शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप (Form of Education in Infancy)

Shaishav Avastha Me Shiksha Ka Swaroop

शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप

शैशवकाल के बालकों को कैसे शिक्षित किया जाना चाहिये? यह प्रश्न बालक के विकास में विशेष महत्त्व रखता है। अत: हमें शैशवीय बालकों की शिक्षा की व्यवस्था निम्न आधारों पर करनी चाहिये-

1. उपयुक्त पर्यावरण (Appropriate environment)

शिशु का विकास प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रीति के द्वारा होता है। अत: उनका पर्यावरण सुखद, शान्त एवं स्वस्थ होना चाहिये।

बालकों के विकास को वंशानुक्रमीय उपहारों से न जोड़कर उनके अच्छे से अच्छे विकास के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये। इस प्रकार से बालक अपने परिवार और विद्यालय में समरसता का अनुभव करके अधिक सीख सकेंगे।

2. सीखने के अवसर (Opportunities for learning)

बालकों में जिज्ञासा की प्रवृत्ति बहुत ही तीव्र मात्रा में पायी जाती है। वे अपने पर्यावरण में पायी जाने वाली वस्तुओं के प्रति शीघ्र ही जिज्ञासा व्यक्त करने लगते हैं।

अतः इनको सीखने, जिज्ञासा जाग्रत करने एवं शान्त करने के लिये सभी प्रकार के साधन एवं अवसर प्रदान करने चाहिये। इन अवसरों से वह अपने ज्ञान की संचित निधि में व्यावहारिक रूप से वृद्धि करते हैं।

3. उपयुक्त विधि (Appropriate method)

मॉण्टेसरी, फ्रोबेल, ह्युरिस्टिक, खेल एवं अनेक प्रणालियाँ शिशु शिक्षण के लिये प्रारम्भ हुई। ये सभी विधियाँ कार्य को स्वयं करके सीखने पर बल देती हैं। इनमें बालक खेल ही खेल में ज्ञान के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं।

प्रयत्न और भूल के द्वारा, अनुकरण के द्वारा एवं सूझ आदि प्रविधियों के प्रयोग का सहारा शिक्षक या माता-पिता को लेना चाहिये। इस प्रकार से बालक अपने समय एवं शक्ति का सही उपयोग कर पाते हैं।

4. पाठ्यक्रम (Curriculum)

शैशवावस्था में बालकों का पाठ्यक्रम पूर्णरूप से व्यावहारिक होना चाहिये। इस प्रकार से उनको संसार की यथार्थता का ज्ञान आसानी से कराया जा सकता है। इस अवस्था के पाठ्यक्रम में ज्ञान की विविधता आती है न कि विषयों की निश्चितता।

शैशवावस्था के पाठयक्रम का निर्धारण इस प्रकार होना चाहिये कि उसके द्वारा बालकों को आत्म-निर्भर बनाया जा सके।

अच्छी आदतों, मानसिक क्रियाओं का शिक्षण, मानवीय गुणों का विकास, सामाजिक भावना और ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों के प्रशिक्षण आदि का ज्ञान इस अवस्था के पाठ्यक्रम में उपयुक्त होगा।

5. शिक्षक की भूमिका (Role of teacher)

शिक्षक वही सफल है, जो बालकों को पहचानता या समझता है। उसका प्रशिक्षण बालकों की क्रियाओं, विकास के क्रम और परिवर्तनशीलता को ध्यान में रखकर होना चाहिये।

अध्यापक का कर्तव्य है बालकों को सहयोग देना, न कि नियन्त्रित करना। बालक जीवित है, विकसित प्राणी है और एक व्यक्तित्व का मालिक है। इसके साथ ही उसके व्यवहार पर अचेतन मन का भी प्रभाव पड़ता है।

अत: बालक का शिक्षण तभी सम्भव है जब शिक्षक अपना कर्त्तव्य सही रूप से पूरा करें एवं शिक्षा के प्रति समर्पित हों।

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शैशवावस्था की उपर्युक्त शिक्षा प्रक्रिया को ध्यान में रखते हुए शिक्षा आयोग (1964-66) ने शिशु शिक्षा पर विशेष बल देते हुए लिखा है-“तीन और दस वर्ष के बीच के बालक शारीरिक, संवेगात्मक और मानसिक विकास के लिये सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। अतः हम पूर्व प्राथमिक शिक्षा के अधिक से अधिक सम्भव विस्तार की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं।
(The years between three and ten are of the greatest importance in the child’s physical, emotional and intellectual development. We therefore, recognize the need to develop pre-primary education as extensively as possible.)