शिक्षण के सहायक साधन – उपयोगिता, श्रव्य द्रश्य साधन और सावधानियाँ 

शिक्षण के सहायक साधन (Teaching Aids) वे उपकरण, सामग्री, या तकनीकें होती हैं, जो शिक्षण प्रक्रिया को अधिक प्रभावी, रोचक और समझने योग्य बनाने में मदद करती हैं। इनका मुख्य उद्देश्य छात्रों को जटिल विषयों को सरल और स्पष्ट रूप से समझाने में सहायता करना है।

Shikshan ke sahayak sadhan
शिक्षण के सहायक साधन

शिक्षण के सहायक साधन वे उपकरण, सामग्री और तकनीकें हैं जो शिक्षण प्रक्रिया को अधिक प्रभावी और रोचक बनाने में मदद करती हैं। ये साधन छात्रों को जटिल विषयों को बेहतर ढंग से समझने और शिक्षा में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। कुछ प्रमुख शिक्षण के सहायक साधन इस प्रकार हैं:

  1. दृश्य सामग्री (Visual aids): चार्ट, चित्र, पोस्टर, और मॉडल जैसे साधन। ये छात्रों को विषय वस्तु को सरल और समझने योग्य रूप में प्रस्तुत करते हैं।
  2. ऑडियो-विज़ुअल उपकरण: प्रोजेक्टर, टीवी, वीडियो क्लिप्स, कंप्यूटर और स्मार्टबोर्ड, जो दृश्य और श्रवण (auditory) अनुभव को एक साथ मिलाते हैं।
  3. तकनीकी साधन: इंटरनेट, ई-लर्निंग प्लेटफॉर्म, शैक्षिक ऐप्स, और मल्टीमीडिया प्रस्तुति जो डिजिटल युग में छात्रों के लिए शिक्षा को सुलभ और आकर्षक बनाते हैं।
  4. प्रयोगशाला उपकरण: विज्ञान या गणित के प्रयोगों के लिए आवश्यक उपकरण, जो छात्रों को प्रैक्टिकल अनुभव प्रदान करते हैं।
  5. पुस्तकें और शैक्षिक साहित्य: पाठ्यपुस्तकें, संदर्भ पुस्तकें, और पत्रिकाएँ जो विद्यार्थियों को गहन अध्ययन में सहायता करती हैं।
  6. इंटरएक्टिव उपकरण: गेम्स, क्विज़, और सिमुलेशन जो छात्रों को सीखने की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रेरित करते हैं।

ये साधन शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करने और जटिल विषयों को रोचक और समझने योग्य बनाने में सहायक होते हैं।

शिक्षण अधिगम सामग्री की उपयोगिता (Utility of Teaching Learning Material)

शिक्षण को रोचक तथा प्रभावी बनाने की दृष्टि से सभी प्रकार के सहायक साधन की उपयोगिता इस प्रकार है-

शिक्षण के प्रकृतिजन्य (Natural) सहायक साधन की उपयोगिता –

प्रकृति से यहाँ आशय विभिन्न प्राणी-प्रजातियों की जो प्रकृति होती है, उससे भी है; किन्तु उसमे भी अधिक प्रभु (ईश्वर) की उस विचित्र रचना से है जो-क्षिति जल पावक, गगन तथा समीर; अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश तथा वायु-इन पाँच तत्त्वों से बनी है; जिसमें हर प्रकार के जीव, जिनकी संख्या शास्त्रों में चौरासी लाख योनियाँ तथा उनके चार प्रकार-

  1. अण्डज (अण्डों से जन्म लेने वाले-पक्षी बगैरहं)
  2. पिण्डज (पिण्ड, अर्थात् मादा के गर्भ से जन्म लेने वाले मनुष्य तथा पालतू एवं वन्य जीवन आदि) ।
  3. स्वेटज (पसीने या सड़ी-गली वस्तुओं से जन्म लेने वाले कीड़े-मकोड़े आदि)।
  4. उद्भिज (जमीन से उत्पन्न होने वाले दीमक आदि) बताये गये हैं।

पुनः प्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं पर्यावरण विद्-जगदीश चन्द्र वसु के अनुसार- पृथ्वी पर पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे तथा वनस्पतियाँ भी सजीवों के अन्तर्गत ही आती हैं। उनमें भी प्राणतत्त्व होता है और यहाँ तक कि उनमें मनुष्यों की भाँति संवेदनशीलता अथवा संवेदनहीनता भी होती है। उनका तर्क है कि अनुकूल परिस्थितियों में उनकी वृद्धि भी स्वत: ही अन्य प्राणी प्रजातियों की भाँति ही होती है। पेड़-पौधों की भी अनेकों जातियाँ एवं प्रजातियाँ होती हैं।

इसी प्रकार जल, थल तथा नभ-लड़ी विचित्र और अमूल्य संपदाओं में पड़े हैं। पदार्थों के अन्तर्गत् पृथ्वी पर जिस प्रकार भाँति-भाँति के जीव एवं पेड़-पौधे तथा वनस्पतियाँ हैं, ठीक उसी प्रकार-समुद्र तल बहुमूल्य मोतियों से भरा है तो सीपी, शंख जैसे पदार्थों से भी जो न केवल सुन्दर ही है। अपितु जिनसे जीवनरक्षक औषधियों के रूप में भस्में आदि तैयार की जाती हैं।

आकाशीय ग्रह और उल्का पिण्ड भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं। वहाँ जन जीवन की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता तो पदार्थों के रूप ऐसे-ऐसे पदार्थ भी प्राप्त हो सकते हैं, जिनकी कल्पना करना तक सम्भव नहीं। अनुसन्धान जारी है। पृथ्वी भी पर भी जहाँ तरह-तरह की मिट्टियाँ हैं, वहाँ तरह-तरह के पत्थर भी। मिट्टियों में स्पर्श की दृष्टि से कोई चिकनी है तो कोई रेतीली और दुमट भी; रूप की दृष्टि से कोई काफी है तो कोई भूरी और कोई हल्दी घाटी जैसे स्थानों पर हल्दी जैसी पीली भी, जिसे देखने मात्र से कोई शायद ही हल्दी और  मिट्टी के चूरे में अन्तर कर सके। शायद इसीलिये हल्दी घाटी का यह नाम पड़ा हो।

पृथ्वी की खनिज सम्पदा भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं। जहाँ एक ओर काले कोयले के असीम भण्डार हैं वहीं कालिमा में चमकने वाला हीरा भी। इसी प्रकार पृथ्वी के गर्भ में अनेकों कीमतें धातुएँ जैसे सोना चाँदी हैं तो खनिज तेल भी। न जाने क्या-क्या भरा पड़ा है। इस धरा के धरातल के ऊपर और उसके गर्भ में।

सारांश रूप में प्रकृति को जहाँ भी देखो, वहाँ एक अलग ही रूप में मिलेगी। जो, जिस दृष्टि से देखो उसी दृष्टि से सुखदायिनी है, परन्तु उसके साथ यदि छेड़छाड़ की जाय तो उतनी ही दुःखदायिनी भी सिद्ध हो सकती है। देखना यह है कि शिक्षक के शिक्षण में तथा विद्यार्थी के ज्ञानवर्द्धन में यह प्रकृति कितनी और कैसे सहायक सिद्ध हो सकती है?

प्रकृति में पाये जाने वाले भाँति-भाँति के जीवों पेड़-पौधों, वनस्पतियों तथा पदार्थों की शैक्षणिक एवं ज्ञानवर्द्धन की दृष्टि से उपयोगिता पर यदि विचार किया जाय तो प्रकृति इन अर्थों में बड़ी विचित्र है कि इसने जहाँ एक ओर मनुष्य को समृद्ध एवं भौतिक सुख की अनेक सम्पदाएँ तथा साधन सुविधाएँ स्वयं में सुरक्षित रख छोड़ी हैं; वहीं इसी ओर अन्य प्रतियों के लिये भी भोजन एवं उसकी सुरक्षा की दृष्टि से सर्दी से बचाने हेतु किसी को मोटी खाल दे रखी है तो किसी को पंख। पक्षियों के पंख न केवल गर्मी सर्दी की दृष्टि से उन्हें बचाते हैं; अपितु भोजन की तलाश में जहाँ और जिधर चाहे, उड़कर आ-जा सकते हैं। जलवायु की प्रतिकूलता में जहाँ चाहे वहाँ प्रवास और विचरण कर सकते हैं। इसी प्रकार जिन प्राणियों को खाल पतली है वे अपनी प्रकृति और आकार के अनुरूप बिल और गुफाओं में घुसकर अपना रक्षा कर सकते हैं।

ईश्वर की विचित्र कृति-प्रकृति को उसके मूल रूपों में देखकर उसे जाना और समझा जा सकता है। उसकी कृति कितनी विज्ञानसम्मत है-इसका अनुभव उसके नजदीक जाकर ही हो सकता है। कहीं गर्म पानी के स्रोत हैं तो कहीं निरन्तर बहती हुई नदियाँ। ज्ञानवृद्धि की दृष्टि से इन सबको जानने और समझने की आवश्यकता है।

शैक्षणिक दृष्टि से भी यदि देखा जाय तो इन सभी संसाधनों का अपना ही अस्तित्व, महत्त्व तथा उपयोगिता है। शुद्ध विज्ञानों के जितने भी विषय हैं, चाहे वह भौतिक विज्ञान हो अथवा रसायन विज्ञान; जीव विज्ञान हो अथवा वनस्पति विज्ञान सभी को प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक जानने तथा उसके रहस्यों को समझने की दृष्टि से इसके मूलरूप को बताना ही आवश्यक है।

“हाथी के पैर खम्भे जैसे होते हैं-कहने से कभी भी हाथी के पैरों की कल्पना नहीं की जा सकती; क्योंकि खम्भे तो चौकोर और पतले या अति मोटे भी हो सकते हैं जिनसे हाथी के पैरों को वास्तविक स्वरूप को कभी नहीं पहिचाना जा सकता।”

इसी तरह जीवन विज्ञान में विविध प्रकार के जीवों एवं उनके रहन-सहन को उनके यथार्थ रूप में और यदि यह सम्भव न हो तो टेलीविजन के माध्यम से ही बताना और समझाना आवश्यक है।

इसी प्रकार तरह-तरह की मिट्टी एवं पत्थरों के प्रकारों को समझाने हेतु इनके मूल रूप को बताना ही आवश्यक है न इसके मॉडल बन सकते हैं और न ही चित्र चित्रों द्वारा इनको समझाना सम्भव ही नहीं। अत: भूगोल या अन्य किसी विषय के अन्तर्गत इन्हें समझना है तो इनके नमूने एकत्रित करते ही होंगे तभी इनके विविध प्रकारों को समझा जा सकता है। इसी प्रकार नभवासी या नभचर पक्षियों की प्रजातियों को बताने हेतु भी उनके मूल रूप, मूल आवाजें या बोलियों को दिखाकर और सुनाकर ही समझाया जा सकता है। यह कहने में कोई वास्तविकता नहीं कि कौए का रंग तबे जैसा काला होता है तथा वह “काँव-काँव” बोलता है।

अतः स्पष्ट है कि चाहे शुद्ध विज्ञान हो अथवा भूगोल जैसे-शुद्ध विज्ञानों तथा सामाजिक विज्ञानों के समुचित रूप पर आधारित विषय उन्हें समझाने हेतु जहाँ तक हो सके उनके मूल रूप में ही बताना आवश्यक है। उनके मूल रूप को किसी अन्य चित्र आदि के माध्यम से समझना सम्भव ही नहीं।

शिक्षण के मनुष्यकृत (Man-made) सहायक साधन

मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार-इन चारों अमूर्त तत्त्वों की स्थिति के कारण मनुष्य, इस सृष्टि का यदि श्रेष्ठतम प्राणी है तो निकृष्टतम भी। सृष्टि के भौतिक स्वरूप को बनाने वाला भी यही है तो उसे बिगाड़ने वाला भी यही। इसके मन की उड़ान चाँद पर पहुँचने की सोचती है तो बुद्धि के बल पर वह वहाँ पहुँचने में सफल भी हो जाता है।

यद्यपि इन सब बातों का शिक्षक के शिक्षण का प्रत्यक्ष रूप में कोई सम्बन्ध नहीं जुड़ता; फिर भी हम इसे इसलिये बताना चाहते हैं कि मनुष्य के मन की उड़ान तथा बुद्धि के बल पर इस बात की कल्पना करना भी बड़ा कठिन हो जाता है कि भौतिक जगत का यह रूप मनुष्य के मन, बुद्धि तथा चेतना का ही परिणाम हैं तो महाभारत तथा राम-रावण युद्ध भी उसके ‘अहं’ की विनाशक स्मृतियाँ। अत: मन की दोनों ही प्रकार की भूमिकाएँ हैं- रचनात्मक तथा विनाशक। ताजमहल जैसी आश्चर्यजनक कृतियाँ भी मानव-मन की उपज हैं, तो महात्मा बुद्ध की विशालतम मूर्ति को तुड़वाना भी मानव-मन की विनाशक वृद्धि का परिणाम है।

जो भी हो, मनुष्य सृष्टि के रचयिता की विचित्रतम रचना है। वह किसी को रूप देता है तो किसी के रूप को नष्ट भी कर सकती है। इसी आधार पर हमने मनुष्य द्वारा निर्मित साधनों को तीन वर्गों में बाँटा है। ये तीन वर्ग हैं-

1. मौलिक (Original)

मौलिक का आशय है वे तात्त्विक कृतियाँ जो किसी की नकलमात्र न होकर उद्भूत विचारों के आधार पर बनाई गयी हों; यथा- ताजमहल, लाल किला, फतेहपुर सीकरी की दरगाह, जामा मस्जिद, हैदराबाद की चारमीनार, सेतुबन्ध रामेश्वरम्, मीनाक्षी मन्दिर, सोमनाथ का मन्दिर आदि सभी मौलिक कृतियाँ हैं चाहे वे मुगलकालीन बादशाहों द्वारा बनवाई गयी हों अथवा हिन्दू राजाओं-महाराजाओं और अवतारों द्वारा।

चारों मठ भी इन्हीं मौलिक कृतियों के अन्तर्गत आते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक काल में अपने ही प्रकार के अस्त्र-शस्त्र रहे हैं तो अपने ही सिक्के, अपनी ही वेश-भूषा, अपनी ही प्रकार के गहने और बर्तन थे तो अपनी ही प्रकार के आवासीय गृह तो अपनी ही प्रकार के मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरजाघर आदि पूजाधाम। सभी चीजें आज भी उपलब्ध हैं; परन्तु एक अलग ही रूप में। आज जनसंख्या बढ़ रही है तो पृथ्वी पर हर प्रकार का भार भी। पुराने समय में मकानों की मंजिलें-दो तीन से अधिक नहीं होती थीं तो आज स्थानाभाव के कारण बहु-मंजिला इमारतें खड़ी हैं। हथियार बदल गये तो वेशभूषा भी। सब कुछ बदल गया है और बदलता जा रहा है।

ये सभी मौलिक कृतियाँ तत्कालीन रहन-सहन, लोक-गीत, लोक कथाएँ, दृष्टान्त, सूक्तियाँ, पुरानी कविताएँ, चुटकुले, लोकोक्तियाँ, मुहावरे आदि भी-इन्हीं के अन्तर्गत आते हैं। तत्कालीन रहन-सहन से लेकर हथियारों, बर्तनों आदि सबकी पहिचान यह बताती है कि पुराने समय के मानव-मन और आज के मानव के मन में कहाँ क्या अन्तर आया है?

