बाल विकास के अध्ययन की उपादेयता एवं महत्व (Utility and Importance of Child Development Study)
बाल विकास के अध्ययन की उपयोगिता पूर्व प्राथमिक शिक्षक के लिये अनिवार्य रूप से मानी जाती है। बालकों की विकास सम्बन्धी प्रक्रिया का ज्ञान शिक्षक को इसलिये भी आवश्यक है कि वह छात्रों के चहुँमुखी विकास के लिये उत्तरदायी माना जाता है।
विद्यालय में उसके शैक्षिक विकास में आने वाली बाधाओं को दूर करने का कार्य शिक्षक का ही होता है। यदि कोई शिक्षक बाल विकास की प्रक्रिया एवं अवस्थाओं के बारे में नहीं जानता तो वह बालकों के चहुँमुखी विकास में अपना प्रभावशाली योगदान नहीं दे सकता। अत: प्रभावशाली शिक्षण के लिये शिक्षक को बाल विकास का ज्ञान होना आवश्यक है।
बाल विकास की अन्य उपयोगिताओं एवं महत्त्व को निम्नलिखित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है-
1. बालकों के उचित शारीरिक विकास में उपयोगिता (Utility in proper physical development of children)
बालकों के शारीरिक विकास की प्रक्रिया में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है; जैसे-कोई बालक अपनी आयु वर्ग के अनुसार शारीरिक विकास को प्राप्त नहीं कर रहा है तो बाल विकास का ज्ञान रखने वाला शिक्षक उसको पहचान लेगा। उसके अपूर्ण शारीरिक विकास के कारणों का पता लगाकर उसका समाधान प्रस्तुत करेगा। इस प्रकार बाल विकास के अध्ययन का उपयोग बालकों के उचित शारीरिक विकास में किया जा सकता है।
2. बालकों के मानसिक विकास में उपयोगिता (Utility in mental development of children)
बालकों के मानसिक विकास को सन्तुलित बनाने में बाल विकास के अध्ययन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। बाल विकास का ज्ञान रखने वाला शिक्षक यह जानता है कि अमुक बालक का मानसिक विकास उचित गति से नहीं हो रहा है। इसके लिये वह इस बालक की विभिन्न गतिविधियों का अवलोकन करेगा तथा आवश्यक सुझाव प्रस्तुत करके उसके मानसिक विकास को सन्तुलित बनाने का प्रयास करेगा।
3. बालकों के संवेगात्मक विकास में उपयोगिता (Utility in emotional development of children)
बालकों के संवेगात्मक विकास में भी बाल विकास के अध्ययन की उत्तरदायी भूमिका रहती है। बालकों में उत्तेजना, प्रेम, भय, परेशानी एवं प्रसन्नता आदि संवेग पाये जाते हैं। एक कुशल शिक्षक बालकों में प्रायः इन संवेगों की स्थिति का निरीक्षण करता हैं। संवेगों की स्थिति आयु वर्ग के अनुकल विकसित हो रही है तो उचित है। यदि संवेगात्मक विकास न्यून है तो वह उसके सुधार की व्यवस्था करता है। अतः शिक्षक को संवेगों के सन्तुलित विकास की प्रक्रिया का भी ज्ञान अवश्य होना चाहिये।
4. बालकों के सामाजिक विकास में उपयोगिता (Utility in social development of children)
बालक घर से निकलकर जब विद्यालय परिवेश में प्रवेश करता है तो उसके सामाजिक विकास की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। सामाजिक विकास की प्रक्रिया में शिक्षक का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। शिक्षक द्वारा सन्तुलित सामाजिक विकास से रहित बालकों का पता लगाया जाता है तथा उनका उचित मार्ग-दर्शन करते हुए उन कारणों को समाप्त किया जाता है। जिन कारणों से बालक का सामाजिक विकास अवरुद्ध हो रहा हो। इस प्रकार का कार्य एक शिक्षक उसी अवस्था में कर सकता है, जबकि उसको बाल विकास की प्रक्रिया का पूर्ण ज्ञान हो।
5. सृजनात्मकताकाविकास (Development of creativity)
