किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएँ (Characteristics of Adolescence)

Kishoravastha Ki Visheshtaen

किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएँ

किशोरावस्था का काल संसार के सभी देशों में एक-सा नहीं माना जाता। श्री हैरीमैन ने लिखा है-“योरोपीय देशों में किशोरावस्था का समय लड़कियों में लगभग 13 वर्ष से लेकर 21 वर्ष और लड़कों में 15 वर्ष से लेकर 21 तक माना जाता है। भारत देश में लड़कियों की 11-17 और लड़कों की 13-19 वर्ष की आयु तक किशोरावस्था की सीमा मानी जाती है।

अतः हम यहाँ पर किशोरावस्था की विशिष्टता को ध्यान में रखते हुए विशेषताओं का वर्णन करेंगे-

1. विकासात्मक विशेषताएं (Development characteristics)

किशोरावस्था में बालक का सर्वांगीण विकास होता है, वह शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक आदि क्षेत्रों में विकास के चर्मोत्कर्ष पर होता है। इसी समय पुरुषत्व एवं नारीत्व सम्बन्धी विशेषताएँ भी प्रकट होने लगती हैं।

इसीलिये किशोर स्वयं अपने-अपने समूहों में नियन्त्रित होते चले जाते हैं; जैसा कालसनिक ने लिखा है-“किशोरों एवं किशोरियों को अपने शरीर एवं स्वास्थ्य की विशेष चिन्ता रहती है। किशोरों के लिये बलशाली, स्वस्थ्य और उत्साही बनना एवं किशोरियों के लिये अपनी आकृति को स्त्रीत्व आकर्षण प्रदान करना महत्त्वपूर्ण होता है।

इसी प्रकार से किशारों एवं किशोरियों में मानसिक क्षमताओं का भी पूर्ण विकास हो जाता है। उनमें बुद्धि की स्थिरता, कल्पना शक्ति का बाहल्य, तर्क शक्ति की प्रचुरता, विचार में परिपक्वता और विरोधी मानसिक दशाएँ आदि मानसिक विशेषताओं का विकास हो जाता है।

शारीरिक एवं मानसिक विकास के कारण उनके संवेगात्मक विकास पर भी प्रभाव पड़ता है। इस आयु के किशोर एवं किशोरियाँ भावात्मक एवं रागात्मक जीवन व्यतीत करते हैं। वे अपने निश्चय के समक्ष सामाजिक मान्यताओं की भी परवाह नहीं करते हैं क्योंकि उनका मन और तक उद्वेगात्मक शक्ति से परिपूर्ण रहता है।

2. आत्म-सम्मान की भावना (Feeling of self respect)

किशोरावस्था में आत्म-सम्मान के भाव की स्वत: ही वृद्धि हो जाती है। किशोर समाज में वही स्थान प्राप्त करना चाहते हैं, जो बड़ों को प्राप्त है इसीलिये आत्मनिर्भर बनना, नायकत्व करना, प्रत्येक कार्य करने को तैयार रहना और महान् पुरुषों की नकल करना आदि आयामों को प्रकट करते रहते हैं।

वे स्वयं को पूर्ण समझते हैं एवं सभी कार्यों को करने की क्षमता रखते हैं। उनका माता-पिता या अन्य किसी व्यक्ति के संरक्षण में रहना सम्भव नहीं होता।

अत: हम कह सकते हैं कि इस आयु में किशोर एवं किशोरियों का जीवन अपूर्वता के साथ विकसित होता है, जिसमें उनकी स्वयं की विशेषताएं होती हैं, जैसा कि ब्लेयर, जॉन्स एवं सिम्पसन ने माना है-“किशोर महत्त्वपूर्ण बनना, अपने समूह में स्थिति (स्टेट्स) प्राप्त करना और श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में अपने को स्वीकार किया जाना चाहता है।

3. अस्थिरता (Instability)

अस्थिरता शब्द का विकास के रूप में अर्थ होता है-‘निर्णय में चंचलता‘। किशोरावस्था में लिये गये निर्णय अस्थिरता से भरे होते हैं। किशोर शारीरिक शक्ति के वशीभूत होकर निर्णय ले लेते हैं जो उनके लिये लाभदायक कम और हानिकारक अधिक होते हैं।

वे अपने कार्यों में, रुचियों में, आदतों में, संवेगों में और सीखने आदि में लापरवाह की तरह से संलग्न होते हैं। वे जल्दबाजी में अपनी विशिष्टता को भी खो बैठते हैं। उनको यथार्थ बनावटी लगता है। अत: वे विभिन्न क्षेत्रों में अपनी अस्थिरता को प्रकट करते रहते हैं। इसी बात की पुष्टि ई.बे. स्टांग के अध्ययनों से भी होती है।