2. अनुकृत (Imitated)

अनुकृत का आशय है-अनुकरण के आधार पर तैयार किया हुआ। जहाँ तक मौलिक कल्पना एवं चिन्तन की बात है वह बौद्धिक दृष्टि से प्रखर लोगों में जितना अधिक देखा जा सकता है, उतना बौद्धिक दृष्टि से कमजोर लोगों में नहीं।

इस दृष्टि से मौलिक कार्य कम लोग ही; अर्थात् केवल प्रतिभाशाली लोग ही कर पाते हैं तो अनुकरण लगभग सभी कर सकते हैं। भारतीय सांस्कृतिक एवं सामाजिक परम्पराओं के पीछे निहित वैज्ञानिक आधार को न समझ पाने वाले लोग अनुकरण के आधार पर ही अपना काम चला लेते हैं। अत: दूसरों का अनुकरण करके वेशभूषा बदल रही है तो अन्य कृतियाँ भी अनुकरण के आधार पर तैयार इमारतों, वेशभूषा, मकान आदि के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के चित्र (छायाचित्र, मानचित्र, दण्डचित्र, रेखाचित्र आदि) सभी अनुकृत साधनों के अन्तर्गत आते हैं।

यही नहीं, विभिन्न पशु-पक्षियों की बोलियाँ बोलना, पुराने राजा-महाराजाओं या पौराणिक गाथाओं में विभिन्न लोगों की भूमिकाओं का निर्वहन करना आदि भी अनुकृत साधनों के अन्तर्गत आते हैं।

3. शिक्षण के यान्त्रिक (Mechanized) सहायक साधन (मशीन चालित)

इसके अन्तर्गत मशीनों के आधार पर बताये जाने वाले सभी साधन आते हैं, चाहे वे सुनने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हों अथवा फिर देखने की दृष्टि से। इसी के साथ विज्ञान के विकास के कारण ऐसे भी साधन उपलब्ध हैं, जिनमें ध्वनि एवं चित्रों का समन्वित एवं सम्पादित रूप एक साथ सुनने और देखने को मिलता है, यथा-चलचित्र (Movies) तथा टेलीविजन (Television)। ये भी यन्त्र चालित शिक्षण के सहायक साधनों के अन्तर्गत आते हैं।

इस प्रकार यन्त्र चालित शिक्षण के मनुष्यकृत साधनों को भी हमने तीन वर्गों में बाँटा है। ये तीन वर्ग हैं-

  1. शृव्य (Audio aids)
  2. दृश्य (Visual aids)
  3. श्रृव्य दृश्य (Audio-visual aids)

मनुष्यकृत साधन-

ये तीनों ही प्रकार के- (1) मौलिक (Original), (2) अनुकृत (Imitated) तथा (3) मशीन चालित (Mechanized) होते हैं। सहायक साधन किस प्रकार शिक्षण में सहायक सिद्ध हो सकते हैं? इसका उल्लेख आगे किया जा रहा है-

कृत्रिम/मनुष्यकृत (Man-made) सहायक साधनों की शैक्षणिक उपादेयता

ऊपर शिक्षण में सहायक जितने भी मनुष्यकृत सहायक साधनों का उल्लेख किया गया, उनमें से जितने भी मौलिक साधन हैं, वे किसी न किसी के स्वयं के विचारों से उत्पन्न मौलिक कल्पना के परिणामस्वरूप पैदा हुए हैं; यथा-पुरानी इमारतें आदि। इनके मूल रूप को दिखाने के आधार पर ही बताया जा सकता है कि किस युग में किस प्रकार की इमारतों, गहनों, बर्तनों आदि का प्रचलन था। यदि मोहम्मद तुगलक द्वारा बनवाये गये ताँबे के जिनका न कोई निश्चित वजन है और न ही कोई पहिचान तो उसके विषय में यह सिद्ध करना बड़ा ही कठिन होता है कि निर्णय लेने में उसमें दूरदर्शिता का अभाव था, क्योंकि उसके द्वारा इसी प्रकार के जितने भी निर्णय लिये गये उनका कोई भी ऐसा साक्ष्य नहीं जिसे आँखों देखा कहा जा सके।

इसी प्रकार पुराने राजमहलों को देखे बिना यह नहीं कहा जा सकता कि उस समय नारी स्वतन्त्रता इतनी नहीं थी, जितनी आज है। यहाँ तक कि रानियों को भी राज्य की आम या खास सभा की कार्यवाही सीधे देखने पर भी प्रतिबन्ध था। उन्हें भी वह कार्यवाही गवाक्षों (जालीदार पत्थरों के झरोखों) से ही देखनी होती थी।

इसी प्रकार सामाजिक विज्ञान के विभिन्न विषयों (इतिहास, भूगोल, सामाजिक अध्ययन, नागरिक शास्त्र आदि) की विषयवस्तु से सम्बन्धित रीति-नीतियों, परम्पराओं, वेशभूषा, गहने, बर्तन आदि में कहाँ क्या अन्तर आया है इसकी तुलना भी तभी की जा सकती है जब तत्कालीन सम्बन्धित इमारतें या सामग्री आज भी सामने हों।

यह तो रही मौलिक दृश्य साधनों की बात। यदि मौलिक शृव्य साधनों पर विचार किया जाय तो इनके अन्तर्गत पुरानी और नयी कविताएँ या साहित्य, कहानियाँ, दृष्टान्त आदि भी आज के सन्दर्भों में विषयवस्तु को समझाने की दृष्टि से काफी सहायक सिद्ध होते हैं। कैसे? इसी के कुछ उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं-

1. मॉडल एवं मूर्तियाँ (Models and Idols)

मॉडल एवं मूर्तियों के अन्तर को वैसे तो सभी समझते हैं; फिर भी किसी सजीव का उसी अनुपात में बनाया हुआ प्रतिरूप मूर्ति (Idol) कहलाती है तो मकान आदि निर्जीव का सानुपातिक प्रतिरूप मॉडल (Model)।

शिक्षण की दृष्टि से किसी सजीव के मूलरूप तथा निर्जीव की मौलिक कृति को दिखाना जितना प्रभावी रहता है, उतना तो नहीं, लेकिन उससे कुछ कम मॉडल एवं मूर्तियाँ शिक्षण की दृष्टि से प्रभावी सिद्ध होते हैं; यथा- विद्यार्थियों को विभिन्न पक्षियों, पृथ्वी पर या समुद्र में रहने वाले प्राणियों तथा ताजमहल, कुतुबमीनार, चित्तौड़ का विजय स्तम्भ आदि का मॉडल दिखाना।

किसी भी प्राणी, पदार्थ अथवा वस्तु के वास्तविक रूप को कक्षा में दिखाना सम्भव न हो तो प्रतिरूप के माध्यम से उसे समझाया जा सकता है।

2. मानचित्र एवं छायाचित्र (Map and Photograph)

किसी भी व्यक्ति या प्राणी अथवा कृति के मूलरूप को बताना सम्भव न हो तो उसके प्रतिरूप को बताकर भी पाठ को समझाया जा सकता है, किन्तु यदि किसी कारण से प्रतिरूप भी न मिले तो उसके छायाचित्र (Photographs) काम में लिये जा सकते हैं। चित्र में मोटाई, आदि को सानुपातिक रूप में प्रदर्शित करना सम्भव नहीं। हाँ, अंगों की बनावट को अवश्य प्रदर्शित किया जा सकता है।

चित्रों के माध्यम से प्राणियों के रूप को बताना भी सम्भव है तो पेड़-पौधों, वनस्पतियों, पहाड़ों, नदियों आदि को भी, परन्तु चित्रों के माध्यम से व्यक्तियों, पशु-पक्षियों आदि के रूप को जितना अधिक अच्छा काल्पनिक चित्र खिंचता है उतना अच्छा पेड़-पौधों तथा निर्जीव पदार्थों का नहीं। इस दृष्टि से प्राणियों के रूप को बताने में चित्र जितने प्रभावी सिद्ध होते हैं उतने वनस्पतियों आदि की वास्तविकता को बताने में नहीं; उदाहरणार्थ- स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गाँधी, सुभाषचन्द्र बोस आदि के रूप को तो छायाचित्रों के माध्यम से समझाना सम्भव है, परन्तु पेड़ों की पत्तियों की वास्तविक बनावट को बताना कम ही सम्भव है जब तक कि चित्र-विस्तारक की सहायता से उसके बड़े रूप को न बताया जाय।

जहाँ तक मानचित्रों का सम्बन्ध है- ‘सृष्टि की जलीय, थलीय तथा आकाशीय स्थिति को सानुपातिक रूप में प्रदर्शित करना मानचित्र कहलाता है।’

यहाँ ध्यान में रखने की बात यह है कि सृष्टि में समुद्र कुल कितने भाग को घेरे हुए है- इसे तो बताया जा सकता है, किन्तु समुद्रतल के किस भाग में कहाँ क्या स्थित है, उसे पूरी तरह समझाना सम्भव नहीं। इसी प्रकार चाँद, सूर्य तथा तारों के पृथ्वी पर से दिखाई देने वाले रूप को तो बताया जा सकता है, परन्तु उनके वास्तविक स्वरूप को नहीं।

इसके ठीक विपरीत, पृथ्वी पर ऊपर जो कुछ है, उसे तो बताया जा सकता है; किन्तु पृथ्वी के गर्भ में कहाँ क्या निहित है, उसे सरलता से समझाना सम्भव नहीं। ऐसी स्थिति में मानचित्र – पृथ्वी पर वर्षा, उपज, खनिज पदार्थ (यदि पता लगा लिया गया हो तो), जंगल, जंगली जीव आदि को भी दर्शाया जा सकता है और सामाजिक दृष्टि से लोगों के खान-पान, रहन-सहन आदि को भी। इसी के साथ राज्यों की सीमाओं; सीमाओं आदि में आने वाली नदियों एवं पहाड़ों आदि तो स्पष्ट किया जा सकता है।

इस दृष्टि से मानचित्रों, किसी राष्ट्र या राज्य अथवा क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति, वर्षा, उपज आदि को बताने में काफी सहायक सिद्ध होते हैं। यदि यह कहा जाय कि मानचित्रों के अभाव में प्राकृतिक स्थिति को बताना सम्भव ही नहीं तो अनुचित नहीं होगा।

अतः मानचित्र भूगोल जैसे विषयों के शिक्षण हेतु बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं।

3. रेखीय चित्र, रेखाचित्र तथा दण्डचित्र (Linear Diagrams, Graphs and Bar-Diagrams)

रेखाचित्र एवं छायाचित्रों में जो अन्तर होता है, वह मात्र इतना है कि छायाचित्रों में आकृति बहुत कुछ प्राणी या निर्जीव आकृति से काफी कुछ मिलती-जुलती होती है; जबकि रेखाचित्रों में, आकृतियाँ रेखाएँ मात्र होती हैं।

यदि टेलीविजन पर देखा हो तो बहुत से अपराधी विशेषकर कुख्यात अपराधी जब अपराध करके कहीं लुप्त हो जाते हैं तो पुलिस उनके विषय में जो भी जानकारी प्राप्त करके जो काल्पनिक चित्र बनाकर टेलीविजन पर प्रसारित और प्रचारित करती है वह उनका वास्तविक चित्र न होकर रेखीय चित्र होता है, किन्तु यदि उस अपराधी का चित्र पुलिस के पास पहले से ही होता है, उसे पुलिस टेलीविजन पर दिखाती है तो वह उनका वास्तविक चित्र होगा।

वे दोनों प्रकार के चित्र भी शिक्षण में बड़े सहायक सिद्ध होते हैं और कुछ नहीं तो शिक्षक आँख, कान, हृदय, आँतें, फेफड़े आदि का वास्तविक चित्र न मिलने पर रेखाचित्रों के माध्यम से भी विज्ञान के इन विषयों को अच्छी तरह समझा सकता है। विभिन्न प्राणियों के रेखीय चित्र भी श्यामपट्ट अथवा हरे पट्ट पर बनाकर समझाया जा सकता है।

यदि रेखाचित्र (Graph) को लिया जाय तो वह भी एक प्रकार का रेखीय चित्र ही है। अन्तर केवल इतना है कि ग्राफ में जो चित्र बनाये जाते वे सानुपातिक अधिक होते हैं; यथा ज्यामिति (Geometry) में पढ़ायी जाने वाली त्रिभुज, चतुर्भुज, बहुभुज आदि-सभी आकृतियाँ रेखाचित्र की सहायता से अधिक सरलता से और सही रूप में बनायी जा सकती हैं।

