बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप
बाल्यावस्था में बालक का शिक्षण कार्य (balyavastha mein shiksha ka swaroop) विशेष प्रशिक्षित अध्यापक, माता-पिता और समाज के विभिन्न सदस्यों को करना चाहिये। इस समय बालक के मूल्य,आदर्श और दृष्टिकोणों का निर्माण होता है, जो उसके भविष्य को निर्धारित करते हैं।
अतः बालकों को शिक्षा में निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिये-
1. भाषा का सही ज्ञान (Correct knowledge of language)
बालकों के व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों का प्रथम प्रकाशन भाषा के माध्यम से होता है। भाषा में शब्दों का चयन, वाक्य-विन्यास एवं बोलने का ढंग आदिदूसरे लोगों को प्रभावित करते हैं, इसलिये इस आयु के बालकों को भाषा का सही प्रशिक्षण दिया जाय।
यही प्रशिक्षण उनकी आन्तरिक अभिव्यक्ति का प्रमुख साधन बनता है। इस प्रशिक्षण में सुलेख,यानि शब्दों की बनावट पर विशेष ध्यान देना चाहिये। मनोवैज्ञानिकों और लेख विशेषज्ञों ने बताया है कि ‘लेख’ व्यक्तित्व के मापन में सहायक होता है। अत: भाषा का सही ज्ञान बालकों के व्यक्तित्व को निखारने में सहायक होता है।
2. विषय चयन (Selection of subject)
बालकों के लिये विषयों का चयन अत्यन्त सावधानी के साथ करना चाहिये। विषय चयन का आधार उनकी बुद्धि-क्षमता,रुचि, परिपक्वता और सामयिक उपयोगिता होना चाहिये। जीवन में मनुष्य को सामान्य ज्ञान की विशेष आवश्यकता पड़ती है। अत: उसे सभी प्रकार के विषयों का व्यावहारिक ज्ञान दिया जाना चाहिये।
इन विषयों में रोचक सामग्री का चयन किया जाय ताकि बालकों का उनमें मन लग सके और वे अपने व्यक्तित्व के विकास में सहायता ले सकें। विषय सामग्री में वीरता एवं साहस से भरे कार्य, आश्चर्यजनक तथ्य, हास्य-विनोद, वार्तालाप, नाटक, कहानियाँ, पशु और जगत की यथार्थता से सम्बन्धित ज्ञान होना चाहिये।
3. मनोवैज्ञानिक शिक्षण विधियाँ (Psychological methods of teaching)
मनोवैज्ञानिक शिक्षण विधियों का प्रयोग बालकों को ज्ञान देने के लिये किया जाता है। शिक्षण की अनेकों विधियाँ हैं। इन विधियों का सार्थक प्रयोग ही बालक को सही ज्ञान दे सकता है। शिक्षण विधियाँ बालक की रुचि, कार्य का स्वभाव और अध्यापक की निपुणता पर निर्भर होनी चाहिये।
बाल्यावस्था में रुचि परिवर्तन तीव्र गति से होता है। अत: बाल शिक्षा से सम्बन्धित सही विधियों का प्रयोग करना चाहिये ताकि बालकों का बहुमुखी विकास किया जा सके।
4. पाठ्यान्तर क्रियाएँ (Extra co-curricular activities)
बाल्यावस्था में बच्चों का मन चलायमान होता है। उनको एक ही स्थान पर केन्द्रित करना मुश्किल होता है। इसलिये मनोवैज्ञानिकों ने शिक्षा के अतिरिक्त कुछ क्रियाओं का भी प्रशिक्षण विद्यालयों में देना प्रारम्भ किया है। इनको पाठ्यान्तर क्रियाएँ कहा जाता है।
ये बालक के शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास में सहयोग देती हैं। इन क्रियाओं में खेलकूद, सांस्कृतिक कार्यक्रम, पर्यटन, स्काउट आदि प्रमुख हैं। इनके माध्यम से बालक की अतिरिक्त शक्ति का रचनात्मक प्रयोग किया जाना चाहिये।