4. किशोरापराध की प्रवृत्ति का विकास (Development of juvenile delinquent tendency)

जब एक निश्चित आयु के बीच के किशोर लड़के और लड़कियाँ समाज के नियमों का उल्लंघन एवं कानूनों का विरोध करने लगते हैं तो उसे किशोरापराध की संज्ञा दी जाती है। इस उम्र की सबसे बड़ी विशेषता होती है – अनुशासनहीनता और नियमों को तोड़कर व्यवहार करना

इस अवस्था में जीवन-दर्शन का निर्माण, मूल्यों का बनना, आशाओं का पूरा न होना, असफलता, प्रेम की तीव्र लालसा और अदम्य साहस आदि विशेषताओं के वशीभूत होकर किशोर स्वयं को
अपराधी मनोवृत्ति का बना लेता है और उसी के द्वारा अपने अहं की तुष्टि करता है।

वेलेन्टाइन का मत है – “किशोरावस्था, अपराध-प्रवृत्ति के विकास का नाजक समय है। पक्के अपराधियों की एक विशाल संख्या किशोरावस्था में ही अपने व्यावसायिक जीवन का गम्भीरतापूर्वक आरम्भ करती है।

5. काम भावना की परिपक्वता (Maturity of sex instincts)

इस अवस्था में कामेन्द्रियों का पूर्ण विकास हो जाता है और काम भावना अपनी पराकाष्ठा पर होती है। शैशवकाल और बाल्यावस्था की सुषुप्त काम भावना इस समय अपने पूर्ण यौवन पर होती है।

मनोवैज्ञानिकों के अध्ययनों से पता चलता है कि किशोरों में बेचैनी, नाखून चबाना, पेन्सिल मुँह में देना तथा लड़कियों में बार-बार आँचल लपेटना, स्वाप्नातीत विचरण आदि विशेषताएँ स्पष्ट देखने को मिलती हैं।
काम भावना की परिपक्वता का विकास निम्नलिखित तीन क्रमों में होता है-

(I) आत्म प्रेम (Auto eroticism)

किशोरावस्था में लड़के एवं लड़कियाँ स्वयं को आकर्षक बनाने में लगे रहते हैं ताकि वे दूसरों को प्रभावित कर सकें। यह भाव आत्म प्रेम एवं आत्म सम्मान से प्रेरित रहता है। किशोर प्रत्येक समय अपने में मस्त रहता है और वही करता है जो उसको अच्छा लगता है। इसी भावना को डॉ. फ्रायड ने ‘नारसिसिज्म‘ कहा।

(II) समलिंगीय काम भावना (Homo-sexual feeling)

आत्म प्रेम की भावना के पश्चात् इस अवस्था में सामूहिक भाव पैदा होते हैं। लड़के, लड़कों के समूह में रहना पसन्द करते हैं और लड़कियाँ, लड़कियों के समूह में। ये दोनों ही अपना-अपना राजदार बनाने के लिये मित्रता के नये आयामों की खोज करते हैं।

किशोर साथ-साथ कक्षा में बैठते हैं, पिकनिक पर जाते हैं, पार्क में बैठकर बातचीत करते हैं और साथ-साथ घूमते-फिरते हैं। इस प्रकार इस आयु में काम भावना का विकास समलिंगीय समूहों में भी विकसित होता है।

(III) विषमलिंगीय काम भावना (Hetero-sexual feeling)

किशोरावस्था के अन्तिम चरण में किशोर और किशोरियों एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। इनके अन्दर संसार के प्रति यथार्थ दृष्टिकोण विकसित होने लगता है। ये लोग अपने जीवन साथी की कल्पना में मानसिक रूप से सन्तृप्त रहते हैं। इसीलिये इनमें विषम लिंगीय प्रेम प्रस्फुटित होता है। लड़का लड़की के प्रति अधिक आकर्षित होता है।

6. समाज सेवा (Social service)

किशोरावस्था में समाज सेवा की भावना बहुत होती है। लड़के ऐसा कार्य करना चाहते हैं कि वे अपने पिता के समान सम्मान प्राप्त कर सकें। और लड़कियाँ अपनी माँ के समान आदर प्राप्त करना चाहती हैं। वे स्वयं को सामाजिक उत्सवों, कार्यों और सेवाओं से ओतप्रोत कर लेते हैं और उसको ही प्रमुखता देने लगते हैं। इसी का परिणाम है कि जब भी कोई आयोजन होता है किशोर एवं किशोरियों को याद किया जाता है।