यदि यथार्थ में देखा जाय तो रेखाचित्रों के अभाव में ज्यामितीय आकृतियों की जानकारी सम्भव ही नहीं। इसीलिये सानुपातिक रेखाओं में बना ग्राफ पेपर इसीलिये अलग से आता है। इस दृष्टि से जहाँ भी कोई सानुपातिक आकृति बनानी हो वहाँ ग्राफ पेपर आवश्यक हो जाता है।

अब रही बात दण्ड चित्रों (Bar diagrams) की उन्हें रेखाचित्र के रूप में ग्राफ पेपर पर भी बनाया जा सकता है और तुलनात्मक (Comparative) रूप में अलग से भी। अगर आपने कभी समाचार पत्रों में व्यवसाय या व्यापार सम्बन्धी खबरों के लिये प्रदत्त आँकड़ों को पढ़ा हो तो उसमें स्पष्ट आता है कि किस वर्ष में किस वस्तु का उत्पादन कितना हुआ? साथ ही यदि उसकी तुलना पिछले वर्षों के उत्पादन से की गयी हो तो वहाँ दण्ड चित्रों द्वारा उसे अवश्य दर्शाया गया होगा।

इसी प्रकार प्रतिशत की दृष्टि से वृत्तीय चित्र अधिक उपयोगी सिद्ध होते हैं दोनों प्रकार के चित्रों की आकृतियाँ नीचे दी हुई हैं।

Graph and Bar Diagrams
रेखीय चित्र, रेखाचित्र तथा दण्डचित्र (Linear Diagrams, Graphs and Bar-Diagrams)

ये दोनों प्रकार के चित्र आँकड़ों के प्रदर्शन की दृष्टि से बड़े उपयोगी सिद्ध होते हैं; यथा-वर्षा, किसी अनाज विशेष की अथवा कुल उपज जनसंख्या वृद्धि, साक्षरता प्रसार आदि के तुलनात्मक आँकड़े एक दृष्टि में दिखाने हेतु ।

4. सारिणी/तालिकाएँ (Tables)

“तथ्यों को विहंगम दृष्टि से देखने, समझने तथा स्मरण रखने हेतु सारिणीकृत रूप में प्रस्तुत करना ही तालिका है।”

इस परिभाषा के अनुसार हर विषय को तालिकाओं के माध्यम से समझाना बड़ा सरल हो जाता है; यथा-

शुद्ध विज्ञानों में-

  • रसायन विज्ञान में विभिन्न प्रकार के लवणों को वर्गों में बाँटकर प्रस्तुत करना;
  • भौतिक विज्ञान में मशीनों आदि की दृष्टि से उन्हें वर्गीकृत कर प्रस्तुत करना;
  • वनस्पति विज्ञान में विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों को गुणवत्ता के आधार पर तालिका रूप में प्रस्तुत करना तथा
  • जीव विज्ञान में जीवों को गुणों के आधार या समरूपता अथवा समान गुणवत्ता के आधार पर प्रस्तुत करना आदि।

सामाजिक विज्ञानों में- नागरिक शास्त्र में नागरिकों के अधिकार एवं कर्त्तव्यों को तालिका रूप में प्रस्तुत करना तो इतिहास में वंशावलियों अथवा राजा-महाराजाओं द्वारा किये गये कार्यों को तालिका रूप में प्रस्तुत करना आदि।

भाषायी पाठों में- भाषाओं की उत्पत्ति; ध्वनियों का वर्गीकरण, लेखकों के व्यक्तित्व एवं कृतित्वों के आधार पर तालिकाएँ तैयार करना आदि।

सारांश रूप में तालिकाओं के माध्यम से शिक्षण इतना सरस बनाया जा सकता है कि विद्यार्थियों द्वारा विषयवस्तु को न केवल समझने; अपितु उसे हृदयंगम करने में अधिक समय नहीं लगता। साथ ही ऊपर दिये गये उदाहरणों के आधार पर प्रत्येक विषय के शिक्षण में इनका सरलता से उपयोग किया जा सकता है और इन सबसे बढ़कर चित्रों, रेखाचित्रों आदि के बनाने की तुलना में तालिकाओं का बनाना अति सरल है।

इनके बनाने में किसी विशेष प्रशिक्षण और उसके अभ्यास की भी अधिक आवश्यकता नहीं पड़ती। बनाना सरल, समझाना सरल उपयोगिता सबसे अधिक। इस दृष्टि से शिक्षण में तालिकाओं का बहुत अधिक महत्त्व है।

5. फ्लैनल बोर्ड तथा श्याम/हरे पट्ट (Flannel Board and Black/Green Boards)

फ्लैनल बोर्ड (Flannel Board) को जानने के लिये आप उस तस्वीर का स्मरण कीजिये जो किसी चौखटे (Frame) में मढ़ी हो, शीशा भले ही न हो; लेकिन चित्र को आधार देने की दृष्टि से पीछे गत्ते, प्लाईवुड, लकड़ी अथवा लोहे की चद्दर आदि किसी का चित्र के आकार का आधार अवश्य हो। फ्लैनल बोर्ड भी ठीक ऐसा ही होता है। अन्तर केवल इतना होता है कि वह आकार में मध्यम आकार का; अर्थात् न बहुत बड़ा और न ही बहुत छोटा होता है और चित्र के स्थान पर फलालेन का कपड़ा होता है।

इस कपड़े की यह विशेषता होती है कि काँच के बारीक चूरे तथा गोंद आदि चुपकने वाली किसी वस्तु के साथ मिलाकर किसी मोटे कागज पर फैला दिया जाय तो सूखने पर वह मोटा कागज या इसका कोई टुकड़ा उस फलालेन के कपड़े पर चिपक जाता है और यदि उसी घोल को किसी चित्र के चारों कोनों पर लगा दिया जाय तो सूखने पर वह चित्र भी बोर्ड पर चिपक जाता है।

इस दृष्टि से किसी चित्र तालिका आदि को इस फ्लैनल बोर्ड पर चिपकाकर सरलता से विद्यार्थियों को दिखाया जा सकता है। इस बोर्ड पर चित्र दिखाने में सबसे बड़ी सहूलियत यह है कि इस बोर्ड पर किसी भी चित्र को आवश्यकतानुसार दिखाया और सरलता से हटाया भी जा सकता है।

जहाँ तक श्याम एवं हरे पट्टों का प्रश्न है वे आप सभी ने देखे ही होंगे। ऐसी कोई कक्षा नहीं होती जहाँ पर काठ, सीमेण्ट अथवा चिकने शीशे का पट्ट न हो। शीशे के चिकने पट्ट का यदि रंग काला है तो उसे श्यामपट्ट कहते हैं और यदि उसका रंग हरा है तो हरा पट्ट। इसके अतिरिक्त कोई अन्तर नहीं। अन्तर केवल इस बात से आता है कि श्यामपट्ट या हरापट्ट लकड़ी या शीशा आदि में से किससे बना हुआ है।

यदि सीमेण्ट से बना हुआ है और लिखते-लिखते बहुत चिकना हो गया है तो उसकी उपयोगिता अपेक्षाकृत कम रह जाती है। इसलिये शीशे के पट्ट चाहे उनका रंग काला हो अथवा हरा या अन्य कोई जिस पर जो कुछ लिखा जाय वह स्पष्ट दिखाई दे ऐसा बोर्ड ही ठीक रहता है।

यहाँ, यह भी स्पष्ट करना समीचीन होगा कि श्यामपट्ट/हरापट्ट कैसा ही अच्छा क्यों न हो-वह प्रत्यक्ष रूप से शिक्षण में किसी प्रकार की कोई सहायता नहीं करता; अपितु वह अप्रत्यक्ष रूप से ही शिक्षण में सहायक सिद्ध होता है। इसके बिना शिक्षक का काम चल ही नहीं सकता। कभी उसे श्यामपट्ट पर लिखकर कुछ स्पष्ट करना होता है तो कभी चित्र बनाकर।

पाठ का सार लिखाने में तो श्यामपट्ट के बिना काम चल ही नहीं सकता। अतः श्यामपट्ट को सहायक के स्थान पर एक आवश्यक अथवा अनिवार्य साधन या सामग्री की संज्ञा दी जाय तो अधिक उपयुक्त रहेगा, क्योंकि शिक्षक की वास्तविक कुशलता के परिचायक श्याम/हरे पट्ट ही हैं। वह यदि कुशल है तो केवल श्यामपट्ट के द्वारा सभी कुछ समझा सकता है।

6. शिक्षण के यान्त्रिक सहायक साधन (Mechanized Means of Teaching)

शिक्षण के यान्त्रिक सहायक साधन हैं जो यन्त्रों के रूप में काम करते हैं; यथारेडियो, भाषा-यन्त्र, टेलीविजन आदि। इनके उपयोग की दृष्टि से ये तीन प्रकार के होते हैं-

  1. श्रव्य (Audio)
  2. दृश्य (Visual)
  3. श्रव्य-दृश्य (Audio-visual)

इनमें से-रेडियो (Radio), ग्रामोफोन (Gramophone), टेपरिकॉर्डर (Tape recorder), भाषा यन्त्र (Linguaphone), आदि ‘श्रव्य’ सहायक साधनों के अन्तर्गत आते हैं तो परिचित्र दर्शी या चित्र-विस्तारक (Epidiascope), मूक चलचित्र (Silent movies), फिल्म स्ट्रिप्स (Flim strips), स्लाइड्स (Slides), चित्र-प्रक्षेपी (Projectors), कम्प्यूटर (Computer), मोबाईल (Mobile) आदि ‘दृश्य’ साधनों के अन्तर्गत तथा चलचित्र (Cinematograph or cinema), टेलीविजन या दूरदर्शन (Television) आदि शृव्य-दृश्य (Audio visual) साधनों के अन्तर्गत।

इन सभी की यान्त्रिकी (Mechanism) का उल्लेख करना न तो यहाँ सम्भव ही है और न ही उसकी आवश्यकता। सभी का स्पष्ट करना भी विस्तार की दृष्टि से आवश्यक नहीं। इस दृष्टि से उपरोक्त तीनों ही प्रकार के मुख्य-मुख्य यान्त्रिक सहायक साधनों का जो शिक्षण की दृष्टि से विशेष रूप से सहायक सिद्ध होते हैं- का यथावश्यकता संक्षिप्त परिचय तथा शैक्षणिक उपादेयता (Utility) का उल्लेख नीचे किया जा रहा है।

शिक्षण के यान्त्रिक शृव्य साधन (Audio Mechanized Means)

शृव्य उपकरण में वह शैक्षिक सहायक सामग्री सम्मिलित की जाती है, जिसके प्रयोग के समय विद्यार्थी मुख्यतः कानों के माध्यम से अपनी चिन्तन प्रक्रिया को और अधिक विकसित करने में सहायता प्राप्त करता है। शृव्य सामग्री में मुख्यत: रिकॉर्ड प्लेयर (Record player), टेप रिकॉर्डर (Tape recorder) तथा रेडियो (Radio) की गणना की जाती है। शृव्य उपकरणों के माध्यम से भाषा की ध्वनियाँ (खण्डीय, खण्डेत्तर) ध्वनि-विश्लेषण, आक्षरिक संघटन, शब्द, पदबन्ध, वाक्य, अनुतान आदि को ग्रहण किया जा सकता है। इन उपकरणों के प्रयोग के समय कक्षा में शान्त वातावरण होना आवश्यक है, जो इस प्रकार हैं-

1. रिकॉर्ड प्लेयर– रिकॉर्ड प्लेयर शिक्षक का एक प्रमुख साथी है, जिसमें वार्तालाप, गीत, कविता, भाषण, वाक्य-साँचे आदि अंकित रहते हैं। सिनेमा रिकॉर्डों की भाँति ही लिंग्वा रिकॉर्ड (Linguarecord) भी बनाये जाते हैं। लिंग्वा फोन पद्धति से विश्व की विभिन्न भाषाओं को पढ़ाने की ओर तीव्रता से प्रगति होती ही रही है। आजकल पाठ्य-पुस्तक के पूरक के रूप में प्लास्टिक शीट पर भी भाषा-रिकॉर्ड मिलने लगे हैं। रिकॉर्ड को डिस्क रिकॉर्ड भी कहा जाता था। रिकॉर्ड प्लेयर पुराने ढंग के फोनोग्राफ का ही सुधरा हुआ विद्युत चालित रूप है।

2. टेप रिकॉर्डर– टेप रिकॉर्डर भी शिक्षक का एक साथी है, जिस पर रिकॉर्ड की भाँति वार्तालाप, गीत, कविता, भाषण, वाक्य-साँचे आदि बोलते समय अंकित किये जा सकते हैं तथा आवश्यकता न होने पर उसी समय मिटाये भी जा सकते हैं। एक टेप अनेक बार अंकित करने, अंकित सामग्री को मिटाने के काम आ सकता है। आजकल यह उपकरण पर्याप्त सस्ता है तथा चार सेलों से चलाया जा सकता है। वर्तमान टेप पुराने टेप वायर का एक सुधरा हुआ रूप है। टेप का उपयोग उच्चारण, भाषण आदि अंकित करने तथा उसे सुनने के लिये किया जा सकता है। हमारी राय में प्रत्येक द्वितीय भाषा शिक्षक कोटेप-रिकॉर्डर का अधिकाधिक प्रयोग करने का प्रयास करना चाहिये।

3. रेडियो– आकाशवाणी से भाषा शिक्षण के कार्य में पर्याप्त सहायता ली जा सकती है। रेडियो पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों-वार्तालाप, भाषण, निबन्ध, नाटक, एकांकी, गीत, कविता आदि के श्रवण से अध्येताओं की भाषा-दक्षता में वृद्धि होती है। आजकन रेडियो स्टेशनों से द्वितीय भाषा शिक्षण के कार्यक्रम भी प्रसारित होने लगे हैं। द्वितीय हिन्दी भाषा शिक्षक को चाहिये कि वह ऐसे कार्यक्रमों के प्रसारण के समय का पता लगाकर उनका अधिक से अधिक लाभ उठाये। रेडियो कार्यक्रमों को सुनने (घर पर, विद्यालय में) तथा उन पर परिचर्चा करने का आयोजन विद्यालय में होते रहना चाहिये। अध्यापक को छात्रों के सहयोग से प्रसारित कार्यक्रम की आवश्यक व्याख्या, प्रश्नावली, परिचर्चा आदि की व्यवस्था करनी चाहिये। ऐसे समय छात्रों को प्रमुख बातें नोट करने के लिये प्रोत्साहित भी करना चाहिये।

