सृजनात्मकता/रचनात्मकता
सृजनात्मकता (Creativity) सामान्य रूप से जब हम किसी वस्तु या घटना के बारे में विचार करते हैं तो हमारे मन-मस्तिष्क में अनेक प्रकार के विचारों का प्रादुर्भाव होता है। उत्पन्न विचारों को जब हम व्यावहारिक रूप प्रदान करते हैं तो उसके पक्ष एवं विपक्ष, लाभ एवं हानियाँ हमारे समक्ष आती हैं। इस स्थिति में हम अपने विचारों की सार्थकता एवं निरर्थकता को पहचानते हैं। सार्थक विचारों को व्यवहार में प्रयोग करते हैं। इस प्रकार की स्थिति सृजनात्मक चिन्तन कहलाती है।
इसे एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। जेम्स वाट एक वैज्ञानिक था। उसने रसोईघर से आने वाली एक आवाज को सुना तथा जाकर देखा कि चाय की केतली का ढक्कन बार-बार उठ रहा है तथा गिर रहा है। एक सामान्य व्यक्ति के लिये सामान्य घटना थी परन्तु सृजनात्मक व्यक्ति के लिये सजनात्मक चिन्तन का विषय थी।
यहाँ से सृजनात्मक चिन्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। जेम्सवाट ने सोचा कि भाप में शक्ति होती है इसके लिये उसने केतली के ढक्कन पर पत्थर रखकर उसकी शक्ति का परीक्षण किया। इसके बाद उसने उसका उपयोग दैनिक जीवन में करने पर विचार किया तथा भाप के इन्जन का निर्माण करने में सफलता प्राप्त की।
इस प्रकार की स्थितियों से सृजनात्मक चिन्तन का मार्ग प्रशस्त होता है। सृजनात्मक चिन्तन की विभिन्न विद्वानों द्वारा निम्न परिभाषाएँ दी गयी हैं-
सृजनात्मक चिन्तन की परिभाषाएँ
- प्रो. एस. के. दुबे के शब्दों में, “सृजनात्मक चिन्तन का आशय उन कार्यों से है जिनके माध्यम से नवीन विचारों, वस्तुओं एवं व्यवस्थाओं का सृजन सम्भव होता है।“
- श्रीमती आर. के. शर्मा के अनुसार, “सृजनात्मक चिन्तन का आशय मस्तिष्क उद्वेलन की उस प्रक्रिया से है जिसमें किसी एक विषय पर अनेक प्रकार के विचार उत्पन्न होते हैं। उन विचारों के आधार पर नवीन एवं उपयोगी वस्तुओं एवं विचारों का सृजन होता है।“
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि सृजनात्मक चिन्तन का आधार नवीन विचारों एवं उपयोगी वस्तुओं का सृजन करना है। इसका सम्बन्ध भौतिक जगत् से होता है। इसमें विचारक किसी विचार का उपयोग भौतिक जगत् की सुख एवं सुविधाओं के लिये करता है। इस प्रकार सृजनात्मक चिन्तन मानसिक प्रक्रिया के साथ-साथ कौशलात्मक प्रक्रिया से भी सम्बन्धित होता है।
सृजनात्मक व्यक्ति की विशेषताएँ
Characteristics of Creative Person
सृजनात्मक व्यक्ति को उसके गुण, कार्य एवं व्यवहार के आधार पर पहचाना जा सकता है क्योंकि सृजनात्मक बालक विभिन्न प्रकारों में सामान्य बालकों से भिन्न होता है। इसी प्रकार के अनेक कार्य ऐसे होते हैं जो कि सामान्य बालकों एवं सजनात्मक बालकों में अन्तर स्थापित करते हैं।
सृजनात्मक बालकों या व्यक्तियों की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं-
1. सृजनात्मक व्यक्ति जिज्ञासु होता है (Creative person become curious)
सृजनात्मक व्यक्ति पूर्णत: जिज्ञासा से सम्पन्न माना जाता है। वह प्रत्येक विचार या घटना के बारे में विभिन्न प्रकार के प्रश्न पूछता है तथा जब तक उसकी जिज्ञासा शान्त नहीं होती ज्ञान प्राप्त के लिये व्याकुल रहता है। प्रत्येक घटना के सन्दर्भ में वह सकारात्मक एवं विश्लेषणात्मक रूप से अध्ययन करने का प्रयास करता है जिससे वह घटना के मूल तथ्य एवं कारण तक पहुंच सके।
2. सृजनात्मक व्यक्ति चुनौतियाँ पसन्द करते हैं (Creative person like challenges)
सृजनात्मक व्यक्ति कभी भी चुनौतियों से नहीं डरता। वह प्रत्येक चुनौती का साहस से सामना करता है तथा परिस्थितियों को अपने अनकल बनाने का प्रयास करता है। वह प्रत्येक समस्या का समाधान अपनी क्षमता एवं योग्यता के आधार पर करता है। इसलिये वह आत्म-विश्वास से परिपूर्ण होता है।
3. सृजनात्मक व्यक्ति प्रयोगों से भयभीत नहीं होते (Creative persons do not afraid to experiments)
सृजनात्मक व्यक्ति को किसी भी सार्थक निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये अनेक प्रकार के प्रयोग करने पड़ते हैं। ये प्रयोग प्रयोगशाला के अतिरिक्त समाज में भी करने पड़ते हैं। अनेक स्थितियों में प्रयोगों के नकारात्मक परिणाम भी निकलते हैं परन्तु सृजनात्मक व्यक्ति उन नकारात्मक परिणामों से भयभीत नहीं होता तथा निरन्तर रूप से यह कार्य करना प्रारम्भ करता रहता है। उसके प्रयोगों की निरन्तरता उस समय तक बनी रहती है जब तक कि वह किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता।
4. सृजनात्मक व्यक्ति उच्च मानसिक स्तर के होते हैं (Creative people become high mental level)
सृजनात्मक व्यक्तियों की मानसिकता उच्च स्तरीय होती है। वह किसी सामान्य व्यवस्था को स्वीकार करने में विश्वास नहीं रखते वरन उसके सर्वोत्तम स्वरूपको विकसित करने तथा उसको अधिक उपयोगी बनाने में विश्वास रखते हैं। इस प्रकार की मानसिकता एक ओर उनकी सृजनात्मकता में वृद्धि करती है वहीं दूसरी ओर विकास मार्ग को प्रशस्त करती है।
5. आलोचनात्मक चिन्तन एवं सृजन में विश्वास (Belief in critical thinking and creation)
सृजनात्मक व्यक्ति में आलोचनात्मक चिन्तन एवं सृजन के प्रति उत्सुकता पायी जाती है। ऐसे व्यक्ति प्रत्येक घटना को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं करते वरन् उस पर विचार करके उसे सर्वोत्तम बनाने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार के व्यक्तियों को सृजनात्मक परिस्थितियों के निर्माण में कुशलता प्राप्त होती है क्योंकि वे प्रत्येक परिस्थिति को अपने अनुरूप बनाने में सफल होते हैं। प्रस्तुतीकरण की योग्यता भी इनका श्रेष्ठ एवं उपयोगी गुण होता है।
6. विश्लेषण एवं संश्लेषण की योग्यता (Ability of analysis and synthesis)
