बालक का सामाजिक विकास
(Social Development of Child)
शिशु का व्यक्तित्व सामाजिक पर्यावरण में विकसित होता है। वंशानुक्रम से जो योग्यताएँ उसे प्राप्त होती हैं, उनको जाग्रत करके सही दिशा देना समाज का ही कार्य है।
इस प्रकार एलेक्जेण्डर ने लिखा है-“व्यक्तित्व का निर्माण शून्य में नहीं होता, सामाजिक घटनाएँ तथा प्रक्रियाएँ बालक की मानसिक प्रक्रियाओं तथा व्यक्तित्व के प्रतिमानों को अनवरत रूप से प्रभावित करती रही हैं।“
- सामाजिक विकास का अर्थ
- शैशवावस्था में सामाजिक विकास
- बाल्यावस्था में सामाजिक विकास
- किशोरावस्था में सामाजिक विकास
- सामाजिक विकास में विद्यालय का योगदान
- सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक
सामाजिक विकास का अर्थ
(Meaning of Social Development)
जन्म के समय बालक इतना असहाय होता है कि वह समाज के सहयोग के बिना मानव प्राणी के रूप में विकसित नहीं हो सकता। अतः शिशु का पालन-पोषण प्रत्येक समाज अपनी विशेषताओं को विभिन्न कार्यों में प्रकट करता है। इसे बालक का सामाजिक विकास कहते हैं।
सामाजिक विकास के सन्दर्भ में विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों के विचार प्रस्तुत कर रहे हैं-
सोरेन्सन (Sorenson) के अनुसार-
“सामाजिक वृद्धि एवं विकाप से हमारा तात्पर्य अपने साथ और दूसरों के साथ भली-भाँति चलने की बढ़ती हुई योग्यता है।” (By social growth and development we mean the reasing ability to get along well with oneself and others.)
फ्रीमेन तथा शावल (Freeman and Showel) के शब्दों में-
“सामाजिक विकास सीखने की वह प्रक्रिया है, जो समूह के स्तर, परम्पराओं तथा रीति-रिवाजों के अनुकूल अपने आपको ढालने तथा एकता, मेलजोल और पारस्परिक सहयोग की भावना के विकास में सहायक होती है।” (Social development is the process of learning to confirm to group standard, morels and traditions and becoming unbued with a sense of oneness, Intercommunication and co-operation.)
अत: मानव जाति के विकास के लिये सामाजिक आदशों तथा प्रतिमानों को धारण करने से ही बालक का सामाजिक विकास होता है। यह क्रम जीवन भर चलता रहता है। इसीलिये उसे सामाजिक प्राणी कहा जाता है।
शैशवावस्था में सामाजिक विकास
(Social Development in Infancy)
मनोवैज्ञानिकों द्वारा किये गये अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि जन्म के समय शिशु बड़ा ही आत्मकेन्द्रित होता है। जैसे-जैसे वह सामाजिक परिवेश में सम्पर्क में आता है उसका आत्म-केन्द्रित व्यवहार समाप्त होता जाता है।
जैसा कि क्रो एवं क्रो ने लिखा है- “जन्म के समय शिशु न तो सामाजिक प्राणी होता है और न असामाजिक, पर वह इस स्थिति में अधिकसमय तक नहीं रहता है।“
अतः हम यहाँ पर श्रीमती हरलॉक के आधार पर शिशु के सामाजिक विकास को प्रस्तुत करते हैं-
क्रम सं. | आयु-माह | सामाजिक व्यवहार का रूप |
---|---|---|
1. | प्रथम माह | ध्वनियों में अन्तर समझना। |
2. | द्वितीय माह | मानव ध्वनि पहचानना, मुस्कराकर स्वागत करना। |