4. ग्रामोफोन (Gramophone)– जब टेप आदि का प्रचलन नहीं था, तब किसी बात को ऊँची आवाज में प्रचारित, प्रसारित करने हेतु इन्हीं का प्रयोग होता था। इसे समझने हेतु टेप रिकॉर्डर की कार्य-विधि को स्मरण कीजिये। उसमें होता यह है कि पहले ध्वनि को टेप पर रिकॉर्ड कर लिया जाता है। बाद में अपनी सुविधानुसार टेप-रिकॉर्डर की सहायता से उसे चलाया जाता है, तब ध्वनि उसी आवाज एवं आरोह-अवरोह तथा लय के साथ प्रसारित होने लगती है। इसमें यन्त्र की सहायता से पहले ध्वनि की तरंगों को टेप पर चिह्नित कर लिया जाता है। पुन: ये ध्वनि-तरंगें टेप चलाने पर ध्वनि में परिवर्तित ह कर सबको उसी प्रकार मूल आवाज में सुनाई पड़ने लगती हैं।

ग्रामोफोन में भी ऐसा ही होता है। अन्तर केवल इतना होता है कि यहाँ कैसेट के अन्दर चलता हुआ टेप होता है और ग्रामोफोन में ध्वनि को टेप पर रिकॉर्ड न किया जाकर रासायनिक विधि से तैयार की हुई तबेनुमा एक सपाट किन्तु गोल प्लेट पर एक नुकीली सुई की सहायता से ध्वनि तरंगों को ठीक उसी प्रकार रिकॉर्ड कर लिया जाता है जिस प्रकार टेप में।

पुनः जब यान्त्रिक व्यवस्थानुरूप सुई को उसी प्लेट पर घुमाया जाता है, तब प्लेट पर ध्वनि तरंगों के अनुरूप बने रेखीय चिह्न पुनः मूल ध्वनि तरंगों में परिवर्तित हो जाते हैं जिन्हें सरलता से सुना जा सकता है। देखा जाय तो टेप, ग्रामोफोन का ही परिष्कृत रूप है। यदि ध्वनि को दूर-दूर तक प्रसारित करना हो तो उसके लिये तार द्वारा एक-दूसरे यन्त्र ध्वनि विस्तारक (Loud speaker) के साथ उसी प्रकार जोड़ दिया जाता है जिस प्रकार टेप को ध्वनि विस्तारक के साथ।

5. भाषायन्त्र (Linguaphone)– भाषायन्त्र (Linguaphone) भी एक प्रकार का फोन (दूरभाष) ही है। हर भाषा की अपनी ध्वनियाँ होती हैं तो ध्वनियों के अपने रूप तथा रूपों के अपने अर्थ। सही अर्थ के ग्रहण की दृष्टि से इन तीनों अर्थात् ध्वनि, रूप तथा अर्थों में समन्वय की आवश्यकता है। यदि ध्वनियों का उच्चारण सही नहीं होगा तो ध्वनि का रूप बिगड़ जायेगा और अन्ततः बनने वाले शब्दों एवं वाक्यों का अर्थ ही बदल जायेगा।

परन्तु किस ध्वनि का शुद्ध उच्चारण क्या होगा-यह तब तक कम ही समझ में आता है, जब तक कि बोलने वाला और सुनने वाले आमने-सामने न हों; अर्थात् शिक्षक एवं शिक्षार्थी जब तक आमने-सामने नहीं होते तब तक शुद्ध उच्चारण का अभ्यास करना और कराना-कम ही सम्भव है, किन्तु यहाँ भी एक समस्या है कि प्रत्येक शिक्षक का उच्चारण पूरी तरह शुद्ध हो-यह आवश्यक नहीं। वे कितना ही शुद्ध बोलने का प्रयास करें, शुद्ध बोल ही नहीं पाते, क्योंकि भाषा अनुकरण प्रधान होने के कारण उस पर क्षेत्रीयता का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता।

क्षेत्रीय बोलियों के उच्चारण में भिन्नता के परिणामस्वरूप किसी भी भाषा की ध्वनियों में समरूपता नहीं पायी जाती, जबकि होनी चाहिये। इस दृष्टि से आदर्श स्थिति तो वही होगी जिसमें शिक्षकों का उच्चारण सर्वथा शुद्ध हो, परन्तु वास्तविकता यह है कि ऐसा होता ही नहीं। आदर्श और यथार्थ में बड़ा अन्तर है।

आदर्श की दृष्टि से भाषाओं के शिक्षकों का उच्चारण शुद्ध हो लेकिन यथार्थ यह है कि ऐसा होना कम ही सम्भव है कि शिक्षकों का उच्चारण पूरी तरह शुद्ध हो ही हो। ऐसी स्थिति में पहले शिक्षक प्रशिक्षकों, तत्पश्चात् शिक्षकों और अन्ततः विद्यार्थियों को अभिव्यक्ति एवं अर्थग्रहण की दृष्टि से भाषायी ध्वनियों का शुद्ध उच्चारण सिखाने तथा उसका अभ्यास कराने हेतु भाषा-यन्त्र (Lingua-phone) की आवश्यकता होती है।

अब भाषा-यन्त्र की आवश्यकता तथा उसके महत्त्व को समझने के पश्चात् उस दृश्य पर विचार कीजिये जब आपने प्रत्यक्ष में अथवा दूरदर्शन (Television) पर संसद अथवा विधानसभा की कार्यवाही को देखा हो। आपने देखा होगा कि वहाँ प्रत्येक सांसद या विधायक के सामने बोलने हेतु ध्वनि यन्त्र (Speaker) होता है। सुनने हेतु भी उसके कानों पर श्रवण यन्त्र लगा रहता है। भाषा प्रयोगशाला (Language laboratory) भी इसी दृश्य का लघु रूप होती है।

उच्चारण की दृष्टि से भाषा विशेषज्ञ-स्वर, व्यंजन, वर्ण शब्द आदि का शुद्ध उच्चारण करके सिखाने वालों को बताता है। वे सुनते हैं। समझने के पश्चात् ध्वनि को शुद्ध उच्चारण करते हैं तथा विशेषज्ञ उसमें यथावश्यकता संशोधन करते हैं।

शिक्षण के यान्त्रिक शृव्य-साधनों की शैक्षणिक उपादेयता (Teaching utility of audio mechanized means)

रेडियो पर विद्यालय-प्रसारण के अन्तर्गत अलग-अलग, दूरदर्शन केन्द्रों से कभी नाटक तो कभी अन्त्याक्षरी, कभी गीत-प्रतियोगिता तो कभी कुछ अन्य शैक्षिक कार्यक्रम आते ही रहते हैं। इसी के साथ इन्दिरा गाँधी मुक्त विश्वविद्यालय द्वारा चलाये जाने वाले विभिन्न कार्यक्रमों के अन्तर्गत भी कभी शंका समाधान की दृष्टि से तो कभी किसी अन्य शैक्षिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु, रेडियो के माध्यम से-इन सभी कार्यक्रमों को सुना जा सकता है।

यदि देखा जाय तो दूरस्थ शिक्षा (Distant education) की दृष्टि से ये सभी शृव्य-साधन बहुत ही उपयोगी हैं। विभिन्न विश्वविद्यालयों तथा शैक्षिक संस्थानों के माध्यम से शिक्षा के विभिन्न कार्यक्रमों के सम्बन्ध में तैयार किये गये कैसेट्स (Cassettes) भी टेपरिकॉर्डर के माध्यम से घर पर सुने और समझे जा सकते हैं। उच्चारण की शुद्धि की दृष्टि से भी रेडियो एवं टेपरिकॉर्डर काफी उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं, लेकिन इनके उपयोग में कुछ व्यावहारिक कठिनाइयाँ भी हैं।

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यदि विचार किया जाय तो सुनने की अपेक्षा देखना तथा केवल देखने की अपेक्षा यदि देखने के साथ-साथ सुनना भी चलता रहे तो अधिक प्रभावी सिद्ध होता है। इस दृष्टि से श्रव्य-दृश्य-साधनों की उपलब्धि ने अपेक्षाकृत इनका महत्त्व कम कर दिया है।

फिर भी जहाँ आर्थिक या विद्युत-सुविधा की लगातार उपलब्धि का अभाव है, वहाँ इन साधनों का अपना महत्त्व भी कम नहीं बशर्ते कि शिक्षक एवं विद्यार्थी इनके प्रसारण समय का विशेष ध्यान रखें तथा सम्बन्धित विद्यालय इस प्रकार की सुविधाओं को उपलब्ध कराने में पूरी तरह सक्षम हो और कुछ नहीं तो शिक्षा एवं शिक्षण से सम्बन्धित निम्नलिखित कार्यक्रम बड़ी सरलता से चलाये जा सकते हैं-

  1. भाषाओं में विभिन्न प्रकार की स्वर एवं व्यंजन ध्वनियों की जानकारी एवं अभ्यास
  2. वर्तनी सम्बन्धी अशुद्धियों के कारणों को बताते हुए उनमें संशोधन।
  3. किसी भी विषय के शिक्षण से सम्बन्धित समस्याओं का सहज समाधान।
  4. गायन आदि मौखिक कलाओं की शिक्षा एवं अभ्यास ।
  5. दूरस्थ शिक्षा की दृष्टि से विभिन्न विषयों से सम्बन्धित विषयवस्तु का प्रसारण।

शिक्षण के यान्त्रिक दृश्य साधन (Visual Mechanized Means of Teaching)

वे शैक्षिक उपकरण या सामग्री जिनके प्रयोग के समय विद्यार्थी मुख्यत: आँखों के माध्यम से अपनी चिन्तन प्रक्रिया को और अधिक विकसित करने में सहायता प्राप्त करता है, उन्हें दृश्य सामग्री के अन्तर्गत गिना जाता है। दृश्य सामग्री में विभिन्न प्रकार के पट्ट (Board), चित्र (Pictures), प्रक्षेपक (Projector) आदि की गणना की जाती है। शिक्षण अधिगम के समय दृश्य सामग्री प्रत्यय निर्माण की दृष्टि से प्रत्यक्ष अनुभूति के वातावरण की सृष्टि करती है।

(A) पट्ट (Board)

शिक्षण अधिगम के क्षेत्र में पाठ्य-पुस्तकों के बाद सर्वाधिक सुलभ शैक्षिक सहायक सामग्री के अन्तर्गत विविध प्रकार के पट्टों (Boards) की गणना की जाती है। इन पट्टों में चार प्रकार के पट्ट विशेष उल्लेखनीय हैं-

  1. खड़िया पट्ट (Chalk-board)
  2. नमदा पट्ट (Felt-board)
  3. चुम्बकीय पट्ट (Magnet-board)
  4. श्वेत पट्ट (White Board)

1. खड़िया पट्ट (Chalk-borad)

खड़िया पट्ट को सामान्यत: श्यामपट्ट (blackboard) के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि बहुत समय से खड़िया पट्ट काले रंग से ही रंगा जाता रहा है परन्तु आजकल यह हरे, हल्के पीले तथा नीले रंग में भी रंगे जाने लगे हैं।

खड़िया पट्ट लकड़ी (प्लाईवुड), काँच अथवा सीमेण्ट (दीवार पर) के बनाये जाते हैं। यान्त्रिकता की दृष्टि से ये अनेक प्रकार के होते हैं, यथा-दीवार पर बने हुए, दीवार के सहारे लटके हुए, तिपाही पर रखे जाने वाले, लीवर के सहारे ऊपर-नीचे सरकने वाले, चौखट में लगी दो कीलों के सहारे लटकने वाले, लपेटे जा सकने वाले आदि।

खड़िया पट्ट भाषा शिक्षण के  समय विविध प्रकार के कार्यों के लिये प्रयोग में लाये जा सकते हैं, यथा- चित्र, मानचित्र, पोस्टर आदि टाँगने के लिये, विभिन्न प्रकार के शब्द, पदबन्ध, वाक्य लिखने के लिये, शब्दों के अर्थ, उनकी सही वर्तनी, उनकी संरचना, रचना, उनका विश्लेषण आदि लिखने के लिये, पाठ सार, अनुच्छेद, सूक्तियाँ, रूपरेखा, भाषा-तत्त्व, विचार-बिन्दु, महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ आदि लेखन के लिये और विविध प्रकार के रेखाचित्र या डायग्राम आदि खींचने के लिये।

खड़िया पट्ट उपयोग के समय इन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिये-खड़िया पट्ट पर लिखे जाने वालेवर्णों तथा खींचे जाने वाले रेखाचित्रों/आरेख आदि का आकार कक्षा के छात्रों की आयु के अनुरूप हो। सामान्यत: छोटी आयु के बालकों के लिये, अधिक लम्बाई वाली कक्षा में वर्णों आदि का आकार कुछ बड़ा होना चाहिये।

पट्ट पर उपयोगिता की दृष्टि से आवश्यक शब्दों/पंक्तियों/रेखाचित्रों आदि को ही रहने दिया जाय, अनावश्यक वस्तुओं को उनकी उपयोगिता समाप्त होने के साथ ही झाड़न से मिटाते जाना चाहिये और इस प्रकार खड़िया पट्ट पर वर्णादि की अनावश्यक भीड़-भाड़ न रहने दी जाय। वर्णों और शब्दों को सुडौलता तथा स्पष्टता के साथ लिखा जाय तथा शब्दों/वाक्यों की पंक्तियाँ भूमि के समान्तर हों (तिरछी या टेढ़ी-मेढ़ी न हों)।

रंगीन खड़िया का प्रयोग विशेष रूप से किसी बात की ओर ध्यान आकर्षित करते समय ही किया जाय। खड़िया पट्ट पर लिखी जाने वाली भाषा शब्द, पदबन्ध तथा वाक्य वर्तनी और संरचना की दृष्टि से शुद्ध हो। यथासम्भव छात्रों को भी खड़िया पट्ट पर लिखने का अवसर देना चाहिये।

2. नमदा पट्ट (Felt-board)