सृजनात्मक व्यक्तियों में किसी भी तथ्य एवं घटना के विश्लेषण करने की योग्यता होती है जिसके आधार पर वह घटना के मूल तथ्य या मूल कारण तक पहुँच पाते हैं। इसके साथ-साथ वे विभिन्न सिद्धान्तों, नियमों एवं सृजन में संश्लेषण पद्धति का प्रयोग करते हैं तथा विभिन्न बिखरे हुए विचारों एवं तों का संश्लेषण करके नवीन विचारों का सृजन करते हैं। इस प्रकार सृजनात्मक व्यक्ति संश्लेषण एवं विश्लेषण की योग्यता से युक्त होते हैं।
7. मस्तिष्क उद्वेलन की स्थिति (Situation of brain storming)
सृजनात्मक व्यक्तियों में मस्तिष्क उद्वेलन की स्थिति देखी जाती है। ये व्यक्ति किसी भी घटना या समस्या समाधान के लिये एक पक्षीय विचार नहीं करते वरन् विविध विचारों का सृजन करते हैं तथा सर्वोत्तम विचार या उपाय को समस्या समाधान के लिये प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार ये व्यक्ति प्रत्येक समस्या का सर्वोत्तम समाधान खोज सकते हैं।
8. अनुसन्धान की प्रवृत्ति (Tendency of research)
सृजनात्मक व्यक्तियों में अनुसन्धान की प्रवृत्ति पायी जाती है जिसके आधार पर ये प्रत्येक अवस्था को उसके सामान्य स्वरूप में स्वीकार नहीं करते उसमें नया परिवर्तन करने का विचार रखते हैं। इसके लिये ये विभिन्न प्रकार के प्रयोग करते हैं। इस प्रकार के कार्य ये सिद्ध करते हैं कि एक सृजनात्मक व्यक्ति अनुसन्धान एवं प्रयोगों के प्रति सकारात्मक भाव रखता है।
9. प्रामाणिक तथ्यों का संकलन (Collection of standard factors)
सृजनात्मक व्यक्ति किसी भावना या विचारों में बहकर कार्य योजना का निर्माण नहीं करते वरन् प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर अपनी योजना बनाते हैं जिससे कि उस योजना के व्यावहारिक एवं सार्थक परिणाम निकलें; जैसे-एक व्यक्ति समाज में व्याप्त कुरीतियों के बारे में अपना चिन्तन प्रारम्भ करने पर स्वस्थ परम्पराओं का विकास करना चाहता है तो वह कुरीतियों से सम्बन्धित सत्य घटनाओं को अपने चिन्तन का आधार बनायेगा।
10. वैज्ञानिक दृष्टिकोण (Scientific view)
सृजनात्मक व्यक्तियों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रभाव देखा जाता है। इस प्रकार के व्यक्ति सामाजिक व्यवस्था में भी उन विचारों एवं परम्पराओं को स्थान देते हैं जिनका प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से विज्ञान से सम्बन्ध होता है। इनके कार्य एवं व्यवहार में तथ्यों का क्रमबद्ध प्रस्तुतीकरण देखा जाता है। यह प्रत्येक कार्य को व्यवस्थित एवं संगठित रूप में सम्पन्न करते हैं। तर्क एवं चिन्तन के आधार पर वैज्ञानिक एवं समाजोपयोगी विचारों का सृजन करते हैं।
उपरोक्त विवेचन के आधार पर समाज में सृजनात्मक व्यक्तियों तथा विद्यालय में शिक्षक द्वारा सृजनात्मक बालकों को पहचाना जा सकता है। इस आधार पर सृजनात्मक बालकों के लिये अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण किया जा सकता है।
छात्रों में सृजनात्मक क्षमता का विकास
Development of Creative Ability in Pupils
वर्तमान समय में सर्वांगीण विकास के लिये छात्रों में सृजनात्मक चिन्तन के विकास की प्रमुख रूप से आवश्यकता अनुभव की जाती है। सृजनात्मक चिन्तन शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी बनाने के लिये प्रमुख रूप से आवश्यक है। छात्रों में सृजनात्मक चिन्तन को विकसित करने के लिये सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था में आवश्यक संशोधन करना आवश्यक है।
छात्रों में सृजनात्मक चिन्तन के विकास हेतु निम्न उपाय करने चाहिये –
1. पाठ्यक्रम सम्बन्धी उपाय (Curriculum related measures)
छात्रों में सृजनात्मक चिन्तन का विकास करने के लिये पाठ्यक्रम का स्वरूप सृजनात्मक गतिविधियों एवं विचारों से परिपूर्ण होना चाहिये जिससे छात्र उस पाठ्यक्रम के आधार पर प्रत्येक विषय एवं तथ्यों पर सोचने के लिये प्रेरणा प्राप्त कर सकें। प्रत्येक पाठ के अन्त में छात्रों को शिक्षा प्राप्त होनी चाहिये तथा यह शिक्षा चिन्तन एवं मनन से सम्बन्धित होनी चाहिये। पाठ्यक्रम द्वारा छात्रों को इस प्रकार की गतिविधियों को करने की प्रेरणा देनी चाहिये जो कि तर्क एवं चिन्तनसे सम्बन्धित हों तथा छात्रों को विविध प्रकार से सोचने के अवसर उपलब्ध करायें। इसमें विचारकों, वैज्ञानिकों एवं चिन्तकों से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण घटनाओं एवं प्रसंगों को सम्मिलित करना चाहिये।
2. सृजनात्मक शिक्षकों की व्यवस्था (Arrangement of creative teachers)
शिक्षकों को अपनी शिक्षण तकनीक में परिवर्तन करना चाहिये तथा छात्रों को सृजनात्मक कार्यों में सहयोग देना चाहिये। छात्रों के समक्ष छोटी-छोटी समस्याओं का प्रस्तुतीकरण करना चाहिये जिससे छात्र उनके समाधान के लिये सृजनात्मक तथ्यों की व्यवस्था कर सकें।
जैसे- शिक्षक द्वारा छात्रों के समक्ष भाप के इन्जन का चित्र रख दिया जाता है। इसके बाद छात्रों के समक्ष दो या तीन प्रश्न प्रस्तुत किये जाते हैं। भाप का इन्जन किसने बनाया? इसकी प्रेरणा उस व्यक्ति को किस प्रकार मिली? छात्र इस पर अपने विचार-विमर्श करते हैं तथा पाठ्य-पुस्तक में उस पाठ को खोजते हैं। इस प्रकार छात्रों को शिक्षा मिलती है कि जिस प्रकार जेम्सवाट प्रत्येक घटना को तार्किक रूप से सोचता था ठीक उसी प्रकार उनको भी प्रत्येक घटना को तार्किक रूप से सोचना चाहिये।
इस प्रकार की शिक्षण प्रक्रिया के लिये शिक्षकों को सेवारत एवं सेवापूर्व प्रशिक्षण प्रदान करना चाहिये जिससे वे छात्रों के सृजनात्मक चिन्तन के विकास में योगदान दे सकें।
3. खेल सम्बन्धी गतिविधियाँ (Game related activities)
छात्रों को खेल खेलना बहुत अच्छा लगता है। यदि छात्रों से विविध खेलों के बारे में बातचीत की जाय तो उनके विचारों एवं कार्यों में तीव्रता आ जाती है, उनका शरीर एवं मस्तिष्क दोनों ही तेजी से चलने लगते हैं; जैसे-शिक्षक द्वारा छात्रों के समक्ष गोल शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसके बाद छात्रों के समक्ष तीन प्रश्न रख दिये जाते हैं। गोल शब्द किन-किन खेलों से सम्बन्धित है? गोल करने की प्रक्रिया किस प्रकार सम्पन्न होती है? गोल अधिक होने पर क्या परिणाम होता है?
