शैशवावस्था या शैशवकाल की विशेषताएँ
शैशवकाल की सभी विशेषताओं को क्रमबद्ध करना शिक्षाशास्त्रियों और शिक्षा प्रेमियों के लिये रुचिकर न होगा। अत: हम यहाँ पर इन विशेषताओं को निम्नलिखित तीन भागों में बाँटकर अध्ययन करेंगे।
1. विकासात्मक विशेषताएँ (Development characteristics)
शैशवकाल की प्रमुख विशेषताएँ उसके विकास में निहित होती हैं। यह विकास बालक को सभी क्षेत्रों में परिपक्व बनाता है। अत: विकासात्मक विशेषताओं में हम बालक के शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक विकास से सम्बन्धित परिपक्वता का अध्ययन करते हैं।
शैशवावस्था में बालक का शारीरिक विकास बहुत ही तीव्रता के साथ अग्रसर होता है। उसकी लम्बाई और भार दोनों में तीव्र वृद्धि होती है, जिसका प्रभाव उसकी कर्मेन्द्रियों, आन्तरिक अंगों, माँसपेशियों आदि पर भी पड़ता है।
विकास की यह तीव्रता तीन वर्ष तक ही रहती है, बाद में गति धीमी होने लगती है। इसी प्रकार से शिशु की मानसिकता में भी विकास होने लगता है। बुद्धि जन्मजात होती है अत: मानसिक प्रक्रियाओं में तीव्रता प्रारम्भ होना इसी अवस्था की विशेषता है। बालक संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, ध्यान, स्मृति, कल्पना आदि के क्षेत्रों में अपना हस्तक्षेप प्रारम्भ कर देता है।
मनोवैज्ञानिकों ने शिशु का प्रारम्भ रोने से माना है। इस अवस्था में उसमें मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार भी देखने को मिलता है। इसमें रोना, हँसना और क्रोधित होना प्रमुख है। इसी को ‘मैक्डूगल’ने भय,प्रेम, पीड़ा और क्रोध आदि संवेगों में व्यक्त किया है।
इस प्रकार से शैशवावस्था में शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक क्षेत्रों में बालक का तीव्र विकास होता है।
2. अधिगम सम्बन्धी विशेषताएँ (Characteristicsregarding learning)
बालक अपने विकास के साथ-साथ कुछ अनुभव संग्रहीत करता है जो अधिगम के रूप में परिवर्तित एवं सहायक होते रहते हैं। शैशवकाल सीखने के लिये सबसे उपयुक्त काल होता है। ‘गैसेल का विश्वास है कि बालक प्रथम छ: वर्षों के बाद में 12 वर्ष की आयु तक अधिक सीखने की क्षमता रखता है।
इस अवस्था में सीखना जिज्ञासा’ से प्रारम्भ होता है। संसार की ओर आकर्षण मानव का स्वभाव है। वह विभिन्न क्षेत्रों में आकर्षित होता रहता है। उसके माता-पिता, सम्बन पी,खेल के साथी आदि उसकी जिज्ञासा को शान्त करते हैं और ज्ञान देते हैं। इसी को बालक का सीखना कहते हैं। शैशवकाल के सीखने में अनुभव, अनुकरण, कल्पना, खेल आदि प्रणालियाँ अपना-अपना प्रभाव डालती रहती हैं।
अधिगम के प्रणेता ‘पावलॉव, थॉर्नडाइक, कोहलर, वाटसन और वर्दीमर’ आदि वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों से इन प्रणालियों के प्रभाव को स्पष्ट किया है। इस समय बालक में जिज्ञासा के प्रति ललक होती है। वह मन की धारणा शक्ति का प्रयोग करके सीखने में शीघ्र वृद्धि करता है। वह स्मृति पटल पर सही चित्र को अंकित करके और क्रिया को बार-बार करके अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करता है।
अत: नवीन शिक्षण प्रणाली में बालक को दिया जाने वाला ज्ञान क्रिया और अनुभव पर आधारित माना गया है।
3. सामाजिक विशेषताएँ (Social characteristics)
मानवीय स्वभाव समूह या समाज में रहने का है। समाज से विलग उसके अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। अत: उसका समाजीकरण समाज के द्वारा किया जाता है। इस प्रकार से उसमें अपने समाज की सभी विशेषताओं का धारण, प्रकटीकरण और स्वीकृति आदि प्राप्त होती रहती है।
यही एक तथ्य है जो प्रत्येक बालक को अपने समाज से जोड़ता है। वेलेन्टाइन ने लिखा है-“चार या पाँच वर्ष के बालक में अपने छोटे भाई-बहनों या साथियों की रक्षा करने की भावना होती है। वह दो से पाँच वर्ष तक के बालकों के साथ खेलना पसन्द करता है। वह अपनी वस्तुओं में अन्य को साझीदार बनाता है। वह दूसरे बालकों के अधिकारों की रक्षा करता है और दुःख में उनको सान्त्वना देने का प्रयास करता है।
शैशवकाल में सामाजिक विशेषताएँ ग्रहण की जाती हैं। बालक में आत्म-प्रेम, निर्भरता, समूह प्रेम आदि का विकास होता है। वह नैतिकता से अपरिचित रहता है। मीड ने शैशवकाल में बालक में स्वयं के भाव की प्रचुरता बतलायी है और धीरे-धीरे यह’हम’ के भाव में परिवर्तित होती जाती है।
प्राय: यह देखने में आता है कि जब बालक घटनों के बल खिसकने लगता है तो । वह परिवारीय सदस्यों के अतिरिक्त बाहर खेल रहे बालकों में भी जाता है और अपने हर्ष को विभिन्न संकेतों एवं क्रियाओं से प्रदर्शित करता है।
अत: बालकों में सामाजिक भाव विकसित होने लगते हैं।