नमदा पट्ट को फ्लैनल ग्राफ, प्लास्टी ग्राफ तथा खद्दरो ग्राफ भी कहते हैं। नमदा पट्ट एक प्रकार का बोर्ड या तख्ता होता है, जिस पर रंगीन खुरदरा फलालेन, खद्दर या विलयर्ड का कपड़ा लगा होता है। इस पट्ट पर अध्यापक गत्ते अथवा पट्ट के कपड़े की (विभिन्न रंगों में) बनी आकृतियाँ, चित्र आदि बड़ी आसानी से चिपका तथा हटा सकता है। नमदा पट्ट का उपयोग भाषा शिक्षण के समय इन बातों के लिये किया जा सकता है- शब्द-भेद, शब्द के उदाहरण, वार्तालाप, कहानी-रचना अभ्यास आदि।

3. चुम्बकीय पट्ट (Magnet-board)

इसको लोहे अथवा टिन प्लेट को चुम्बकित कर बनाया जाता है, जिसे एक ओर रंगकर खड़िया पट्ट की तरह उपयोग किया जा सकता है तथा आवश्यकता पड़ने पर लोहे या टिन के अथवा चुम्बक लगे पदार्थों, चित्रों, नमूनों आदि को पट्ट पर लगाया जा सकता है। इस पट्ट का विशेष उपयोग चलित आकृतियों; यथा- ट्रैफिक नियन्त्रण, कार्य-अध्ययन, कहानी, वार्तालाप आदि की विभिन्न स्थितियों को दिखाने के लिये किया जा सकता है।

4. श्वेत पट्ट (White Board)

श्वेत पट्ट” (Whiteboard) एक ऐसा पट्ट होता है, जिस पर लिखने के लिए विशेष रूप से सफेद रंग का बोर्ड और सूखे कपड़े का उपयोग मिटाने के लिए किया जाता है। इस पर लिखा आसानी से मिटाया जा सकता है, जिससे इसे बार-बार इस्तेमाल किया जा सकता है। इसका प्रयोग आमतौर पर शिक्षा, ऑफिस मीटिंग्स, ब्रेनस्टॉर्मिंग सेशन्स और प्रस्तुतियों के दौरान किया जाता है।

(B) चित्र (Pictures)

शिक्षण अधिगम के क्षेत्र में वास्तविक पदार्थ तथा वस्तुएँ, उनकी प्रतिमूर्ति या नमूने सर्वाधिक प्रभावशाली दृश्य उपकरण या शैक्षिक सामग्री हैं, क्योंकि इनसे छात्र के प्रत्यक्ष अनुभव में कल्पनातीत वृद्धि होती है। इनके बाद प्रभावशाली सामग्री में चित्र की गणना की जाती है। चित्र शिक्षण अधिगम में भी विशेष प्रभावकारी सिद्ध होते हैं। चित्रों के अनेक रूप होते हैं- चित्र तथा रेखाचित्र (Pictures and drawings), छायाचित्र (Photos), व्यंग्यचित्र (Cartoons), दीवार चित्र (Posters), सारणी (Charts/tables), मानचित्र (Maps) तथा फ्लैश कार्ड (Flash cards) आदि।

चित्र सभी आयु के विद्यार्थियों को रोचक लगते हैं- ऐतिहासिक वस्तुओं; यथा-दुर्ग, गढ़, किला, भवन, युद्ध, सिक्के आदि, प्राकृतिक दृश्यों, वैज्ञानिक यन्त्रों आदि के चित्र, विभिन्न प्रकार के भाषा-साहित्य पाठों; यथा-कहानी, जीवनी, वार्तालाप, वर्णनात्मक तथा विवरणात्मक निबन्ध आदि को चित्र अधिक स्पष्ट, सहज और ग्राह्य बना देते हैं। इकरंगे, दुरंगे तथा बहुरंगे चित्र पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं तथा बाजार में बड़ी आसानी से उपलब्ध हो सकते हैं।

चित्र प्रयोग के समय इन सभी बातों का ध्यान रखना अति आवश्यक है-

  1. कक्षा में छात्रों की आयु के अनुरूप ही शुद्ध, स्पष्ट तथा आकर्षक चित्र प्रस्तुत किये जायें।
  2. ऐसे चित्रों को प्रमुखता दी जाय, जिनसे छात्र को अज्ञात या नवीन अनुभव प्राप्त हों
  3. चित्र-सामग्री का विश्लेषण सामान्यत: छात्रों से कराया जाये।

निम्नलिखित प्रकार के चित्रों का शिक्षण में प्रयोग किया जाता है

  1. रेखाचित्र या डायग्राम ऐसी शैक्षिक सहायक सामग्री है जो अच्छे अध्यापक के हाथ में सदैव बनी रहती है, क्योंकि किसी अन्य उपकरण के अभाव में अध्यापक खड़िया पट्ट पर आसानी से सम्बन्धित वस्तु/घटना आदि का रेखाचित्र खींच सकता है।
  2. छायाचित्र, रेखाचित्र की भाँति ही अध्येता को प्रभावित करते हैं। छात्रों को छायाचित्रों में प्रदर्शित विस्तृत तथा गहन विवरण अधिक आकर्षित करते हैं।
  3. सारणी का उपयोग व्याकरण के विविध पक्षों; यथा-शब्द-भेद, उपसर्ग-प्रत्यय, काल-भेद आदि को स्पष्ट करते समय किया जाता है।
  4. मानचित्र का प्रयोग भाषा-साहित्य पाठों में आये विभिन्न भौगोलिक तथा ऐतिहासिक स्थानों के प्रदर्शन के लिये किया जा सकता है।

(C) प्रक्षेपक (Projector)

प्रक्षेपक (प्रोजेक्टर) स्वयं में दृश्य सामग्री नहीं है, वरन् इसकी सहायता से विविध प्रकार की सहायक सामग्री को प्रक्षेपित करते हुए दृश्य बनाया जाता है। ये अनेक प्रकार के होते हैं-

  • स्लाइड प्रोजेक्टर (Slide projector),
  • ओवरहेड प्रोजेक्टर (Overhead projector) तथा
  • एपिडाइस्कोप (Epidiascope)।

इन सभी प्रक्षेपकों के माध्यम से प्रदर्शित वस्तुओं को देखने के लिये कमरे में अँधेरा होना चाहिये और इन्हें के लिये विद्युत व्यवस्था। पश्चिमी देशों में (कहीं-कहीं भारत में भी) भाषा-शिक्षण के क्षेत्र में विभिन्न प्रक्षेपकों का अत्यधिक उपयोग किया जाता है

1. स्लाइड प्रोजेक्टर– स्लाइड प्रोजेक्टर के माध्यम से विविध प्रकार के दृश्यों, स्थानों, क्रियाओं, घटनाओं, वर्णों, शब्दों आदि के स्लाइडों को प्रदर्शित किया जाता है। 2″ x 2″ या 3″ x 4″ के श्वेत-श्याम या रंगीन स्लाइड पर अंकित बातें प्रदर्शन के समय पर्दे पर बड़े आकार की तथा स्पष्ट दिखायी देती हैं। इस प्रोजेक्टर में यदि सुविधा हो तो मूक चलचित्र की पट्टियाँ (Dumb film strips) भी पर्दे पर प्रदर्शित की जा सकती हैं।

2. ओवरहेड प्रोजेक्टर– ओवरहेड प्रोजेक्टर में लगी पारदर्शी शीट पर शिक्षक अध्यापन के समय आवश्यकतानुसार मोटी पेन्सिल से लिख तथा उसे मिटा सकता है। परदर्शी शीट पर लिखी सामग्री (रेखाचित्र, सारणी आदि) को वह एक हत्थे से घुमाकर लपेट तथा पुन: प्रदर्शित भी कर सकता है। इस प्रक्षेपक में ऐसा प्रावधान होता है कि अध्यापक के सिर के ऊपर से प्रकाश रश्मियाँ पर्दे पर जाकर विस्तृत होती हैं।

3. एपिडाइस्कोप– एपिडाइस्कोप एक प्रकार का अपारदर्शी प्रक्षेपक (Opaque projector) होता है, जिसकी सहायता से छोटे-छोटे पदार्थ, पुस्तक या पत्रिकादि पर अंकित सामग्री को बड़े आकार में पर्दे पर प्रक्षेपित किया जा सकता है। इस प्रक्षेपक के उपयोग के समय कक्षा में पर्याप्त अँधेरा होना चाहिये। इसका ओवरहेड प्रोजेक्टर बल्व से अधिक शक्ति का होता है।

यान्त्रिक दृश्य-साधनों की शैक्षणिक उपादेयता (Teaching utility of mechanized visual means)

जब सिनेमा, दूरदर्शन आदि की तकनीकी का विकास नहीं हुआ था, तब दूर दराज के क्षेत्रों में किसी विशेष उद्देश्य या जन-जागृति हेतु जो फिल्में या चित्र आदि दिखाये जाते थे, वे सब मूक ही होते थे। दर्शकों को स्वयं ही कहानी की कल्पना करनी होतीथी जो इतनी आकर्षक तो नहीं होती थी जितनी आज दूरदर्शन या सिनेमाघर में देखे जाने वाली खबरें या धारावाहिक तथा चलचित्र, परन्तु फिर भी शृव्य-साधनों की तुलना में इनमें आकर्षण अधिक था।

अतः इनकी उपादेयता कम तो हुई है, परन्तु बिल्कुल ही न रही हो-ऐसा बिल्कुल नहीं है। अभी भी उन पाठशालाओं/क्षेत्रों में जहाँ चलचित्र या टेलीविजन की सुविधा नहीं है, वहाँ इनकी उपयोगिता अभी भी कम नहीं हुई है। इनके द्वारा न केवल विद्यार्थियों का मनोरंजन ही कराया जा सकता है अपितु उन बातों को भलीभाँति समझाया जा सकता है जो कथनों से अथवा पुस्तकों के पढ़ने से स्पष्ट नहीं होती।

पीछे जिन मौलिक सहायक-साधनों का उल्लेख किया गया था उनमें नये-पुराने भवनों, कृतियों, मूर्तियों, जड़ी-बूटियों, पशु-पक्षियों आदि को तथा प्राकृतिक विभिन्नता एवं वैभव को सरलता से समझाया जा सकता है। शुद्ध विज्ञानों में जीवों के आन्तरिक अंगों बगैरह को कक्षाओं में समझाना सरल हो जाता है। यही नहीं कहानियों पर आधारित चित्रों को दिखाकर विद्यार्थियों से कहानी सुनकर एवं लिखवाकर उनकी कल्पना शक्ति का भी यथेष्ट विकास किया जा सकता है।

इस दृष्टि से इन साधनों की उपयोगिता किसी विषय विशेष में ही हो-ऐसा बिल्कुल नहीं है। सभी विषयों के शिक्षण में इन साधनों की यथेष्ट उपयोगिता है।

शिक्षण के यान्त्रिक शृव्य-दृश्य साधन (Audio-Visual Mechanized Means of Teaching)

शिक्षण के यन्त्रचालित ऐसे सहायक साधनों के अन्तर्गत जो शृव्य तथा दृश्य-दोनों ही विशेषताओं से युक्त हों-हमने चलचित्र (Motion movies), दूरदर्शन (Television) आदि का उल्लेख किया। आप, इनकी यान्त्रिकी से परिचित भले ही न हों इन्हें देखा तो सभी न होगा। चलचित्र पर कहानी-विशेष से सम्बन्धित, पात्रों आदि के आंगिक तथा मौखिक-सभी प्रकार के क्रियाकलाप भी देखे और सुने होंगे। कहानियों का प्रसारण दूरदर्शन पर भी उसी रूप में होता है। अन्तर केवल बड़े-छोटे पर्दों का है। इसी के साथ दूरदर्शन केवल किसी चलचित्र को प्रदर्शित करने तक ही सीमित नहीं अपितु उस पर अन्य अनेकों बातें- देश-विदेश की घटनाओं, सम्बन्धित समाचार, राजनीति अथवा अन्य किसी क्षेत्र विशेष में होने वाली गतिविधियों, तरह-तरह के जल-थल तथा नभ वासी दुर्लभ प्राणियों के चित्र और बोलियाँ, रहन-सहन आदि न जाने क्या-क्या देखने को मिलता है। इस दृष्टि से दोनों का अपना अलग-अलग महत्त्व है।

जिस प्रकार टेपरिकॉर्डर में टेप के सहारे जो गाना श्रोता सुनना चाहे उसी से सम्बन्धित गाने की कैसेट चलाकर सुन लेता है, ठीक उसी प्रकार इसमें जिस सिनेमा की कहानी को व्यक्ति सुनने के साथ-साथ देखना भी चाहे उसकी सी.डी., डी.वी.डी. प्लेयर में लगाकर टेलीविजन के पर्दे पर देख भी सकता है।

वे शैक्षिक उपकरण या सामग्री जिनके प्रयोग के समय विद्यार्थी मुख्यतः आँखों तथा कानों के माध्यम से अपनी चिन्तन-प्रक्रिया को और अधिक विकसित करने में सहायता प्राप्त करता है, उन्हें दृश्य-शृव्य सामग्री के अन्तर्गत गिना जाता है। दृश्य-शृव्य सामग्री में मुख्यत: चलचित्र (Cinema), दूरदर्शन (Television) तथा वीडियो (Vedio tape) की गणना की जाती है।

अभिनय (Drama), परिभ्रमण (Excursion) से भी कुछ बातों का ज्ञान-लाभ हो सकता है। ये दोनों माध्यम उस प्रकार की दृश्य-शृव्य सामग्री नहीं कहे जा सकते; जैसे कि उपर्युक्त तीनों उपकरण ।

1. चलचित्र– चलचित्र मूलत: मनोरंजन का साधन है, किन्तु शिक्षा जगत् में इसका प्रयोग आजकल काफी बढ़ रहा है। विदेशों में तो भाषा शिक्षण के विविध पक्षों-वर्ण-शब्दवाक्य था लेखन, रचना लेखन, कहानी, वार्तालाप, नाटक, गीत, कविता आदि के फिल्म बनने लगे हैं। चलचित्र दर्शन तथा श्रवण से छात्र के बोलने एवं सुनने में अनजाने में ही निखार आता जाता है। साहित्य की विविध विधाओं के नाद-सौन्दर्य आदि की सौन्दर्यानुभूति में चलचित्र सहयोगी सिद्ध होते हैं। चलचित्र के माध्यम से छात्र के मस्तिष्क पर एक साथ चित्र, गति, रंग तथा ध्वनि का समन्वित प्रभाव पड़ने के कारण भाषा-अध्ययन में पर्याप्त सहजता तथा सरलता आ जाती है।