3. | तृतीय माह | माता के लिये प्रसन्नता एवं माता के अभाव में दुख। |
4. | चतुर्थ माह | परिवार के सदस्यों को पहचानना। |
5. | पंचम् माह | प्रसन्नता एवं क्रोध में प्रतिक्रिया व्यक्त करना। |
6. | षष्ठम् माह | परिचितों से प्यार एवं अन्य लोगों से भयभीत होना। |
7. | सप्तम् माह | अनुकरण के द्वारा हावभाव को सीखना। |
8. | अष्ठम नवम् माह | हावभाव के द्वारा विभिन्न संवेगों (प्रसन्नता, क्रोध तथा भय) का प्रदर्शन करना। |
9. | नवम् माह | हावभाव के द्वारा विभिन्न संवेगों (प्रसन्नता, क्रोध तथा भय) का प्रदर्शन करना। |
10. | दशम् माह | प्रतिछाया के साथ खेलना, नकारात्मक विकास। |
11. | ग्यारहवें माह | प्रतिछाया के साथ खेलना, नकारात्मक विकास। |
12. | दूसरे वर्ष की अवधि में | बड़ों के कार्यों में मदद देना, सहयोग सहानुभूति का प्रकाशन। |
तृतीय वर्ष तक बालक आत्म-केन्द्रित रहता है। वह अपने लिये ही कार्य करता है, अन्य किसी के लिये नहीं। जब वह विद्यालय में दो या अधिक बालकों के साथ होता है तो उसमें ‘सामाजिकता के भाव‘ का विकास होता है। इस प्रकार से वह चतुर्थ वर्ष के समाप्त होने तक ‘बहिर्मुखी व्यक्तित्व‘ को धारण करना प्रारम्भ कर देता है।
शैशवावस्था के अन्तिम वर्षों में शिशु का व्यवहार परिवार से बाह्य परिवेश की ओर प्रस्तुत होता है। जैसा कि श्रीमती हरलॉक ने लिखा है- “शिशु दूसरे बच्चों के सामूहिक जीवन से समायोजन स्थापित करना, उनसे वस्तु विनिमय करना और खेल के साथियों को अपनी वस्तुओं में साझीदार बनाना सीख जाता है। वह जिस समूह का सदस्य होता है, उसके द्वारा स्वीकृत या प्रचलित प्रतिमान के अनुसार स्वयं को बनाने की चेष्टा करता है।“
बाल्यावस्था में सामाजिक विकास
(Social Development in Childhood)
शिशु का संसार उसका परिवार होता है, जबकि बालक का संसार परिवार के बाहर बालको का झुण्ड और विद्यालय आदि। अत: इसका क्षेत्र काफी बढ़ जाता है। बालक विभिन्न प्रकार के ज्ञान अर्जन द्वारा सामाजिकता का विकास करता है।
अतः हम बाल्यावस्था में होने वाले सामाजिक विकास को निम्न प्रकार से प्रस्तुत करते हैं-
1. सामाजिक भावना (Social feeling)
इस अवस्था के बालक एवं बालिकाओं में सामाजिक जागरूकता, चेतना एवं समाज के प्रति रुझान विशेष मात्रा में पाया जाता है। उनका सामाजिक क्षेत्र व्यापक एवं विकसित होने लगता है। वह विद्यालय के पर्यावरण से अनुकूलन करना. नये मित्र बनाना और सामाजिक कार्यों में भाग लेना आदि सीखते हैं।
2. आत्म-निर्भरता (Self dependency)
बाल्यावस्था में बच्चे स्वयं को स्वतन्त्र मानकर आत्म-सम्मान प्राप्त करते हैं। वे स्वयं को आत्म-निर्भर बनाने का प्रयास करते हैं। वे परिवार को छोड़कर बच्चों के साथ समय बिताते हैं। क्रियाएँ करते हैं और निर्णय भी लेते हैं।
वास्तविकता तो यह है कि वे अपनी आयु वर्ग के साथ प्रसन्न रहते हैं, न छोटों के साथ खेलते हैं और न बड़ों के क्रियाकलापों में रुचि रखते हैं।
3. समूह प्रवृत्ति (Group tendency)