इस प्रकार के प्रश्नों के आधार पर छात्रों को हॉकी एवं फुटबॉल आदि के खेलों पर विचार करने का अवसर मिलेगा तथा दूसरे खेलों के बारे में छात्र सामान्य एवं रुचिपूर्ण ढंग से ज्ञान प्राप्त करेगा।
4. रहस्यपूर्णगतिविधियाँ (Mysterious activities)
छात्रों को कक्षा-कक्ष में विविध गतिविधियों को सम्पन्न करने की प्रेरणा देनी चाहिये। कक्षा में शिक्षक द्वारा एक सन्दूक में बहुत सी वस्तुओं को भर दिया जाय। इसके बाद प्रत्येक छात्र को एक वस्तु लेने के लिये कहा जाय। कौन-से छात्र को कौन-सी वस्तु मिलेगी यह पता नहीं होना चाहिये ?
इसके बाद छात्रों को चित्र, खिलौना एवं मॉडल देखने को मिलते हैं। प्रत्येक छात्र से उस चित्र, खिलौने या मॉडलों से सन्दर्भ में अनेक प्रश्न पूछे जा सकते हैं; जैसे-आप इसमें क्या जोड़ना चाहते हैं? आप इस चित्र या मॉडल में किस भाग को हटाना चाहते हैं? आप इस चित्र या मॉडल में क्या परिवर्तन कर सकते हैं? यह चित्र आपको क्यों अच्छा लग रहा है? यह चित्र आपको क्यों अच्छा नहीं लग रहा? इस प्रकार के प्रश्नों के माध्यम से छात्र विभिन्न वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे तथा सृजनात्मक चिन्तन के आधार पर इसके वर्णन का प्रयास कर सकेंगे। इससे छात्रों की सृजनात्मक क्षमता में तीव्र गति से वृद्धि हो सकेगी।
5. सामूहिक कार्य (Group work)
कक्षा-कक्ष में सामूहिक कार्य करने से सृजनात्मक चिन्तन में वृद्धि होती है क्योंकि किसी भी कार्य को छात्र सामूहिक विचार-विमर्श के बाद ही उचित रूप में सम्पन्न कर सकता है। प्रोजेक्ट कार्य छात्रों को सम्मिलित रूप में दिया जाता है। इस कार्य में छात्र पृथक्-पृथक् रूप से सूचनाओं एवं तथ्यों का संकलन करते हैं तथा सारभूत
रूप में एक निश्चित विचार पर पहुँचते हैं। इस कार्य से छात्रों में कार्य करने के कौशल तथा तार्किक चिन्तन का विकास होता है। इसमें छात्रों के ज्ञान का विस्तार सम्भव होता है।
6. कला सम्बन्धी खेल (Drawing related games)
छात्रों को विविध प्रकार की कला बनाने या चित्र बनाने में बहुत रुचि होती है। इस आधार पर छात्रों के मानसिक विचार, कौशल एवं सृजनात्मक चिन्तन के स्तर को जाना जा सकता है तथा उसमें अपेक्षित सुधार किया जा सकता है। इसके लिये निम्न गतिविधियाँ शिक्षक को सम्पन्न करनी चाहिये-
- छात्रों के समक्ष छोटी-सी वक्रीय या सीधी रेखा खींच दी जाय तथा छात्रों से इसे पूर्ण चित्र बनाने के लिये या इसमें कुछ जोड़ने के लिये कहा जाय। इसमें छात्रों से यह पछा जाय कि आपने इसमें क्या जोड़ा? क्यों जोड़ा तथा इससे कौन-सी आकृति का निर्माण हुआ? गणित का ज्ञान इससे सरलता से छात्रों को दिया जा सकता है।
- छात्रों के समक्ष श्यामपट्ट पर एक आकृति का निर्माण कर दिया जाय तथा इस आकृति के सन्दर्भ में छात्रों से पाँच लाइन लिखने के लिये कहा जाय। इसके बाद छात्रों से इस आकृति में कुछ जोड़ने के लिये कहा जाय तथा कुछ घटाने के लिये कहा जाय। वे ऐसा क्यों कर रहे हैं इसके बारे में भी पूछा जाय, जिससे उनके विचार एवं चिन्तन के स्तर का ज्ञान हो सके।
- छात्रों के समक्ष विभिन्न प्रकार के वृत्त बना दिये जायें तथा उनसे पूछा जाय कि गोल आकृति की किन-किन वस्तुओं को जानते हैं। उनके बारे में पाँच लाइन लिखिये। गोलों की सहायता से एक आकृति का निर्माण कीजिये। इससे छात्रों में सृजनात्मक चिन्तन का विकास होगा।
7. सृजनात्मक चिन्तन के विकास हेतु शिक्षण व्यूह रचनाएँ (Teaching strategies for development of creative thinking)
सृजनात्मक चिन्तन का विकास करने के लिये शिक्षण व्यूह रचनाओं का प्रयोग करना अति आवश्यक है। इसके आधार पर ही छात्र विविध विषयों पर सृजनात्मक चिन्तन करने के लिये प्रेरणा प्राप्त करता है। सृजनात्मक चिन्तन के विकास हेतु शिक्षक को निम्न व्यूह रचनाओं का प्रयोग करना चाहिये-
कल्पनाओंका उपयोग (Use of imagination)
छात्रों के समक्ष विविध प्रकार के कल्पना सम्बन्धी प्रयोग करने चाहिये। छात्रों के समक्ष अनेक प्रकार के काल्पनिक प्रकरण रखे जायें तथा उन पर उनके विचार जानने के प्रयास किये जायें; जैसे- आप कल्पना कीजिये कि आप पर्यावरण मन्त्री होते एवं कल्पना कीजिये कि आप गाँव के प्रधान होते। इस प्रकार के अनेक प्रकरणों के माध्यम से छात्रों के सृजनात्मक चिन्तन में वृद्धि की जा सकती है। विद्यालय भवन का स्वरूप कैसा हो चित्र बनाइये। विद्यालय उद्यान में कौन-कौन से वृक्ष एवं पुष्प होने चाहिये और क्यों ? इस प्रकार की अनेक कल्पनाओं का प्रयोग एक कुशल शिक्षक को करना चाहिये।
अधिक विचार उत्पन्न करना (Generate more ideas)
