छात्र सहभागिता कौशल – अर्थ एवं परिभाषा, विचारात्मक प्रश्न, छात्र सहभागिता बढ़ाने के उपाय

Chhatra Sahbhagita Kaushal

छात्र सहभागिता कौशल (Student’s Participation Skill)

छात्र सहभागिता क्या है? छात्र सहभागिता को समझने की दृष्टि से यदि प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक के शैक्षणिक परिदृश्य पर दृष्टि डाली जाय तो सभी जगह एक जैसा ही मिलेगा-पूरे कालांश शिक्षक बोलता ही चला जाता है; छात्र मूक श्रोता के रूप में कभी उसकी बात सुनते हैं तो कभी नहीं भी। कभी झपकियाँ लेते हैं तो कभी नींद निकालने से भी नहीं चूकते।

सभी स्तरों पर प्राय: कुछ अपवादों को छोड़कर, शिक्षक को पढ़ाते समय यही चिन्ता सताती रहती है कि कहीं कोई विद्यार्थी कुछ पूछ न ले? विद्यालयी स्तर पर यदि विद्यार्थी कुछ पूछें तो शिक्षक उन्हें शाब्दिक और अशाब्दिक अथवा आंगिक नकारात्मक पुनर्बलन (Negative Reinforcement) के द्वारा जिसका उल्लेख पुनर्बलन कौशल के अन्तर्गत किया गया; बिठा देता है, तो उच्च कक्षाओं में विद्यार्थी प्रायः इसलिये शिक्षक से कुछ नहीं पूछते कि उनकी शंकाओं के समाधान में प्राय: वही घिसे-पिटे उत्तर सुनने को मिलते हैं जो उनके द्वारा पढ़ी जाने वाली पुस्तकों में हैं। स्वाध्याय एवं चिन्तन पर आधारित उत्तर प्रायः कम ही मिल पाते हैं। शिक्षा का यह हाल प्राय: सभी स्तरों पर है। यह इकतरफा शिक्षण है और उसका छात्र सहभागिता से कोई सम्बन्ध ही नहीं।

प्रभावी शिक्षण तो वह है जो किसी भी स्तर पर विषयवस्तु को समझाने हेतु शिक्षक कम से कम ऐसा बोले, जो छात्रों की दृष्टि से संतुष्टि प्रदायक हो।

शिक्षण के समय यदि छात्र कुछ न पूछें तो शिक्षक अपनी ओर से विषयवस्तु के स्पष्टीकरण हेतु छात्रों से ऐसे प्रश्न पूछे जिनका उत्तर वे दे पायें तो अत्योत्तम और यदि न भी दे पायें तो छात्रों में उस प्रश्न का उत्तर जानने की जिज्ञासा (Curiosity) अवश्य उत्पन्न हो जाय ताकि वे उसी प्रश्न के शिक्षक द्वारा दिये गये उत्तर को ध्यानपूर्वक सुनें; मानसिक एवं बौद्धिक-दोनों ही दृष्टियों से सक्रिय रहें, इसी का नाम छात्र सहभागिता है।

अत: कह सकते हैं कि अध्ययन-अध्यापन संस्थितियों में शिक्षक के साथ-साथ शिक्षार्थियों की मानसिक, बौद्धिक तथा क्रियात्मक सक्रियता ही छात्र सहभागिता है।

“छात्र-सहभागिता अधिगम का एक आवश्यक अंग

शिक्षा के उद्देश्यों की दृष्टि से यदि देखा जाय तो– “शिक्षा का उद्देश्य, विद्यार्थियों के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाना है।” और यह तभी सम्भव है जब मन जीवनोपयोगी अच्छी बातों को सीखना चाहे।

निष्कर्षतः, सकारात्मक अधिगम तभी सम्भव जब अधिगमार्थी का मन किसी बात को जानना, समझना तथा सीखना चाहे तथा बौद्धिक एवं शारीरिक क्रियाएँ तदनुरूप हों।

अत: कह सकते हैं कि- मन, बुद्धि तथा क्रियाओं की दृष्टि से छात्र सहभागिता, अधिगम का एक आवश्यक अंग है।

अब प्रश्न उठता है कि छात्र सहभागिता को कैसे बढ़ावा दिया जाय?

