जिस काव्य या साहित्य को आँखों से देखकर, प्रत्यक्ष दृश्यों का अवलोकन कर रस भाव की अनुभूति की जाती है, उसे दृश्य काव्य (Drishya Kavya) कहा जाता है। इस आधार पर दृश्य काव्य की अवस्थिति मंच और मंचीय होती है।
दृश्य काव्य के भेद
दृश्य काव्य को दो भेदों में विभक्त किया जाता है-
- रूपक
- उपरूपक
1. रूपक काव्य
रूपक की परिभाषा देते हुए कहा गया है ‘तदूपारोपात तु रूपम्।‘ वस्तु, नेता तथा रस के तारतम्य वैभिन्य और वैविध्य के आधार पर रूपक के निम्न दस भेद भारतीय आचार्यों ने स्वीकार किए हैं- नाटक, प्रकरण, भाषा, प्रहसन, डिम, व्यायोग, समवकार, वीथी, अंक और ईहामृग।
रूपक के इन भेदों में से नाटक भी एक है। परन्तु प्रायः नाटक को ही रूपक की संज्ञा भी दी जाती है। नाट्यशास्त्र में भी रूपक के लिए नाटक शब्द प्रयोग हुआ है।
अग्नि पुराण में दृश्य काव्य या रूपक के 28 भेद कहे गए हैं- नाटक, प्रकरण, डिम, ईहामृग, समवकार, प्रहसन, व्यायोग, भाव, विथी, अंक, त्रोटक, नाटिका, सदृक, शिल्पक, विलासीका, दुर्मल्लिका, प्रस्थान, भाणिक, भाणी, गोष्ठी, हल्लीशका, काव्य, श्रीनिगदित, नाट्यरूपक, रासक, उल्लाव्यक और प्रेक्षण।
2. उपरूपक काव्य
अग्नि पुराण में उपरूपक के 18 भेद कहे गए हैं- नाटिका, त्रोटक, गोष्ठी, सदृक, नाट्यरासक, प्रस्थान, उल्लासटय, काव्य, प्रेक्षणा, रासक, संलापक,श्रीगदित, शिंपल, विलासीका, दुर्मल्लिका, परकणिका, हल्लीशा और भणिका।
कुछ विद्वान इसके अंतर्गत गद्य, पद्य और चंपू को इसमें शामिल करते हैं।