इस अवस्था के बालक इतने क्रियाशील एवं सक्रिय होते हैं कि वे अपनी अवस्था के बालकों का समूह बना लेते हैं। आज खेल समूह, सेवा समूह एवं सांस्कृतिक समूह आदि प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। बालक अपने समूह के नियमों, मान्यताओं आदि को पसन्द करते हैं और अन्य समूह के समक्ष अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करते हैं। वे ऐसे कार्य करते हैं, जिनसे उनका समूह उन्हें विशिष्ट सदस्य का महत्त्व दे।
4. नागरिक गुणों का विकास (Development of civilization features)
बाल्यावस्था में बालकों में आदतों, चारित्रिक गुणों एवं नागरिक गुणों आदि का विकास होता है। वे अपने माता-पिता, अध्यापक या विशिष्ट प्रभाव के व्यक्तित्वों के प्रति आकर्षित होते हैं और उनकी विशेषताओं को सीखते हैं। वे स्वयं को सुखी, धनवान, विद्वान्, नेता एवं सामाजिक प्रतिष्ठा आदि के रूप में देखना चाहते हैं। अत: बाल्यावस्था ही नागरिक गुणों के विकास एवं स्थायित्व की सही अवस्था है।
5. वैयक्तिकता का विकास (Development of individuality)
बाल्यावस्था में पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व स्वभावों का अलग-अलग विकास होना प्रारम्भ हो जाता है, बालक अधिकांश समय बालकों के साथ व्यतीत करते हैं और बालिकाएँ बालिका समूह के साथ। इस अवस्था में दोनों में यौन भिन्नता के साथ वैयक्तिक अन्तर स्थापित होने लगता है। उनकी आदतों, रुचियों, मनोवृत्ति और रहन-सहन आदि में पर्याप्त भिन्नता स्पष्ट होने लगती है।
6. भावना ग्रन्थि का विकास (Development of feeling complex)
इस अवस्था में लड़कों में ‘आडिपस‘ और लड़कियों में ‘एलकटा‘ भावना ग्रन्थि का विकास होने लगता है। ‘आडिपस ग्रन्थि‘ के कारण पुत्र अपनी माता को अधिक प्यार करने लगता है और ‘एलकटा ग्रन्थि‘ के कारण लड़की अपने पिता को अधिक चाहने लगती है।
यह प्रकृति का नियम है कि विषमलिंगी प्यार बाल्यावस्था से प्रारम्भ होकर युवावस्था में (शादी होने पर) समाप्त हो जाता है। यही कारण है कि लड़के एवं लड़कियाँ अपनी रुचियों एवं कार्यों में अपनी-अपनी भावना ग्रन्थियों का प्रदर्शन करते हैं। इस प्रकार से उनको आत्मिक सुख एवं सन्तोष मिलता है। इसी आधार पर वे अपने भविष्य को निश्चित करते हैं।
किशोरावस्था में सामाजिक विकास
(Social Development in Adolescence)
किशोरावस्था मानवीय जीवन की जटिल अवस्था होती है। अत: सामाजिक विकास पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। किशोर एवं किशोरी, व्यक्ति-व्यक्ति के लिये, व्यक्ति समूह के लिये और समूह अन्य समूहों के लिये होने वाली अन्त:क्रियाओं के माध्यम से सामाजिक सम्बन्धों का विकास करते हैं।
किशोरावस्था के इस सामाजिक विकास को निम्नलिखित प्रकार से प्रस्तुत करते हैं-
1. आत्म-प्रेम (Auto eroticism)
इस अवस्था में लड़के एवं लड़कियाँ स्वयं से अधिक प्रेम स्थापित करने लगते हैं। वे स्वयं को आकर्षक बनाने, सजाने, सँवारने में अधिक समय व्यतीत करते हैं। इसका मुख्य कारण विषम लिंगीय आकर्षण होता है।