“छात्र सहभागिता का सर्वश्रेष्ठ माध्यम विचारात्मक प्रश्न (Thought provoking questions)”

विचारात्मक प्रश्न (Thought provoking questions)

विचारोत्तेजक प्रश्न वे प्रश्न हैं जिनका उत्तर सोचकर दिया जाय। यह आवश्यक नहीं कि ऐसे प्रश्नों का उत्तर आये ही आये। उत्तर आये अथवा न आये, लेकिन उसके उत्तर पर विचार किया जा सके। उत्तर आने की स्थिति में शिक्षक यदि उनकी प्रशंसा करे तो उनका मनोबल बढ़ता है और यदि उत्तर नहीं भी दे पाते, किन्तु यह सोचते हैं कि-ऐसे प्रश्नों का ‘उत्तर जानने हेतु, उनकी जिज्ञासा बढ़ती है।

जिज्ञासा उत्पन्न होने पर शिक्षक द्वारा दिये जाने वाले उसी प्रश्न के उत्तर को सुनने के प्रति उनके मन की एकाग्रता (Concentration) बढ़ती है। मन की एकाग्रता बुद्धि को उत्तर को समझने हेतु सक्रिय बनाती है। बौद्धिक सक्रियताकक्षा में शोरगुल को कम करती है और शोरगुल कम होने पर कक्षा में अनुशासन बना रहता है तथा अनुशासन अधिगम हेतु अधिकतम सहायक सिद्ध होता है, चाहिये भी यही।

अतः शिक्षण एवं अधिगम दोनों को ही अधिकतम प्रभावी बनाने की दृष्टि से शिक्षण में ही नहीं; अपितु प्रत्येक शैक्षिक कार्य में छात्र-सहभागिता, बहुत ही अधिक आवश्यक है तथा शिक्षण के समय छात्र सहभागिता को बढ़ाने का सर्वोत्तम माध्यम विषय वस्तु तथा उसे समझाने हेतु प्रयुक्त दृश्य एवं शृव्य साधनों पर पूछे गये विचार-प्रधान (Thought provoking) प्रश्न ही हैं।

स्मृति प्रधान (Memory based) प्रश्न उतने सहायक सिद्ध नहीं होते; क्योंकि उनका उत्तर छात्रों को आता है तो दे देते हैं अन्यथा उनका उत्तर सोचने से भी नहीं आता। अतः बौद्धिक एवं मानसिक सक्रियता का प्रश्न हीं नहीं उठता।

शिक्षण में छात्र सहभागिता को कैसे बढ़ाया जाय?

शिक्षक किसी भी पाठ को समझाते समय छात्र सहभागिता को बढ़ाने का जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया गया- विचार प्रधान प्रश्न ही सर्वोत्तम साधन हैं। इस दृष्टि से शिक्षक जो भी प्रश्न पूछे उनका सम्बन्ध छात्रों द्वारा दिये जाने वाले उत्तर की विचार प्रधानता से होना चाहिये। इस दृष्टि से-

शिक्षक, छात्र सहभागिता को दो प्रकार से बढ़ा सकता है-

प्रथम प्रकार

प्रथम तो वह किसी भी विषय की जिस विषयवस्तु को कक्षा में पढ़ा रहा है, उसमें जो भी तथ्य, कठिन वाक्यांश अथवा वाक्य आये हैं, उनको अपनी ओर से बताने या समझाने से पूर्व, विद्यार्थियों से ही पूछे कि उस अंश का अर्थ क्या है अथवा ऐसा क्यों किया गया? यदि इसके स्थान पर ऐसा किया जाता तो क्या अन्तर आता? अमुक बात या शासन व्यवस्था अथवा निर्णय किन-किन अर्थों में अमुक व्यवस्था से भिन्न या समान है आदि।