छात्रों के समक्ष ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जायें जिससे छात्र अधिक से अधिक सृजनात्मक चिन्तन करने के लिये प्रेरित हो सकें; जैसे- भारतीय परिस्थितियों के उपयुक्त खेल कौन-कौन से होने चाहिये और क्यों? भारत के विद्यालय में कौन-कौन सी आधारभूत सुविधाएँ होनी चाहिये और क्यों? इस प्रकार के अनेक प्रश्न हमारे मन में अनेक विचार उत्पन्न करते हैं। छात्रों के समक्ष ऐसे प्रश्न एवं परिस्थितियाँ सृजनात्मक चिन्तन करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।
वैकल्पिक प्रयोग (Alternative experiments)
छात्रों द्वारा किसी कार्य को करने की एक विधि के अतिरिक्त अन्य विधियों को भी सिखाना चाहिये जिससे उनमें अधिकतम विचारों का सृजन हो सके; जैसे-मिट्टी के खिलौने बनाने के लिये क्या-क्या सामग्री आवश्यक होती है तथा इसे कैसे तैयार करते हैं? किसी गणित के प्रश्न को आप कितनी विधियों से कर सकते है ? पौधे लगाने की कौन-कौन सी विधियाँ हो सकती हैं? परीक्षा में सफलता के पाँच उपाय बताइये। अपने लिखित प्रस्तुतीकरण को प्रभावी बनाने के चार उपाय लिखिये। इस प्रकार के अनेक कार्य छात्रों में सृजनात्मक चिन्तन का विकास तीव्रता से करते हैं।
ज्ञान एवं क्रियाओं के मध्य समन्वय (Co-ordination between knowledge and activities)
ज्ञान एवं क्रियाओं के मध्य समन्वयन की स्थिति भी नवीन विचारों को जन्म देती है। इसलिये शिक्षक को छात्रों को विभिन्न कार्यों में संलग्न करके उनके ज्ञान एवं विचारों का उपयोग करना चाहिये तथा सृजनात्मक चिन्तन का विकास करना चाहिये; जैसे- छात्रों के समक्ष विभिन्न प्रकार के वाक्य, मुहावरे, लोकोक्ति,कहानी एवं चित्र प्रस्तुत किये जायें तथा उनमें कुछ न कुछ जोड़ने के लिये कहा जाय जो कि सार्थक हों। छात्रों से प्रस्तुत सामग्री में कुछ पारेवर्तन करने के लिये कहा जाय जिसे सामग्री को रोचक एवं भिन्न बनाया जा सके। विभिन्न समस्याओं के समाधान में एक से अधिक विधियाँ खोजने के लिये छात्रों से कहा जाय।
निर्णयों का मूल्यांकन (Evaluation of judgement)
शिक्षक को यह प्रयास करना चाहिये कि छात्र द्वारा जो भी प्रयास करके किसी विषय के सन्दर्भ में निर्णय किये गये हैं वह पूर्णतः प्रासंगिक हैं या नहीं क्योंकि छात्र की सृजनात्मकता की स्थिति उसके द्वारा निर्धारित एवं प्रस्तुत नियमों एवं सिद्धान्तों में ही प्रकट होती है। इसके अन्तर्गत प्रमुख रूप से शिक्षक को तीन तो का मूल्यांकन करना चाहिये। इसके साथ-साथ छात्रों को भी इस तथ्य को सिखाना चाहिये कि वह निर्णय प्रस्तुत करने से पूर्व उस पर एक बार पुनर्विचार अवश्य करें। सर्वप्रथम निर्णय के लिये प्रयुक्त विचारों, नियमों एवं विधियों पर विचार करना चाहिये। द्वितीय इन विधियों, नियमों एवंतों में किस सीमा तक सुधार की सम्भावना है ? तृतीय इसकी वर्तमान परिस्थितियों में प्रासंगिकता है या नहीं। इस प्रकार निर्णय का मूल्यांकन करने से सृजनात्मक चिन्तन का विकास
होता है।
8. समाजोपयोगी कार्य (Social useful work)
समाजोपयोगी कार्यों को छात्रों द्वारा सम्पत्र करने की प्रेरणा प्रदान करने से भी सृजनात्मक चिन्तन में वृद्धि होती है; जैसे-समाज में स्वच्छता सम्बन्धी कार्यों का उत्तरदायित्व छात्रों को समूह बनाकर सौंप दिये जायें तो छात्र अपने
दायित्व के प्रभावी निर्वहन के लिये ग्रामीणों को स्वच्छता की नवीन विधियों को समझाने का प्रयास करेंगे तथा जीवन में स्वच्छता के महत्त्व को समझायेंगे। इससे छात्रों में सृजनात्मक चिन्तन का विकास सम्भव होगा क्योंकि प्रत्येक स्वच्छता सम्बन्धी योजना विचार एवं क्रिया के माध्यम से ही सफल हो सकेगी।
9. वाद-विवाद प्रतियोगिता (Discussion competition)
छात्रों को विविध प्रकार के विषयों पर चर्चा करने के लिये प्रेरित करना चाहिये। ये चर्चा बाल सभा या किसी प्रतियोगिता के माध्यम से सम्पन्न की जा सकती है। इसमें छात्रों को पर्यावरणीय एवं ज्वलन्त शैक्षिक चुनौतियों से सम्बन्धित विषय प्रदान करने चाहिये जिससे छात्रों को इस पर विचार-विमर्श करने में रुचि उत्पन्न हो। इस प्रकार की परिचर्चाओं से छात्रों की वैचारिक क्षमता में वृद्धि होगी तथा छात्र ज्ञान वृद्धि के लिये नवीन विषयों से सम्बन्धित साहित्य का अध्ययन कर सकेंगे।
10. प्रदर्शनी (Exhibition)
विद्यालय में समय-समय पर विज्ञान, पर्यावरण एवं इतिहास विषय से सम्बन्धित प्रदर्शनी का आयोजन करना चाहिये जिससे छात्र अपनी रुचि एवं योग्यता के आधार पर विषय से सम्बन्धित चित्र एवं उनके बारे में सामान्य जानकारी लिखकर प्रदर्शनी की शोभा बढ़ा सकें। इससे छात्रों में एक ओर चित्रों के निर्माण करने में विविध हस्त कौशलों का विकास होगा वहीं दूसरी ओर छात्रों की वैचारिक शक्ति का विकास होगा।
उपरोक्त गतिविधियों एवं प्रयासों से छात्रों में सृजनात्मक चिन्तन का विकास सम्भव होगा जिसका प्रयोग वे अपने जीवन में प्रत्येक परिस्थिति एवं घटना में कर सकेंगे। छात्र किसी भी घटना या सिद्धान्त को मूक बनकर स्वीकार नहीं करेंगे वरन् उस पर तर्कपूर्ण विचार करके ही स्वीकार करेंगे। इससे एक ओर समाज की कुरीतियों एवं रूढ़िवादिता का समापन होगा वहीं दूसरी ओर स्वस्थ परम्परा का विकास सम्भव होगा।