विद्यालय स्तर पर किये गये अध्ययनों से प्रकट होता है कि किशोरियाँ इस बात में रुचि रखती हैं कि कौन-सा किशोर उसको देखकर क्या सोचता है? और किशोर तो किशोरियों के बारे में बातचीत करते ही रहते हैं। अत: आत्म-प्रेम का भाव अचेतन अवस्था की लिंगीय चेतनता ही है।
2. समलिंगीयसमूह (Homo-sexual group)
इस अवस्था में किशोर एवं किशोरियों को अपनी लिंगीय बनावट का पूर्ण अनुभव होने लगता है। वे समान लिंग के प्रति रुचि जाग्रत करने लगते हैं। वे अपने आयु समूह के सक्रिय एवं प्रतिष्ठित सदस्य बन जाते हैं। वे अपने अन्दर अवस्था एवं त्याग को आवश्यक गुण के रूप में स्थापित करते हैं।
जब कभी उनकी अवस्था एवं त्याग को ठेस लगती है तो वे समाज के साथ असामान्य व्यवहार प्रकट करने लगते हैं और उनमें आन्तरिक संघर्ष उत्पन्न हो जाता है।
3. सामाजिक भावना का उदय (Development of social feeling)
इस अवस्था में समूह भावना, आस्था और त्याग का व्यापक रूप सामाजिक चेतना के रूप में देखने को मिलता है। किशोर एवं किशोरी के क्रिया-कलाप विद्यालय, समुदाय, राज्य और राष्ट्र एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक विकसित होने लगते हैं।
वे स्वयं की सीमाओं से निकलकर मानवीय दायरे में प्रवेश करते हैं ताकि समाज का अधिक से अधिक भला कर सकें इसीलिये इतिहास के अनुसार, देश पर प्राण न्यौछावर करने वाले वीर किशोर एवं किशोरी ही अधिक थे।
4. भिन्नता में स्थायित्व (Stability in differentiation)
इस अवस्था में मानवीय सम्बन्ध स्थिरता की ओर प्रस्थान करते हैं। अस्थिरता एवं शारीरिक आवेग एवं तनाव की स्थिति से किशोर एवं किशोरी निकल कर मित्रता को स्थायी बनाते हैं। आगे चलकर यही मित्रता आत्मीय सम्बन्धों में बदल जाती है।
इस प्रकार से किशोर एवं किशोरी अपने चारों तरफ एक आत्मीय एवं सहयोगी परिवेश का निर्माण करते हैं, जो उनके भविष्य निर्माण में सहायक होता है।
5. समायोजन में अस्थिरता (Instability in adjustment)
किशोरावस्था में संवेगों की तीव्र अभिव्यमित होती है। किशोर अपनी इच्छाओं एवं आकांक्षाओं को निश्चित मापदण्डों के बिना पूर्ण करना चाहते हैं, जो समाज को अमान्य होता है।
अत: ये अपना समायोजन सही रूप से नहीं कर पाते हैं। वे अपने दमन के प्रति और स्वतन्त्रता हनन के प्रति विद्रोह करने लगते हैं। यही भावना कुछ हद तक किशोरियों में भी पायी जाती है।
6. सामाजिक पहचान (Social recognition)
किशोरावस्था का मुख्य आकर्षण ‘सामाजिक पहचान‘ को स्थापित करने के लिये किशोर एवं किशोरियों का क्रियाशील रहना है। इसके लिये वे अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिये तत्पर रहते हैं।
वे परिश्रम, लगन, परोपकारिता, स्वतन्त्रता एवं सामाजिक कार्यों में सहभागिता आदि कार्यों में प्रमुख भूमिका निर्वाह करते है। इस प्रकार से वे स्वयं की समाज में पहचान स्थापित करने में तत्परता दिखलाते हैं।
अन्त में कहा जा सकता है कि किशोर एवं किशोरियों के अन्दर सामाजिक चेतना की जाग्रति ही भावी राष्ट्रीय एकता एवं मानवीय एकता के लिये प्रारम्भिक प्रयास है।
सामाजिक विकास में विद्यालय का योगदान
(Contribution of School TowaSocial Development)