शुद्ध विज्ञानों के क्रिया-प्रधान पाठों, विशेषकर गृह-विज्ञान में खाना बनाना, कढ़ाई, बुनाई आदि सिखाते समय तथा रसायन-विज्ञान में गैस (Gas) बनाने की प्रक्रिया समझाते समय-यह पूछना कि ऐसा ही करना क्यों आवश्यक है? किसी गैस-जार (Gas jar) में गैस में एकत्रित करने हेतु जार को पानी भरकर उल्टा रखने का क्या कारण हो सकता है आदि ?

द्वितीय प्रकार

द्वितीय प्रकार से छात्र सहभागिता को बढ़ावा देने हेतु शिक्षक पढ़ाये जाने वाले अंश को कक्षा में वहीं पढ़ने अथवा घर से पढ़कर लाने के लिये यह निर्देश देकर कह सकता है कि पाठ को पढ़कर समझे और यदि कोई बात समझ में न आये तो पूछे।

ऐसा करने में समय अधिक लगने की सम्भावना है। अत: यह भी किया जा सकता है कि पाठ को समझाने के पश्चात् छात्रों को कहा जाय कि वे अपनी शंकाओं को खुलकर पूछें। यही नहीं, कुशल शिक्षक अनेकों रूपों में शिक्षण के समय छात्र सहभागिता को बढ़ा सकता है, बशर्ते कि वह ऐसे सभी प्रश्नों का उत्तर देने में स्वयं भी सक्षम हो।

शिक्षण में छात्रों की सहभागिता को प्रत्येक विषय में बढ़ावा दिया जा सकता है। इसके लिये निम्नलिखित प्रकार से प्रश्नों का सहारा लेना चाहिये-

भाषाएँ-

  1. “चरण-कमल” तथा “कमल नयन” में क्या अन्तर है?
  2. जब ‘क्रोध’ से ‘क्रोध’ तथा ‘घृणा’ से ‘घृणा’ की उत्पत्ति हो सकती है तो फिर ‘श्रद्धा’ से ‘श्रद्धा’ की क्यों नहीं?
  3. रसखान ने अपने प्रसिद्ध कवित्त-मानुष हौं तु डारन” में ‘मानुष’ का ही प्रयोग क्यों किया है; ‘मानव’ का क्यों नहीं?
  4. अंग्रेजी भाषा में ‘Believe’ तथा ‘Receive’ का उच्चारण समान होते हुए भी पहले में ‘ie’ तथा दूसरे में ‘ei’ क्यों है आदि?

सामाजिक एवं शुद्ध विज्ञानों में-

  1. ‘बबूल’ में ऐसी क्या बात हो सकती है कि कोई भी जानवर, यहाँ तक कि बकरी और ऊँट भी उसकी पत्तियों को नहीं खाते?
  2. हिमाचल प्रदेश तथा कश्मीर राज्य की जलवायु लगभग बहुत कुछ समान होने पर भी किन-किन क्षेत्रों से असमानता हो सकती है?
  3. “सामाजिक परम्पराओं के पीछे भी एक वैज्ञानिक आधार है।” कैसे? कोई एक उदाहरण बताओ?
  4. ‘आरक्षण’ एवं ‘संरक्षण’ में से सामाजिक उत्थान की दृष्टि से कौन-सा अधिक ठीक है? कारण भी बताओ आदि।
  5. कटा हुआ गन्ना हवा के सम्पर्क में आने पर लाल हो जाता है। ऐसा क्यों होता है?
  6. हर प्रान्त में रहने वाले लोगों के खान-पान तथा रहन-सहन में एक बड़ा अन्तर होता है? इसके क्या कारण हो सकते हैं?