चलचित्र उपयोग के समय अध्यापक को ध्यान रखना चाहिये कि छात्र केवल मनोरंजन के लिये ही फिल्म न देखें वरन् उनसे उस फिल्म पर परिचर्चा भी करनी चाहिये। छात्रों से उस फिल्म से सम्बन्धित विभिन्न प्रश्न पूछते हुए विविध कौशलों के परिष्कार की योजना बना लेनी चाहिये ।

2. दूरदर्शन– दूरदर्शन में चलचित्र के सभी गुण पाये जाते हैं, किन्तु इसे बड़ी संख्या की कक्षा में प्रयोग में नहीं लाया जा सकता। भारत में पर्याप्त दूरदर्शन कार्यक्रम प्रसारित होते हैं। जहाँ सुविधा हो, विद्यालयों में दूरदर्शन कार्यक्रमों से लाभ उठाया जाना चाहिये। दूरदर्शन कार्यक्रमों का उपयोग भी केवल मनोरंजन के लिये ही न होकर भाषा-कौशलों की क्षमता वृद्धि की दृष्टि से किया जाना चाहिये ।

3. वीडियो– वीडियो एक व्यय साध्य किन्तु पर्याप्त मनोरंजक तथा उपयोगी उपकरण है। भारत में आजकल सभी लोग वीडियो का उपयोग मनोरंजन तथा शिक्षा के लिये करते हैं। विद्यालयों में अभी इस उपकरण का उपयोग अभी पूर्णतः नहीं हो पाया है। सम्भव है आगामी 10-12 वर्षों में इस उपकरण का उपयोग भाषा-शिक्षण के क्षेत्र में भी किया जाने लगेगा।

यन्त्रीकृत शृव्य-दृश्य साधनों की शैक्षणिक उपादेयता (Teaching utility of audio-visual mechanized means)

शिक्षण के सहायक-साधनों को पीछे हमने अनेक रूपों में देखा और मोटे रूप से-प्राकृतिक, मौलिक, मनुष्यकृत तथा यन्त्रचालित-आदि वर्गों में वर्गीकृत किया है, परन्तु देखा जाय तो टेलीविजन, चित्र-प्रक्षेपी (Projector) जिनके द्वारा चलचित्र दिखाये जाते हैं-वे भी तो मनुष्यकृत ही हैं। उसी के मस्तिष्क ने ही तो इन सभी को, यहाँ तक कि कम्प्यूटर आदि सभी को उसने ही जन्म दिया है।

खैर जो भी हो यहाँ हमारा मूल उद्देश्य यह है कि जिन प्राकृतिक पदार्थों, प्राणियों, वनस्पतियों को चित्रों द्वारा नहीं समझाया जा सकता, उन्हें समझाने की दृष्टि से उसके मूल स्वरूप की ही आवश्यकता पड़ती है, वही प्रभावी होती है; यथा-तरह-तरह के जीव, पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ, पदार्थ आदि। इन सभी को बताने में और समझाने में कितना ही कुछ क्यों न कहा जाये कितना ही समझाया जाये, विद्यार्थी उसकी कल्पना करके ही रह जाते थे चाहे वह विशालकाय समुद्री ह्वेल मछली हो अथवा दरियाई घोड़ा या मगरमच्छ आदि।

कल्पना, कभी भी वास्तविक रूप को प्रदर्शित नहीं करती, परन्तु अब ऐसा नहीं रहा। विद्यार्थियों की कल्पना अवास्तविक न रहकर इन सभी जीवों या पदार्थों को टेलीविजन के माध्यम से सहज ही देखा जा सकता है। रात्रि के गहन अन्धकार से पूर्ण जंगल में होने वाली सनसनाहट, सरसराहट, जंगली जानवरों की बोलियाँ आदि सभी को सुन भी सकते हैं। इस दृष्टि से टेलीविजन की उपयोगिता शिक्षण की दृष्टि से बहुत ही अधिक है।

डिस्कवरी (Discovery) तथा नेशनल ज्योग्राफिक (National Geographic) जैसे चैनल (Channel) तो प्रकृति के रहस्यों को बताकर काफी ज्ञानवृद्धि कर सकते हैं। साथ ही विद्यार्थियों की शिक्षा की दृष्टि से बहुत से चैनल कुशल शिक्षकों के प्रभावी-शिक्षण को सभी को दिखाकर न केवल विद्यार्थियों को ही लाभान्वित कर सकते हैं अपितु शिक्षकों को भी बहुत कुछ सिखाकर उन्हें कुशल शिक्षक बना सकते हैं।

विज्ञान किट (Science Kit)

विज्ञान शिक्षण में प्रयोग तथा प्रदर्शन के लिये उपकरणों के संग्रह की आवश्यकता होती है। यह छोटे-छोटे उपकरणों का यह संग्रह ‘विज्ञान किट’ कहलाता है। इससे छात्र को स्थायी एवं स्पष्ट ज्ञान दिया जा सकता है। इससे छात्र में अधिगम की प्रक्रिया तीव्र गति से होती है। यह लकड़ी के बक्से में रखा कुछ सामान होता है, जिससे ‘दैनिक विज्ञान’ के प्रयोग आसानी से दिखाये जा सकते हैं।

अपने देश में राष्ट्रीय अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण संस्थान (N.C.E.R.T.) की कार्यशाला एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यूनीसेफ (U.N.E.S.E.F.) के सहयोग से वर्ष 1970 में ‘विज्ञान किट’ तैयार की गयी थी। पुन: राज्य स्तर पर राज्य शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण संस्थान (S.C.E.R.T.) ने प्राथमिक विद्यालयों के लिये वर्ष 1982 में किट तैयार की तथा इसे 7200 प्राथमिक विद्यालयों में बढ़िया शिक्षा के अन्तर्गत वर्ष 1984 में वितरित किया गया।

विज्ञान किट का उपयोग (Use of Science Kit)

किट पर चिपकी लिस्ट से पता चलता है कि इसमें ताले एवं बॉक्स सहित 45 प्रयोग नमूने हैं। समस्त सामग्री के बारे में चित्र एवं क्रिया से सम्बन्धित विवरण दिया गया है। एक निर्देश पत्र के साथ 42 सामग्रियों की क्रियाओं के बारे में उल्लिखित किया गया है। इस निर्देश तथा सामग्री के आधार पर ही विज्ञान किट का उपयोग किया जाता है, जिसे निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. गोल वस्तु को गोल छाया बनने की क्रिया कर समझाना।
  2. सूर्य ग्रहण के होने की क्रिया को प्रदर्शित करना।
  3. चन्द्र ग्रहण के होने की क्रिया को प्रदर्शित करना ।
  4. पृथ्वी की घूर्णन गति दिखलाना।
  5. चन्द्रमा की कलाएँ प्रदर्शित करना।
  6. पृथ्वीपर दिन-रात बनने की प्रक्रिया समझाना।
  7. पृथ्वी की सूर्य के चारों ओर परिक्रमा प्रदर्शित करना एवं इससे पृथ्वी की अलग-अलग स्थितियाँ दिखाना।
विज्ञान किट में नामांकित उपकरणों की सूची निम्नलिखित प्रकार से दी गई है-
क्र. स. वस्तु का नाम आकार
(1) रबड़ की गेंद 60 मिमी. व्यास की
(2) एल्युमिनियम की कटोरी व्यास 100 मिमी., ऊँचाई 40, मिमी., 33 ग्राम भार की
(3) चम्मच 13 सेमी. लम्बी, 9 ग्राम भार की
(4) अभिवर्द्धन हैण्डलेन्स (प्लास्टिक हैण्डल) 4 सेमी. व्यास का
(5) तिपाई स्टैण्ड (10 गेज का तार) 13 सेमी. ऊँचाई का
(6) थर्मामीटर सीमा 10° से 10° सेल्सियस का
(7) कमानी तुला सीमा 10 से 500 ग्राम की
(8) नपना गिलास सीमा 0 से 100 मिमी. माप का
(9) संग्रह जाली 8 सेमी. व्यास, 20 सेमी. लम्बाई का
(10) प्लास्टिक की फनल (प्लास्टिक नली) 7 सेमी. व्यास का
(11) जल चकरी (प्लास्टिक नली) मध्य के गोले का व्यास 4 सेमी. विपरीत सिरों के बीच की दूरी
(12) लोहे की कीलें 15 सेमी. लम्बी या 10 सेमी. लम्बी
(13) घिरनी (लकड़ी) 3 सेमी. या 4 सेमी. बाहरी व्यास की
(14) धुरी और बेलन (वाइण्डलास ) 7 सेमी. व्यास 2 सेमी. मोटाई का
(15) परखनली 13 सेमी. 105 सेमी. व्यास की
(16) समतल दर्पण (चौखटे सहित) 11 सेमी. लम्बा, 7 सेमी. चौड़ाई का
(17) काँच की बड़ी बोतल ढक्कन सहित (जार) 15 सेमी. लम्बी, 8 सेमी. व्यास की
(18) स्ट्रा 12 सेमी. लम्बी माप कीं
(19) प्लास्टिक की नलिका 1 मीटर लम्बाई, 5 मिमी. व्यास की
(20) रबड़ बैण्ड मध्यम आकार के
(21) गुब्बारे मध्यम माप के
(22) पॉलीथिन की थैलियाँ 18 सेमी. लम्बी, 13 सेमी. चौड़ी माप की
(23) ऑलपिन 3 सेमी. लम्बाई की
(24) ड्राइंग पिन सामान्य
(25) लोहे का चूर्ण चूर्ण के रूप में
(26) लोहे के तार 3 सेमी. व्यास, 20 सेमी. लम्बाई
(27) चुम्बकीय सुइयाँ 9 सेमी. लम्बी माप की
(28) धागे की रील 1 रील
(29) शुष्क सेल 1.5 वोल्ट
(30) टार्च बल्ब 1.5 वोल्ट
(31) ऐनेमल्ड ताँबे का तार 24 गेज का
(32) मोमबत्ती 10 सेमी. लम्बाई, 1 सेमी. व्यास की
(33) नमक (रबे के रूप में) अल्प मात्रा में
(34) पोटैशियम परमैंगनेट (लाल दवा) अल्प मात्रा में
(35) शक्कर दानेदार अल्प मात्रा में
(36) फ्यूज विद्युत बल्ब (मुँह खुला हुआ) सामान्य
(37) ओवर फ्लो पात्र 15 सेमी. लम्बा, 10 सेमी. व्यास का
(38) लकड़ी का घनाभ (बीच में कील लगी हुई) 5 × 5 × 4 घन सेमी. माप का
(39) लकड़ी का पैमाना 3 सेमी. लम्बाई का
(40) ज्वलन नलिका सामान्य
(41) गत्ता 30 x 20 वर्ग सेमी.
(42) माचिस 1
(43) रेजर ब्लेड 1

गणितीय किट (Mathematical Kit)

प्राथमिक स्तर पर दी जाने वाली गणित किट जो कि सन् 1983 में राज्य शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण संस्थान निर्मित की गयी। इस किट के अन्दर गणितीय यन्त्र रखे गये हैं। ‘गणित किट’ एक लकड़ी के आयताकार बॉक्स के अन्दर ताले सहित रखा यन्त्रों का संग्रह है, जो कि प्राथमिक स्तर के बालकों के लिये शिक्षण हेतु प्रयोग प्रदर्शन हेतु उपयुक्त रहता है। इसमें रखे विभिन्न उपकरणों में नाम निम्नलिखित हैं, जो कुल 45 छोटे-छोटे यन्त्र हैं-

1. आयत के प्रतिरूप (Model of rectangle)– ‘गणित किट’ बॉक्स में विभिन्न लम्बाई, चौड़ाई के 10 आयत के मॉडल हैं, जिन्हें कि ‘आयत’ की परिभाषा एवं उसके क्षेत्रफल के लिये दिखाया जा सकता है। यह कक्षा 3 से 5 तक के लिये उपयोगी है।

2. वर्ग के प्रतिरूप (Model of square) – विभिन्न मापों में तीन प्रतिरूप वर्ग के भी हैं, जिनके माध्यम से वर्ग का अर्थ एवं क्षेत्रफल निकालने में अवगत कराया जा सकता है। यह 3 से 5 तक की कक्षा के लिये उपयोगी है।

3. त्रिभुज के मॉडल (Model of triangle) – त्रिभुज की परिभाषा एवं समकोण त्रिभुज, विषमबाहु त्रिभुज तथा समद्विबाहु त्रिभुज में अन्तर स्पष्ट करने हेतु उपयुक्त है। यह संख्या में तीन हैं।

4. भिन्न पट्ट (Different board) – (ग्यारह हार्ड बोर्ड के टुकड़े) एक लकड़ी के आयताकार पट्टे पर आगे-पीछे खिसकने वाले छोटे-छोटे गुटके होते हैं। विभिन्न मापों के आधार पर निम्नलिखित भिन्नों के आधार पर बालकों को जानकारी दी जा सकती हैभिन्न का अर्थ, तुल्य भिन्न संख्यांक, भिन्नों की तुलना, भिन्नों का योग एवं व्यवकलन आदि। दशमलव भिन्नों में योग, व्यवकलन एवं गुणा संक्रियाओं का बोध भी कराया जाता है। यह कक्षा 3 से 4 हेतु उपयोगी है।

friction

5. वृत्त का प्रतिरूप (Model of circle)– वृत्त का ज्ञान कराने के लिये एक वृत्त का प्रतिरूप है। कक्षा 3-4 हेतु उपयोगी है।