5.समूहमन का विकास (Development of group mind)
समूह मन एक भाव जिसमें व्यक्तिगत भाव का विलय समष्टिगत भाव में होता है। बालक समूह में होता है तो वह समूह की भावना का ही आदर करता है, न कि अपनी राय का। वह अधिक से अधिक बालकों से मिलना-जुलना, उनके साथ खेलना, उनके साथ विभिन्न कार्यों को करना आदि में रुचि लेता है।
कॉलसनिक ने लिखा है- “सामूहिक खेल और शारीरिक व्यायाम प्राथमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम में अभिन्न अंग होने चाहिये।“
6. देखो और सीखो विधि (Look and learn method)
बाल्यावस्था में जिज्ञासा विकास चरम सीमा पर होता है। बालक शीघ्र से शीघ्र संसार के ज्ञान को सीखना चाहता है। अत: वह सीखने में तीव्रता प्रकट करता है।
शिक्षकों को चाहिये कि बालकों को अधिक से अधिक देखो और सीखो विधि द्वारा सीखने के लिये प्रोत्साहित करें। विद्यालय के अन्दर पुस्तकालय व्यवस्था एवं उसका उपयोग, प्रयोगशालाएँ स्काउट, राष्ट्रीय सेवा योजनाएँ, एन. सी. सी.,खेलकूद, सांस्कृतिक कार्यक्रम और प्रमुख स्थानों की यात्रा आदि के शिक्षण कार्य को देखो और सीखो विधि के द्वारा प्रारम्भ करना चाहिये।
इससे बालक अनुकरण के द्वारा शीघ्र सीख लेगा। यह विधि भविष्य में भी लाभदायक सिद्ध होगी।
7. संवेगात्मक स्थिरता और नियन्त्रण (Emotional stability and control)
बाल्यावस्था में संवेगों का प्रकाशन गत्यात्मक क्रियाओं के द्वारा न होकर समाजीकरण के नियमों के आधार पर होता है। बालक अपने भावों पर नियन्त्रण करना और उन्हें छपाना भी सीख लेता है। अत: इस अवस्था को संवेगात्मक स्थिरता और नियन्त्रण का प्रमुख काल कहा जाता है।
बालकों में देखो और सीखने की विधि का प्रचुर मात्रा में विकास हो जाता है, जो उन्हें संवेगों का सही प्रकाशन क्या है? का ज्ञान देता रहता है।
यही कारण है कि बालक साइकिल से गिर जाता है और उसे काफी चोट लग जाती है तो भी वह अपने संवेग पर नियन्त्रण कर लेता है और कहता है कि अधिक चोट नहीं लगी जबकि शैशवावस्था का बालक धाड़ मार कर रोना प्रारम्भ कर देता है। अतः समाजीकरण के द्वारा उन संवेगों को सही रूप में नियन्त्रण का नाम दिया जाता है।
8. सामाजिक एवं नैतिक गुणों की शिक्षा (Education of social and moral traits)
सामाजिक एवं नैतिक गुण समाज की देन होते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में मानवीय गुणों को ही सामाजिक एवं नैतिक गुणों की संज्ञा दी जाती है। अत: बाल्यावस्था में प्रत्येक समाज, विद्यालय या प्रशासन बालकों में अच्छे नागरिक के गुणों का विकास करने के लिये शिक्षा देते है।
बालक समाज और नैतिकता के भाव समझने में असफल रहता है, फिर भी वह इनको धारण करना अपना परम कर्त्तव्य मानता है। शिक्षा के क्षेत्र में ऐसी क्रियाओं का संगठन करना चाहिये, जिनमें भाग लेकर बालकों में अनुशासन आदि सामाजिक गुणों का विकास हो सके।
इसी प्रकार से बालकों में विश्वास, अच्छी आदतें, जीवन मूल्य तथा जीवन का होना अति आवश्यक है।