सृजनात्मक बालकों की विशेषताएँ
Characteristics of Creative Children
सृजनात्मक बालक में निम्न विशेषताएँ पायी जाती हैं-
1. प्रखर बुद्धि
सृजनात्मक योग्यता वाले बालकों की बुद्धि प्रखर होती है। वह किसी भी चीज को अन्य बालकों की अपेक्षा शीघ्रता से सीख लेते हैं, जबकि अन्य बालक उसी चीज को अधिक समय में सीख पाते हैं। कक्षा-कक्ष में भी सृजनात्मक बालक अपनी पठन-सामग्री को अन्य बालकों की अपेक्षा शीघ्रता से अंगीकृत कर लेते हैं।
2. विचारों की स्वतन्त्रता
सृजनात्मक योग्यता वाले बालकों में विचारों की स्वतन्त्रता पायी जाती है। वे अपने किसी भी कार्य को पूरा करने के लिये स्वयं ही निर्णय लेना पसन्द करते हैं। उन्हें अपने कार्यों में किसी का हस्तक्षेप पसन्द नहीं आता।
3. कार्यों में स्वतन्त्रता
सृजनात्मक योग्यता वाले बालक किसी भी कार्यको स्वतन्त्रतापूर्वक पूरा करना चाहते हैं। वे नियन्त्रित परिस्थितियों में कार्य करना पसन्द नहीं करते हैं।
4. आत्म-प्रकाशन
सृजनात्मक बालकों में आत्म-प्रकाशन की भावना पायी जाती है। वे अपने कार्यों द्वारा अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करते हैं।
5. सैद्धान्तिक आदर्श
सृजनात्मक बालक सैद्धान्तिक रूप से आदर्शवादी होते हैं। वे अपनी परिस्थितियों को भली प्रकार समझते हैं तथा सूझ के द्वारा किसी भी परिस्थिति में निर्णय ले सकते हैं। वे सैद्धान्तिक रूप से आदर्शवादी स्वभाव के होते हैं।
6. सौन्दर्यात्मक आदर्श
सृजनात्मक योग्यता वाले व्यक्तियों में सौन्दर्यात्मक आदर्श पाया जाता है। उनमें प्राकृतिक रूप से सौन्दर्यानुभूति की भावना होती है।
7. वास्तविक ज्ञान तक पहुँचने की योग्यता
सृजनात्मक बालकों में अपने कार्य के प्रति असीम लगन पायी जाती है, वे त्रुटियाँ करते हुए एवं उनसे कुछ न कुछ सीखते हुए वास्तविक ज्ञान तक पहुँच जाते हैं।
8. कार्यों में अपेक्षाकृत अधिक निष्पादन
सृजनात्मक योग्यता वाले बालकों के कार्यों में अपेक्षाकृत अधिक निष्पादन होता है।
सृजनात्मक बालक के पहचान की आवश्यकता
Needs of Identification of Creative Children
सृजनात्मक बालक राष्ट्र की धरोहर है। राष्ट्र के विकास के लिये इन बालकों की प्रतिभा की खोज प्रारम्भ से ही करना आवश्यक है। अतः सृजनात्मक बालक की पहचान कर उसकी विशेषताओं को खोजा जाय, उनकी पहचान के लिये निम्न विधियाँ प्रयोग में लेते हैं-
- बालकों के सही मूल्यांकन के लिये इनका पता लगाना आवश्यक है।
- उनके व्यवहार, कार्यशैली तथा मानसिक क्षमता की जानकारी लेकर इनके बारे में उपचार कार्य करें।
- इनका पता लगाने के पश्चात् ही उनकी वांछित दिशा में उत्पन्न सृजनात्मक शक्ति का विकास किया जाये।
- इनका व्यक्तिगत, शैक्षिक एवं व्यावसायिक मार्गदर्शन आपेक्षित मात्रा में सम्भव है।
- सृजनशील बालकों का पता लगाकर हम कक्षागत समस्याओं (सृजनात्मकता) का निराकरण उनकी शैक्षिक एवं मानसिक क्षमताओं के परिप्रेक्ष्य में कर सकते हैं।
सृजनात्मकता की विशेषताएँ
Characteristics of Creativity
सृजनात्मकता जन्मजात न होकर अर्जित की जाती है। सृजनात्मकता प्राचीन अनुभवों पर आधारित नवीन सम्बन्धों की रूपरेखा तथा नूतन साहचर्यों का सम्बोध कही जा सकती है।
निम्न बिन्दु सृजनात्मकता के स्वरूप या विशेषताओं को स्पष्ट करते हैं-
- सभी व्यक्तियों में विभिन्न प्रकार की तथा विभिन्न श्रेणी की सजनात्मकता पायी जाती है। सृजनात्मकता केवल कुछ चुने हुए व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि यह सभी व्यक्तियों का सामान्य गुण है।
- सृजनात्मकता एक जटिल प्रक्रिया है, जिसे समय, स्थान तथा व्यक्ति से बाँधा नहीं जा सकता। इसका प्रादुर्भाव कहीं भी किसी भी समय पर हो सकता है। बालकों, बड़ों, पुरुषों तथा स्त्रियों सभी में सृजनात्मकता पायी जा सकती है।
- सृजनात्मकता में विभिन्न शील-गुण पाये जाते हैं। इसकी सर्वाधिक मान्य प्रमुख विशेषताएँ होती हैं-निरन्तरता, नमनीयता, विस्तारता, मौलिकता,समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता एवं निर्णय लेने की शैली आदि।
- बुद्धि में निहित योग्यताओं से सृजनात्मक चिन्तन में निहित योग्यताएँ भिन्न होती हैं। सृजनात्मकता अपसारी चिन्तन पर आधारित है, जबकि बुद्धि में अभिसारी चिन्तन का अधिक प्रयोग होता है। यह आवश्यक नहीं है कि सभी बुद्धिमान व्यक्ति सृजनात्मक भी हों।
- सृजनात्मकता का प्रादुर्भाव अचानक नहीं होता, यद्यपि सृजनात्मक विचार अचानक ही बिजली की भाँति प्रकट होते दिखायी देते हैं। सृजनात्मकता का उदय उसी भाँति क्रमिक होता है; जैसे-दिन का निकलना।
- जीवन के आरम्भ से ही सृजनात्मकता का प्रादुर्भाव होता है और इसका विकास सामाजिक पर्यावरण पर बहुत कुछ निर्भर करता है।