6. एक परकार डेढ़ टाँग वाली (कम्पास) (Compass) – एक लकड़ी एवं लोहे से बनी डेढ़ टाँग वाली 1 परकार भी चाक द्वारा श्यामपट्ट पर वृत्त खींचने अथवा चाप लगाने के लिये, कोण बनाने तथा ज्यामितीय रचनाओं में प्रयुक्त होती है। यह कक्षा 3-8 तक उपयोगी है।

7. दो पैरों की परकार (डिवायडर) (Divider)– एक दूरी नापने वाली परकार होती है। ग्राफ, चार्ट तथा रेखाचित्र पर बने दो बिन्दुओं के मध्य दूरी नापने हेतु कक्षा 3 से 5 तक प्रयुक्त होती है।

8. हाफ मीटर स्केल (Half meter scale)– दूरी नापने के लिये 50 सेमी का पैमाना होता है। मिमी, सेमी इंच, मीटर सम्बन्धी एवं सरल रेखा खींचने में, कक्षा 1 से 5 तक एवं आगे की कक्षाओं में प्रयुक्त होता है।

9. स्केल (Scale) – रेखा खींचने या नापने, विभिन्न रैखिक आवृत्तियाँ (आयत, वर्ग तथा त्रिभुज) बनाने के लिये प्रयुक्त होता है। कक्षा 1 से 8 तक तथा आगे की कक्षाओं के लिये उपयोग में आता है।

10. तार (Wire)– परिधि अथवा लपेट बताने के लिये प्रयुक्त होता है। कक्षा 1 से 8 तक कक्षाओं के लिये प्रयोग में लाया जाता है।

11. सेटस्क्वेयर (Set square) (17″ x 15″ x 82″)– दो सेटस्क्वेयर समान्तर रेखाएँ खींचने के लिये प्रयुक्त होते हैं, जो अलग-अलग माप के होते हैं। इससे विषमबाहु त्रिभुज की रचना भी की जाती है। (17″ x 12″ x 1.2) इससे समानान्तर रेखाएँ एवं समद्विबाहु त्रिभुज की रचना की जाती है। इसे 4, 5, 6 एवं उच्च कक्षाओं हेतु प्रयोग में लाया जाता है।

12. चाँदा (Protractor)– एल्यूमिनियम एवं लोह मिश्रित धातु से बना 180° अंकित चाँदा कोण बनाने एवं नापने के लिये प्रयुक्त होता है। प्रत्येक छोटे खाने का मान 1° होता है। वृत्त एवं अर्द्धवृत्त बनाने में भी इसका प्रयोग कर सकते हैं। प्रयोग सभी कक्षाओं में होता है।

13. घड़ी का प्रतिरूप (हार्डबोर्ड) (Model of watch)– लकड़ी के डायल पर 12 अंकित हैं। एल्यूमिनियम की सुई घड़ी में समय का ज्ञान कराने एवं घड़ी द्वारा योग एवं व्यवकलन संक्रिया का ज्ञान कराया जाता है। इससे घण्टा, मिनट एवं सेकण्ड का सम्बन्ध, सुइयों की स्थिति (विभिन्न समय दर्शाने के लिये) का बोध, 3 से 4 कक्षा हेतु होता है।

14. गोले का प्रतिरूप (Model of sphere)– एक गोला ब्राउन रंग का गोले का ज्ञान के लिये उसका आयतन एवं सम्पूर्ण पृष्ठ बताने के लिये प्रयोग में लाया जाता है। कक्षा 4 से 5 एवं उच्च कक्षाओं हेतु प्रयोग होते हैं।

15. बेलन का प्रतिरूप (Model of cylinder)– ठोस ज्यामिति में एक बेलन का ज्ञान उसका वक्र पृष्ठ, सम्पूर्ण पृष्ठ तथा आयतन ज्ञात कराने के लिये प्रयुक्त होता है। कक्षा 4 से 5 एवं उच्च कक्षाओं हेतु प्रयोग होता है।

16. घन विभिन्न मापों के दो घन (Two cubes of different size)– घन का प्रतिरूप घन का ज्ञान कराने, उसके तलों का उनका सम्पूर्ण पृष्ठ ज्ञात कराने के लिये प्रयुक्त होता है। घनाभों का भी आयतफल ज्ञात किया जाता है। कक्षा 4-5 तथा आगे की कक्षाओं हेतु प्रयोग होता है।

17. शंकु का प्रतिरूप (Model of cone)– शंकु के आकार, उसके तल, वक्र पृष्ठ एवं आयतन का बोध कराने के लिये प्रयुक्त होता है। इसका प्रयोग भी 4 से 5 कक्षा एवं उच्च कक्षाओं हेतु किया जाता है।

18. आयतफल (सामान्तर षट्फलक) का प्रतिरूप (Model of quadrilateral)– ऐसी आकृति जिसमें लम्बाई, चौड़ाई एवं ऊँचाई भिन्न-भिन्न हों। कक्षा 4 से 5 एवं उच्च कक्षाओं हेतु प्रयोग होता है।

19. आयताकार छड़े 1/10 खाँचे वाली (10 सैट) (Aerial rods)– छोटे-बड़े का ज्ञान, भिन्न का प्रत्यय, दशमलव भिन्न का प्रत्यय, स्तम्भ ग्राफ एवं क्रम का ज्ञान इत्यादि का कक्षा 1 से 5 तक एवं उच्च कक्षाओं हेतु प्रयोग होता है।

गणित किट का महत्त्व (Importance of math’s kit)

गणितीय किट के निम्नलिखित उपयोग हैं-

  • यह छात्रों के ज्ञान को प्रत्यक्ष देखकर स्थायी बनाती है।
  • पाठ को रोचक, आकर्षक तथा गणितीय तथ्यों को सुस्पष्ट किया जाता है।
  • समान्तर षट्फलक, घनाभ, घन, प्रिज्म, शंकु एवं गोले आदि के प्रतिरूपों को देखकर उनमें अन्तर तथा सम्पूर्ण पृष्ठ एवं आयतन के बारे में जानकारी स्पष्ट हो जाती है।
  • स्मरण शक्ति एवं निरीक्षण शक्ति का विकास होता है।
  • रचनात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न होता है।
  • कौशलात्मक पक्ष प्रबल होता है।
  • इसके प्रयोग से छात्रों का ध्यान पाठ पर केन्द्रित रहता है।
  • निरीक्षण, कल्पना, तुलना एवं परीक्षण शक्ति का विकास होता है।
  • इसके प्रयोग से ज्ञानेन्द्रियों को प्रेरणा मिलती है तथा ज्ञान मस्तिष्क में स्थिर रहता है।
  • कक्षा के वातावरण में सजीवता और क्रियाशीलता आती है।

मैकन तथा राबर्टसन के अनुसार, “शिक्षक इन उपकरणों के प्रयोग से बालक की एक से अधिक इन्द्रियों को प्रयोग में लाकर पाठ्य-पुस्तक को सरल, रुचिकर, स्पष्ट, प्रभावशाली तथा स्थायी बनाता है। कितने ही विषयों पर जो पाठ्य-पुस्तकों में नहीं होते, उन पर प्रकाश डाला जाता है?

गणित किट का उपयोग (Use of mathematics kit)

गणित किट के उपयोग के लिये-

  1. जिस विषय या आकृति को समझाना है, उस पर छोटे-छोटे लघु प्रश्न बना लेने चाहिये।
  2. प्राथमिक स्तर पर यदि किट के अतिरिक्त रंगीन वस्तुओं का प्रदर्शन किया जाय तो उत्तम रहेगा। प्राथमिक स्तर के लिये यह आवश्यक है।
  3. ‘गणितीय किट’ के द्वारा हर उपकरण से सम्बन्धित अनेक प्रश्न बनाये जा सकते हैं और छात्रों को उसकी कार्य विधि तथा प्रयोग के बारे में अवगत कराया जा सकता है।
  4. गणित शिक्षण में प्रयोग-प्रदर्शन में लाये जाने वाले समस्त उपकरणों की शुद्धता की जाँच प्रयोग करने से पूर्व ही कर लेनी चाहिये।

गणित किट का प्रयोग करते समय सावधानियाँ (Precautions while using maths kit)

सहायक सामग्री प्रयोग करते समय निम्नलिखित सावधानियाँ प्रयोग में लानी चाहिये-

  1. रंगीन चित्र सुन्दर, सजीव, आकर्षक एवं स्पष्ट होने चाहिये।
  2. सहायक सामग्री की समुचित व्यवस्था एवं प्रक्रिया ऐसे स्थान पर होनी चाहिये, जहाँ पर अधिकांश छात्र उसे देख सकें और समझ सकें।
  3. दृश्यात्मक एवं शृव्यात्मक सामग्री में प्रकाश, ध्वनि एवं स्लाइड की व्यवस्था उत्तम होनी चाहिये।
  4. कक्षा स्तर के अनुकूल सुपाच्य, सुडौल एवं क्रमबद्ध ढंग से किसी तथ्य को सहायक-सामग्री के द्वारा समझाया जाना चाहिये। उनको सहायक सामग्री का समायोजन एवं संगठन भी इस बात को ध्यान में रखकर करना चाहिये।
  5. सीखे हुए नियम और विधि की पुष्टि तथा अभ्यास हेतु अधिगम सामग्री उपयोग की जानी चाहिये।
  6. यदि केवल मध्य में किसी नियम-विशेष को स्पष्ट करने हेतु अधिगम सामग्री का उपयोग करना है तो केवल उस नियम-निष्कासन अथवा स्पष्टीकरण की स्थिति तक ही उसे रखना चाहिये।
  7. अनावश्यक चित्र सामग्री छात्रों के समक्ष रहने से उनका ध्यान उस ओर बँट जाता है, जिसके फलस्वरूप छात्र पाठ के विकास में उतना सहयोग नहीं दे पाते हैं जितना कि अपेक्षित है।
  8. यदि कोई सामग्री तथा मॉडल आदि बहुत छोटे हों तो शिक्षक को स्वयं छात्रों के पास उसे ले जाकर दिखाने चाहिये।
  9. सम्पूर्ण अधिगम-सामग्री को एक साथ ही मेज पर नहीं रखना चाहिये।
  10. अधिगम-सामग्री का विषयवस्तु अथवा पाठ्य-बिन्दु से समन्वित होना आवश्यक है अन्यथा यह निरर्थक एवं अप्रभावी होगी।

शिक्षण अधिगम सामग्री के निर्माण में सावधानियाँ (Precautions in Construction of Teaching Learning Material)

शिक्षण अधिगम सामग्री का उचित एवं सारगर्भित निर्माण करना एक कठिन कार्य है क्योंकि इस सामग्री के निर्माण से पूर्व हमको अनेक बिन्दुओं पर ध्यान देना पड़ता है। आवश्यक तथ्यों को ध्यान में रखे बिना तथा सावधानियों को प्रयोग में लाये बिना निर्मित की सामग्री शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी एवं बोधगम्य नहीं बना सकती।

प्रो. श्रीकृष्ण दुबे ने कहा है कि “शिक्षण अधिगम सामग्री के निर्माण पर ही उसकी सफलता एवं असफलता निर्भर करती है। अत: निर्माण से पूर्व उन समस्त तथ्यों पर विचार करना आवश्यक है जो कि इसको सर्वोत्तम, उद्देश्यपूर्ण एवं श्रेष्ठ सामग्री के रूप में विकसित करते हैं।”

इसलिये शिक्षण अधिगम सामग्री के निर्माण से पूर्व निम्नलिखित सावधानियों को ध्यान में रखना चाहिये-

1. उद्देश्य की पूर्ति (Completion of aims) – शिक्षण अधिगम सामग्री का निर्माण करने से पूर्व यह निश्चित कर लेना चाहिये कि जिस उद्देश्य की पूर्ति हेतु हम सामग्री का निर्माण कर रहे हैं वह उस उद्देश्य की पूर्ति करने में कितनी सक्षम है? जैसे-गिनती एवं पहाड़ों को सिखाने में चार्ट एवं शब्दों में लिखित गिनती चार्ट दोनों में किसका प्रयोग करना उचित एवं सार्थक होगा ?

2. आकार (Size) – शिक्षण अधिगम सामग्री का निर्माण करने से पूर्व उसके आकार का सुनिश्चित कर लेना चाहिये। यह कक्षा-कक्ष के आकार एवं छात्र संख्या पर निर्भर करता है। यदि छात्र संख्या एवं कक्षा-कक्ष का आकार ज्ञात नहीं है तो भी शिक्षण अधिगम सामग्री का आकार सामान्य या सामान्य से अधिक रखा जाय क्योंकि उसका सामान्य कक्षा एवं बड़ी कक्षा दोनों में ही प्रयोग किया जा सकता है।

3. लागत (Cost) – शिक्षण अधिगम सामग्री के निर्माण में लागत से सम्बन्धित पक्ष पर विचार करना आवश्यक है। अधिक लागत वाली शिक्षण सामग्री के स्थान पर कम लागत वाली शिक्षण सामग्री का ही निर्माण उपयुक्त माना जाता है। निर्माण प्रक्रिया में उत्पादन लागत कम से कम आये। इस तथ्य पर विचार करना चाहिये तथा आवश्यक सावधानी बरतनी चाहिये।

4. प्रमुख बिन्दुओं का प्रदर्शन (Presentation of main points) – शिक्षण अधिगम सामग्री के निर्माण में प्रमुख बिन्दुओं का प्रदर्शन आवश्यक है क्योंकि ये बिन्दु ही उस सामग्री के महत्त्व एवं उपयोगिता में वृद्धि करते हैं। इनके द्वारा ही शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाया जा सकता है। अतः जिन प्रमुख बिन्दुओं का छात्रों को ज्ञान कराना है उनका प्रदर्शन सामग्री में अनिवार्य रूप से होना चाहिये।

5. रुचि (Interest) – शिक्षण अधिगम सामग्री के निर्माण के समय ध्यान रखा जाय कि निर्मित सामग्री छात्रों के लिये रुचिपूर्ण हो। इसके लिये छात्रों की कक्षा के स्तर को विशेष रूप से ध्यान में रखना चाहिये। यदि कक्षा का स्तर उच्च है तो सामग्री का स्वरूप उच्चस्तरीय होना चाहिये। यदि कक्षा का स्तर निम्न है तो खेल विधि में प्रयोग की जाने वाली सामग्री का निर्माण करना चाहिये।