सामाजिक विकास में विद्यालय का योगदान
बालकों के सामाजिक विकास में विद्यालय का विशेष योगदान रहता है। बालक के सामाजिक विकास के दृष्टिकोण से परिवार के पश्चात् विद्यालय का ही स्थान सबसे महत्त्वपूर्ण होता है। यदि विद्यालय का वातावरण जनतन्त्रीय है, अर्थात विद्यालय के क्रियाकलापों में बालों का भी हाथ रहता है तो बालक का सामाजिक विकास अविराम गति से होता चला जाता है। यदि विद्यालय का वातावरण ऐसा नहीं है, अर्थात् विद्यालय के सिद्धान्तों के अनुसार विद्यालय का अनुशासन दण्ड और दमन पर आधारित है तो बालक का सामाजिक विकास उचित प्रकार से नहीं हो पाता।
सामाजिक विकास में शिक्षा का प्रभाव
बालक के सामाजिक विकास में शिक्षा का भी विशेष प्रभाव पड़ता है।यदि शिक्षक शान्त स्वभाव का तथा सहानुभूति रखने वाला है तो छात्र उसके अनुरूप ही व्यवहार करते हैं, परन्तु इसके विपरीत, यदि शिक्षक का मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं होता तो छात्र भी अपना मानसिक सन्तुलन नहीं रख पाते। सफल और योग्य शिक्षकों के सम्पर्क से बालकों के सामाजिक विकास पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।
सामाजिक विकास में खेलकूद का प्रभाव
विद्यालय के खेलकूद भी बालक के सामाजिक विकास में विशेष स्थान रखते हैं। बालक खेल द्वारा अपने सामाजिक व्यवहार का प्रदर्शन करता है। सामूहिक खेलों के द्वारा बालक में सामाजिक गुणों का विकास होता है। खेल के अभाव में बालक का सामाजिक विकास नहीं हो पाता।
स्किनर का कथन है- “खेल का मैदान बालक का निर्माण स्थल है। वहाँ उसे मिलने वाले सामाजिक और यान्त्रिक उपकरण उसके सामाजिक विकास को निर्धारित करने में सहायता करते हैं।“
सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक
(Factors Effective to the Social Development)
हम बता चुके हैं कि शैशवावस्था, बाल्यावस्था और किशोरावस्था में सामाजिक विकास किस प्रकार होता है? सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कुछ तत्त्व होते हैं। दूसरे शब्दों में, सामाजिक विकास कुछ कारकों पर निर्भर करता है। यहाँ हम उन तत्त्वों या कारकों का वर्णन करेंगे, जो सामाजिक विकास को प्रभावित करते हैं।
सामाजिक विकास की प्रभावित करने वाले कुछ मुख्य कारक निम्नलिखित हैं-
1. वंशानुक्रम (Heredity)
वंशानुक्रम बालक की अनेक योग्यताएँ निर्धारित करता है। सामाजिक विकास को वंशानुक्रम प्रभावित करता है, परन्तु कुछ मनोवैज्ञानिक सामाजिक विकास पर वंशानुक्रम का प्रभाव कुछ सीमा तक ही मानते हैं।
2. शारीरिक विकास (Physical development)
जिस बालक का शारीरिक विकास सन्तोषजनक होता है, उसका सामाजिक विकास भी सन्तोषजनक होता है। सोरेन्सन (Sorenson) का कथन है, “जिस प्रकार अच्छा शारीरिक और मानसिक विकास साधारणतः सामाजिक रूप से परिपक्व होने में सहायता करता है, उसी प्रकार कम शारीरिक और मानसिक विकास बालक के सामाजिक विकास की गति को धीमी कर देता है।“
3. संवेगात्मक विकास (Emotional development)