- सृजनात्मकता सम्बन्धी योग्यताओं का विकास अन्य योग्यताओं के विकास से भिन्न होता है। इसके विकास की गति एक-सी नहीं रहती।
- सृजनात्मकता को मापा जा सकता है किन्तु एक ही परीक्षा के द्वारा सभी प्रकार की सृजनात्मकता को मापना सम्भव नहीं है।
- सृजनात्मकता का विकास जीवन के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित है। इसके लिये किसी विशेष व्यक्ति या विषध का होना आवश्यक नहीं है।
- सृजनशील व्यक्तियों में प्रवाहता (Fluency) होती है। वे अपने विचारों को प्रवाहता के साथ प्रदर्शित कर सकते हैं।
- सजनात्मकता एक प्रक्रिया या योग्यता है, यह उत्पादन (Product) नहीं है।
- सृजनात्मकता की प्रक्रिया लक्ष्य निर्देशित (Goal directed) होती है। यह या तो व्यक्ति के लियेलाभदायक होती है अथवा समूह या समाज के लिये लाभदायक होती है।
- सृजनात्मकता चाहे मौखिक हो या लिखित, चाहे मूर्त हो या अमूर्त। प्रत्येक अवस्था में व्यक्ति के लिये यह अभूतपूर्व (Unique) होती है। यह किसी नये और भिन्न उत्पादन का मार्ग-निर्देशन करती है।
- सृजनात्मकता एक प्रकार की नियन्त्रित कल्पना है, जिससे किसी न किसी उपलब्धि को निर्देशन प्राप्त होता है।
सृजनात्मकता और बुद्धि में सम्बन्ध
Relationship between Intelligence and Creativity
गिलफोर्ड का प्रज्ञा-गणन एवं सृजनशीलता– प्रज्ञा के गणन परसन (1950 तथा 1956) में किये गिलफोर्ड और उनके साथियों के शोधकार्य दो पृथक चिन्तन धाराओं के अस्तित्त्व को स्पष्ट करते हैं। ये हैं- अभिसारी (Convergent) चिन्तन तथा अपसारी (Divergent) चिन्तन।
पहली चिन्तन धारा में केवल एक पूर्व निर्धारित सही उत्तर निहित होता है, दूसरी चिन्तन धारा के फलस्वरूप विविध उत्तरों का जन्म होता है, जिनमें प्रवाह, नमनीयता, मौलिकता तथा विस्तरण क्रियाशीलता होती है। अभिसारी चिन्तन को बुद्धि के साथ जोड़ा जाता है तथा अपसारी चिन्तन सामान्यतया समझे जाने वाले शब्द सृजनाशीलता की ओर संकेत करता है।
अधिकतर मनोवैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि सृजनशीलता और बुद्धि के बीच एक महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध है। सृजनशील व्यक्ति बुद्धिमान प्रतीत होता है। बुद्धि और सृजनशीलता के सम्बन्ध के बारे में सामान्य निष्कर्ष यह है कि सृजनात्मक होने के कारण बुद्धि का निश्चित स्तर अनिवार्य है। निश्चित स्तर से अधिक या कम बुद्धिमान होने से व्यक्ति की सृजनशीलता के स्तर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
यही नहीं सृजनशीलता के लिये अपेक्षित बुद्धिमानी का स्तर जो प्रत्येक क्षेत्र में अलग-अलग होता है, कभी-कभी आश्चर्यजनक रूप से बहुत कम होता है। बुद्धि परीक्षण द्वारा मापे गये बुद्धि स्तर से भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सृजनात्मक व्यक्ति जितनी भी उसकी बुद्धि है, उसका कितने प्रभावशाली ढंग से प्रयोग करता है।
प्राय: देखा गया है कि कुछ व्यक्तियों में उच्च सृजनात्मकता होती है परन्तु उनका बौद्धिक स्तर निम्न होता है। इसी प्रकार से यह भी आवश्यक नहीं है कि जिनका बौद्धिक स्तर उच्च हो, उनमें सृजनात्मकता भी उच्च स्तर की हो। उच्च बौद्धिक स्तर और उच्च सृजनात्मकता का साथ-साथ चलना बाह्य कारकों पर निर्भर करता है। सृजनात्मकता शून्य में क्रियाशील नहीं हो सकती। इसमें पूर्व अर्जित ज्ञान का उपयोग होता है। इस ज्ञान का उपयोग बौद्धिक क्षमताओं से सम्बन्धित है। अतःसृजनात्मकता और बुद्धि का समन्वय स्वाभाविक है।
क्या सृजनात्मक व्यक्ति (Creative person) के लिये तीव्र बुद्धि आवश्यक है? क्या तीव्र बुद्धि वाले सभी व्यक्ति सृजनात्मक होते हैं?
इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ने के लिये आज लोग बड़े पैमाने पर शोध (Research) में लगे हुए हैं। भारत तथा भारत के बाहर बड़ी शीघ्रता से इस दिशा में शोधकार्य हो रहे हैं किन्तु अब तक कोई निश्चित परिणाम नहीं मिल सका है। कुछ शोधकार्यों से बुद्धि तथा सृजनात्मकता के बीच उच्च धनात्मक सहसम्बन्ध (High positive correlation)और कुछ अध्ययनों से शून्य सहसम्बन्ध (Zero correlation) का पता चलता है। अत: यह आवश्यक नहीं कि जो छात्र अधिक बुद्धि-लब्धि रखता है उसमें अधिक सृजनात्मकता भी होगी।
सृजनात्मकता का तात्पर्य नयी वस्तु की रचना करने की योग्यता से है। इसका अर्थ नये उपागम द्वारा समस्या को हल करने की योग्यता है। यदि कोई व्यक्ति नयी वस्तु का निर्माण करता है, नयी खोज करता है, समस्या समाधान का नया तरीका निकालता है तो कहा जायेगा कि वह आदमी सृजनात्मक (Creative) है।
चैपलिन (Chaplin) के अनुसार- “सृजनात्मकता का तात्पर्य कला या यन्त्र-विज्ञान में नयी आकृतियों को उत्पन्न करने अथवा नवीन उपागमयों द्वारा समस्याओं को हल करने योग्यता से है।” (Creativity is the ability to produce new forms in art or mechanics of solve problems by new methods.)
