग और वियोग का सरस चित्रण : आदिकालीन लौकिक साहित्य में श्रुन्गार के दोनो पक्षों – संयोग और वियोग का सरस चित्रण हुआ है।
लौकिक साहित्य का संयोग श्रृंगार जितना पुष्ट है, उससे कहीं अधिक वियोग श्रृंगार समृद्ध है।
4. नख-शिख वर्णन – परम्परा का प्रणयन : शिख वर्णन की परम्परा का ‘राउलवेल’ आदिकालीन लौकिक साहित्य की एक महत्वपूर्ण रचना मानी जाती जो गद्य-पद्य मिश्रित चम्पू काव्य है।
5. प्रकृति चित्रण : आदिकालीन लौकिक साहित्य में प्रकृति का चित्रण आलम्बन और उद्दीपन दोनों रूपों में पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। श्रृंगार और प्रकृति का रिश्ता अटूट है।
6. गेयता एवं संगीतात्मकता : भाव-प्रवणता स्वयं गेय होती है। इसीलिए इस धारा की लगभग सभी रचनाओं में गेयता और संगीतात्मकता पायी जाती है।
7. बोली भाषा का परिष्कार : आदिकालीन लौकिक साहित्य में तत्कालीन काव्य-भाषा की अपेक्षा जन-बोलियों का प्रयोग हुआ है। इस धारा की प्राचीनतम् कृति ‘राडलवेल’ से मात्र लौकिक साहित्य की परम्परा ही शुरू नही होती बल्कि बोलचाल की भाषा का साहित्य के लिए प्रयोग करने की एक परम्परा भी शुरू हो जाती है। बीसलदेव रासो, ढोला मारू रा दूहा और विद्यापति की पदावली में भी तत्कालीन स्वीकृत काव्य-भाषा से हटकर बोल-चाल की भाषा का सरस और सशक्त प्रयोग हुआ है।
(देखें – आदिकाल/वीर गाथा काल के कवि और रचनाएँ)
Frequently Asked Questions (FAQ)
1. आदिकाल को किसने चारण काल कहा है?
आदिकाल को ग्रियर्सन ने “चारण काल” कहा है।
2. आदिकाल को किसने प्रारंभिक काल कहा है?
आदिकाल को मिश्र बंधु ने “प्रारंभिक काल”कहा है।
3. आदिकाल को किसने बीज वपन काल कहा है?
आदिकाल को महावीर प्रसाद द्विवेदी ने “बीज वपन काल” कहा है।
4. आदिकाल को किसने वीरगाथा काल कहा है?
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आदिकाल को “वीरगाथा काल” कहा है।
5. आदिकाल को किसने सामंत काल कहा है?
आदिकाल को राहुल सांकृत्यायन ने सिद्ध “सामंत काल” कहा है।
6. आदिकाल को किसने संधिकाल व चारण काल कहा है?
आदिकाल को रामकुमार वर्मा ने “संधिकाल व चारण काल” कहा है।
7. आदिकाल को आदिकाल किसने कहा है?
आदिकाल को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने “आदिकाल” की संज्ञा दी है।
8. आदिकाल कब से शुरू हुआ?
आदिकाल का समय 675 से 1375 ई. तक का माना जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे वीरगाथा काल कहा।
9. आदिकाल के कवि कौन है?
आदिकाल के प्रथम कवि महर्षि वाल्मीकि थे।
10. आदिकाल का पहला कवि कौन है?
आदिकाल में हिंदी का पहला कवि, राहुल सांस्कृत्यायन ने 7 वीं शताब्दी के सरहपाद को हिंदी का पहला कवि माना है।
11. आदिकाल की भाषा कौन सी है?
आदिकाल की भाषा का नाम डिंगल है।
12. आदिकाल का दूसरा नाम क्या है?
इस युग को यह नाम डॉ॰ हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिला है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘वीरगाथा काल’ तथा विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे ‘वीरकाल’ नाम दिया है।
13. आदिकाल की प्रवृत्ति क्या है?
इनमें प्रामाणिकता का अभाव है। लौकिक रस की रचनाएँ हैं- लौकिक-रस से सजी-संवरी रचनाएँ लिखने की प्रवृत्ति रही ; जैसे – संदेश-रासक, विद्यापति पदावली, कीर्तिपताका आदि।
14. आदिकाल को कितने नामों से जाना जाता है?
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस काल को “वीरगाथा काल” तथा विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस काल को “वीरकाल” नाम दिया है। मिश्र बंधुओं ने इसका नाम “प्रारंभिक काल” किया और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने “बीजवपन काल” डॉ॰ रामकुमार वर्मा ने भी इस काल की प्रमुख प्रवृत्तियों के आधार पर इसको “चारण-काल” कहा है और राहुल संकृत्यायन ने “सिद्ध-सामन्त काल”। जबकि आदिकाल को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने “आदिकाल” की संज्ञा दी है।