इस प्रकार, शिक्षण के समय छात्रों की सहभागिता को अनेक प्रकार से बढ़ाया जा सकता है।

यदि गहराई से सोचा जाय तो “शिक्षण प्रशिक्षण” का मूलोद्देश्य भी यही है कि किसी भी पाठ को छात्रों का समझाते समय उन्हें मानसिक एवं बौद्धिक-दोनों ही रूप से अधिक से अधिक सक्रिय रखा जाय तथा उन्हीं के द्वारा पाठ का विकास कराया जाय ताकि वे अधिक से अधिक सीख सकें।

शिक्षक, तो केवल उनकी शंकाओं के निवारण कर्त्ता, समस्याओं का समाधान कर्त्ता तथा मार्गदर्शक के रूप में कार्य करे, परन्तु ऐसा होता नहीं। इसीलिये प्रशिक्षित तथा अप्रशिक्षित शिक्षकों में कोई प्रत्यक्ष अन्तर न तो दिखाई देता है और न ही आता है।

शिक्षण अधिगम सामग्री प्रयोग एवं निष्कर्ष निकालने का कौशल

Skill of Use of Teaching Learning Material and Resulting

सिद्धान्त एवं व्यवहार में बड़ा अन्तर है। सभी सिद्धान्तों को व्यवहार में ढाला जा सके- यह कभी भी सम्भव नहीं, क्योंकि शिक्षक अपने शिक्षण को प्रभावी बनाने की दृष्टि से सभी सहायक साधनों को नहीं जुटा सकता। सभी छोटी-बड़ी पाठशालाओं में टेलीविजन दे भी दिया जाय तो भी उसका सही उपयोग हो पायेगा यह सदैव संदेहास्पद ही बना रहेगा।

उसके लिये संवेदनशीलता, चलाने हेतु कौशल, समझाने हेतु गहन ज्ञान आदि न जाने किन-किन बातों की आवश्यकता होती ही है। इन सबमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पढ़ाये जाने वाले पाठ्यांश का गहन अज्ञान है जो उसे समझे बिना सम्भव नहीं। जिस बात को शिक्षक स्वयं ही नहीं समझता उसे दूसरों को कैसे समझायेगा।

पाठ्यांश से सम्बन्धित प्रत्येक छोटी से छोटी बात को गहराई से समझने के पश्चात् उसे इस बात पर विचार करना चाहिये कि पढ़ाये जाने वाले पूरे पाठ्यांश में कौन-कौन से अंश ऐसे हैं जो विद्यार्थियों की दृष्टि से कठिन हैं तथा विद्यार्थी उनको सरलार्थ शिक्षक से पूछ सकते हैं? इसके पश्चात् उसे उन साधनों पर विचार करना चाहिये जिनके माध्यम से उन कठिन अंशों को समझाया जा सकता है। इन साधनों का नाम ही सहायक साधन है। इन साधनों के अन्तर्गत भी किसी कठिन शब्द अथवा पठितांश को समझाने की दृष्टि से एक से अधिक साधन सम्भव हैं।

पुनः इन सभी सम्भावित साधनों के उपयोग से पूर्व उसे इस बात पर विचार करना चाहिये कि उन सभी सहायक साधनों में से प्रभाव, उपलब्धता, शिक्षक को उसके उपयोग की सूझ-बूझ तथा विद्यार्थियों की दृष्टि से उस साधन द्वारा कठिन अंश को समझने में बोधगम्यता आदि सभी दृष्टियों से कौन-सा साधन सर्वाधिक अच्छा रहेगा? इन सब बातों पर पूर्व विचार एक कुशल शिक्षक की सच्ची पहचान है।