सृजनात्मक व्यक्ति की एक बड़ी विशेषता बुद्धि है। इसमे कोई सन्देह नहीं कि सृजनात्मकता या रचनात्मक कार्य करने के लिये बुद्धि आवश्यक है परन्तु सृजनात्मकता के लिये उच्च बुद्धि की आवश्यकता नहीं है।
गेटजेल्स तथा जैकसन (Getzels and Jackson 1972) ने प्रचलित बुद्धि परीक्षाओं तथा सजनात्मकता की परीक्षाओं के बीच सम्बन्ध जानने का प्रयास किया। शिकागो स्थित एक विद्यालय के कुछ छात्रों को दो समूहों में बाँटा गया। एक समूह में छात्र उच्च सृजनात्मकता किन्तु निम्न बुद्धि-लब्धि के तथा दूसरे समूह में उच्च बुद्धि-लब्धि तथा निम्न सृजनात्मकता वाले छात्र रखे गये। इन दोनों समूहों के छात्रों की विद्यालयी उपलब्धि तथा व्यक्तित्व गुणशील के क्षेत्र में परीक्षा ली गयी।
निष्कर्ष यह निकला कि उच्च बुद्धि-लब्धि वाले छात्रों का समूह जिसकी सामान्य बुद्धि-लब्धि 132 थी विद्यालय उपलब्धि की परीक्षा लेने पर दूसरे समूह से अधिक अच्छे नहीं पाये गये। इन छात्रों की बौद्धिक योग्यता तथा रचनात्मक योग्यता के बीच 0.11 से 0.49 का सहसम्बन्ध पाया गया। इससे यह भी पता चला कि लगभग 120 बुद्धि-लब्धि से अधिक बौद्धिक योग्यता होने पर उसका कोई प्रभाव सृजनात्मक क्रिया पर नहीं पड़ता।
सृजनात्मकता की पहचान एवं मापन
Identification and Measurement of Creativity
सृजनात्मकता का मापन एवं उसकी पहचान निम्न उपागमों से की जा सकती है-
- विशेषताओं द्वारा पहचान एवं मापन (Identification and measurement by characteristics)
- सृजनात्मक क्रिया द्वारा पहचान एवं मापन (Identification and measurement by creativity activity)
- सृजनात्मक परीक्षणों द्वारा पहचान एवं मापन (Identification and measurement by tests of creativity)
विशेषताओं द्वारा पहचान एवं मापन
सृजनशील बालकों में निम्न विशेषताएँ पायी जाती हैं-
- सृजनशील बालक में मौलिकता अनेक रूपों में पायी जाती है। साधारण विचारों से उसे अधिक संवेदनशीलता अनुभव होती है। वह प्रेरणात्मक होता है और तथ्यों से परे देखता है। वह सदैव विशेष बालक के रूप में जाना जाता है।
- सृजनशील बालक में किसी समस्या पर स्वत: निर्णय लेने की क्षमता होती है। वह वस्तुओं को अपने ढंग से प्रस्तुत करता है। वह दूसरों के सुझावों को स्वीकार नहीं करता।
- सृजनशील बालकों में परिहास प्रियता पायी जाती है। वे खेल, आनन्द एवं परिहास के रूप में सृजन करते रहते हैं।
- सृजनशील बालकों में उत्सुकता एवं जिज्ञासा पायी जाती है। वे जिज्ञासा के कारण एक कार्य को करने के अनेक ढंग सोचते रहते हैं। वे नवीन प्रणालियों द्वारा अपने विचारों की अभिव्यक्ति करते हैं।
- सजनशील बालक अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। वे प्रत्येक कार्य को गम्भीरता से लेते हैं।
- सुजनशील बालकों में अपनी प्रभुसत्ता के प्रति अधिक लगाव होता है। वे अपने कार्य को उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से करते हैं तथा कार्य को अपना समझकर करते हैं। उनमें लक्ष्यपूर्ण होने तक बेचैनी बनी रहती है।
- सृजनात्मक बालकों के विचारों में लचीलापन पाया जाता है। इन बालकों का बौद्धिक स्तर बहुत विस्तृत होता है। इनमें एक प्रकार की नियन्त्रित कल्पना पायी जाती है, जिससे किसी न किसी उपलब्धि को निर्देशन प्राप्त होता है। इन बालकों का अनुसन्धान क्षेत्र भी उच्च स्तर का होता है।
- सृजनात्मक बालक किसी परीक्षण में अपने समूह के अन्य लोगों से अधिक अंक प्राप्त करते हैं। सृजनात्मक बालक अपनी बौद्धिक और सांस्कृतिक रुचियों को प्रत्यक्ष रूप में विकसित करते हैं। इन बालकों में विभिन्न क्षेत्रों में भाग लेने की क्षमता होती है और उन क्षेत्रों में वह अपने भावों को व्यक्त करते हैं।
- सृजनशील बालों में त्रुटियों को सहन करने की क्षमता होती है। उन्हें त्रुटियों से भय नहीं लगता। इनके द्वारा समाधान के लिये जो उपागम प्रयोग की जाती है, वह बहुत अधिक विस्तृत होती है, जिसके कारण कभी-कभी इन्हें गम्भीर समस्या का सामना करना पड़ता है।
- सृजनात्मक बालकों में बुद्धि की सृजनात्मक योग्यता पायी जाती है। साथ ही बौद्धिक योग्यता में लचीलापन एवं अस्पष्टता को सहन करने की योग्यता भी पायी जाती है परन्तु यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता कि एक सृजनशील बालक बुद्धि परीक्षण पर भी उच्च अंक प्राप्त करेगा।
- सृजनशील बालक अधिक सामाजिक नहीं होते हैं। ये न तो अधिक सामाजिक होते हैं और न ही समाज विरोधी। ये बालक सामाजिक परिवेश में बहुत अधिक संवेदनशील होते है। सृजनशील बालक बाह्य भावनाओं की अपेक्षा आन्तरिक भावनाओं से अधिक निर्देशित होते हैं।
- सृजनात्मक बालकों का मस्तिष्क स्वस्थ होता है। इनकी चिन्ता का स्तर कम होता है। सृजनात्मक बालकों की चिन्ता में व्यक्तिगत भिन्नता पायी जाती है। उच्च सृजनशील बालको की चिन्ता अर्थपूर्ण होती है अर्थात् वह वास्तव में चिन्ता करने योग्य तथ्यों पर ही चिन्ता करते हैं।