रॉस ने स्पष्ट किया है- “किशोर समाज सेवा के आदर्शों का निर्माण और पोषण करता है। उसका निष्कपट हृदय मानव जाति से ओतप्रोत रहता है और आदर्श समाज के निर्माण में सहायता देने के लिये लालायित रहता है।

7. कल्पना का बाहुल्य (Exuberance of imagination)

इस अवस्था की प्रमुख विशेषता है कल्पना का दैनिक जीवन में प्रयोग होना। मन की चंचलता, ध्यान परिवर्तन और मूल्यों की अस्थिरता के कारण किशोर यथार्थता से हट जाता है और कल्पना जगत में डूबा रहता है।

इसी अवस्था को मनोवैज्ञानिकों ने ‘दिवा-स्वप्न‘ नाम दिया है। जब कोई वर्तमान से अनभिज्ञ होकर कल्पनात्मक महलों की दुनियाँ के स्वप्न देखने प्रारम्भ कर देता है तो इस अवस्था को उसकी दिवा-स्वप्न की अवस्था कहा जाता है।

इस विशेषता के कारण सौन्दर्यात्मक एवं भावात्मक मूल्यों का विकास होता है जो कवि, कलाकार, नाटककार, उपन्यासकार, चित्रकार और संगीतकार आदि के व्यक्तित्व में ढालने में सहायक होते हैं।

8. अपराध वृत्ति (Criminal tendency)

किशोरावस्था में अस्थिरता के कारण मानसिक झुकाव नाजुक स्थिति से होकर गुजरता है। इस अवस्था के लड़के एवं लड़कियों को भौतिक जगत का बनावटी आकर्षण दिखाकर चतुर अपराधी अपराधवृत्ति की ओर आकर्षित कर लेते हैं।

बाद में धीरे-धीरे इनका जीवन अपराध करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह पाता है और समाज एवं राष्ट्र में अपमान सहते रहते हैं। ये कभी भी अच्छे नागरिक नहीं बन पाते हैं।

मनोवैज्ञानिकों के मनोविश्लेषण से स्पष्ट हो गया है कि ये सामाजिक बनने के लिये छटपटाते रहते हैं, लेकिन प्रत्यक्ष रूप से कुछ भी करने में असफल रहते हैं।

9. धार्मिक भावों का उदय (Development of religious feelings)

शैशवावस्था की स्वार्थ-भावना, किशोरावस्था में सामाजिक भावना यानि दूसरों की सहायता करने में सुख अनुभव करने में परिवर्तित हो जाती है। इसी समय किशोर एवं किशोरियाँ धार्मिक भावना एवं अलौकिकता में विश्वास करने को उत्सुक रहते हैं।

वे अपने को मानव समाज के लिये अर्पण करने के लिये तैयार होते हैं। उनको एक नयी ज्योति दिखलायी देती है, जो भविष्य का मार्ग-दर्शन देती है। धीरे-धीरे वे उसको आत्मसात् करते हैं और स्वयं को ईश्वरीय शक्ति के प्रति आस्थावान बनाना प्रारम्भ कर देते हैं।

इसी के फलस्वरूप उनमें आत्मसचेतन, संयम, नियन्त्रण, कर्तव्य पालन और समाज सेवा के भाव आदि आदर्श व्यावहारिक क्रियाएँ प्रारम्भ होती हैं। अतः इस अवस्था में धार्मिक भावनाएँ प्रकट होकर अपना प्रभाव स्थायी बनाती हैं।

10. स्वाभाविकता का विकास (Developmentof originality)

जब कोई व्यक्ति अपने कार्यों एवं व्यवहारों में नवीनता प्रकट करना प्रारम्भ कर देता है, जो दूसरे के कार्यों और व्यवहारों से भिन्न होती है और अपूर्वता की परिचायक होती है, इसे व्यक्ति की स्वाभाविकता कहते हैं।

टी. पी. नन का यह विचार है कि व्यक्ति की पहचान उसकी अपूर्व स्वाभाविकता के फलस्वरूप ही है, अन्य किसी से नहीं। इस अवस्था के लड़के एवं लड़कियाँ इसीलिये दूसरों को आकर्षित करते हैं। इस शक्ति का विकास जिसमें जितना तीव्र होता है वही अधिक सामाजिक बन जाता है।

अत: स्टेनले हाल’ के शब्दों में-“किशोरावस्था एक नया जन्म है, इसी अवस्था में उच्चतर और श्रेष्ठतर मानवीय गुण प्रकट होते हैं।” (Adolescence is a new birth, for the higher are more completely human traits are now born.)