संवेगात्मक विकास भी सामाजिक विकास को प्रभावित करता है। क्रोधी व्यक्ति से सभी घृणा करते हैं। चिड़चिड़े स्वभाव के व्यक्ति को कोई पसन्द नहीं करता, परन्तु मधुर स्वभाव वाला व्यक्ति सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है। क्रो तथा क्रो (Crow and Crow) के अनुसार- “संवेगात्मक और सामाजिक विकास साथ-साथ चलते हैं।“
4. परिवार (Family)
बालक का समाजीकरण परिवार में ही आरम्भ होता है। परिवार के सदस्य जैसा व्यवहार करते हैं, बालक भी वैसे ही व्यवहार का अनुकरण करता है।
5. माता-पिता का दृष्टिकोण (Views of parents)
बालक के प्रति माता-पिता का दृष्टिकोण भी उसके सामाजिक विकासको प्रभावित करता है। जिस बालक को बहुत अधिक लाड़-प्यार मिलता है, उसका सामाजिक विकास अन्य बालकों की अपेक्षा कम होता है।
6. माता-पिता की आर्थिक स्थिति (Economic status of parents)
जो बालक धनी परिवार से सम्बन्ध रखते हैं, उनका सामाजिक विकास सन्तोषजनक ढंग से होता है। इसका कारण यह है कि उसका सम्पर्क अनेक व्यक्तियों से होता है, जो उसके सामाजिक विकास में सहायता करते हैं। निर्धन परिवार के बालकों का सामाजिक विकास मन्द गति से होता है।
7. विद्यालय का वातावरण (Environment of school)
विद्यालय का वातावरण भी सामाजिक विकास को प्रभावित करता है, यदि विद्यालय का वातावरण मधुर है तो बालक का सामाजिक विकास सन्तोषजनक ढंग से होगा। जनतन्त्रीय सिद्धान्तों पर चलने वाले विद्यालयों में बालकों का सामाजिक विकास सन्तोषजनक ढंग से होता है।
8. शिक्षक का मानसिक स्वास्थ्य (Mental health of teacher)
बालक के सामाजिक विकास पर शिक्षक के मानसिक स्वास्थ्य का भी प्रभाव पड़ता है। यदि शिक्षक अपने छात्रों से सहानुभूति रखता है तो बालकों का भी मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहता है। फलस्वरूप उसका मानसिक विकास होता रहता है। योग्य शिक्षकों की देखरेख बालकों के सामाजिक विकास को प्रभावित करती है।
9. विद्यालय के क्रियाकलाप (Activities of school)
वाद-विवाद, अन्त्याक्षरी, शैक्षिक भ्रमण और खेलकूद बालक के सामाजिक विकास को प्रभावित करते हैं। खेल के द्वारा बालक सामाजिक गुणों का विकास करता है, जो बालक खेलकूद में भाग नहीं लेते, उनका सामाजिक विकास रुक जाता है।
10. समूह (Group)
हरलॉक का कथन है, “समूह के प्रभाव के कारण बालक सामाजिक व्यवहार का ऐसा महत्त्वपूर्ण प्रशिक्षण प्राप्त करता है, जो समाज द्वारा निश्चित की गयी दशाओं में उतनी कुशलता से प्राप्त नहीं किया जा सकता।”
उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त निम्न कारण भी बालक के सामाजिक विकास को प्रभावित करते हैं-
(1) परिवार के रीति-रिवाज। (2) धार्मिक संस्थाएँ। (3) भाषा (4) सिनेमा, नाटक, रेडियो आदि। (5) समाचार-पत्र (6) राष्ट्रीय पर्व। (7) शिक्षा के अनौपचारिक साधन (8) सामाजिक प्रतियोगिताएँ।
विकासात्मक प्रक्रिया के स्तर एवं आयाम:
- शारीरिक विकास (Physical development)
- मानसिक विकास (Mental development)
- सामाजिक विकास (Social development)
- भाषा विकास (Language development)