इसीलिये कहा जाता है कि-

“Teacher is the best illustrative aid.” “शिक्षक (स्वयं) सर्वोत्तम सहायक साधन है।

इसका आशय यही है कि शिक्षण के जितने भी सहायक साधन हैं, उन सबके उपयोग में शिक्षक की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि शिक्षण के मौखिक अर्थात् शृव्यसाधनों के उपयोग की दृष्टि से उदाहरण या दृष्टान्त देना है तो उसे देना है। सूक्ति, लोकोक्ति या मुहावरों के माध्यम से समझाना है तो भी उनकी व्याख्या तो करनी ही होगी और व्याख्या का काम भी शिक्षक का ही है।

उधर दूसरी ओर किसी भी विषय विशेषकर शुद्ध एवं सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्धित पाठों को दृश्य साधनों के वास्तविक रूप, प्रतिरूप, चित्र तालिका आदि जिस माध्यम से भी समझाना है तो उसे स्पष्ट करने हेतु कुछ न कुछ कहना तो पड़ेगा ही, तत्सम्बन्धित प्रश्न भी पूछने ही पड़ेगे।

उनका उत्तर न आने पर सही उत्तर की प्राप्ति हेतु पूरक प्रश्न भी पूछने पड़ सकते हैं। पूरक प्रश्नों के भी उत्तर न आने पर विद्यार्थियों को उत्तर देने हेतु उत्प्रेरित भी करना होता है- ये सभी काम शिक्षक के ही होते हैं। पुनः यदि फिर भी उत्तर नहीं आता है तो उसे श्यामपट्ट पर बड़े चित्र के विभिन्न अंशों के छोटे-छोटे चित्र स्वयं बनाकर भी बताना पड़ सकता है।

कहने का आशय यह है कि किसी भी पाठ की विषयवस्तु को समझाने हेतु अपनी जानकारी (ज्ञान), सूझबूझ, बाह्य साधनों आदि सभी का सहारा लेना पड़ता ही है। कहाँ, कौन-सा मौखिक या दृश्य साधन, पाठ के किसी अंश को समझाने हेतु सर्वाधिक उपयुक्त रहेगा- इसका निर्णय भी उसे ही करना पड़ता है।

चिन्तन की यह क्रिया उस समय तक चलती ही रहती है, जब तक कि पाठ विद्यार्थियों की समझ में अच्छी तरह नहीं आ जाता। इसीलिये ऊपर शिक्षक के सम्बन्ध में यह कहना कि “वह शिक्षण का सर्वश्रेष्ठ सहायक साधन है“- सर्वथा उपयुक्त है। कुशल शिक्षक वही है जो किसी न किसी प्रकार पठितांश को अपने विद्यार्थियों को, जैसे भी सम्भव हो समझा ही देता है।

शिक्षण सामग्री के उपयोग हेतु कुछ ध्यान में रखने योग्य बातें

Keep Thoughts in Mind about the Use of Teaching Material

शैक्षिक सामग्री के प्रयोग के कौशल के रूप में एक शिक्षक द्वारा कहाँ किन साधनों का और कैसे उपयोग किया जाय-समग्र दृष्टि से इसका उल्लेख यहाँ किया जा रहा है-