बाल विकास के ज्ञान से सम्पन्न शिक्षक बालकों में सृजनात्मकता का विकास करने की योग्यता रखता है। बाल विकास का ज्ञान रखने वाले शिक्षक को यह ज्ञात होता है कि किस आयु वर्ग के बालक की सुजनात्मक गतिविधियाँ किस प्रकार की होनी चाहिये? यदि उसकी गतिविधियाँ निम्न स्तर की है तो वह उसमें आवश्यक सुधार करके सन्तुलित बनाने का प्रयास करता है। इस प्रकार वह सृजनात्मकता के सन्तुलित विकास में योगदान देता है।
6. प्रभावी शिक्षण का विकास (Development of effective reaching)
बाल विकास का ज्ञान रखने वाला ही शिक्षक अपने कक्षा के बालकों का मानसिक स्तर सरलता से ज्ञात कर सकता है। बालकों के मानसिक स्तर के आधार पर ही वह शिक्षण विधियों एवं शिक्षण अधिगम सामग्री का प्रयोग करता है। इस प्रकार वह प्रभावी शिक्षण प्रदान करके अपने दायित्व का पूर्ण निर्वाह करता है। यदि शिक्षक को बाल विकास की प्रक्रिया का ज्ञान नहीं होगा तो वह छात्रों के लिये प्रभावी शिक्षण उपलब्ध कराने में असमर्थ होगा।
7. उच्च अधिगम स्तर (High learning level)
बाल विकास की प्रक्रिया का अध्ययन बालकों के अधिगम स्तर में तीव्रता लाने का प्रयास करता है। शिक्षक बालकों के मानसिक विकास का मापन करके उनके अनुरूप ही पाठ्य-वस्तु को प्रस्तुत करता है तथा उनके मानसिक स्तर के अनुसार ही शिक्षण विधियों का प्रयोग करता है, जिससे कि शिक्षण अधिगम प्रक्रिया बालकों के अनुरूप हो। अत: उच्च अधिगम स्तर की व्यवस्था सम्भव होती है।
8. भाषायी विकास (Language development)
पूर्वप्राथमिक स्तर पर बालक भाषायी विकास की स्थिति में होता है। इस अवस्था में विद्यालय में उसके अनुकूल वातावरण होना परमावश्यक है अर्थात शिक्षक को बाल विकास की प्रक्रिया का ज्ञान अवश्य होना चाहिये, जिससे वह बालक के भाषायी विकास में आने वाली बाधाओं को दूर कर सके। बाल विकास की प्रक्रिया का ज्ञान रखने वाला शिक्षक ही इस तथ्य को भली प्रकार से जानता है कि इस स्तर पर भाषायी विकास की गति किस प्रकार की होनी चाहिये? इसलिये वह सन्तुलित भाषायी विकास का सम्पूर्ण प्रयत्न करता है तथा बालक को उचित मार्ग-दर्शन देता है।
9. सामान्य नियमों का ज्ञान (Knowledge of general rules)
पूर्व प्राथमिक स्तर पर बालक सामान्य नियमों के बारे में सीखने लगता है तथा वह विद्यालय में खेल तथा अन्य विद्यालय सम्बन्धी नियमों को भी सीखता है। अत: इस स्तर पर वह किन-किन नियमों को सीख सकता है तथा उसके सीखने का स्तर क्या होना चाहिये? इसका निर्धारण एक शिक्षक हो कर सकता है। इसके लिये उसको बाल विकास की प्रक्रिया का ज्ञान होना चाहिये। इस प्रकार बाल विकास की प्रक्रिया का ज्ञान बालकों को सामान्य नियम सिखाने में अत्यन्त उपयोगी है।
10. मूल्यों का विकास (Development of values)
इसी अवस्था में बालक में सामान्य मूल्यों का विकास होने लगता है, जिसके परिणामस्वरूप वह आज्ञापालन, प्रेम एवं सहयोग आदि मूल्यों को ग्रहण करता है। बाल विकास की प्रक्रिया से युक्त शिक्षक इस तथ्य को भली प्रकार से जानता है। इसलिये बालकों के मूल्य विकास में उनका सहयोग करता है तथा मूल्य विकास में आने वाली बाधाओं को दूर करने का प्रयास करता है। इस प्रकार शिक्षक मूल्य विकास में बालकों का पूर्ण सहयोग करता है क्योंकि वह बाल विकास की प्रक्रिया का ज्ञान रखता है।
के समस्त कर्मचारियों को बाल विकास की प्रक्रिया का ज्ञान अनिवार्य रूप से होना चाहिये, जिससे कि उनका विकास अवरुद्ध न हो सके।