6. आकर्षक (Attractive) – शिक्षण अधिगम सामग्री का निर्माण करते समय यह ध्यान रखा जाय कि यह पूर्णत: आकर्षक होनी चाहिये क्योंकि शिक्षण अधिगम सामग्री का यह प्रथम विशेषता है कि वह छात्रों का ध्यान विषयवस्तु की ओर आकर्षित करने वाली होनी चाहिये । अतः सामग्री को आकर्षणयुक्त बनाने का प्रयत्न करना चाहिये।

7. प्रभावशीलता (Effectiveness) – शिक्षण अधिगम सामग्री का निर्माण करते समय यह ध्यान देना चाहिये कि सामग्री पूर्णत: प्रभाव उत्पन्न करने वाली हो। शिक्षण अधिगम सामग्री द्वारा प्रभावोत्पादकता उत्पन्न की जानी चाहिये अर्थात् शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने वाली होनी चाहिये।

8. सृजनात्मकता (Creativity) – शिक्षण अधिगम सामग्री का निर्माण करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि उसके प्रयोग से छात्रों में सृजनात्मक शक्ति का विकास हो। उदाहरणार्थ, छात्रों के समक्ष प्रस्तुत शिक्षण अधिगम सामग्री के रूप में चार्ट एवं पोस्टर प्रदर्शित किये जाते हैं। इन चार्टों एवं पोस्टरों के निर्माण की प्रक्रिया सरल होनी चाहिये जिससे कि छात्र इसके आधार पर छोटा चार्ट एवं चित्र निर्माण के बारे में प्रयत्नशील हो। अर्थात छात्रों में सृजनशीलता का विकास करने वाली शिक्षण अधिगम सामग्री का निर्माण करना चाहिये।

9. रंगों का प्रयोग (Use of colours) – शिक्षण अभिगम सामग्री में शान्त एवं आँखों को प्रिय लगने वाले रंगों का प्रयोग करना चाहिये। रंगों का प्रयोग प्रस्तुत विषयवस्तु के अनुरूप होना चाहिये, जिससे कि चित्रों में सजीवता का समावेश हो। रंगों का प्रयोग अनावश्यक रूप से नहीं करना चाहिये। रेखाचित्र एवं ग्राफ पेपर पर काली पेन्सिल का ही प्रयोग करना चाहिये। रंगों के अधिक प्रयोग से भी शिक्षण अधिगम सामग्री शैक्षिक उद्देश्य को पूर्ण नहीं करती। अत: रंगों का प्रयोग विचार एवं विवेक के आधार पर निश्चित करना चाहिये।

10. वास्तविकता (Reality) – शिक्षण अधिगम सामग्री का निर्माण करते समय यह ध्यान रखा जाये कि वह विषयवस्तु के वास्तविक स्वरूप को प्रस्तुत करे। उदाहरण के लिये यदि चार्ट पर आम के वृक्ष के चित्र का प्रदर्शन किया जा रहा है तो वह आम का वृक्ष ही प्रतीत होना चाहिये न कि अशोक का वृक्ष क्योंकि आम एवं अशोक के वृक्ष की पत्तियों में समानता पायी जाती है। अतः निर्मित शिक्षण अधिगम सामग्री वास्तविकता के समीप होनी चाहिये।

11. स्पष्टता (Clarity) – शिक्षण अधिगम सामग्री के निर्माण में प्रत्येक तथ्य स्पष्ट रूप से अंकित होना चाहिये जिससे कि प्रयोग के समय भ्रमपूर्ण स्थिति उत्पन्न न हो। अस्पष्ट शिक्षण अधिगम सामग्री से शिक्षण की व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसलिये स्पष्टता का ध्यान प्रत्येक अवस्था में रखना चाहिये।

12. प्राकृतिक वस्तुओं का प्रयोग (Use of natural things) – शिक्षण अधिगम सामग्री के निर्माण में प्राकृतिक वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिये, जिससे कि वास्तविकता एवं सजीवता की स्थिति उत्पन्न हो; जैसे-कक्षा में विभिन्न प्रकार की पत्तियों के बारे में छात्रों को ज्ञान प्रदान करना है तो इसके लिये सभी की पत्तियों को एक चार्ट पर एकत्रित करके ले जाया जा सकता है क्योंकि रंगों द्वारा पत्तियों के निर्माण में धन एवं समय अधिक व्यय होगा। इसलिये प्राकृतिक वस्तुओं का प्रयोग इस स्थिति में उचित माना जा सकता है।

13. अनुपयोगी पदार्थों का प्रयोग (Use of waste material) – शिक्षण अधिगम सामग्री के निर्माण में यह ध्यान रखना चाहिये कि अनुपयोगी तथा निरर्थक सामग्री का प्रयोग करके उपयोगी सामग्री तैयार की जाय; जैसे-वृत्त, त्रिभुज एवं आयत आदि को प्रदर्शित करने के लिये व्यर्थ पड़े हुए गत्ते के टुकड़ों को उक्त आकृति के आकार में काटकर शिक्षण में प्रयोग करना। इसी प्रकार अन्य शिक्षण सामग्री के निर्माण में भी अनुपयोगी वस्तुओं का प्रयोग किया जाय।

14. स्पष्ट लेखन (Clear writing) – शिक्षण अधिगम सामग्री के निर्माण में लिखित सामग्री के लिये प्रत्येक अक्षर को स्पष्ट रूप से बनाना चाहिये, जिससे कि छात्रों द्वारा उसके वास्तविक अर्थ का ज्ञान किया जाय; जैसे-पौधे के भागों का वर्गीकरण एवं सद्विचार से सम्बन्धित चार्ट आदि।

15. छात्रों का स्तर (Level of students) – शिक्षण अधिगम सामग्री के निर्माण में छात्रों के मानसिक स्तर का आवश्यक रूप से ध्यान रखना चाहिये क्योंकि छात्रों के मानसिक स्तर से उच्च स्तर की तथा निम्न स्तर की शिक्षण अधिगम सामग्री के द्वारा शिक्षण अधिगम प्रक्रिया प्रभावशाली एवं सकारात्मक नहीं होती, जो शिक्षण अधिगम सामग्री विषयवस्तु के स्पष्टीकरण में उचित भूमिका का निर्वाह नहीं करती है वह उत्तम शिक्षण सामग्री नहीं मानी जाती।

16. बहुउद्देशीय स्वरूप (Multipurpose form) – शिक्षण अधिगम सामग्री का निर्माण करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि उसके द्वारा विषयवस्तु के स्पष्टीकरण के साथ-साथ और दूसरे भी उद्देश्य पूर्ण होने चाहिये; जैसे-हमारे परिवेश में विभिन्न प्रकार के पौधों का चित्र एक चार्ट पर बनाया। इस चित्र में हमारा उद्देश्य हमारे परिवेश विषय को स्पष्ट करना नहीं होना चाहिये वरन् रंगों का चुनाव, कला एवं सृजनात्मक प्रवृत्ति का विकास छात्रों में करना भी होना चाहिये। अतः शिक्षण अधिगम सामग्री बहुउद्देशीय स्वरूप में होनी चाहिये।

उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षण अधिगम सामग्री के निर्माण में अनेक तथ्य ऐसे हैं, जिन पर ध्यान देना चाहिये तथा उचित एवं श्रेष्ठ सामग्री के निर्माण में पूर्णत: सावधानी बरतनी चाहिये। शिक्षण अधिगम प्रणाली का उचित निर्माण ही उसके उचित प्रयोग की सम्भावना में वृद्धि करता है। शिक्षण अधिगम सामग्री के निर्माण से पूर्व उपरोक्त बिन्दुओं पर विचार करना आवश्यक है।

शिक्षण अधिगम सामग्री का रखरखाव (Maintenance of Teaching Learning Material)

शिक्षण अधिगम सामग्री के रखरखाव के लिये कुछ प्रमुख तथ्यों को ध्यान में रखना आवश्यक है क्योंकि सामग्री के निर्माण के पश्चात् उसका प्रयोग लम्बे समय तक होना चाहिये। दूसरे शब्दों में शिक्षण अधिगम सामग्री को अधिक समय तक सुरक्षित एवं प्रयोग के लिये उपयुक्त रूप में रखना एक प्रमुख समस्या है क्योंकि प्रत्येक सत्र में शिक्षण सामग्रियों के निर्माण में धन एवं समय का अपव्यय होता है।

अतः इन सामग्रियों को दीर्घ समय तक सुरक्षित कैसे रखा जा सकता है? इसके लिये प्रस्तुत प्रमुख सुझाव एवं सावधानियाँ निम्नलिखित हैं-

1. अच्छी वस्तुओं का प्रयोग (Use of best things) – शिक्षण अधिगम सामग्री के निर्माण में गुणवत्तापूर्ण वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिये, जिससे कि सामग्री लम्बे समय तक सुरक्षित रहे; जैसे-रंग, चार्ट, पेपर एवं अन्य आवश्यक वस्तुएँ आदि। अच्छी वस्तुओं से निर्मित सामग्री को अधिक समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। इसके विपरीत निम्न स्तर की वस्तुओं से तैयार शिक्षण सामग्री को कम समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। अतः शिक्षण अधिगम सामग्री के उचित रखरखाव के लिये उसके निर्माण में प्रयुक्त सामग्री का गुणवत्तापूर्ण होना आवश्यक है।

2. उचित स्थान (Proper place) – शिक्षण अधिगम सामग्री को उचित स्थान पर रखना चाहिये जहाँ कि सीलन और दीमक से बचाव हो सके क्योंकि सीलन एवं दीमक वाले स्थान पर शिक्षण अधिगम सामग्री पूरे सत्र भर नहीं चल सकती। ऐसे स्थान पर सामग्री एक-दो माह में नष्ट हो जाती है। अत: स्थान स्वच्छ एवं सूखा होना चाहिये।

3. कीड़ों से बचाव (Protection from insects) – चार्ट, प्रतिरूप, चित्र एवं पोस्टर आदि को झींगुर, चीपा तथा अन्य कीड़ों से बचाना चाहिये क्योंकि ये कीड़े बॉक्स में प्रवेश करके शिक्षण अधिगम सामग्री को हानि पहुँचा सकते हैं। दीमक एवं कीड़ों के लिये एलड्रिन नामक दवा का प्रयोग करना चाहिये। इस प्रकार कीड़ों से बचाव करके इस सामग्री को अधिक समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है।

4. सफाई (Cleanliness) – जिस स्थान पर शिक्षण अधिगम सामग्री रखी हुई है, उस स्थान की एक माह में एक बार सफाई बहुत आवश्यक है क्योंकि गन्दगी से विभिन्न प्रकार के कीड़ों का जन्म होता है। अतः शिक्षण अधिगम सामग्री के संरक्षण के लिये निश्चित समय के बाद सफाई होना आवश्यक है।

5. पृथक् कक्ष (Separate room) – शिक्षण अधिगम सामग्री के संरक्षण हेतु यह आवश्यक है कि सामग्री के लिये पृथक् कक्ष होना चाहिये तथा उस कक्ष का निर्माण इस कार्य को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये। उस कक्ष में पोस्ट, चार्ट एवं मॉडलों के रखने की उचित व्यवस्था होनी चाहिये। उसमें उचित प्रकाश की व्यवस्था भी हो, जिससे सीलन की अवस्था उत्पन्न न हो और कक्ष का वातावरण सूखा रहे। उसमें फिनाइल तथा अन्य कीटाणुनाशक दवाओं का छिड़काव कर दिया जाये, जिससे शिक्षण अधिगम सामग्री को हानि पहुँचाने वाले कीड़े नष्ट हो जायें।

6. मरम्मत (Repair) – शिक्षण अधिगम सामग्री की समय-समय पर मरम्मत का कार्य करते रहना चाहिये; जैसे-कोई चार्ट किसी कोने से थोड़ा-सा फट जाता है तो उसको टेप लगाकर ठीक किया जा सकता है। इसी प्रकार अनेक प्रकार की छोटी-छोटी कमियों को समय-समय पर सुधार कर ठीक कर लेना चाहिये जिससे कि प्रयोग के समय असुविधा न हो।

7. आच्छादन (Covering) – शिक्षण अधिगम सामग्री को उचित प्रकार से आच्छादित (ढँककर) रखना चाहिये जिससे कि उसे धूल, पानी एवं कीड़ों से बचाया जा सके। जैसे- चार्ट एवं मॉडलों को प्लास्टिक से आच्छादित कर देना चाहिये तथा प्रयोग के समय निकाल लेना चाहिये। इस प्रक्रिया से लम्बे समय तक शिक्षण अधिगम सामग्री को सुरक्षित रखा जा सकता

8. प्रयोग में सावधानी (Precaution in use) – शिक्षण अधिगम सामग्री का प्रयोगकरते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि सामग्री को कोई हानि न पहुँचे। छोटे स्तर के छात्रों की पहुँच से भी इसे दूर रखना चाहिये क्योंकि कौतूहलवश इसे देखने पर कोई हानि पहुँच सकती है। प्रयोग करने के तुरन्त बाद इसको सुनिश्चित स्थान पर रख देना चाहिये। इस प्रकार शिक्षण अधिगम सामग्री को दीर्घ समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है।

उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षण अधिगम सामग्री के रखरखाव में पूर्णत: सावधानी बरतनी चाहिये। प्रत्येक शिक्षक को इसके रखरखाव से सम्बन्धित तथ्यों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिये। इस सन्दर्भ में श्रीमती आर. के. शर्मा लिखती हैं कि “शिक्षण अधिगम सामग्री के दीर्घकालीन प्रयोग के लिये उसके संरक्षण सम्बन्धी तथ्यों का ज्ञान प्रत्येक शिक्षक के लिये परमावश्यक है क्योंकि उचित संरक्षण एवं रखरखाव के अभाव में यह सामग्री पूर्ण सत्र के लिये भी उचित अवस्था में उपलब्ध नहीं रह सकती।” अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षण अधिगम सामग्री के रखरखाव एवं संरक्षण में सावधानी रखना भारतीय विद्यालयों की दशा को देखते हुए परमावश्यक है।

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