- सृजनशील व्यक्ति अपनी आयु से अधिक परिपक्व होते हैं। ऐसे व्यक्ति वातावरण में सदैव वास्तविकता एवं सत्यता की खोज करते रहते हैं। ये व्यक्ति अन्य लोगोंकी तुलना में अधिक उत्तरदायित्व की भावना वाले, ईमानदार तथा विश्वसनीय होते हैं। साथ ही इनमें अन्य लोगों से बात करने के गुण भी होते हैं।
- सृजनशील व्यक्तियों का शारीरिक स्वास्थ्य औसत श्रेणी का होता है। ये कल्पनाशील होते हैं तथा उनमें समस्या समाधान एवं सामाजिक संवेदनशीलता अधिक पायी जाती है।
सृजनात्मक क्रियाओं द्वारा पहचान एवं मापन
बालकों में सृजनात्मकता की पहचान उनके द्वारा की गयी सृजनात्मक क्रियाओं द्वारा भी की जा सकती है। जब कोई बालक अच्छी कविता/कहानी लिखता है, चित्र बनाता है, आविष्कार करता है तब इससे उसकी सृजनात्मकता की पहचान की जा सकती है। बालकों द्वारा की जाने वाली प्रमुख सुजनात्मक क्रियाएँ निम्न हैं-
1. विश्वास की भूमिका (Role of believe)
बालक का जीवन ऐसी घटनाओं से परिपूर्ण रहता है कि मानसिक जीवन में उसे विश्वास की भूमिका अनिवार्य रूप से निभानी पड़ती है। वह यथार्थ से मुक्त होकर खेलता है। वह इन्हीं परिस्थितियों का सुजन तथा पुनर्सजन करता रहता है। ऐसे बालक घर में अनेक प्रकार का अभिनय करते हैं। पापा की ऐनक लगाकर पापा बनते हैं, आदि।
2. मनतरंग की भूमिका (Role of fantasy)
मनतरंग भी विश्वास की भूमिका जैसी क्रिया है। नर्सरी कक्षाओं में याद की गयी कहानियाँ तथा गीत कालान्तर में बालक की कल्पना की वस्तु बन जाते हैं। इनसे संवेगों का विकास होता है। पढ़े जाने वाले साहित्य का प्रभाव उन
पर पड़ता है और वे साधारणीकरण की प्रक्रिया में प्रवाहित होते रहते हैं।
3. सृजनात्मक अभिव्यक्ति (Expression of creativity)
बालक की कल्पना तभी साकार होती है, जबकि उसे सृजनात्मक रूप में अभिव्यक्त किया जाय। बालकों में वैयक्तिक भिन्नताएँ पायी जाती हैं। उनमें सृजनात्मक अभिव्यक्ति की क्षमता भी भिन्न होती है। बालक निम्न क्रियाओं द्वारा अपनी सृजनात्मकता को व्यक्त करते हैं-
नाटकीय खेल (Dramatic play)
इस प्रकार के खेलों से बालक की उस संस्कृति की अभिव्यक्ति होती है, जिसमें वह रहता है। इन खेलों के द्वारा बालक बहुधा अपने दैनिक जीवन की घटनाओं का नाटकीकरण करता है। जैसे-डॉक्टर-रोगी के खेल, गुड्डे-गुड़ियों के खेल, मिट्टी के घर बनाने के खेल तथा चोर-सिपाही के खेल आदि।
इस प्रकार के खेल में उनकी सृजनात्मकता की अभिव्यक्ति होती है। जब वह इन खेलों में कोई सृजन करते हैं, तो
उनका संवेगात्मक तनाव निकल जाता है। इस प्रकार के खेलों से बालकों का व्यक्तिगत और सामाजिक समायोजन अच्छा हो जाता है।
रचनात्मक खेल (Constructive play)
पाँच-छह वर्ष की अवस्था पार करने पर बालक की रुचि नाटकीय खेलों से हटकर रचनात्मक खेलों में केन्द्रित होने लगती है। इन खेलों में सृजनात्मकता की अभिव्यक्ति होती है और उसके विकास को भी अधिक बल मिलता है। मिट्टी, बालू, लकड़ी के गुटकों एवं पेपर आदि से बालक अनेक प्रकार के खेल जैसे घर बनाने के खेल तथा चित्र बनाने के खेल आदि अकेले या साथियों के साथ खेलते हैं।
इन खेलों में कुछ सीमा तक लिंग भेद भी देखने को मिलता है। इन खेलों में बालकों द्वारा अपनी सृजनात्मकता की अभिव्यक्ति होती है। वे किसी की नकल नहीं करते।
काल्पनिकसाथी (Imaginary companions)
जब कल्पना में कोई बालक किसी अन्य बालक, व्यक्ति, जानवर या वस्तु को अपना साथी बनाता है तो उसे काल्पनिक साथी कहते हैं। बालक अपने काल्पनिक साथियों के सम्बन्ध में बताना कम पसन्द करते हैं।
बालक को यदि अकेले खेलते समय यदि कुछ दिनों तक सुना जाय तो निश्चय ही वह अपने काल्पनिक साथी से बातचीत करता सुनायी दे सकता है। काल्पनिक साथी बनाने में सृजनात्मकता की अभिव्यक्ति करने से एक तो बालकों का संवेगात्मक तनाव निकल जाता है, दूसरे समायोजन में सहायता भी मिलती है।
हास्य-भाव (Humor)
बालक अनेक प्रकार के हास्य भावों द्वारा अपनी सृजनात्मकता की अभिव्यक्ति करते हैं। उदाहरण के लिये, कभी ये शब्दों का गलत उच्चारण करके या तोड़-मरोड़ करके ऐसे बोलते हैं कि सुनने वाले हँसने लगते हैं। इस प्रकार के हास्य के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वे मौलिक हों तभी सृजनात्मक होंगे बल्कि आवश्यक यह है कि जिस व्यक्ति को सुनाया या दिखाया जा रहा हो उसके लिये मौलिक एवं नया होना चाहिये।
उपलब्धि के लिये आकांक्षा (Aspiration for achievement)
आकांक्षा का अर्थ है-सम्मान, शक्ति या उपलब्धि के लिये आकांक्षा। बालकों की आकांक्षाएँ धनात्मक और ऋणात्मक दोनों प्रकार की हो सकती हैं। बालकों में उपलब्धि की आकांक्षाएँ तुरन्त, आज या कल के लिये भी होती हैं और कुछ ऐसी भी होती हैं जिनमें बालक सोचता है कि जब बड़ा होऊँगा तो मैं ऐसा करूँगा। उपलब्धि के लिये आकांक्षा पर वातावरण सम्बन्धी कारकों का अधिक प्रभाव पड़ता है तथा व्यक्तिगत कारकों का कम। आकांक्षाएँ यदि धनात्मक होती हैं तो बालक का व्यक्तिगत और सामाजिक समायोजन अच्छा रहता है परन्तु यदि आकांक्षाएँ ऋणात्मक होती हैं तो बालक का व्यक्तिगत और सामाजिक समायोजन बिगड़ जाता है।