  1. सहायक साधन बहुत हैं और सभी का उपयोग सभी स्थानों और सभी शिक्षण विषयों तथा सभी विद्यार्थियों के साथ समान रूप से नहीं किया जा सकता। अतः सहायक साधन के चयन में विशेष सावधानी की आवश्यकता है। किसी भी क्लिष्ट बात को समझाने हेतु जो साधन या युक्ति सर्वाधिक उपयुक्त प्रतीत हो, वहाँ उसी का चयन किया जाना चाहिये।
  2. प्रभाव की दृष्टि से निम्नलिखित क्रम अच्छा रहता है, किन्तु इसमें साधन की उपलब्धता तथा दिखाने में सरलता एवं सुविधा का ध्यान रखना आवश्यक है- वास्तविक रूप → प्रतिरूप → चित्र → रेखाचित्र → मौखिक साधन (लघुकथा आदि)।
  3. इस क्रम का आशय यह कदापि नहीं कि प्रत्येक परिस्थिति में ऐसा ही किया जाय। यह तो साधन के शिक्षार्थी द्वारा किसी बात को समझने हेतु- उस साधन के पड़ने वाले प्रभाव की दृष्टि से बताया गया है। जिन बातों का कोई मूर्त रूप है ही नहीं, वहाँ सब कुछ मौखिक रूप से ही स्पष्ट करना होगा।
  4. सहायक साधनों का उपयोग वहीं किया जाय, जहाँ उनकी अत्यधिक आवश्यकता हो, अन्यथा नहीं।
  5. यदि दृश्य साधनों का उपयोग किया जाय तो उनका रूप न तो इतना छोटा ही हो कि विद्यार्थियों को सरलता से दिखायी ही नहीं दे और न ही इतना बड़ा कि उसे दिखाना सम्भव न हो।
  6. प्रदर्शन की दृष्टि से ऐसे स्थान का चयन किया जाय, जहाँ से सभी विद्यार्थी उसे भलीभाँति देख सकें।
  7. जिन प्राणियों आदि को उन्होंने पहले से ही देख रखा है उन्हें दिखाना ठीक नहीं, क्योंकि उनका नाम लेते ही उनका चित्र विद्यार्थियों के मस्तिष्क में स्वतः ही खिंच जाता है।
  8. सहायक सामग्री का प्रदर्शन तभी किया जाय जब उसकी आवश्यकता हो तथा उसी समय तक विद्यार्थियों के समक्ष रखा जाय जब तक उसकी आवश्यकता अनुभव की जाय। इस दृष्टि से यह पूरे कालांश तक जैसे शुद्ध विज्ञान के पाठों में रह सकती है तो कुछ मिनटों में ही इसकी उपयोगिता समाप्त भी हो सकती है। समय की सीमा निर्धारित न की जाय। केवल उपयोगिता का ध्यान रखा जाय।
  9. जो कुछ भी दिखाया या सुनाया जाय वह पाठ को समझाने की दृष्टि से उपयोगी हो। अनावश्यक या अनुपयोगी नहीं।
  10. सहायक साधनों के उपयोग में विद्यार्थियों की आयु, बौद्धिक क्षमता तथा शैक्षिक स्तर सभी को ध्यान में रखा जाय।
  11. जो कुछ दिखाया या सुनाया जाय, वह सर्वथा नवीन अर्थात् पहले से ही देखा या सुना हुआ नहीं होना चाहिये। इस दृष्टि से पशु-पक्षियों के प्रतिरूप या चित्र छोटे बालकों की दृष्टि से उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं तो बड़े बच्चों की दृष्टि से सर्वथा अनुपयोगी।
  12. छोटी कक्षाओं में प्राणियों एवं पदार्थों के वास्तविक रूप, प्रतिरूप तथा चित्र उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं तो उच्च स्तर पर उनके विश्लेषण सम्बन्धी चित्र एवं आख्यान आदि।
  13. विद्यार्थियों की आयु एवं बुद्धि के अनुरूप ज्यों-ज्यों उनकी जानकारी का विस्तार होता जाता है, त्यों-त्यों इन साधनों के उपयोग में परिवर्तन की आवश्यकता बढ़ती जाती है।
  14. अन्त में-सब कुछ शिक्षक के विवेक तथा सूझ-बूझ पर निर्भर करेगा कि किस विषयवस्तु को किस स्तर पर समझाने की दृष्टि से कौन-सा साधन सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध होगा।

इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए-किसी पाठ की प्रस्तावना अथवा उसके किसी अध्ययन बिन्दु को समझाने हेतु प्रयुक्त-सहायक, साधन की उपयुक्तता का मूल्यांकन करने तथा शिक्षक में इस कुशलता का विकास करने की दृष्टि से सूक्ष्म शिक्षण (Microteaching) के रूप में इसका अभ्यास करना आवश्यक है।